कर्ण व्यथा

जो दान अपने प्राण का भी दे मैं ऐसा दानवीर था
लौह सा कवच लिए इंद्र के बज्र सा मेरा शरीर था

सुर नर मुनि यक्ष गंधर्व सबसे होता मेरा युद्ध रहा
समाज जग नियति सब  का मूल मेरे विरुद्ध रहा

स्वंय मेरा ज्ञान मेरा पूण्य भी तो मुझसे क्रुद्ध रहा
अशुद्ध कौरव संग रहके भी मैं पूर्णतया शुद्ध रहा

सूत कुल में पला बढ़ा मैं रहा धन धान्य से विरत
नाश मेरी संभावना का नियति करती रही निरत

सामर्थ्य को मेरे जाति दण्ड में सदैव रहा जोतता
सूत पुत्र पुकार ये जग  कर्म  से मुझे रहा रोकता

भुज बल किसी ने ना देखा बस मेरी जाति देखी
मेरे कीर्ति यश को सबने करकट की भांति फेंकी

इस जग से लड़ता न मैं और तो फिर क्या करता
किसी कायर निर्बल सा बस कूढ़ कूढ़ क्या मरता

थी शक्ति भुजाओ में मन में आत्मबल अपार था
मेरे  एक शर  पे सौ सौ अरि का  होता संहार था

हाय कैसा  अभागा मैं  जो  माँ की लाचारी  बना
सूर्य मेरे पिता फिर भी इस जग में लावारिस बना

जन्म से ही सुनता  आया सम्मान नही  पाता शुद्र
ये क्रूर जग  बताये है कौन शुद्र और कौन अक्षुद्र

कैसी माँ थी वो और कैसी उस जननी की ममता
अपने शिशु को तजने वाली की भला क्यू सुनता

पर मेरा निश्छल हृदय माँ के आँशु पर डोल गया
अर्जुन छोड़ शेष ना मरूँगा ये वचन मैं बोल गया

हाथ फैलाये माता को भला खाली  कैसे  भेजता
कैसा दानवीर जो मातृ  इच्छा न पूरी कर सकता

बड़ी हँसाई होती जग में सृष्टी ये  उपहास उड़ाती
जीवन भर जो पूण्य कमाया पल में मिट्टी कराती

माँ ने आँचल फैलाया शेष पांडव क्यो न लौटाता
जो प्रथम दूध पिया उसका ऋण मैं कैसे चुकाता

मनुष्य असुरो ने ही नही मुझे नरपत ने भी छला
ऐसे  मनुष्य से भिक्षा कौन देवेंद्र मांगता है भला

जग को आशीष देने वाले ने मुझको साध लिया
बन विप्र मुझसे झोली में पुत्र  जीवन मांग लिया

एक आशीष जो मुझे जन्म से मिला,छीन लिया
जाति पाखंड ने सामर्थ्य को टुकड़े में बीन लिया

पर मैं कर्ण दानवीर,  पुरूष बड़ा अभिमानी था
बस कवच कुंडल नही,प्रबल बल का स्वामी था

सिर्फ इन्ही के भरोसे ही नही मेरा ये  जीवन था
इंद्र  बज्र सा कठोर इस शरीर का कण कण था

कुंडल कवच के खोने का ना कोई विलाप किया
बिना उसके पार्थ का रण में भय से मिलाप किया

यदुनंदन कृष्ण ने भी रणभूमि में मेरी हुंकार सुनी
समस्त जग ने मेरी धनुष, विजय की टंकार सुनी

जिस स्यंदन पे प्रभु बैठे उसेभी पीछे धकेल दिया
अर्जुन समेत समस्त पांडवो पर केस नकेल दिया

क्या गलती थी जो कुंतीपुत्र  से समान रण मांगा
प्रतिस्पर्धा के  झूठे  यश  को था काल बन बाँधा

रणभूमि में जिसने काल बन हुंकारा वो मैं ही था
द्रोणप्रिय को जिसने निडर ललकारा वो मैं ही था

ज्येष्ठ,भीम,सहदेव नकुल सबको प्राण दान दिया
बारी बारी सभी अतिरथियो को  लहूलुहान किया

पर नियति और दम्भो से भला था कौन बच पाया 
अंजाने में भी किया जो पाप वो भी सामने आया 

ना  गांडीव थी मेरे  पास न केशव सा रथवाह था
पराक्रम कम न था पर साथ एक शापित ग्राह था

था लील गया वो मेरी विद्या संग मेरे रथ चक्र को
बहुत  सटीक  समय था मिला  शनि की वक्र को

अत्यंत क्रूर समय  हुआ मुझे  विद्या का विष्मरण
श्राप पाया बदले में जो दबाया मैने  उनके चरण

हाय, सिर्फ ज्ञान ही तो गुरु वर से मैंने  मांगा  था
था नही पता विद्या को भी जाति वर्ण में बांटा था

झूठ था बोला पर  उसका  कारण  भी उचित था
ज्ञान विद्या हेतु मेरा विप्र  बनना  भी समुचित था

सच्ची निष्ठा सत्भाव  से शिष्य  धर्म था  निभाया
बदले में उसके केवल गुरु से श्राप ही  मैंने पाया

दान सत्कर्म किये बहुतेरे पर इसको ना धो पाया
श्राप, उलेहना से कभी  भी मैं विरत ना हो पाया

दुःख है ये पांचाली का वस्त्रहरण रोका क्यो नही
अपने दुर्बुद्धि  मित्र को पहले  ही टोका क्यो नही

कारण इसका मैं अब रुषाली  को क्या बताऊंगा
नारी दोषी  मैं राधा माँ से  आंखे कैसे मिलाऊँगा

जाने कैसे इस पाप इस अन्याय से उबर पाऊंगा 
यही पाप है जिससे आत्मग्लानि में उतर जाऊंगा

इसी कृत्य लाज में वधु से आंखे मिला पाता नही
दिए जो घाव  मानवता को उसे सिला पाता नही

कितने घाव कितने कष्ट हृदय में लिए जा रहा हूँ
विजय ध्वज अब हाथ अर्जुन के दिये जा रहा हूँ

आत्मबल कीर्ति यश भी ग्लानि ये भर नही पाते
नगरवधू  कहने  के  पाप  से मुक्त कर नही पाते

अधिरथ राधा पुत्र कहलाने वाला मैं पांडव  श्रेष्ठ
नही ज्ञात किसी को मैं था अर्जुन भीम का ज्येष्ठ

था  वचन का पालन मेरे लिए सभी  से सर्वोपरि
त्यागा मैंने इसपे कुटुम्ब माँ भाई प्राण और अरि

था महारथी मैं फिर भी रथचक्र निकाल न सका
नियति का छल पराक्रम से अपने  टाल न सका

पर गर्व इस बात  का है हरि ने सत्मार्ग दिखाया
है कौन ऐसा जिसको खुद  हरि  ने गले लगाया

देखा था मैंने मेरे अंतसमय वो भी खूब रोये थे
मेरे सारे पाप कुकर्म अपनी अश्रुओं से धोएं थे

अब जा रहा धरा छोड़ पित्रगृह  अनंत गगन मे
ढूढेंगे मेरे भाई पांडव मुझको अपने अंतर्मन में

कैसा होगा अब दुर्योधन था जिसका मैं घमण्ड
अविरल  गगन की ओर चला त्याग मित्र प्रचंड

प्रश्न आज भी मैं ये समस्त संसार  से पूछता हूँ
जवाब बस धरा पर ही नही गगन में खोजता हूँ

क्या जाति  कुल ही  पराक्रम का स्तर बनाते है
क्यो राजपुत्र ही सिंहासन और मुकुट सजाते है

कोमल  भीरु भला  कैसे  क्षत्रिय बन सकता है
रक्त देख डरने वाला कैसे नरमुंड गन सकता है

क्यो कोई कूढ़ अनपढ़ अज्ञानी पंडित कहलाये
क्यो शूद्र बनने पे वो समाज से दंडित कहलाये 

क्या ये  जाति ही सामर्थ्य का मानदंड समूल है
जन्म से मिला ये  अधिकार समाज का शूल है

क्यो समाज के जाति व्यवस्था में बसते प्राण है
क्यो जाति ही सामर्थ्य पौरुष बल का प्रमाण है

क्या अब यही रीत विश्व में सदैव चलती आएगी
क्या जाति ही बस मनुष्य को सम्मान दिलाएगी

क्या कर्म योग्य साहस ज्ञान का कोई मूल्य नही
क्या ये जाति कुल के समक्ष जरा भी तुल्य नही

भीष्म कृप द्रोण  से ज्ञानी भी इसके जाल में है
क्या राजा क्या रंक पूरा विश्व इसी जंजाल में है



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