मेरी लड्डू
डिंपल वाली मेरी लड्डू,
हँसती है तो लगता है जैसे
किसी ने मेरी दुनिया में दिया बदलकर
सितारे लगा दिए हों।
वो मुझसे प्यार करती है,चुपके से,ज़माने से छुपकर,
और मुझसे नाराज़ भी होती है—बिल्कुल खुलकर।
मैं मजबूरियों का आदमी हूँ, पर दिल उसकी जेब में रखा है
मैने अपना दिल , और अपना सर उसके सजदे में रखा है
उसके हाथ पकड़ता हूँ तो दिल अपने पाँव फैला कर सो जाता है,
जैसे बरसों से तरसा किसी माँ की गोद में सो के खो जाता है
दिलचस्प ये भी है— की वो प्यार में मारती है,
कंधे पर, बाजू पर, कभी सर पर प्यार वारती है
और हर एहसास के साथ मन ऐसे बहने लगता है
दिल और ज़्यादा “आइ लव यू” कहने लगता है।
वो बालकनी में आती है
मानो चाँद ने सीढ़ी लगाकर रात को मेरी तरफ़ झुका दिया हो।
छत पर आती है
जैसे खुदा ने मेरी नसीब में फलक की अप्सरा लिखा दिया हो
और जब वीडियो कॉल पर कैमरा ऑन करके सोती है,
कसम खुदा की हूरें उसकी खूबसूरती के सजदे में होती है
चांद, अपनी चांदनी उसपे फहरा देता है
और सितारा रात भर उसके पहरा देता है।
सबसे प्यारी उसकी एक आदत है—
मेरे सामने वो बिल्कुल बच्ची बन जाती है,
ना नक़ली शराफ़त, ना दुनियादारी की बड़ी-बड़ी समझ
सिर्फ़ मासूम हँसी,नखरे,और आंखों में भरोसे की खनक
और मैं…
मैं उसी मासूमियत पर मरता हूँ,
उसके बचपने पर पर भी प्यार करता हूँ
उसकी पलकों पर नींद नहीं, मेरे ख्वाब सोते हैं—
और मेरी साँसें चलती है, नाम उसके होते है।
ये इश्क़ अनोखा है— बेआवाज़, बेपरदा, बेक़ायदा—
पर इतना सच्चा कि उस खुदा का कोई नुमायदा
काश मिले मुझे कुछ ऐसा
जिससे तेरी दुनिया हम बे- गम लिख दे
काश मिले ऐसा कागज कलम
जिसमें मुझको तुझको “हम” लिख दें।
वो डिंपल वाली लड्डू,
कभी मेरी हो जाए,
तो ज़िंदगी भी
अपना सर झुकाकर कहे—
“अब मैं मुकम्मल हूँ।”

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