अर्जुन असमंजस

देख  सामने खड़े  युद्ध मे निज परिजन को
विचलित हुआ पार्थ संहारने से अरिजन को
देख वृद्ध पितामह को हृदय था द्रवित हुआ
त्याग युद्ध का विचार वो गांडीव रहित हुआ

जिसकी उंगली थाम धरा पर  चलना सीखा
जिस तात की बिद्या पाके धर्म करना सीखा
जिसकी शक्ति का सानी न कोई अजेय रहा
जिसको धर्म सत्कर्म  का सदा ही ध्येय रहा

उन  बूढ़ी आंखों को ये दिन दिखलाऊँ कैसे
मारना है उन्हें निज हिय को समझाऊँ कैसे
धर्म क्या निज गौरव खातिर हो नही सकता
एक राज्य की आस में इन्हें खो नही सकता

माधव तुम बोलो एक सर से इन्हें साधू कैसे
मृत्यु पाश में पितामह को मैं भला बाँधू कैसे
ये पाप, ये कुकृत्य  मुझसे  तो  हो ना पाएंगे
मार पितामह को पांडव सुख में सो न पाएंगे

कुल को जिस भुजा  पे सदा  अभिमान रहा
जिस शौर्य से कुरुकुल का जग में नाम रहा
वो नाम वो शौर्य गाथा खुद से मिटाऊँ कैसे
क्या दुविधा है मन मे तुमको मैं बताऊँ कैसे

कान्हा तुम सर्वज्ञानी हो कुछ सुझाव बताओ
युद्ध टले  कैसे  भला कुछ तो उपाय बताओ
जो युद्ध जन जीवन के लिए विध्वंशकारी है
वो युद्ध धर्म के लिए भला कैसे हितकारी है

माना  दुर्योधन अधर्मी नराधम आततायी है
पर ये भी तो सत्य है की वो मेरा ही भाई है
वीर पराक्रमी योद्धा का सर धड़ से बाटू कैसे
कवच रहित राधेय का शीश भला काटूँ कैसे

ये भूल भी जाऊँ तो गुरु का कैसे संहार करूँ
इस सर से ग्रीवा काटने का कैसे विचार करूँ
ड्रोण कृप जैसे गुरूवर को  अब  मारूं कैसे
स्वजन को मृत्यु देकर मैं धर्म को तारूं कैसे

पितामह राधेय द्रोण वध के लिये छल करेंगे
हे कृष्ण क्या कृत्य हमारे ये धर्म को बल देंगे
कैसा कल्याण कैसा सत्कर्म  कैसा धर्म है ये
प्रियजन के प्राण लूँ,अधर्म भरा दुष्कर्म है ये

देख अर्जुन की रण  रहित अवस्था निढाल
बोले हरि हंस, पार्थ को स्यन्दन पर संभाल
संबंधी नही ये सम्मुख , सारे  ये तेरे अरि है
वध कर  इनका बस  यही कर्म सर्वोपरि है

मामा कहता जिसको तू  वो पापी शकुनि है
कपटी धूर्त नारकी नराधम ये बड़ा दुर्गुणी है
पांडव स्नेह को इसने पल पल है छल दिया
दुर्योधन के कुकृत्यों को इसने ही बल दिया

कुरुपति गांधारी ने सदा इसपे विश्वाश किया
कुरुकुल के सुख को इस पापी ने नाश किया
ये देन है इसकी जो भाई से भाई टकराता है
पार्थ इस पापी पे भला  तू दया क्यूँ खाता है

बढ़ आगे  देख  खड़ा ज्येष्ठ धृतराष्ट्र नंदन है
वस्त्र हरे पांचाली के ये वही पापी दुर्योधन है
लाक्षा में तुम्हे  जला मारने का प्रयत्न किया
विष दे विकोदर को प्राणहरण का यत्न किया

तेरह वर्षो के वनवास का भीषण शाप दिया
केश खींच द्रौपदी को बुलाने का पाप किया
मत भूलो द्रौपदी के  चीर इसी ने  हरवाएं थे
पांडव के लिए सारे षणयंत्र इसने करवाये थे

अपना गुरु  जिस  द्रोण  को तू  है मान रहा 
चीर हरण के वक्त ये  भी चुप सावधान रहा
राज गुरु के लिए पथ चयन सदा सुगम रहा
पुत्र मोह इनके लिए भी सदा सर्व प्रथम रहा

वीर बलशाली विद्यावान जिसको मानता है
वो राधेय है, तुझको  शत्रु अपना जानता है
दुर्योधन के सिवा न किसी को इसने वर्धा दी
सूर्यपुत्र ने नींद में भी तुझसे ही प्रतिस्पर्धा की

सामर्थ्य थे उनसे कर्ण क्या न कर सकता था
सब वंचितो के जीवन सुख से भर सकता था
लेकिन उसने सामर्थ्य अपना कही रोप दिया
सामर्थ्य पराक्रम सब दुर्योधन को सौप दिया

कुंती छोड़ राधेय ने पांडव को न मान दिया
नगर वधू कह पांचाली का अपमान  किया
भरी द्युत सभा में इस पापी ने उपहास किया
स्त्री मर्यादामर्दन पर जम कर अट्टहास किया

दानवीर अति है ये पर धर्म  कर्म से छोटा है
इसके सत्कर्म को भी दुर्योधन ने ही रोका है
नाश कर  इसका  कहता  हूँ इसी  में धर्म है
समय अभी है रण का,ये रण ही तेरा कर्म है

पाप इन जनो के अपने अश्रु से कैसे धोएगा
बोझ सखी के अपमान का कब तक ढोएगा
क्या क्या न पांडवो को  रथियो ने त्राण दिए
संबंधी थे पर संबंधों के इन्होंने है प्राण लिये

देख पार्थ को छिन्न भिन्न खिसियाये मन में
विचलित विरत वेकल सा खड़े बीच रण में
हरि ने गगन से परे अपना रूप विराट किया
धरा  समान  वक्षस्थल अपना विभ्राट किया

जिसकी भुजाये अनंत दिशा तक  जाती थी
रूप  ऐसा  जिसमे ये सारी सृष्टि समाती थी
सौ चन्द्र सौ सूर्य सौ ध्रुव नेत्रो से निकलते थे
सौ सौ खंड हिमालय से हाथों में पिघलते थे

ललाट पर लाखों ललिमा भरा कोई तेज था
आती जाती सांसो  में अंधड़ समान वेग था
मुख के भीतर ग्रह नक्षत्र पलपल दिखते थे
सौ सौ ब्रह्मांड मंदाकिनी प्रतिपल दिपते थे

हथेलियों पर सौ सौ सौर मंडल विद्यमान थे
शतकोटि कृष्णविवर अंगुष्ठ पर गतिमान थे
हाथो में दिखते सब भूत भविष्य वर्तमान थे
नेत्रो के तेज शतकोटि सूर्य से प्रकाशमान थे

सौ  नक्षत्र निकर तारे पल पल खंडित होते
दुष्ट दलन पापी  नराधम इनसे  दंडित होते
स्वरूप हरि ने ऐसा तेज ऐसा बिकराल धरा
सर पे ब्राह्मण धरा पद के निचे पाताल धरा

हरि  के स्वांसों की गर्जना घोर अति गंभीर
धीरज खो रहे वीर कायर धीर और अधीर
आयुध  युक्त  सगम  सुबल सार्थक भुजाये
सुर असुर देव नर मुनि सभी जिसमे समाये

वक्ष प्रभु का कोटि भू से दिख रहा विशाल है
लाखो सूर्य सा तेज समेटे रूप बड़ा विकराल है
ललाट पे कुमकुम सा चन्द्र दिखाई पड़ता है
आंखों के इशारों पे सूर्य भी गगन में ढलता है

क्षर अक्षर सजन सब जन्म  इन्ही से पाते है
मनुष्य जीव असुर सब लौट इन्ही में आते है
हो जो एक इशारा तो ब्रह्मांड नया  बनता है
विध्वंश विनाश  सब अंगुलियों में पलता है

बह्म विष्णु महेश सब यही समाये दिखते है
ग्रह नक्षत्र दिनेश सब यही समाये दिखते है
सौ  नक्षत्र निकर तारे पल पल खंडित होते
दुष्ट दलन पापी  नराधम इनसे  दंडित होते

दृश्य अकाण्ड देख देख जग पालनहार का
धीरज खोता जाता था स्वयं गांडीवधार का
सुर असुर देव गंधर्व चर अचर करजोड़ खड़े
विस्मय भरे नेत्र थे सबके सुखी प्रमुदित पड़े

धरा नभ ग्रह नक्षत्र भूलोक थे पाताल डोले
बज्र सी आवाज में गरज के  भगवान बोले
पार्थ तू क्यों निजमन मे अब भय ये धरता है
धर्म अधर्म पाप पुण्य का क्यूँ चिंतन करता है 

जितना कहता हूँ बस  उतना  ही करता  जा
जो मार्ग दिखाया है तुझे उसी पर बढ़ता जा
मुझसे बड़ा न कोई फल न यहाँ कोई कर्म है
करता जा  कहना मेरा,यहाँ बस यही धर्म है

मैं ही हूँ जिसने संतुलन सृष्टि का संभाला है
धर्म अधर्म पाप  पुण्य  मैंने निज में पाला है
अब चिंतन करने की शेष ना कोई भी बात है
क्या अवधान किसी का,स्वयं हरि तेरे साथ है

कर्म धर्म नीति नियति अभी तू क्या जानता है
इनके  पालन को क्यो तू  व्यर्थ हठ ठानता है
रण में नाश शत्रु का ही तेरा एक मात्र कर्म है
स्वजन को विजय दिला तेरा बस यही धर्म है

परिजन समझ जिन्हें तू खुद शोक मनाएगा
काल ग्रसेगा तुझको ये जीवन तेरा डूबायेगा
व्यर्थ दया अकारण मोह न कोई कर्म है ये
निशानी भीरू कायर की बड़ा दुष्कर्म है ये

जिन परिजन के मोह में युद्ध से तू पछतायेगा
मौका मिलते ही वो तेरी ग्रीवा धड़ से उड़ाएगा
द्रोण  भीष्म  कृप शल्य  न  तेरे हितकारी है
तुझे मृत्यु देने की करके आये सब तैयारी है

पर से आत्मा अजर अमर परम् अविनाशी है
इतर शरीर  से  ये  सभी  गोलोक के वासी है
कण कण जग जीवन कीट मनुष्य निशाचर
ये सब मुझसे ही  निकले सब है मेरे अनुचर

बस शरीर खत्म होता है आत्मा कहा मरती है
एक के बाद एक , जीवन  चक्र पूरा  करती है
जो है भीष्म के  शरीर  मे वो कही और होगी
कृप द्रोण की भी आत्मा इसी दिशा ओर होगी

समस्त जग समस्त जीव सब मिथ्या नाशी है
सिर्फ आत्मा अमित अजर अमर अविनाशी है
जिसने भी जन्म लिया धरा पे मरना ही होगा
चाहे न चाहे कर्म मेरे मुताबिक करना ही होगा

अकारण ही खुद को मोह से बांध नही सकता
पार्थ तू चाहे ना चाहे, द्वंद से भाग नही सकता
ये मेरी इच्छा है जो  कुरुक्षेत्र रणभूमि सजी है
ये मेरी ही इच्छा है जो रणभेरी प्रवीण बजी है

चाहू पल भर में सबको ग्रस लू काल बनके
हिसाब कर दूं कुकर्मो  का लोकपाल बनके
पर इससे पार्थ फिर तेरा कर्म कहा दिखेगा
है तेरे भाग्य में करना, वो धर्म कहा दिखेगा

न करेगा कर्म तो अधर्म क्षोभ से भर जायेगा
धर्म राह छूटेगी , अकर्म बोझ से मर जायेगा
देख रण  में हर कोई कर्म को सज्य खड़ा है
अपने मुताबिक धर्म अधर्म को सज्य खड़ा है

एक बस तू ही है जो कर्म से डरता जाता है
वीर पराक्रमी से कायर भीरु बनता जाता है
रण में शस्त्रो का त्याग ,क्या  अवसान  है ये
गांडीवधारी केवल कायरो की पहचान है ये

जो आज तू परिजन मोह के चक्र में फंसेगा
सृस्टि में हरकोई तेरी वीरता पर खूब हँसेगा
बंधन  ये मोह  का  तुझसे फिर कहाँ कटेगा 
पलट  कर स्वंय ये  काल भी तुझको डसेगा

अर्जुन अतीव  अकर्मी  अति  अज्ञानी है तू
व्यर्थ बल का मान ले अति अभिमानी है तू
सृस्टि में नही कोई ऐसा जिसे मैं न मार सकूँ
ऐसी कोई शक्ति नही जिसे मैं  न संहार सकूं

कोटि शक्ति शतकोटि विद्या का दाता मैं ही हूँ
चर अचर सुर असुर  सबका विधाता मैं ही हूँ
है रणसागर में तू अरि को केवल मत्स्य समझ
कर्म अकर्म धर्म अधर्म का गूढ़ ये रहस्य समझ

मुझसे ही पाप पुण्य धर्म अधर्म कर्म अकर्म है
जो मैं कहूँ वही कर यही सबसे बड़ा सत्कर्म है
मत भूल जीवन खेल है कर्म और विश्वास का
सिर्फ मुझसे बंधती टूटती जुडती हुई आस का

मोह है तुझको समक्ष खड़े जिन परिजन का
नही  मोल  कोई  इन  रथियों  के जीवन का
दुष्ट दलन अधर्मी  कुकर्मी  ये  अत्याचारी है
मत भूल पांचाली वस्त्रहरण के  दुराचारी है

क्यो फल की चिंता कर खुद स्वार्थी होता है
कायरता निरंकुशता का क्यूँ अभ्यर्थी होता है
सब से ऊपर जनकल्याण का हित तो सोच
कुछ कर्म तू होकर अब स्वार्थ रहित तो सोच

ना आवेश में ना वेग में तू कोई निर्णय तो ले
धीरज धर शस्त्रत्याग में तनिक  समय तो ले
सबंधो का मोह भुला  कुछ कर्म रण में कर
विचलित होते मन को पार्थ नियंत्रण में कर

शोकाकुल हृदय त्याग ठान रण गांडीव उठा
भुजबल प्रलोपित प्रकाश का सामर्थ्य दिखा
मार कर सर अरिदल  को  तर वितर  कर दे
गांडीव के व्याप्त भय को और प्रखर  कर दे

उठ अब संबधो का और न ज्यादा शोक कर
शत्रु ये सम्बधी, वार इनपे सारे तू अमोघ कर
चल उठ अभी तू धर्म अधर्म पक्ष को बांट दे
एक एक सर से सौ सौ शत्रु सर अब काट दे

दिखा कौरव को तेरी पराक्रम भरी भुजाये
गांडीव की टंकार से दहला दे दसो दिशाए
एक एक बाण तेरा  ब्रह्मास्त्र  के  बराबर है
सम्मुख आए इनके न वीर कोई धरा पर है

हरि के  सहारे पार्थ रण में उठ हुआ खड़ा
न कोई मोह माया कर्मपथ पर आगे बढ़ा
तनिक न संकोच कर गांडीव हाथ मे उठायी
युद्ध शुरूकर हरि ने पाञ्चजन्य नाद बजायी

फिर पार्थ ने धनु उठा भीषण टंकार किया
पहला  सर  साध  पितामह पे प्रहार किया
ज्वालनेत्र देख दुर्योधन का धीरज डोल गया
सहसा उसके रक्त में कोई हिम था घोल गया


पाकर त्रिभुवनपति की वो अलौकिक छाया
पार्थ बढचला रण पथ पे तनिक न भरमाया
जहाँ से जाता सर शत्रु दो भाग में बटते जाते थे
दल के दल सारे बस एक सर से कटते जाते थे

भीषण हाहाकार मचा,भीति समाई अरिदल में
रोक ले पार्थ को सामर्थ्य नही किसी के बल में
विकराल काल सा वो नंदीघोष बढ़ता जाता था
जो आये समक्ष,ग्रास काल का बनता जाता था


















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