मेरी अंजुरी
कभी होली ना मना पाया तो कभी दिवाली रह गई
मेरी शाख पर खिलने वाली वो खुशहाली रह गई
यूं तो हर मंदिर मस्जिद पर सर झुका मांगा है उसे
फिर भी मेरी ये अंजुरी खाली की खाली रह गई
इस सूरज ने सारे शहर को रोशनी अता की मौला
इससे मेरे ही घर में आने वाली उजयाली रह गई
मैंने पत्थरों को भी पिघलाया अपनी आशिकी से
बस पिघलने को वो नखरे वाली ही रह गई
उसकी दीद से मुतासिर हुआ है ये सारा जमाना
बस मेरी ही दोनो आंखे प्यासी की प्यासी रह गई
खुदा की शफ से उसने उबारा है कितने गरीबों को
बस उससे मेरे ही दिल की खस्ता हाली रह गई
मैंने गजलें लिखी उसके आंखो पे होंठो पे सबपे
बस कमबख्त ये उसके गालों की लाली रह गई
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