अभिन्न द्वार पर खड़ा बेबस मैं ताकता
अभिन्न द्वार पर खड़ा बेबस मैं ताकता
द्वेष भाव से भरा खुशी को मैं झांकता।
समेत दृढ़ द्वंद स्वर, धरा से उछाल,
हृदय ज्वार को अश्रु धार से मैं रोकता।
विशेष चाह की मजार में खड़ा
निछल राह की बाजार में बढ़ा
जीत बाह की इनकार से लड़ा।
खुशियों की तलाश में खुद को मैं झोंकता
अभिन्न द्वार पर खड़ा बेबस मैं ताकता
द्वेष भाव से भरा खुशी को मैं झांकता।
जीत लालिमा की पहचान हूँ
बन पथिक खड़ा, पथ से अंजान हूँ
शक्ति पा चुके, जान से बेजान हूँ
जीत के शीश पर खंजर मैं भोकता
अभिन्न द्वार पर खड़ा बेबस मैं ताकता
द्वेष भाव से भरा खुशी को मैं झांकता।
तृष्न भाव से भरा जीत का सार हूँ
मृत्यु लगा गले से हार का श्रृंगार हूँ
ग़ुलामी में खड़ा खुद का बाजार हूँ
दुखिद भ्रम को हृदय ज्वार में मैं सोखता
अभिन्न द्वार पर खड़ा बेबस मैं ताकता
द्वेष भाव से भरा खुशी को मैं झांकता।
मोह लाभ प्रीत को परे मैं छोड़
लौट आया मुस्किलो के पर तोड़
टूटते उम्मीदों को रहा मैं जोड़
हार का भी बोझ खुद हार पर मैं लादता
अभिन्न द्वार पर खड़ा बेबस मैं ताकता
द्वेष भाव से भरा खुशी को मैं झांकता।
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