धड़कने बेहिसाब में है

रुख को पर्दानशीं किए वो इस कदर शबाब में है
नज़र ठहर नहीं पाती,और धड़कने बेहिसाब में है

मेरी अफसुर्दगी का ये इम्तेहान तो तू देख इलाही
लम्हा शब ए वस्ल का आया,और वो हिजाब में है

एक रोज छुआ था तूने मेरे आंगन के गुलशन को
तेरे सांसों की महक यहां के हर एक गुलाब में है

अभी इतरा ले तू इस हुस्न-ओ-जवाँई पर, चाँद,
लाखों आफताब लिए वो लड़की अभी नक़ाब में है

मिलेंगे कई फ़राज़ और पूरनम इसके गजलों में
मगर साहिर की तल्खियां भी मेरी किताब में है

हर शै मुकम्मल है, फिर भी दिल को ज़िया नहीं
तेरे एक नजर की तलाश अब भी आफताब में है

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