जिस संघ के लोग या भाजपाई या आर एस एस के लोग आज देश भक्ति की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, और राष्ट्रवाद की जो बड़ी-बड़ी डींगें हांकते हैं, इनके इतिहास में इनकी सारी काली करतूत दर्ज है। अगर उन काली करतूतों को एक-एक करके खोला जाए ,तो ना जाने इतिहास लिखने वाले कितने कलाकारों की कलमें टूट जाएंगी और पढ़ने वालों की किताबे खत्म हो जाएंगी ।
आज जब आरएसएस और बीजेपी के लोग देशभक्ति के बड़े-बड़े दावा करते हैंI, और दूसरों पर देश से गद्दारी और देशद्रोह के आरोप लगाते हैं। और लोगों को देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांटते हैं, तब आज इनके इतिहास में झांकना बहुत जरूरी है , कि यह खुद कितने बड़े देशभक्त और कितने बड़े बलिदानी रहे हैं । आर एस एस और संघ के पूर्वजों ने देश के लिए क्या-क्या किया है, और देश के लिए किस हद तक कुर्बानी दी है , देश की आजादी के लिए आर एस एस के कितने नेता फांसी पर चढ़े या कितने नेताओं को गोली मारी गई । आज इस सब का कच्चा चिट्ठा जानना बेहद जरूरी हो गया है । ताकि जब कल यह दूसरों की देशभक्ति पर सवाल उठाएं पलट कर इनसे भी उनके इतिहास के बारे में दो-चार सवाल तो पूछ लिया जाए।
अभी कुछ दिनों पहले मोहन भागवत का हमने एक भाषण सुना था जो काफी ज्यादा प्रसिद्ध हो गया था। जिसमें मोहन भागवत ने दावा किया था कि आरएसएस के लोग सेना से ज्यादा संगठित अनुशासित और ताकतवर होते हैं और सेना से जल्दी तैयार होकर के देश के लिए लड़ने के लिए बॉर्डर पर जा सकते हैं। खैर ये पहली बार नहीं है जब आर एस एस के किसी पदाधिकारी का इस तरह का बयान आया , या इस तरह की हरकत आई हो जो सेना के खिलाफ हो। इसकी शुरुआत तो आजादी के साथ ही हो गई थी ।जब भारत के पहले आर्मी जनरल करिअप्पा के मर्डर की साजिश रची गई। देश के आजाद होने के तीसरे साल ही संघ ने एक साजिश रची। संघ ने पहले उत्तर भारत और दक्षिण भारत का ध्रुवीकरण किया फिर कुछ सिख युवकों को भड़काकर करिअप्पा की हत्या की कोशिश की। और इतना ही नहीं करिअप्पा के खिलाफ उनके नीचे वाले अफसरों को भड़काने की पूरी कोशिश की । और सेना में ही विद्रोह कराने की पूरी कोशिश की । लेकिन उनकी कोशिश नाकाम रही और सफलता मिलने से पहले ही इनका सारा भेद खुल गया। इस मामले में 6 लोगों को सजा हुई थी।
इतना ही नहीं आर एस एस की इन महानुभावों ने यह हिंदू महासभा के महानुभावों ने भारत विभाजन का भी समर्थन किया। सावरकर द्विराष्ट्र सिद्धांत के समर्थक थे । जिन्ना और सावरकर दोनों चाहते थे कि एक हिंदू राष्ट्र बने और एक इस्लामिक राष्ट्र, कहा कि हिंदू और मुसलमान अलग देश हैं कभी साथ नहीं रह सकते। पहले सावरकर ये प्रस्ताव लेकर आए और इसके तीन साल बाद ही जिन्ना ने भी द्विराष्ट्र सिद्धांत का समर्थन किया। इतिहासकार कहते हैं कि संघ ने उग्र हिंदू वातावरण न बनाया होता तो शायद जिन्ना अलग राष्ट्र नहीं मांगते। थोड़ा और गहराई में जाए तो यह मिलता है की 1940 में मुस्लिम लीग के तरफ से जिन्न्हा नेअलग मुस्लिम राष्ट्र की मांग किया था , लेकिन उससे काफी पहले 1937 में ही अहमदाबाद में हिन्दू महासभा के 19वे महाधिवेशन में सावरकर ने हिन्दू और मुसलमानो के लिए अलग राष्ट्र की मांग कर लिया था ।
उस समय वो हिन्दू महासभा के अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए ये कहा था की ''फ़िलहाल भारत में दो प्रतिद्वंदी राष्ट्र अगल-बगल रह रहे हैं। कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मान कर गंभीर ग़लती कर बैठते हैं कि हिन्दुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रूप ढल गया है या केवल हमारी इच्छा होने से इस रूप में ढल जाएगा। इस प्रकार के हमारे नेक नीयत वाले पर कच्ची सोच वाले दोस्त मात्र सपनों को सच्चाई में बदलना चाहते हैं। इसलिए वे सांप्रदायिक उलझनों से अधीर हो उठते हैं और इसके लिए सांप्रदायिक संगठनों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। लेकिन ठोस तथ्य यह है कि तथाकथित सांप्रदायिक प्रश्न और कुछ नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता के नतीजे में हम तक पहुंचे हैं। हमें अप्रिय इन तथ्यों का हिम्मत के साथ सामना करना चाहिए। आज यह क़तई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एकता में पिरोया हुआ राष्ट्र है, इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्यतः दो राष्ट्र हैं, हिंदू और मुसलमान।" सावरकर आरएसएस के वह विचारक है जो हिन्दू और मुसलमान के दो अलग अलग राष्ट्र को बनाने का पूरा प्रयास करता है। तब सावरकर कर रहे थे आज उनके वंशज कर रहे हैं पर कोई नहीं है यह तभी देश के दुश्मन थे और आज भी देश के दुश्मन बने हुए हैं।
आज जो मोदी जी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम पर बंगाल में वोट लेने चले गए , और छाती पीट- पीटकर सुभाष चंद्र बोस जी के साथ हुई कथित बेईमानी और अन्याय के लिए उन को इंसाफ दिलाने की मांग करने लगे । उन्हीं मोदी जी को जरा इतिहास में पीछे झांक कर देखना चाहिए कि इन्हीं नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ सावरकर और आर एस एस के लोगों ने क्या सुलूक किया था। मुझे अभी भी याद है आरएसएस की पत्रिका पांचजन्य में गांधी जी को रावण तो सरदार वल्लभभाई पटेल मौलाना अबुल कलाम और नेताजी सुभाष चंद्र बोस को उस रावण के 10 सिरों में से एक दिखाया गया था । और श्यामा प्रसाद मुखर्जी और सावरकर को राम लक्ष्मण के रूप में दिखाती दिखाया गया था । जिसमें श्यामा मुखर्जी गांधी जी को धनुष से तीन मारते हुए दिखाई दे रहे हैं ।
इतना ही नहीं जब भारत की आजादी के लिए नेता जी सुभाषचंद्र बोस जापान की मदद लेने गए थे तो संघ ने अंग्रेजों का साथ दिया। हिंदू महासभा ने ‘वीर’ सावरकर के नेतृत्व में ब्रिटिश फौजों में भर्ती के लिए शिविर लगाए। हिंदुत्ववादियों ने अंग्रेज शासकों के समक्ष मुकम्मल समर्पण कर दिया था जो ‘वीर’ सावरकर के निम्न वक्तव्य से और भी साफ हो जाता है"जहां तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारत सरकार के युद्ध संबंधी प्रयासों में सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब तक यह हिंदू हितों के फायदे में हो। हिंदुओं को बड़ी संख्या में थल सेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनाने वाले कारखानों वगैरह में प्रवेश करना चाहिये। इस युद्ध में जापान के कूदने के कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के हमलों के सीधे निशाने पर आ गए हैं। इसलिए हम चाहें या न चाहें, हमें युद्ध के कहर से अपने परिवार और घर को बचाना है और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताकत पहुंचा कर ही किया जा सकता है। इसलिए हिंदू महासभाइयों को खासकर बंगाल और असम के प्रांतों में, जितना असरदार तरीके से संभव हो, हिंदुओं को अविलंब सेनाओं में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए’। इस तरह आरएसएस ने अपने भाषण और अपने लोगों के प्रभाव से नेताजी सुभाष चंद्र बोस को इतना कमजोर करने का प्रयास किया जितना वो कर सकते थे । हालांकि उनके इन प्रयासों का कोई खास असर नहीं हुआ असद सिर्फ उन पर हुआ जो अंधों की तरह संघ में शामिल होकर लाठियां भाज रहे थे।
अब महात्मा गांधी जी की हत्या आरएसएस ने की या नहीं इसको लेकर विवाद है। गांधी के मारे जाने को वो सही तो मानते रहे हैं लेकिन हत्या की साजिश से इनकार करते हैं। लेकिन यहां कुछ जानकारियां हैं जो कहती हैं कि गांधी को मारने के पीछे संघ था। गांधी जी की हत्या के मामले में आठ आरोपी थे– नाथूराम गोडसे और उनके भाई गोपाल गोडसे, नारायण आप्टे, विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, शंकर किष्टैया, विनायक दामोदर सावरकर और दत्तात्रेय परचुरे। इस गुट का नौवां सदस्य दिगंबर रामचंद्र बडगे था जो सरकारी गवाह बन गया था। ये सब आरएसएस या हिंदू महासभा या हिंदू राष्ट्र दल से जुडे हुए थे। अदालत में दी गई बडगे की गवाही के आधार पर ही सावरकर का नाम इस मामले से जुड़ा था और गांधी की हत्या के बाद हिंदू महासभा और आरएसएस पर प्रतिबंध लग गया था। यानी गांधी की हत्या में संघ को क्लीन चिट नहीं दी जा सकती। अगर गांधी दस साल और रहते तो देश में सिद्धांत की राजनीति मजबूत होती। सालों तक स्वतंत्रता सेनानियों पर जुल्म ढाने वाली अफसरशाही ने आजाद होते ही राजनीति को प्रलोभन देने शुरू कर दिए कि कहीं नेता उनसे बदला न लें। ये प्रलोभन बाद में करप्शन में बदल गए। गांधी होते तो देश करप्ट नहीं होता। वो देश को सैद्धांतिक राजनीति में पाग कर जाते। कपूर कमीशन की रिपोर्ट ने भी गांधी की हत्या में इन्ही कथित हिंदूवादियों का ही हाथ बताया था।
हम अगर इन तथ्यों को नकार भी दे तो एक बात जो आज भी ऑफिशियल है वह यह है कि आर एस एस ने महात्मा गांधी की हत्या पर लड्डू बांटकर खुशियां मनाई थी । जिस पर सरदार वल्लभभाई पटेल बहुत नाराज हुए थे । और वह यही मानते थे कि आर एस एस ने ही महात्मा गांधी की हत्या की साजिश रची है । बल्लभ भाई पटेल इतने आहत हुए कि उन्होंने इस बात की नाराजगी संघ प्रमुख को चिट्ठी लिखकर जताई और साथ ही उन्होंने संघ को भारत में प्रतिबंधित कर दिया। जिस प्रतिबंध को कुछ ही दिनों बाद जवाहरलाल नेहरू ने हटा दिया । और संघ के लोगों को गणतंत्र दिवस की परेड में भी शामिल कराया । लेकिन प्रतिबंध हटाते समय भी सरदार वल्लभभाई पटेल ने आरएसएस के सामने एक ऐसी शर्त रख दी जिसका नतीजा हमें आज तक देखने को मिलता है।
अक्सर लोग सोचते हैं कि आर एस एस के लोग चुनाव क्यों नहीं लड़ते ।जिसको सवाल का जवाब जानना है वह फरवरी 1948 के दूसरे हफ्ते के भारत सरकार के गजट पत्रों को देखें , जिसमें उन्होंने आरएसएस पर प्रतिबंध हटाने के शर्त में उनका कभी भी चुनाव में या राजनीति में शामिल ना होने की बात लिखी गई है। वल्लभ भाई पटेल के इसी शर्त का या इसी आदेश का नतीजा है कि आरएसएस का कोई भी सदस्य जब तक वह आर एस एस के सदस्य होता है तब तक किसी भी तरह से राजनीति में शामिल नहीं हो सकता, ना ही वह चुनाव लड़ सकता है , ना ही किसी संवैधानिक पोस्ट पर बैठ सकता है। आरएसएस खुद का कोई दल नहीं बना सकता। और ना ही खुद के निशान या खुद के नाम से किसी प्रत्याशी को चुनाव लड़ा सकता है।
आजादी के बाद की अलग आजादी से पहले भी आजादी के लिए छोड़े गए आंदोलनों को कुचलने और उन आंदोलनों को असफल करने में आर एस एस के लोगों की बड़ी भूमिका रही है आरएसएस द्वारा प्रकाशित की गई हेडगेवार की जीवनी के मुताबिक, जब गांधी ने 1930 में अपना नमक सत्याग्रह शुरू किया, तब उन्होंने हर जगह यह सूचना भेजी कि संघ इस सत्याग्रह में शामिल नहीं होगा। हालांकि, जो लोग व्यक्तिगत तौर पर इसमें शामिल होना चाहते हैं, उनके लिए ऐसा करने से कोई रोक नहीं है। इसका मतलब यह था कि संघ का कोई भी जिम्मेदार कार्यकर्ता इस सत्याग्रह में शामिल नहीं हो सकता था’ वैसे तो, संघ के कार्यकर्ताओं में इस ऐतिहासिक घटना में शामिल होने के लिए उत्साह की कमी नहीं थी, लेकिन हेडगेवार ने सक्रिय रूप से इस उत्साह पर पानी डालने का काम किया।
इसके आगे की अगर थोड़ी बात करें तो भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होने के डेढ़ साल बाद, ब्रिटिश राज की बॉम्बे सरकार ने एक मेमो में बेहद संतुष्टि के साथ नोट किया कि ‘संघ ने पूरी ईमानदारी के साथ खुद को कानून के दायरे में रखा है। खासतौर पर अगस्त, 1942 में भड़की अशांति में यह शामिल नहीं हुआ है।’ साथ ही कई जगह भी बातें आती हैं , या कुछ चीजें ऑफिशियली भी हैं जिसमें यह स्पष्ट है कि 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान संघ प्रमुख हेडगेवार जेल में भी गए थे। और जेल से आने के बाद उन्होंने इस बात का जिक्र भी किया था , कि उनका जेल जाने का उद्देश्य क्या था। वह कहते हैं कि "मैं जेल इसलिए नहीं गया था कि मैं भारत छोड़ो आंदोलन का समर्थन कर रहा था । बल्कि मैं जेल इसलिए गया था कि मैं देखना चाह रहा था कि जो युवा भारत छोड़ो आंदोलन के लिए खुद को जेल में डलवा सकते हैं, अगर उनको संघ से जोड़ दिया जाए तो वह संघ के लिए क्या-क्या नहीं कर सकते"। मतलब साफ है कि हेडगेवार जेल तो गए थे, लेकिन वह इसलिए ताकि क्रांतिकारियों की विचारधारा को मोड़ कर उनको संघ में जोड़ कर अपना निजी फायदा बनाया जा सके।
इसी क्रम में संघ प्रसाद मुखर्जी का भी जिक्र करना बेहद जरूरी हो गया है । पूरे देश को हिंदू मुस्लिम की आग वाली भट्टी में झोंक कर जिन्ना की मुस्लिम लीग और सावरकर के हिंदू महासभा ने बंगाल में अंतरिम सरकार बनाई । जिसमें श्यामा प्रसाद मुखर्जी गृह सचिव थे और और भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान श्याम प्रसाद मुखर्जी ने अंग्रेजी सरकार को एक लिखित शपथ पत्र भी दिया था। जिसमें उन्होंने यह आश्वासन दिया था कि वह बंगाल में भारत छोड़ो आंदोलन को किसी भी हाल में सफल नहीं होने देंगे ।और उस आंदोलन को बंगाल में कुचल देंगे । और हमने सब इस बात से भलीभांति वाकिफ हैं कि भारत छोड़ो आंदोलन में क्रांतिकारियों के ऊपर सबसे ज्यादा हिंसा अत्याचार बंगाल में ही हुए।
आज जो भाजपा के लोग यह कहते हैं कि आजादी नेहरू और गांधी जी ने नहीं लाई वह भला यह क्यों नहीं बताते कि आर एस एस के लोग आजादी की लड़ाई में शामिल क्यों नहीं हुए, या उन्होंने आजादी की लड़ाई में कोई योगदान क्यों नहीं दिया । आरएसएस नेतृत्व के पास आजादी की लड़ाई में शामिल न होने की एक विचित्र वजह थी। जून, 1942 में बंगाल में अंग्रेजों द्वारा निर्मित अकाल, जिसमें कम से कम 30 लाख लोग मारे गए, इस घटना से कुछ महीने पहले दिए गए अपने एक भाषण में गोलवलकर ने कहा था ''संघ समाज की वर्तमान बदहाली के लिए किसी को भी दोष नहीं देना चाहता। जब लोग दूसरों पर आरोप लगाना शुरू करते हैं तो इसका मतलब होता है कि कमज़ोरी मूल रूप से उनमें ही है। कमज़ोरों के साथ किए गए अन्याय के लिए ताकतवर पर दोष मढ़ना बेकार है। संघ अपना कीमती वक्त दूसरों की आलोचना करने या उनकी बुराई करने में नष्ट नहीं करना चाहता। अगर हमें पता है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है, तो इसके लिए बड़ी मछली को दोष देना पूरी तरह पागलपन है। प्रकृति का नियम, भले ही वह अच्छा हो या खराब, हमेशा सच होता है। इस नियम को अन्यायपूर्ण करार देने से नियम नहीं बदल जाता।'
इसके बाद भी मार्च, 1947 में जब अंग्रेज़ों ने आखिरकार एक साल पहले हुए नौसेनिक विद्रोह के बाद भारत छोड़कर जाने का फैसला कर लिया था, गोलवलकर ने आरएसएस के उन कार्यकर्ताओं की आलोचना जारी रखी, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में हिस्सा लिया था।और उनके साथ संघ के लोगों ने भी बहुत सौतेला व्यवहार किया कुछ लोगों को संघ की सदस्यता से भी तत्कालीन तौर पर निकाल दिया गया।
भारत की आजादी के उपलक्ष्य में आरएसएस के मुखपत्र ‘द ऑर्गेनाइजर’ में प्रकाशित संपादकीय में संघ ने भारत के तिरंगे झंडे का विरोध किया था, और यह घोषणा की थी कि ‘‘हिंदू इस झंडे को न कभी अपनाएंगे, न कभी इसका सम्मान करेंगे।'’ बात को स्पष्ट करते हुए संपादकीय में कहा गया कि ‘‘ये ‘तीन’ शब्द ही अपने आप में अनिष्टकारी है और तीन रंगों वाला झंडा निश्चित तौर पर खराब मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालेगा और यह देश के लिए हानिकारक साबित होगा। ’’ आर एस एस के लोगों ने तिरंगे झंडे का विरोध या वजह देकर भी किया कि यह झंडा तीन रंगों से बना है, और तीन हिंदू धर्म में शुभ नहीं माना जाता ।
दरअसल आर एस एस अपने निशान को ही देश का झंडा बनाना चाह रहा था । जो कि भगवा था ।और नए तिरंगे में तीनों रंग देश की संप्रभुता सेकुलरिज्म और अखंडता को दर्शाता था जो कि आरएसएस को हरगिज मंजूर नहीं था।
क्योंकि इन करतूतों ने देश को तब भी बेहद कमजोर बना दिया था, और उनकी इन्हीं करतूतों ने देश को आज भी बहुत कमजोर बना दिया है । इन्होंने जात पात धर्म और भाषा का जहर वो कर लोगों के बीच खाइयां बनाई और भाई को भाई को ही मारने के लिए प्रेरित कर दिया। अब इन सवालों का जवाब आर एस एस के लोगों से अभी के समय में लेना जरूरी हो गया है । तो अगली बार जब कोई आरएसएस वाला आपसे देशभक्ति की बातें करें तो उनसे इन सवालों का जवाब जरूर ले लीजिएगा की ,
आर एस एस के लोग चुनाव क्यों नहीं लड़ते ? आरएसएस पर सरदार पटेल ने बैन क्यों लगाया था ? भारत छोड़ो आंदोलन को आर एस एस के श्याम प्रसाद मुखर्जी ने क्यों कुचल दिया? हिंदू एकता हिंदू राष्ट्र की बात करने वाला हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर बंगाल में अंतरिम सरकार क्यों बनाई? सुभाष चंद्र बोस और सरदार बल्लभ भाई पटेल को रावण के रूप में दिखाकर क्या साबित करना चाहते थे ? सेना में विद्रोह करवा कर कौन सी देशभक्ति निभा रही थी ? जब आर एस एस के लोग ही देश के दो टुकड़े करना चाह रहे थे तो आर एस एस भारत विभाजन के लिए गांधीजी को जिम्मेदार क्यों मानती है ? आर एस एस अगर इन सवालों का जवाब आर एस एस के लोग दे दे तो समझिए के कलेजा बड़ा है ।
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