कर्ण

वीर था बलवान था वो तो वचन का पालक कर्ण था
क्षत्रिय था वो पराक्रम से किंतु जाति से न सवर्ण था
सूत पुत्र था तो वो पर कदापि शूद्रता को न मानता
जाति धर्म से परे वचन कर्मपथ ही उसका वर्ण था

था तो सूर्यपुत्र वो पर पद राजपुत्र का कभी न मिला
भीख दे दे जो देवेंद्र को दानी ऐसा वो दानवीर बना
नीच जाति तो थी उसकी कर्म राजाओ से महान थे
जाति पाती के कीचड़ में भी वीर एक कमल खिला
छिन्न भिन्न सी सोच में वही तो विचार का सुवर्ण था
वीर था बलवान था वो तो वचन का पालक कर्ण था
क्षत्रिय था वो पराक्रम से किंतु जाति से न सवर्ण था

जाति पाति का शिकार बना,नही मिली उसे बराबरी
ऊंच नीच के खाई बनाये गुरुदेव ओढ़कर रक्ताम्बरी
माना जिसे गुरुवर उसने,उसी गुरु ने था उसे नकारा
शिक्षा मांग श्राप पाया,दिख गयी धर्म की आडम्बरी
अधीरत का प्यारा माँ राधा की गोद का रक्तवर्ण था
वीर था बलवान था वो तो वचन का पालक कर्ण था
क्षत्रिय था वो पराक्रम से किंतु जाति से न सवर्ण था

भरी सजी सभा में जिसने राजपुत्र को था ललकारा
ये वो कर्ण था जिसकी वीरता से संसार भी था हारा
मित्र के सम्मान पर जिसने अपने जीवन भी लुटाया 
माता कुंती के आँचल को अपने वचनों संग संवारा
वीरता में सब ताम्र जहाँ तो वो पराक्रम का स्वर्ण था
वीर था बलवान था वो तो वचन का पालक कर्ण था
क्षत्रिय था वो पराक्रम से किंतु जाति से न सवर्ण था

था वो शक्तिशाली और खुद ही था एक स्वाभिमानी
हारा जात पात से वो भी पर हार थी कभी ना मानी
ऐसा मित्र ऐसा पुत्र ऐसा नृप था, ऐसा एक दानवीर
कर्ण था एक बस ही नही जग में कोई उसका सानी
जला देता निज ताप से शत्रु को, ऐसा अग्निवर्ण था
वीर था बलवान था वो तो वचन का पालक कर्ण था
क्षत्रिय था वो पराक्रम से किंतु जाति से न सवर्ण था

दोष था क्या उसका , जो मिली उसे मृत्य की सजा
डंका उसके दान ,पौरुष का पूरे विश्व मे था बजा  
मोहन जिसे निहत्था ही मारना चाहे ऐसा वो वीर था
श्रेष्ठ धनुर्धर से मृत्यु पा लहराया वीरगति की ध्वजा
कुंतीपुत्र राधापुत्र बन माँ के आंचल का वो स्वर्ण था
वीर था बलवान था वो तो वचन का पालक कर्ण था
क्षत्रिय था वो पराक्रम से किंतु जाति से न सवर्ण था
सूत पुत्र था तो वो पर कदापि शूद्रता को न मानता
जाति धर्म से परे वचन कर्मपथ ही उसका वर्ण था

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