"मैं उस परंपरा की कड़ी हूं जो प्रह्लाद से शुरू होकर सुकरात से होते हुए गांधी तक पहुंची है।मैं चाहता हूं कि मनुष्य हथियारों या ताकत का उपयोग किए बिना अन्याय एवं शोषण के विरोध करने की कला को सीखें ।" जब डॉक्टर लोहिया इस तरह से समाजवाद को लोगो के सामने रखते , तो ये दिखता की वो इस पर कितना फक्र करते है। ये वैचारिक परंपरा शहीदे आज़म भगत सिंह और महात्मा गांधी से देश मे पनपते हुए, लोहिया जी के हाथों से होते हुए समाजवादी नेता मुलायम सिंह के विचारों में आई। और अब यह अखिलेश यादव की नीतियों में पूर्णतया समाहित नज़र आती है।
शहीदे आजम सरदार भगत सिंह और डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के बीच कई सारी ऐसी समानताएं रही है , जो इन दोनों महान हस्तियों को एक ही प्लेटफार्म पर लाकर खड़ा कर देती है। आजादी की लड़ाई से लेकर के अन्य सारे आंदोलनों तक बहुत सारी बातें लोहिया और भगत सिंह को एक साथ जोड़ती है। लेकिन जो सबसे मुख्य बात लोहिया और भगत सिंह एक साथ ले जाती है, वह है "समाजवाद"। वह विचारधारा जिसके पोषक सरदार भगत सिंह के बाद डॉक्टर राम मनोहर लोहिया बने ।
जहां शहीदे आजम सरदार भगत सिंह के समाजवादी विचार आज की देसी सरकारों खास करके ऐसी सरकारों के लिए जो धर्म के और नफरत की राजनीति कर रही है , उनके लिए बेहद खतरनाक और जानलेवा थे । वही लोहिया ने अपने विचारों और अपने आंदोलनों से देश के लोगों में समाजवाद के प्रति एक अलख जगाई।
प्रखर आंदोलनों और संगठित विरोध के चलते जेल जाने पर जब एक पत्रकार ने डॉ लोहिया से पूछा कि, "आप चुनी हुई सरकार के खिलाफ इतना विरोध क्यों करते हैं?क्या आप सरकार का कार्यकाल पूरा होने तक उनके काम का विश्लेषण करके इंतजार नहीं कर सकते ?
डॉक्टर लोहिया ने जवाब दिया था कि "जिंदा कौमें 5 साल इंतजार नहीं करती"। ये एक लाइन का बयान , डॉक्टर लोहिया के गलत को तुरंत सही करने और सबके लिए सही करने की भावना को दिखाती है। डॉक्टर लोहिया ये मानते थे कि जो चीज़ गलत है उसे सही करने के लिए वक़्त का इंतज़ार क्यों किया जाए।
ये वही डॉक्टर राममनोहर लोहिया थे जिन्होंने ने आज़ादी के आंदोलन में बढ़चढ़ के भाग लिया। और आज़ादी के बाद देश मे संबिधान की नीतियों को कमजोर होता देख , देश मे वापस समाजवाद की क्रांति ज्वाला को जलाया । और देश को लोकतांत्रिक तरीके से अन्याय और शोषण के खिलाफ लड़ना सिखाया। लोहिया ने जिस "समाजवाद" नाम के हथियार से न जाने कितने सत्ता के गुरूरो को तोड़ा, न जाने कितने तानाशाहों को झुकने पर मजबूर कर दिया, न जाने कितने कितने अत्यचारियो को हराया , वो हथियार अपने आप मे पूर्ण और उचित समाधान है किसी भी समस्या का।
ये समाजवाद वो हथियार जो खुद से पहले दूसरो को रखता है। जो संघर्ष और अनुशाशन में विश्वास करवाता है। समाजवाद उस नीति में विश्वास और बढ़ाती जिसमे अहिंसा और प्रेम से बड़े बड़े तानाशाहों को झुकाया गया। हाल फिलहाल इलाहाबाद में समाजवादी पार्टी के छात्रों में वही झलक देखने को मिली। सिर पर क्रांति की निशानी लाल टोपी लगाए, पुलिस की लाठिया खाते हुए अपने आंदोलन की तरफ अग्रसर युवाओ को देख कर लगा कि समाजवाद वो विचारधारा है जो हर वर्ग को अपना बना लेती है। अपने विचारों पर अडिग रहने और उसके लिए संघर्ष करते रहने और उसके लिए सारे जुल्म सहने की ताकत उन छात्रों में समाजवादी विचारधारा और उनके समाजवादी नेता अखिलेश यादव से मिली।।
समाजवाद की चिन्तन-धारा कभी देश-काल की सीमा की बन्दी नहीं रही। विश्व की रचना और विकास के बारे में समाजवाद अनोखी व अद्वितीय दृष्टि है। इसलिए समाजवाद में सदा ही विश्व नागरिकता का सपना देखा जाता है ।क्योकि समाजवाद की भावना सीमा, और क्षेत्र से बढ़कर है। इसलिए इंसान को किसी देश का नहीं बल्कि विश्व नागरिकता का सपना देखा जाता है। इसीलिए "वशुधैव कुटुम्बकम " को तरजीह दी जाती है।
ठीक इसी राह पर डॉक्टर लोहिया भी चले और समाजवाद के मुख्य उद्देश्यों को अपनी चाहत बना लिया। उनकी चाह थी कि एक से दूसरे देश में आने जाने के लिए किसी तरह की भी कानूनी रुकावट न हो और सम्पूर्ण पृथ्वी के किसी भी अंश को अपना मानकर कोई भी कहीं आ-जा सकने के लिए पूरी तरह आजाद हो।
"मैं उस परंपरा की कड़ी हूं जो प्रह्लाद से शुरू होकर सुकरात से होते हुए गांधी तक पहुंची है।मैं चाहता हूं कि मनुष्य हथियारों या ताकत का उपयोग किए बिना अन्याय एवं शोषण के विरोध करने की कला को सीखें ।"
जब डॉक्टर लोहिया इस तरह से समाजवाद को लोगो के सामने रखते , तो ये दिखता की वो इस पर कितना फक्र करते है।
ये वैचारिक परंपरा शहीदे आज़म भगत सिंह और महात्मा गांधी से निकलते हुए, लोहिया जी के हाथों से होते हुए समाजवादी नेता मुलायम सिंह के विचारों में आई। और अब यह अखिलेश यादव की नीतियों में पूर्णतया समाहित नज़र आती है।
लोहिया एक नयी सभ्यता और संस्कृति के द्रष्टा और निर्माता थे। लेकिन आधुनिक युग जहाँ उनके दर्शन की उपेक्षा नहीं कर सका, वहीं उन्हें पूरी तरह आत्मसात भी नहीं कर सका। अपनी प्रखरता, ओजस्विता, मौलिकता, विस्तार और व्यापक गुणों के कारण वे अधिकांश में लोगों की पकड़ से बाहर रहे। इसका एक कारण है-जो लोग लोहिया के विचारों को ऊपरी सतही ढंग से ग्रहण करना चाहते हैं, उनके लिए लोहिया बहुत भारी पड़ते हैं। गहरी दृष्टि से ही लोहिया के विचारों, कथनों और कर्मों के भीतर के उस सूत्र को पकड़ा जा सकता है, जो सूत्र लोहिया-विचार की विशेषता है, वही सूत्र ही तो उनकी विचार-पद्धति है।
लोहिया अनेक सिद्धान्तों, कार्यक्रमों और क्रांतियों के जनक हैं। वे सभी अन्यायों के विरुद्ध एक साथ जेहाद बोलने के पक्षपाती थे। उन्होंने एक साथ सात क्रांतियों का आह्वान किया। वे सात क्रान्तियां थी।
1 नर-नारी की समानता के लिए,
2 चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता के खिलाफ,
3 संस्कारगत, जन्मजात जातिप्रथा के खिलाफ और पिछड़ों को विशेष अवसर के लिए,
4 परदेसी गुलामी के खिलाफ और स्वतन्त्रता तथा विश्व लोक-राज के लिए,
5 निजी पूँजी की विषमताओं के खिलाफ और आर्थिक समानता के लिए तथा योजना द्वारा पैदावार बढ़ाने के लिए,
6 निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के खिलाफ और लोकतंत्री पद्धति के लिए,
7 अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ और सत्याग्रह के लिये।
ये सातो आंदोलन समाजवाद के सैद्धान्तिक ढांचे के मुताबिक ही रहे । उन्होंने समाजवादी सिद्धांत को लागू करने जैसे बड़े विजन को पूरा करने के लिए 11 सूत्रीय मांगों को भी सरकार के सामने रखा । लोहिया इन्हीं आंदोलनों और इन्हीं मांगों के माध्यम से समाजवाद जैसे विजन को प्रभावी ढंग से देश में लागू करने का एक ख्वाब देख रहे थे। और इसी आंदोलन ने उन्हें एक चट्टान की तरह मजबूत और दृढ़ इच्छा शक्ति वाला व्यक्ति बना दिया । एक ऐसा व्यक्ति जिसने वाकपटुता में निपुण पंडित जवाहरलाल नेहरू को पूरे सदन के सामने निरुत्तर कर दिया । जब उन्होंने कहा कि "देश का हर व्यक्ति तीन पैसे प्रतिदिन पर गुजारा कर रहा है और प्रधानमंत्री के ऊपर प्रतिदिन पचीस हज़ार रुपये खर्च हो रहे हैं।"
लोहिया ने समाजवाद के हथियार से क्रांति को वह दशा और दिशा दी जिसने उस समय की एकमात्र सत्ताधीश पार्टी कांग्रेस को भी हिला कर रख दिया। उस समय पर एक मजबूत विपक्ष खड़ा करने का सारा श्रेय सिर्फ और सिर्फ डॉक्टर लोहिया को ही जाता है। डॉ लोहिया ने कांग्रेस के खिलाफ खत्म हो चुके विपक्ष को एक नए रूप में सामने लाया, और समाजवादी आंदोलन को तेज किया । डॉक्टर लोहिया समाजवाद को लागू करके उस समय के कांग्रेस सरकार की कुछ कमियों को खत्म करना चाहते थे । और इस प्रकार उन्होंने समाजवाद की रक्षा और समाजवाद के पोषण के लिए गैर कांग्रेस संगठन बनाया । लोहिया ने दिखाया कि समाजवाद वह ताकत है जो बिना हथियार के और बिना ताकत का प्रदर्शन किए भी बड़े से बड़े जुल्म के खिलाफ मजबूती के साथ लड़ सकता है।
समाजवाद यह शब्द सुनने में और पढ़ने में चाहे जितना साधारण क्यों ना लगे , लेकिन इस शब्द के मायनो ने और इसके असर ने पूरी दुनिया को कई बार परिवर्तन और क्रांति दिखाया है । इस की महत्वता इसी बात से देखी जा सकती है कि दुनिया की 99% आबादी आज समाजवाद के सिद्धांत को अपना कर रह रही है। 1% सिर्फ वही बच जाते हैं जिनका भरोसा सामंतवादी ताकतों में है, या जो इन ताकतों के पालक पोषक हैं।
चाहे वह फ्रांस की क्रांति हो, या रूस की क्रांति गांधी की क्रांति हो, या भगत सिंह जी की क्रांति , विश्व की लगभग लगभग सारी बड़ी क्रांतियों का एक ही आधार था । वह था समाजवाद ।
आजकल जो लोग शहीद ए आजम सरदार भगत सिंह जी के नाम पर ढोंग करके चुनावी रोटियां सीख रहे हैं । अगर वह शहीद-ए-आजम भगत सिंह जी को थोड़ा ही भी पढ़ ले , तो उन्हें समाजवाद की समझ आ जाएगी । भगत सिंह जी ने HSRA ( भारतीय समाजवाद गणतंत्र संघ) की स्थापना की। इसके नाम के अंत में संघ लगे होने से आप ही बिल्कुल न सोचें कि इनका संबंध कहीं से कुछ भी आरएसएस से रहा होगा ।
सावरकर और गोडसे की पूजा करने वालों को शायद एच एस आर ए का पूरा नाम भी नहीं मालूम होगा । तो इसके मायने उनको कहां से पता चलेंगे । सरदार भगत सिंह जी ने अपने पूरे जीवन भर समाजवाद की इसी विचारधारा के साथ लड़ाई किया । भगत सिंह जी समाजवाद के कितने बड़े पुजारी थे यह बात उनके लिखे हुए लेखों और विचारों को पढ़कर समझ में आता है । उन्होंने एक किताब भी लिखी " समाजवाद के सिद्धांत"। लेकिन उनकी ये किताब आज तक प्रकाशित नही की गई ।
उनकी इसी विचारधारा और दीवानेपन ने उनका स्थान देश में गांधी जी से भी ऊपर कर दिया । भगत सिंह जी ने हमेशा ही सामंतवादी ताकतों का विरोध किया और साथ ही उन्होंने कट्टरपंथी ताकतों का भी विरोध किया, जिसमें मुस्लिम लीग आरएसएस और हिंदू महासभा भी शामिल थे ।भगत सिंह जी समाजवादी क्रांतिकारी धारा के सबसे बड़े नेताओं में से एक थे । उन्होंने अपने पूरे जीवन में अपनी बातों को लिखित रूप से दर्ज कराने की पूरा कोशिश किया। जिससे कि उनके बाद उनकी बातों को तोड़ मरोड़कर लोग अपना स्वार्थ सिद्ध न करें।
भगत सिंह ने भारत में सबसे पहले समाजवाद का अलख जगाया था। उनका कथन था कि स्वतंत्रता का अर्थ पूंजीवाद, वर्गवाद और कुछ लोगों को विशेषाधिकार देने वाली प्रणाली का अंत कर देना ही क्रांति का प्रतीक है।फिरोजशाह कोटला मैदान की महत्वपूर्ण मीटिंग में भगत सिंह ने अपने सभी साथियों और अपने क्रांतिकारी नेता चंद्रशेखर आज़ाद को समाजवाद के सिद्धांतों को समझने और ग्रहण करने के लिए तैयार किया। भगत सिंह ने ब्रिटिश राज से मुक्त आजाद भारत में मजदूर किसानों के राज्य की संस्थापन करने की जोरदार प्रस्थापना प्रस्तुत की। भगत सिंह की शानदार पहल और जोरदार प्रयास के परिणामस्वरुप ही क्रांतिकारी दल के नाम के साथ ‘सोशलिस्ट’ शब्द संलग्न किया गया।
शहीदे आज़म भगत सिंह और उनके साथियों को ‘क्रांतिकारी" कहा जाता है। लेकिन वे भारत में समाजवाद/ साम्यवाद के अधिष्ठाता या जननायक कहे जा सकते हैं। अपने मित्र सुखदेव को उन्होंने लिखा था- “तुम और मैं तो जिन्दा नहीं रहेंगे लेकिन हमारी जनता जिन्दा रहेगी। मार्क्सवाद लेनिनवाद के ध्येय और साम्यवाद की विजय निश्चित है।
दिल्ली के सेशन जज के सामने दिये वक्तव्य में उन्होंने कहा- “क्रांति से हमारा अभिप्राय यह है कि प्रत्यक्ष अन्याय पर आधारित वर्त्तमान व्यवस्था बदलनी चाहिये । वास्तविक उत्पादनकर्ता या मजदूर को समाज का अत्यावश्यक हिस्सा बनाने के स्थान पर, शोषक उनकी मेहनत के फल छीन लेते हैं , और उन्हें उनके सामान्य अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है। एक तरफ तो है किसान जो सबके लिये अनाज उगाता है, अपने परिवार के साथ भूखा मरता है, बुनकर जो विश्व बाज़ार को कपड़ा सप्लाई करता है, अपने बच्चों का तन ढकने को पर्याप्त कपड़ा नहीं प्राप्त कर सकता, राज, लोहार, और बढई जो शानदार महल तैयार करते हैं, खुद गन्दी बस्तियों में जीते और मरते हैं।
और दूसरी तरफ हैं समाज के परजीवी, पूंजीवादी शोषक जो अपनी सनक पर ही लाखों की रकम उड़ा देते हैं। ये भयानक असमानतायें और जबरन थोपी गयी विकृतियां विप्लव की तरफ ले जारही हैं। ये हालात ज्यादा दिन नहीं चल सकते और यह स्पष्ट होगया है कि वर्त्तमान समाज व्यवस्था ज्वालामुखी के किनारे खड़ी जश्न मना रही है। इस सभ्यता की पूरी इमारत अगर वक्त रहते बचायी नहीं गयी तो लड़खड़ा कर ढह जायेगी। इसलिए एक मूलभूत परिवर्तन आवश्यक है। और जो इस बात को समझते हैं, उनका कर्तव्य है कि समाजवादी आधार पर समाज का पुनर्गठन किया जाये।"
भगतसिंह जी की इस विचारधारा को सबके सामने लाने में भारतीय इतिहासकारों को 40 साल से भी ज्यादा का समय लग गया । और आज यही कथित इतिहासकार 2 घंटे में ही भीड़ को को हिन्दू और मुस्लिम का रूप दे देते हैं। यह सब इतने तेजी से हो रहा हैं कि, नेताओं के खाने से लेकर बर्तन तक और उनकी चप्पल को भी किताब के पन्नों पर अंकित कर देते हैं। ये सूचक हैं सामंतवादी ताकत की आगाज के। आज इसी सामंतवादी ताकतों के अनुनायी समाजवाद को समाप्तवाद और जूठन बता रहे हैं।
इस देश की संविधान की मूल भावना ही समाज वाद है । समाजवाद के आधार पर ही इस देश के संविधान की रचना हुई है। और आज उस संविधान द्वारा निर्मित पदों पर बैठकर कुछ लोग उसी संविधान को और उसकी मूल भावना को पेट भर-भर कर गाली दे रहे हैं । जिन पदों पर बैठकर अपने झूठ और फरेब के वंश को सींच कर बड़ा कर रहे हैं, उन्हीं पदों के निर्माता को कोस रहे हैं , और देश में तानाशाही का माहौल बना रहे हैं ।
सही मायनों में अगर समाजवाद के मायने देखा जाए तो वह यह होता है कि, एक ऐसा समाज की संरचना करना जिसमें जाति , धर्म, क्षेत्र, ऊँच नीच , के भेदभाव के बिना एक दूसरे के साथ मिलकर एक दूसरे के सहयोग करने की भावना बनाना। अपने से पहले दूसरों की भलाई करने की
भावना हो। समाजवाद को मानने वालों का दिल कितना बड़ा होता है कि सारे विश्व को अपना परिवार समझते हैं । "वसुधैव कुटुंबकम" की भावना से समाजवाद से ही आती है।
समाजवाद को सीधे–सरल शब्दों में परिभाषित करने को कहा जाए तो उसका अर्थ होगा, ऐसी व्यवस्था जिसमें समाज के संसाधनों पर जन–जन का बराबर का हिस्सा हो। सभी लोग अपनी क्षमतानुसार काम करें। अर्जित संपत्ति का मिल–बांटकर, अपने और सर्व–हित में उपयोग करें। उसका प्रबंधन समाज द्वारा लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित व्यवस्था,सरकार द्वारा किया जाता हो। सरकार प्रत्येक से उसकी क्षमता के अनुसार काम लेकर, हर एक को उसकी आवश्यकता के अनुरूप लौटाए। यह बिना समर्पण और त्याग के असंभव है। इसलिए ईश्वास्योपनिषद में कहा गया—‘त्येन त्यक्तेनभुंजीथा’ । यानी ‘जिसने त्यागा है, उसी ने भोग किया है’।
व्यक्ति त्याग करेगा तभी तो दूसरे के अभावों की पूर्ति के संसाधन जमा होंगे। यह कोई पहेली नहीं, सीधी–सी व्यवस्था है, त्याग और भोग के बीच संतुलन बनाए रखने की। सहकार और सहयोग की जरूरत को स्थापित करने वाली एक भावना है। ऐसी व्यवस्था जिसमें—‘एक सबके लिए और सब एक के लिए काम करें'। जिसमें आर्थिक –सामाजिक–राजनीतिक , यानी हर स्तर पर समानता हो। इसे हम कुछ इस तरह भी समझ सकते है कि एक ऐसी व्यवस्था जिसमे सभी लोग मिलकर , सभी के लिए , सभी के साथ काम करे। और जिसकी जितनी जरूरत हो उसको उतना दिया जाए।
समाजवाद विकाश से परे होता है। ये एक भावना है। जिसके सुनते ही हमारे मन मे समता, समानता और उदारता का एक स्पष्ट रेखांकन नज़र आता है। समाजवाद नाम सुनते ही हममें अहिंसा , उदारता, सर्वधर्म समभाव, सहिष्णुता , शांति, और भाईचारे का विश्वास और मजबूत हो जाता है। ये हमारे मन और समाज को स्थिरता प्रदान करके उसे ठोस बनाता है। ये समाज और देश की संवैधानिक संरचना की नींव को थामे रखने के साथ साथ उसे मजबूती प्रदान करता है।
गौर से देखें तो त्याग और भोग व्यक्ति और समाज का पर्याय दिखने लगते हैं। हर व्यक्ति यथा संभव त्याग करे ताकि सब मिलकर यथा संभव भोग कर सकें। समाजवाद का संदेश साफ है, लोगों के बीच जाति, धर्म, क्षेत्र, जन्म, कुल, गोत्र,व्यवसाय, भाषा आदि के नाम पर किसी प्रकार का भेदभाव न हो। न किसी की उपेक्षा हो, न किसी को विशेषाधिकार प्राप्त हों। न किसी को बहुत ज्यादा मिले , न किसी को कम मिले। व्यक्ति से उसकी योग्यता और क्षमतानुसार काम लेकर उसकी जरूरत के अनुसार देना समाजवाद के मुख्य उद्देश्यों में से एक है।
बहुत सारे विचारकों, दार्शनिकों और लेखकों में अपने अपने अनुसार समाजवाद को परिभाषित करने की कोसिस भी किया। जैसे प्रषिद्ध विचारक वेकर कोकर के अनुसार - ‘‘समाजवाद वह नीति या सिध्दांत है जिसका उददेश्य एक लोकतांत्रिक केन्द्रीय सत्ता द्वारा प्रचलित व्यवस्था की अपेक्षा धन का श्रेष्ठ कर वितरण और उसके अधीन रहते हुए धन का श्रेृठतर उत्पादन करना है।’’
बर्नार्ड शॉ के अनुसार - ‘‘समाजवाद का अभिप्राय संपत्ति के सभी आधारभूत साधनो पर नियंत्रण से है । यह नियंत्रण समाजवाद के किसी एक वर्ग द्वारा न होकर स्वयं समाज के द्वारा होगा और धीरे धीरे व्यवस्थित ढंग से स्थापित किया जायेगा।’’
सीधे और बेहद आसान शब्दो शब्दों में समाजवाद वह कल्याणकारी व्यवस्था है, जिसमें नागरिकों के बीच निजता का लोप होकर, कल्याण का सम विभाजन होने लगता है। ‘सर्वभूतहितेरत’ की कामना आज की नहीं है। जबसे समाज का गठन हुआ है, मनुष्य ने संगठित होना सीखा है, तभी से किसी न किसी रूप में चली आ रही है। हालांकि इसमें विक्षोभ भी हुए है। दूसरे का हिस्से पर अधिकार जमा लेने वाले, लोगों के श्रम,उनके खून–पसीने की कमाई पर जीवन यापन करने वाले, और दूसरों का हक मारकर विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले लोग भी समाज में रहे हैं।
उन्होंने समाज को अपनी मर्जी के अनुसार हांकने की कोशिश भी है। कुछ को अस्थायी सफलता भी मिली है। परंतु उस दुरवस्था के प्रति विरुद्ध जनाक्रोश भी देर–सवेर पनपा है। महामानवों ने अवतरित होकर लोगों को अपने–अपने अधिकारों के प्रति जागरूक किया है।अन्याय के प्रति चेताया है। उनके आवाह्न पर उमड़ी जनशक्ति ने उत्पीड़क शक्तियों को चुनौती देकर उन्हें समानता पर आधारित व्यवस्था लागू करने के लिए बाध्य भी किया है। जिससे समाज को घूम–फिरकर समानता और सर्व कल्याण के समावेशी रूप की ओर लौटना पड़ा है।हमारे सामने ऐसे असंख्य उदाहण मिल जायेंगे।
अगर बीजेपी की बात करें तो पंडित अटल बिहारी वाजपेई के समय में थोड़ी बहुत समाजवाद की भावना जरूर पनपी थी । 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना वाले अधिवेशन में भाजपा के पहले अध्यक्ष के नाते पंडित श्री अटल बिहारी वाजपेई ने जो भाषण दिया था, उसमें क्या कहा गया था ? यह वही मशहूर भाषण है जिसे भाजपा वाले "अंधेरा छटेगा । सूरज निकलेगा । कमल खिलेगा । " के लिए याद करते हैं । तब मुंबई में मंच पर बैठे हुए लालकृष्ण आडवाणी और अन्य नेताओं की मौजूदगी में वाजपेई ने यह कहा था कि " गांधीवादी समाजवाद पार्टी की मुख्य नीति होगी "।
शायद मंच की किसी कोने में किसी नेता का माइक पकड़े नरेंद्र मोदी भी खड़े रहे होंगे। और कही कही से तड़ीपार होकर भाग कर जाने अनजाने उस अधिवेशन में शाह जी भी मौजूद रहे होंगे । पार्टी इस पर कितनी चली यह तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह ही बेहतर जानते है।
लेकिन पार्टी ने अधिकारिक पन्नों पर आधिकारिक तौर से समाजवाद शब्द का इस्तेमाल किया । और वह भी तब जब संविधान सभा में समाजवाद शब्द को जुड़े हुए दो दशक हो चुके थे। क्या आप भाजपा के नरेंद्र मोदी और अमित शाह जी यह बताने का कष्ट करेंगे कि गांधीवादी समाजवाद उनकी पार्टी में अब कहां है ? और अब जब उनके नेता समाजवाद को गालियां दे रहे हैं , तब क्या अब अटल जी की कही गई उन बातों को भाजपा से निकाल दिया जाएगा ?
भारतीय जनता पार्टी में समाजवाद पंडित अटल बिहारी वाजपेई जी की मौत की तरह ही सिर्फ एक नाम बन कर रह गयी है। समाजवादी सिद्धांत को फॉलो करने मि बात करने वाले अटल जी की पार्टी के बाबा और सूबे के परम मुखिया, विधानसभा के पटल पर समाजवाद को "समाप्तवाद" और "जूठन" बताते है। अटल जी की खून से सींची गई बीजेपी में आज दूसरी प्रवृत्ति के लोग आकर उन को दरकिनार कर दिए ।और उनकी मेहनत का फल खुद भोग रहे हैं।
समाजवाद अपने आप में इतना विशाल है कि इसे ससाझाना किसी दार्शनिक या किसी किताब के बस का नहीं है। समाजवाद कभी भी किसी अन्य विचारधारा या किसी अन्य संगठन का मोहताज नहीं रहा । यह अपने आप में पूरा एक संसार है । समाजवाद उस भावना का नाम है, जो सभी को एक समान रखकर सभी को बराबर देकर सभी की जरूरतें पूरा करना चाहती है । यह एक ऐसे समाज की संरचना की कल्पना करती है जिसमें ना कोई बड़ा हो गया ना कोई छोटा हो जिसमें सब बराबर हो और सब एक दूसरे का सम्मान करें।
समाजवाद में व्यक्ति विशेष को महत्व ना देकर पूरे समाज की को महत्व दिया जाता है ।
पूंजीवाद का विरोध किया जाता है ।
एक दूसरे के सहयोग पर आधारित होता है ।
यह आर्थिक समानता का पक्षधर है ।
यह लोगों को लोकतंत्र में आस्था रखना सिखाता है
सामाजिक शोषण का अंत करता है ।
सामाजिक न्याय की वकालत करता है।
सभी को उन्नति के समान अवसर देता है ।साम्राज्यवाद का विरोध करता है।
समाजवाद की यही बातें पूंजीवादी विचारों को पसंद नहीं आती। इसीलिए वह बार-बार इस देश में तानाशाही के दौर को वापस लेकर आते है , ताकि एक छत्रराज कर सकें । और अपने आकाओं का पेट भर सके। समाजवाद सूचक है , देश की गरीब का , जो लकड़ियों को ढोकर । गड्ढा खोदकर। सच में चाय बेचकर अपने परिवार के लिए अपने लिए ईमानदारी से दो वक्त के खाने रहने की व्यवस्था करता है । लेकिन एक पूंजीवादी सोच वाली सरकार या उसके नुमाइंदे ना तो समाजवाद की कदर करते हैं, और ना ही उसकी देखभाल । क्योंकि उनका मुख्य उद्देश्य समाजवाद को हटाकर पूंजीवाद को लागू करना है । चंद मुट्ठी भर लोगों को देश का भगवान बनाना है। उनके मंसूबे इतने गंदे हैं जितने कि एक आतंकवादी के ।
जहां शहीदे आजम सरदार भगत सिंह के समाजवादी विचार आज की देसी सरकारों खास करके ऐसी सरकारों के लिए जो धर्म के और नफरत की राजनीति कर रही है , उनके लिए बेहद खतरनाक और जानलेवा थे । वही लोहिया ने अपने विचारों और अपने आंदोलनों से देश के लोगों में समाजवाद के प्रति एक अलख जगाई।
प्रखर आंदोलनों और संगठित विरोध के चलते जेल जाने पर जब एक पत्रकार ने डॉ लोहिया से पूछा कि, "आप चुनी हुई सरकार के खिलाफ इतना विरोध क्यों करते हैं?क्या आप सरकार का कार्यकाल पूरा होने तक उनके काम का विश्लेषण करके इंतजार नहीं कर सकते ?
डॉक्टर लोहिया ने जवाब दिया था कि "जिंदा कौमें 5 साल इंतजार नहीं करती"। ये एक लाइन का बयान , डॉक्टर लोहिया के गलत को तुरंत सही करने और सबके लिए सही करने की भावना को दिखाती है। डॉक्टर लोहिया ये मानते थे कि जो चीज़ गलत है उसे सही करने के लिए वक़्त का इंतज़ार क्यों किया जाए।
ये वही डॉक्टर राममनोहर लोहिया थे जिन्होंने ने आज़ादी के आंदोलन में बढ़चढ़ के भाग लिया। और आज़ादी के बाद देश मे संबिधान की नीतियों को कमजोर होता देख , देश मे वापस समाजवाद की क्रांति ज्वाला को जलाया । और देश को लोकतांत्रिक तरीके से अन्याय और शोषण के खिलाफ लड़ना सिखाया। लोहिया ने जिस "समाजवाद" नाम के हथियार से न जाने कितने सत्ता के गुरूरो को तोड़ा, न जाने कितने तानाशाहों को झुकने पर मजबूर कर दिया, न जाने कितने कितने अत्यचारियो को हराया , वो हथियार अपने आप मे पूर्ण और उचित समाधान है किसी भी समस्या का।
ये समाजवाद वो हथियार जो खुद से पहले दूसरो को रखता है। जो संघर्ष और अनुशाशन में विश्वास करवाता है। समाजवाद उस नीति में विश्वास और बढ़ाती जिसमे अहिंसा और प्रेम से बड़े बड़े तानाशाहों को झुकाया गया। हाल फिलहाल इलाहाबाद में समाजवादी पार्टी के छात्रों में वही झलक देखने को मिली। सिर पर क्रांति की निशानी लाल टोपी लगाए, पुलिस की लाठिया खाते हुए अपने आंदोलन की तरफ अग्रसर युवाओ को देख कर लगा कि समाजवाद वो विचारधारा है जो हर वर्ग को अपना बना लेती है। अपने विचारों पर अडिग रहने और उसके लिए संघर्ष करते रहने और उसके लिए सारे जुल्म सहने की ताकत उन छात्रों में समाजवादी विचारधारा और उनके समाजवादी नेता अखिलेश यादव से मिली।।
समाजवाद की चिन्तन-धारा कभी देश-काल की सीमा की बन्दी नहीं रही। विश्व की रचना और विकास के बारे में समाजवाद अनोखी व अद्वितीय दृष्टि है। इसलिए समाजवाद में सदा ही विश्व नागरिकता का सपना देखा जाता है ।क्योकि समाजवाद की भावना सीमा, और क्षेत्र से बढ़कर है। इसलिए इंसान को किसी देश का नहीं बल्कि विश्व नागरिकता का सपना देखा जाता है। इसीलिए "वशुधैव कुटुम्बकम " को तरजीह दी जाती है।
ठीक इसी राह पर डॉक्टर लोहिया भी चले और समाजवाद के मुख्य उद्देश्यों को अपनी चाहत बना लिया। उनकी चाह थी कि एक से दूसरे देश में आने जाने के लिए किसी तरह की भी कानूनी रुकावट न हो और सम्पूर्ण पृथ्वी के किसी भी अंश को अपना मानकर कोई भी कहीं आ-जा सकने के लिए पूरी तरह आजाद हो।
"मैं उस परंपरा की कड़ी हूं जो प्रह्लाद से शुरू होकर सुकरात से होते हुए गांधी तक पहुंची है।मैं चाहता हूं कि मनुष्य हथियारों या ताकत का उपयोग किए बिना अन्याय एवं शोषण के विरोध करने की कला को सीखें ।"
जब डॉक्टर लोहिया इस तरह से समाजवाद को लोगो के सामने रखते , तो ये दिखता की वो इस पर कितना फक्र करते है।
ये वैचारिक परंपरा शहीदे आज़म भगत सिंह और महात्मा गांधी से निकलते हुए, लोहिया जी के हाथों से होते हुए समाजवादी नेता मुलायम सिंह के विचारों में आई। और अब यह अखिलेश यादव की नीतियों में पूर्णतया समाहित नज़र आती है।
लोहिया एक नयी सभ्यता और संस्कृति के द्रष्टा और निर्माता थे। लेकिन आधुनिक युग जहाँ उनके दर्शन की उपेक्षा नहीं कर सका, वहीं उन्हें पूरी तरह आत्मसात भी नहीं कर सका। अपनी प्रखरता, ओजस्विता, मौलिकता, विस्तार और व्यापक गुणों के कारण वे अधिकांश में लोगों की पकड़ से बाहर रहे। इसका एक कारण है-जो लोग लोहिया के विचारों को ऊपरी सतही ढंग से ग्रहण करना चाहते हैं, उनके लिए लोहिया बहुत भारी पड़ते हैं। गहरी दृष्टि से ही लोहिया के विचारों, कथनों और कर्मों के भीतर के उस सूत्र को पकड़ा जा सकता है, जो सूत्र लोहिया-विचार की विशेषता है, वही सूत्र ही तो उनकी विचार-पद्धति है।
लोहिया अनेक सिद्धान्तों, कार्यक्रमों और क्रांतियों के जनक हैं। वे सभी अन्यायों के विरुद्ध एक साथ जेहाद बोलने के पक्षपाती थे। उन्होंने एक साथ सात क्रांतियों का आह्वान किया। वे सात क्रान्तियां थी।
1 नर-नारी की समानता के लिए,
2 चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता के खिलाफ,
3 संस्कारगत, जन्मजात जातिप्रथा के खिलाफ और पिछड़ों को विशेष अवसर के लिए,
4 परदेसी गुलामी के खिलाफ और स्वतन्त्रता तथा विश्व लोक-राज के लिए,
5 निजी पूँजी की विषमताओं के खिलाफ और आर्थिक समानता के लिए तथा योजना द्वारा पैदावार बढ़ाने के लिए,
6 निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के खिलाफ और लोकतंत्री पद्धति के लिए,
7 अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ और सत्याग्रह के लिये।
ये सातो आंदोलन समाजवाद के सैद्धान्तिक ढांचे के मुताबिक ही रहे । उन्होंने समाजवादी सिद्धांत को लागू करने जैसे बड़े विजन को पूरा करने के लिए 11 सूत्रीय मांगों को भी सरकार के सामने रखा । लोहिया इन्हीं आंदोलनों और इन्हीं मांगों के माध्यम से समाजवाद जैसे विजन को प्रभावी ढंग से देश में लागू करने का एक ख्वाब देख रहे थे। और इसी आंदोलन ने उन्हें एक चट्टान की तरह मजबूत और दृढ़ इच्छा शक्ति वाला व्यक्ति बना दिया । एक ऐसा व्यक्ति जिसने वाकपटुता में निपुण पंडित जवाहरलाल नेहरू को पूरे सदन के सामने निरुत्तर कर दिया । जब उन्होंने कहा कि "देश का हर व्यक्ति तीन पैसे प्रतिदिन पर गुजारा कर रहा है और प्रधानमंत्री के ऊपर प्रतिदिन पचीस हज़ार रुपये खर्च हो रहे हैं।"
लोहिया ने समाजवाद के हथियार से क्रांति को वह दशा और दिशा दी जिसने उस समय की एकमात्र सत्ताधीश पार्टी कांग्रेस को भी हिला कर रख दिया। उस समय पर एक मजबूत विपक्ष खड़ा करने का सारा श्रेय सिर्फ और सिर्फ डॉक्टर लोहिया को ही जाता है। डॉ लोहिया ने कांग्रेस के खिलाफ खत्म हो चुके विपक्ष को एक नए रूप में सामने लाया, और समाजवादी आंदोलन को तेज किया । डॉक्टर लोहिया समाजवाद को लागू करके उस समय के कांग्रेस सरकार की कुछ कमियों को खत्म करना चाहते थे । और इस प्रकार उन्होंने समाजवाद की रक्षा और समाजवाद के पोषण के लिए गैर कांग्रेस संगठन बनाया । लोहिया ने दिखाया कि समाजवाद वह ताकत है जो बिना हथियार के और बिना ताकत का प्रदर्शन किए भी बड़े से बड़े जुल्म के खिलाफ मजबूती के साथ लड़ सकता है।
समाजवाद यह शब्द सुनने में और पढ़ने में चाहे जितना साधारण क्यों ना लगे , लेकिन इस शब्द के मायनो ने और इसके असर ने पूरी दुनिया को कई बार परिवर्तन और क्रांति दिखाया है । इस की महत्वता इसी बात से देखी जा सकती है कि दुनिया की 99% आबादी आज समाजवाद के सिद्धांत को अपना कर रह रही है। 1% सिर्फ वही बच जाते हैं जिनका भरोसा सामंतवादी ताकतों में है, या जो इन ताकतों के पालक पोषक हैं।
चाहे वह फ्रांस की क्रांति हो, या रूस की क्रांति गांधी की क्रांति हो, या भगत सिंह जी की क्रांति , विश्व की लगभग लगभग सारी बड़ी क्रांतियों का एक ही आधार था । वह था समाजवाद ।
आजकल जो लोग शहीद ए आजम सरदार भगत सिंह जी के नाम पर ढोंग करके चुनावी रोटियां सीख रहे हैं । अगर वह शहीद-ए-आजम भगत सिंह जी को थोड़ा ही भी पढ़ ले , तो उन्हें समाजवाद की समझ आ जाएगी । भगत सिंह जी ने HSRA ( भारतीय समाजवाद गणतंत्र संघ) की स्थापना की। इसके नाम के अंत में संघ लगे होने से आप ही बिल्कुल न सोचें कि इनका संबंध कहीं से कुछ भी आरएसएस से रहा होगा ।
सावरकर और गोडसे की पूजा करने वालों को शायद एच एस आर ए का पूरा नाम भी नहीं मालूम होगा । तो इसके मायने उनको कहां से पता चलेंगे । सरदार भगत सिंह जी ने अपने पूरे जीवन भर समाजवाद की इसी विचारधारा के साथ लड़ाई किया । भगत सिंह जी समाजवाद के कितने बड़े पुजारी थे यह बात उनके लिखे हुए लेखों और विचारों को पढ़कर समझ में आता है । उन्होंने एक किताब भी लिखी " समाजवाद के सिद्धांत"। लेकिन उनकी ये किताब आज तक प्रकाशित नही की गई ।
उनकी इसी विचारधारा और दीवानेपन ने उनका स्थान देश में गांधी जी से भी ऊपर कर दिया । भगत सिंह जी ने हमेशा ही सामंतवादी ताकतों का विरोध किया और साथ ही उन्होंने कट्टरपंथी ताकतों का भी विरोध किया, जिसमें मुस्लिम लीग आरएसएस और हिंदू महासभा भी शामिल थे ।भगत सिंह जी समाजवादी क्रांतिकारी धारा के सबसे बड़े नेताओं में से एक थे । उन्होंने अपने पूरे जीवन में अपनी बातों को लिखित रूप से दर्ज कराने की पूरा कोशिश किया। जिससे कि उनके बाद उनकी बातों को तोड़ मरोड़कर लोग अपना स्वार्थ सिद्ध न करें।
भगत सिंह ने भारत में सबसे पहले समाजवाद का अलख जगाया था। उनका कथन था कि स्वतंत्रता का अर्थ पूंजीवाद, वर्गवाद और कुछ लोगों को विशेषाधिकार देने वाली प्रणाली का अंत कर देना ही क्रांति का प्रतीक है।फिरोजशाह कोटला मैदान की महत्वपूर्ण मीटिंग में भगत सिंह ने अपने सभी साथियों और अपने क्रांतिकारी नेता चंद्रशेखर आज़ाद को समाजवाद के सिद्धांतों को समझने और ग्रहण करने के लिए तैयार किया। भगत सिंह ने ब्रिटिश राज से मुक्त आजाद भारत में मजदूर किसानों के राज्य की संस्थापन करने की जोरदार प्रस्थापना प्रस्तुत की। भगत सिंह की शानदार पहल और जोरदार प्रयास के परिणामस्वरुप ही क्रांतिकारी दल के नाम के साथ ‘सोशलिस्ट’ शब्द संलग्न किया गया।
शहीदे आज़म भगत सिंह और उनके साथियों को ‘क्रांतिकारी" कहा जाता है। लेकिन वे भारत में समाजवाद/ साम्यवाद के अधिष्ठाता या जननायक कहे जा सकते हैं। अपने मित्र सुखदेव को उन्होंने लिखा था- “तुम और मैं तो जिन्दा नहीं रहेंगे लेकिन हमारी जनता जिन्दा रहेगी। मार्क्सवाद लेनिनवाद के ध्येय और साम्यवाद की विजय निश्चित है।
दिल्ली के सेशन जज के सामने दिये वक्तव्य में उन्होंने कहा- “क्रांति से हमारा अभिप्राय यह है कि प्रत्यक्ष अन्याय पर आधारित वर्त्तमान व्यवस्था बदलनी चाहिये । वास्तविक उत्पादनकर्ता या मजदूर को समाज का अत्यावश्यक हिस्सा बनाने के स्थान पर, शोषक उनकी मेहनत के फल छीन लेते हैं , और उन्हें उनके सामान्य अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है। एक तरफ तो है किसान जो सबके लिये अनाज उगाता है, अपने परिवार के साथ भूखा मरता है, बुनकर जो विश्व बाज़ार को कपड़ा सप्लाई करता है, अपने बच्चों का तन ढकने को पर्याप्त कपड़ा नहीं प्राप्त कर सकता, राज, लोहार, और बढई जो शानदार महल तैयार करते हैं, खुद गन्दी बस्तियों में जीते और मरते हैं।
और दूसरी तरफ हैं समाज के परजीवी, पूंजीवादी शोषक जो अपनी सनक पर ही लाखों की रकम उड़ा देते हैं। ये भयानक असमानतायें और जबरन थोपी गयी विकृतियां विप्लव की तरफ ले जारही हैं। ये हालात ज्यादा दिन नहीं चल सकते और यह स्पष्ट होगया है कि वर्त्तमान समाज व्यवस्था ज्वालामुखी के किनारे खड़ी जश्न मना रही है। इस सभ्यता की पूरी इमारत अगर वक्त रहते बचायी नहीं गयी तो लड़खड़ा कर ढह जायेगी। इसलिए एक मूलभूत परिवर्तन आवश्यक है। और जो इस बात को समझते हैं, उनका कर्तव्य है कि समाजवादी आधार पर समाज का पुनर्गठन किया जाये।"
भगतसिंह जी की इस विचारधारा को सबके सामने लाने में भारतीय इतिहासकारों को 40 साल से भी ज्यादा का समय लग गया । और आज यही कथित इतिहासकार 2 घंटे में ही भीड़ को को हिन्दू और मुस्लिम का रूप दे देते हैं। यह सब इतने तेजी से हो रहा हैं कि, नेताओं के खाने से लेकर बर्तन तक और उनकी चप्पल को भी किताब के पन्नों पर अंकित कर देते हैं। ये सूचक हैं सामंतवादी ताकत की आगाज के। आज इसी सामंतवादी ताकतों के अनुनायी समाजवाद को समाप्तवाद और जूठन बता रहे हैं।
इस देश की संविधान की मूल भावना ही समाज वाद है । समाजवाद के आधार पर ही इस देश के संविधान की रचना हुई है। और आज उस संविधान द्वारा निर्मित पदों पर बैठकर कुछ लोग उसी संविधान को और उसकी मूल भावना को पेट भर-भर कर गाली दे रहे हैं । जिन पदों पर बैठकर अपने झूठ और फरेब के वंश को सींच कर बड़ा कर रहे हैं, उन्हीं पदों के निर्माता को कोस रहे हैं , और देश में तानाशाही का माहौल बना रहे हैं ।
सही मायनों में अगर समाजवाद के मायने देखा जाए तो वह यह होता है कि, एक ऐसा समाज की संरचना करना जिसमें जाति , धर्म, क्षेत्र, ऊँच नीच , के भेदभाव के बिना एक दूसरे के साथ मिलकर एक दूसरे के सहयोग करने की भावना बनाना। अपने से पहले दूसरों की भलाई करने की
भावना हो। समाजवाद को मानने वालों का दिल कितना बड़ा होता है कि सारे विश्व को अपना परिवार समझते हैं । "वसुधैव कुटुंबकम" की भावना से समाजवाद से ही आती है।
समाजवाद को सीधे–सरल शब्दों में परिभाषित करने को कहा जाए तो उसका अर्थ होगा, ऐसी व्यवस्था जिसमें समाज के संसाधनों पर जन–जन का बराबर का हिस्सा हो। सभी लोग अपनी क्षमतानुसार काम करें। अर्जित संपत्ति का मिल–बांटकर, अपने और सर्व–हित में उपयोग करें। उसका प्रबंधन समाज द्वारा लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित व्यवस्था,सरकार द्वारा किया जाता हो। सरकार प्रत्येक से उसकी क्षमता के अनुसार काम लेकर, हर एक को उसकी आवश्यकता के अनुरूप लौटाए। यह बिना समर्पण और त्याग के असंभव है। इसलिए ईश्वास्योपनिषद में कहा गया—‘त्येन त्यक्तेनभुंजीथा’ । यानी ‘जिसने त्यागा है, उसी ने भोग किया है’।
व्यक्ति त्याग करेगा तभी तो दूसरे के अभावों की पूर्ति के संसाधन जमा होंगे। यह कोई पहेली नहीं, सीधी–सी व्यवस्था है, त्याग और भोग के बीच संतुलन बनाए रखने की। सहकार और सहयोग की जरूरत को स्थापित करने वाली एक भावना है। ऐसी व्यवस्था जिसमें—‘एक सबके लिए और सब एक के लिए काम करें'। जिसमें आर्थिक –सामाजिक–राजनीतिक , यानी हर स्तर पर समानता हो। इसे हम कुछ इस तरह भी समझ सकते है कि एक ऐसी व्यवस्था जिसमे सभी लोग मिलकर , सभी के लिए , सभी के साथ काम करे। और जिसकी जितनी जरूरत हो उसको उतना दिया जाए।
समाजवाद विकाश से परे होता है। ये एक भावना है। जिसके सुनते ही हमारे मन मे समता, समानता और उदारता का एक स्पष्ट रेखांकन नज़र आता है। समाजवाद नाम सुनते ही हममें अहिंसा , उदारता, सर्वधर्म समभाव, सहिष्णुता , शांति, और भाईचारे का विश्वास और मजबूत हो जाता है। ये हमारे मन और समाज को स्थिरता प्रदान करके उसे ठोस बनाता है। ये समाज और देश की संवैधानिक संरचना की नींव को थामे रखने के साथ साथ उसे मजबूती प्रदान करता है।
गौर से देखें तो त्याग और भोग व्यक्ति और समाज का पर्याय दिखने लगते हैं। हर व्यक्ति यथा संभव त्याग करे ताकि सब मिलकर यथा संभव भोग कर सकें। समाजवाद का संदेश साफ है, लोगों के बीच जाति, धर्म, क्षेत्र, जन्म, कुल, गोत्र,व्यवसाय, भाषा आदि के नाम पर किसी प्रकार का भेदभाव न हो। न किसी की उपेक्षा हो, न किसी को विशेषाधिकार प्राप्त हों। न किसी को बहुत ज्यादा मिले , न किसी को कम मिले। व्यक्ति से उसकी योग्यता और क्षमतानुसार काम लेकर उसकी जरूरत के अनुसार देना समाजवाद के मुख्य उद्देश्यों में से एक है।
बहुत सारे विचारकों, दार्शनिकों और लेखकों में अपने अपने अनुसार समाजवाद को परिभाषित करने की कोसिस भी किया। जैसे प्रषिद्ध विचारक वेकर कोकर के अनुसार - ‘‘समाजवाद वह नीति या सिध्दांत है जिसका उददेश्य एक लोकतांत्रिक केन्द्रीय सत्ता द्वारा प्रचलित व्यवस्था की अपेक्षा धन का श्रेष्ठ कर वितरण और उसके अधीन रहते हुए धन का श्रेृठतर उत्पादन करना है।’’
बर्नार्ड शॉ के अनुसार - ‘‘समाजवाद का अभिप्राय संपत्ति के सभी आधारभूत साधनो पर नियंत्रण से है । यह नियंत्रण समाजवाद के किसी एक वर्ग द्वारा न होकर स्वयं समाज के द्वारा होगा और धीरे धीरे व्यवस्थित ढंग से स्थापित किया जायेगा।’’
सीधे और बेहद आसान शब्दो शब्दों में समाजवाद वह कल्याणकारी व्यवस्था है, जिसमें नागरिकों के बीच निजता का लोप होकर, कल्याण का सम विभाजन होने लगता है। ‘सर्वभूतहितेरत’ की कामना आज की नहीं है। जबसे समाज का गठन हुआ है, मनुष्य ने संगठित होना सीखा है, तभी से किसी न किसी रूप में चली आ रही है। हालांकि इसमें विक्षोभ भी हुए है। दूसरे का हिस्से पर अधिकार जमा लेने वाले, लोगों के श्रम,उनके खून–पसीने की कमाई पर जीवन यापन करने वाले, और दूसरों का हक मारकर विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले लोग भी समाज में रहे हैं।
उन्होंने समाज को अपनी मर्जी के अनुसार हांकने की कोशिश भी है। कुछ को अस्थायी सफलता भी मिली है। परंतु उस दुरवस्था के प्रति विरुद्ध जनाक्रोश भी देर–सवेर पनपा है। महामानवों ने अवतरित होकर लोगों को अपने–अपने अधिकारों के प्रति जागरूक किया है।अन्याय के प्रति चेताया है। उनके आवाह्न पर उमड़ी जनशक्ति ने उत्पीड़क शक्तियों को चुनौती देकर उन्हें समानता पर आधारित व्यवस्था लागू करने के लिए बाध्य भी किया है। जिससे समाज को घूम–फिरकर समानता और सर्व कल्याण के समावेशी रूप की ओर लौटना पड़ा है।हमारे सामने ऐसे असंख्य उदाहण मिल जायेंगे।
अगर बीजेपी की बात करें तो पंडित अटल बिहारी वाजपेई के समय में थोड़ी बहुत समाजवाद की भावना जरूर पनपी थी । 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना वाले अधिवेशन में भाजपा के पहले अध्यक्ष के नाते पंडित श्री अटल बिहारी वाजपेई ने जो भाषण दिया था, उसमें क्या कहा गया था ? यह वही मशहूर भाषण है जिसे भाजपा वाले "अंधेरा छटेगा । सूरज निकलेगा । कमल खिलेगा । " के लिए याद करते हैं । तब मुंबई में मंच पर बैठे हुए लालकृष्ण आडवाणी और अन्य नेताओं की मौजूदगी में वाजपेई ने यह कहा था कि " गांधीवादी समाजवाद पार्टी की मुख्य नीति होगी "।
शायद मंच की किसी कोने में किसी नेता का माइक पकड़े नरेंद्र मोदी भी खड़े रहे होंगे। और कही कही से तड़ीपार होकर भाग कर जाने अनजाने उस अधिवेशन में शाह जी भी मौजूद रहे होंगे । पार्टी इस पर कितनी चली यह तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह ही बेहतर जानते है।
लेकिन पार्टी ने अधिकारिक पन्नों पर आधिकारिक तौर से समाजवाद शब्द का इस्तेमाल किया । और वह भी तब जब संविधान सभा में समाजवाद शब्द को जुड़े हुए दो दशक हो चुके थे। क्या आप भाजपा के नरेंद्र मोदी और अमित शाह जी यह बताने का कष्ट करेंगे कि गांधीवादी समाजवाद उनकी पार्टी में अब कहां है ? और अब जब उनके नेता समाजवाद को गालियां दे रहे हैं , तब क्या अब अटल जी की कही गई उन बातों को भाजपा से निकाल दिया जाएगा ?
भारतीय जनता पार्टी में समाजवाद पंडित अटल बिहारी वाजपेई जी की मौत की तरह ही सिर्फ एक नाम बन कर रह गयी है। समाजवादी सिद्धांत को फॉलो करने मि बात करने वाले अटल जी की पार्टी के बाबा और सूबे के परम मुखिया, विधानसभा के पटल पर समाजवाद को "समाप्तवाद" और "जूठन" बताते है। अटल जी की खून से सींची गई बीजेपी में आज दूसरी प्रवृत्ति के लोग आकर उन को दरकिनार कर दिए ।और उनकी मेहनत का फल खुद भोग रहे हैं।
समाजवाद अपने आप में इतना विशाल है कि इसे ससाझाना किसी दार्शनिक या किसी किताब के बस का नहीं है। समाजवाद कभी भी किसी अन्य विचारधारा या किसी अन्य संगठन का मोहताज नहीं रहा । यह अपने आप में पूरा एक संसार है । समाजवाद उस भावना का नाम है, जो सभी को एक समान रखकर सभी को बराबर देकर सभी की जरूरतें पूरा करना चाहती है । यह एक ऐसे समाज की संरचना की कल्पना करती है जिसमें ना कोई बड़ा हो गया ना कोई छोटा हो जिसमें सब बराबर हो और सब एक दूसरे का सम्मान करें।
समाजवाद में व्यक्ति विशेष को महत्व ना देकर पूरे समाज की को महत्व दिया जाता है ।
पूंजीवाद का विरोध किया जाता है ।
एक दूसरे के सहयोग पर आधारित होता है ।
यह आर्थिक समानता का पक्षधर है ।
यह लोगों को लोकतंत्र में आस्था रखना सिखाता है
सामाजिक शोषण का अंत करता है ।
सामाजिक न्याय की वकालत करता है।
सभी को उन्नति के समान अवसर देता है ।साम्राज्यवाद का विरोध करता है।
समाजवाद की यही बातें पूंजीवादी विचारों को पसंद नहीं आती। इसीलिए वह बार-बार इस देश में तानाशाही के दौर को वापस लेकर आते है , ताकि एक छत्रराज कर सकें । और अपने आकाओं का पेट भर सके। समाजवाद सूचक है , देश की गरीब का , जो लकड़ियों को ढोकर । गड्ढा खोदकर। सच में चाय बेचकर अपने परिवार के लिए अपने लिए ईमानदारी से दो वक्त के खाने रहने की व्यवस्था करता है । लेकिन एक पूंजीवादी सोच वाली सरकार या उसके नुमाइंदे ना तो समाजवाद की कदर करते हैं, और ना ही उसकी देखभाल । क्योंकि उनका मुख्य उद्देश्य समाजवाद को हटाकर पूंजीवाद को लागू करना है । चंद मुट्ठी भर लोगों को देश का भगवान बनाना है। उनके मंसूबे इतने गंदे हैं जितने कि एक आतंकवादी के ।
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