गांव
शहरों में घर बसा कर अब तुम गांव खोजते हो
अजीब पागल हो पेड़ काट कर छाव खोजते हो
खुद ही उजाड़ा है तुमने सारी बस्तियों को यहाँ
अब इस वीराने शहर में कहां पड़ाव खोजते हो
क्या कहने है तुम्हारी इस निराली हकीमगिरी के
पूरे बदन में नासूर बना कर एक घाव खोजते हो
सौदागर तुम भी जरा छलिया किस्म के लगते हो
सारा शहर बेचके कर बाजार में भाव खोजते हो
जब काटे जा रहे थे तो तुमने बचाया नही उनको
अब जरूरत पड़ी तो चलने के लिए पाँव खोजते हो
लहरों में तैरने का हुनर तो पहले ही नही आता था
अब सारी लकड़ियां जलाकर तुम नाव खोजते हो
बहा डाला है तुमने पहले ही रिश्तों के दरिया को
अब कहां उन रिश्तों की यादों का जमाव खोजते हो
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