क़ज़ा के आगोश में खिला हुआ कमल देखा था
जर्रा ए नक्काशी में मोहब्बत की एक ग़ज़ल देखा था
हमने क़ज़ा के आगोश में खिला हुआ कमल देखा था
एक नज़र में सिमट आयी थी जहान भर की उल्फत
किसी रोज बावरें ने अपने खाब में ताजमहल देखा था
सदियों तक जो बना रहा असार के इश्क़ का मरकज़
हमने सफ्फाक संग-ए-मरमर में रोता कँवल देखा था।
जहाँ दीवार-ओ-दर पे नक़्श था एक दर्द-ए-हयात का
हमने चांदनी रात में जलता हुआ ऐसा महल देखा था
हमने तो मोहब्बत का ये दौर भी आज कल देखा था
हर चेहरे पर एक चेहरा, हर दिल में खलल देखा था।
एक शहंशाह की आहें यहां आब वो हवा में कैद मगर,
मैंने वफ़ा की लौ में चमकता हुआ शीशमहल देखा था।
जहाँ संगमरमर की चमक ने बिखेर रखी है चांदनी
उसी उजाले में शिशकते शहंशाह का कल देखा था।

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