गुलिस्तां महरूम है

अब्र ए करम से तो बस ये मेरा ही गुलिस्तां महरूम है
मेरे घर के सिवा पूरे शहर में उसके इनायत की धूम है

जो उल्फत सोज मौसिकी फनकारी सबसे महरूम है
आज वही शख्स हर महफिल का सजदा ए मसजूद है

चलो मान लिया सारी खामियां सिर्फ मुझमें है इलाही
तो क्या इस जमाने में मेरे सिवा बाकी सारे मासूम है

चाहे दो चार मुझसे ले लो दुनियादारी चलाने के लिए
मेरे पास  झूठ  बोलने  वाले दोस्तो  का एक हुजूम है

चाहे तू खुद को पाक बताने के कितने भी जतन करे
शहर के अखबारों को  तुम्हारे  सारे  किस्से मालूम है

मेरा ये  कशकोल तो  सिर्फ छलावों से भरा है बावरे
इसके  हिस्से  की  खुशियां  तो  दूसरो में  मकसूम है

जुबान  से  निकलते  ही कमबख्त  पकड़ा  जाता है
कोई उसे  बताए  उसका  झूठ किस कदर मासूम है



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