अब कोई चारा नही है

शब ए रात का खुमार अब तक  दिल से उतारा नही है
इन केशुओँ से भी निकलने का अब कोई चारा नही है

जो डूबे  है इस झेलम में तो  डूबे ही रहने देना इलाही
अच्छा है इस ताक  ए झील का  कोई किनारा नही है

वो मैरून साड़ी, माथे  पर बिंदी  और हांथो में  मेंहदी
यकीन मानो जन्नतो में  भी ऐसा  कोई नज़ारा नही है

अभी  से  रुख  को पर्दानशीं  क्यो करने  लगे जनाब
अभी तो  हमने तुम्हे  एक  नज़र  भी  निहारा  नहीं है

जो  तेरी आंखें  और  तेरी  नज़रो का  मारा  नही  है
यहाँ  इस  महफ़िल में  तो ऐसा कोई बेचारा  नही है

ये किसके सजदे में तुमने सिर को झुकाया है जनाब
अभी उन्होंने  अपना पाँव  जमीन  पर उतारा नही है



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