घर का सामां भी नही समझा
ख्वाबो से बने मेरे महल को उसने मकाँ भी न समझा
बेरुख हुए तो किसी ने घर का सामां भी नही समझा
अब बस यही खला सीने में रहेगी हमारे ताउम्र इलाही
जिसे खुदा मानके पूजा, उसने हमे इसां भी न समझा
जीवन की कश्ती तो तेरी भी डूबने से बच जाती बवारे
बस तेरे मशरूफ मांझी से इसे जरूरी काम न समझा
एक हम थे जिसने उसे ताउम्र पलकों पर बसाये रखा
एक वो थे जिसने हमे दो पल का मेहमाँ भी न समझा
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