बिंदिया
इस नूर पर ग़ज़ल लिखने को अल्फ़ाज़ फलक से उतारे है
एक एक हर्फ़ को ग़ालिब मीर की कलमों ने निखारें है
लहराती जुल्फे, रात शबनमी,कजरारी आंखे,लब शरबती
बस जान ही नही लिया है हथियार तो आपके पास सारे है
ये धनक,ये कलियां,बारिस, ये तारे जमाने को दे दे इलाही
मेरी तो जन्नत तेरा आगोश और तेरी जुल्फे ही चाँद तारे है
जितनी चमक से ये चाँद रोशन किया है तूने बावरें
उतना नूर तो खुदा ने तुम्हारे माथे की बिंदिया में उतारे है
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