तुम कोई जुबान दो ना


मुकद्दमा ए दिल में फिर से कोई बयान दो ना
तुम्हे अपना बनाने का हमें थोड़ा गुमान दो ना

ये जो सदियों से छाई हुई है तेरे मेरे दरमियां
इस खामोशी को अब तुम कोई जुबान दो ना

गगन के उस पार तेरे संग उड़ सकूं मैं भी कभी,
तुम मुझे अपने हिस्से का थोड़ा असमान दो ना

बेनाम फिरती इस मोहब्बत को ये पैग़ाम दो ना
होंठों से छूकर अब तुम इसको कोई नाम दो ना

थक गए है तेरी गलियों में हम आते जाते इलाही
तुम्हारे शहर में अब हमें भी कोई मकान दो ना

उम्मीद ए दीदार में तेरे थक गया है ये चांद भी
छत पे आकर,आज इसे भी थोड़ा आराम दो ना

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