वाह जज साहब वाह। "अगर आपको इनके चैनल पर प्रसारित किए जाने वाला कंटेंट पसंद नही है तो आप इनका चैनल मत देखिए" ये वाक्य जस्टिस चंद्रचूड़ ने अर्णब की जमानत पर सुनवाई करते हुए कहा।तो इस आधार पर कुणाल कामरा पर केस का कोई औचित्य नही है। क्योंकि "माननीय" कोर्ट को उनका ट्वीट पसंद नही तो न्यायालय को ट्वीटर नही देखना चाहिए। कम से कम जस्टिस चंद्रचूड़ और उनकी बेंच के मुताबिक तो यही होना चाहिये।और अगर अर्णब बोलने की आज़ादी से 2 महीने तक एक लड़की को दिन रात देश के सामने सवालों।के घेरे में रखता है तो मैं भी उसी आज़ादी के माध्यम से ये सवाल पूछता हूँ कि क्या कोर्ट और के नाम ले आगे "माननीय" लगाना अनिवार्य है? कोर्ट के फैसले पर सवाल क्यों नही उठाया जा सकता है ? वो भी तो मेरी अभिव्यक्ति की आज़ादी है। और हमे वो तब, जब "अतिमाननीय" जज साहब "उधारी" की हार्ले डेविसन पर घूमते दिखे थे।
तो इस आधार पर देखें तो कोई देश मे हिंसा दंगा फैला रहा है, आप उसे मत देखिए, कोई अपराध कर रहा है आप उसे मत देखिए, कोई भी हिंसा, दंगा, देशविरोधी,अपमान जनक बाते करे तो उसे रोकने की जगह उसे इग्नोर करिये। जरा सोचिए ये कितना रोमांटिक सीन लग रहा है। कोई हत्या करे मत देखो, कोई बलात्कार करे मत बोलो, कोई किसी की बेइज़्ज़ती करे मत देखो, कोई चोरी करे मत देखो, कोई मारकाट ,बदमाशी करे मत देखो। सारी समस्या खत्म। "माननीय" जज साहब के मुताबिक तो देश मे कोई समस्या ही नही बचेगी। कुछ भी हो जाये मत देखो , उसे इग्नोर करो और आगे बढ़ो, चाहे वो व्यक्ति कितनी ही नफरत फैलाये , धार्मिक उन्मादता , अपमानजनक बातें, मानहानि करता रहे आप को पसंद नही तो आप उसका चैनल मत देखिए। लेकिन इसको रोका नही जाएगा। वाह जज साहब वाह।
अगर सुप्रीम कोर्ट का फैसला गलत है, फैसला एकतरफा जा रहा है, जजों की नियत पर सवाल उठ रहे हैं, जजों को एक खास पक्ष की तरफ विशेष फैसले और विशेष सुविधा देते हुए देखा जाए रहा हो, या महसूस किया जा रहा है, यदि यह लग रहा हो कि कुछ जज किसी विशेष लोगों से सुविधा लेकर अपने शौक पूरे कर रहे हो,अगर जज साहब महंगी महंगी गाड़ियां पार्टी विशेष के लोगों से लेकर चला रहे हो, तो ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के माननीय जजों और सुप्रीम कोर्ट के नीयत पर सवाल क्यों नहीं उठाया जा सकता ? अगर अर्णब को बोलने की आजादी है, तो हमें भी बोलने की आजादी है। यह कहां लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले की निंदा नहीं की जा सकती , या जजों की नियत पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। एक ही तरह के मामले और स्थिति में दो अलग-अलग विरोधाभास फैसले आने पर निंदा भी की जा सकती है, और नियत पर सवाल भी उठाया जा सकता है। यह अति माननीय जज लोगों को समझना पड़ेगा
देश मे अभिव्यक्ति की आज़ादी , पत्रकारिता के सारे अधिकार, मानवाधिकार और फलाने ढिमकाने सब कुछ सिर्फ एक ही व्यक्ति के लिए है। जहा कोर्ट में लोगो को सालो लग जाते है सुनवाई के लिए, वहीं एक व्यक्ति ऐसा भी है जिसकी अर्जी पर आश्चर्यजनक रूप से एक दो दिन में सुनवाई हो जाती है। और सुनवाई के दौरान जज ऐसे ऐसे बयान देते है कि वो अपच हो जाता है। अर्णब गोस्वामी का कोर्ट में मामला आत्मह्त्या के लियर उकसाने के मामले में चल था है। तो जमानत देते समय "बोलने की आज़ादी" "चैनल मत देखिए" "पत्रकारिता की रक्षा" जैसे शब्द कैसे आये। जबकि मामला वैसा कुछ था ही नही। इससे ये साफ हो जाता है कि कोर्स पहले ही करा दिया गया था। कोर्ट में तो सिर्फ उसका रिवीजन किया गया।
अर्णब पर वही आत्महत्या का मामला जो रिया पर चलाने की मुहिम खुद अर्णब ने किया था। और अब अर्णब का ये मामला तो उससे भी कहीं ज्यादा बड़ा है। क्योंकि जहाँ रिया के मामले में सिर्फ अंदाजे पर 302 की मांग अर्णब गोस्वामी कर रहा था।जिसका कोई आधार नही था। वहीं जिसने अर्णब की वजह से आत्महत्या किया उसने अपने सुसाइड लेटर में बाकायदा अर्णब का नाम और वजह लिख कर आत्महत्या किया। कोर्ट को महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व पुलिस अधिकारियों को सम्मन जारी करके ये पूछना चाहिए था पहले ये मामला को बिना किसी कार्यवाई के बन्द क्यो किया गया। आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में उस समय पुलिस ने आरोपी अर्णब से कितनी पूछताछ किया। लेकिन ये सब सवाल जवाब करने की जगह "माननीय" जज साहब रोमांटिक टोन में "ल ल ला ल ला ,ल ल ला ल ला" वाला राग गाते रहे। वाह जज साहब वाह। जबकि अन्वय नायक ने अपने आत्महत्या ले लिए साफ साफ अर्णब को जिम्मेदार बताया था। जो कि सुसाइड लैटर में भी साफ दिख रहा है। जिसमे साफ साफ अर्णब गोस्वामी और दो लोगो का नाम लिखा हुआ था।
अब "अति माननीय" जज साहब ये बताए कि एक ही मामले में दो लोगो को अलग अलग सजा क्यो ?
रिया के खिलाफ कोई सबूत नही, लेकिन उसे 2 महीनों पर टीवी चैनलों पर लगतार अपमानित किया गया और हर तरह की गालियो से नवाजा गया ,एक महीने तक जेल में रखा गया। वहीं दूसरी ओर सबूत होने के बाद भी 7 दिन में सरकार और जज साहब का पेट दुखने लगा। इन सबको "पत्रकारों का अधिकार" "बोलने का अधिकार" सब कुछ दिखने लगा। "अतिमाननीय" जज साहब बताए कि "पत्रकारों का अधिकार" सिर्फ अर्णब गोश्वामी के लिए है ? क्योंकि यूपी में प्रशांत कन्नौजिया को योगी जी बिना किसी ठोस वजह के महीनों महीने जेल में रखते है , और कोई "अतिमाननीय" जज को ये सब नही दिखा। गौरी लंकेश को दिन दहाड़े मार दिया गया, तक किसी जज साहब का पेट नही दुखा। और बोलने की आज़ादी अगर अर्णब जैसी है तो फिर कुणाल कामरा पर अवमानना का चार्ज क्यो ? जहाज में अर्णब को हेक्कल करने पर कुणाल को बैन क्यो किया गया ? क्योंकि अगर "अतिमाननीय" जज साहब को कुणाल का ट्वीट पसंद नही तो वो ट्विटर देखना बन्द कर दे। और अगर कुणाल कामरा ले हेकलिंग से अर्णब को समस्या है तो वो जहाज में यात्रा इग्नोर करें।
एक बार कुणाल के मामले को भी पूरा समझने की कोसिस करते है। सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ कथित "अपमानजनक" ट्वीट करने के मामले में अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल कुणाल कामरा के खिलाफ आपराधिक अवमानना का केस चलाने की सहमति दे दी है। रिपब्लिक टीवी के एडिटर इन चीफ अर्नब गोस्वामी को सुप्रीम कोर्ट से जमानत दिए जाने के बाद कामरा ने सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। इस मामले में श्रीरंग काटनेशवारकर ने अवमानना कार्रवाई के लिए लेटर पिटिशन भेजा था।अटॉर्नी जनरल वेणुगोपाल ने गुरुवार को कुणाल कामरा के ट्वीट के लिए उनके खिलाफ अवमानना कार्यवाही शुरू करने की सहमति दे दी है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट की कथित आलोचना की गई है। कामरा के खिलाफ अवमानना कार्यवाही शुरू करने के लिए याचिकाकर्ताओं ने अटॉर्नी जनरल से सहमति मांगी थी। वेणुगोपाल ने एक याचिकाकर्ता को अपने पत्र में लिखा है कि ये ट्वीट ना केवल बहुत आपत्तिजनक हैं, बल्कि हास्यबोध और अदालत की अवमानना के बीच की रेखा को भी साफ तौर पर पार करते हैं।
कामरा के खिलाफ अवमानना कार्यवाही शुरू करने के लिए अटॉर्नी जनरल की सहमति का अनुरोध करते हुए एक पत्र में रिजवान सिद्दीकी समेत तीन वकीलों ने दावा किया था कि रिपब्लिक टीवी के एडिटर इन चीफ अर्नब गोस्वामी को शीर्ष अदालत द्वारा अंतरिम जमानत दिए जाने के बाद कामरा ने अपने ट्वीट के जरिए सुप्रीम कोर्ट की गरिमा को कम करने का प्रयास किया। अटॉर्नी जनरल ने कहा है कि आजकल देखने को मिल रहा है कि लोग सीधे तौर पर सुप्रीम कोर्ट की निंदा करने लगे हैं।
उन्होंने कहा कि लोग समझते हैं कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर वह सीधे सुप्रीम कोर्ट और उसके जजों की निंदा कर सकते हैं, लेकिन लोगों को समझना होगा कि विचार अभिव्यक्ति की जो आजादी मिली हुई है उसमें वाजिब प्रतिबंध है और इसके तहत अवमानना की कार्यवाही हो सकती है। उन्होंने कहा कि लोगों को समझना होगा कि अगर सुप्रीम कोर्ट पर वह अटैक करेंगे तो उन्हें अवमानना के मामले में सजा होगी। लेकिन अब उन्हें ये बताना चहिये की फैसले पर , कार्य करने तरीके पर ,नियत पर सवाल उठाना अवमनना कैसे है ? क्या सिर्फ जज का ही सम्मान और इज़्ज़त है, आम आदमी की कोई इज़्ज़त नही है ? किस आधार पर अटॉर्नी जर्नल ये बात कह सकते है कि कोर्ट के फैसले पर सवाल नही उठाया जा सकता। जज के तरीके पर सवाल क्यों नही उठाया जा सकता है।
सिलसिले वार तरीके से समझने की कोसिस करते है कि आखिर कोर्ट के जज साहब के मन मे क्या चल रहा था। खुदकुशी के लिए उकसाए जाने वाले वाले आरोप के मामले में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदिरा बनर्जी की बेंच ने सुनवाई कर रहे थे। सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि "अगर कोर्ट इस केस में दखल नहीं देता है, तो वो बरबादी के रास्ते पर आगे बढ़ेगा।" जैसे अभी कोर्ट और जज आबादी और निष्पक्षता के रास्ते के सैनिक हो। कोर्ट ने कहा कि 'आप विचारधारा में भिन्न हो सकते हैं लेकिन संवैधानिक अदालतों को इस तरह की स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी वरना तब हम विनाश के रास्ते पर चल रहे हैं। अगर हम एक संवैधानिक अदालत के रूप में कानून नहीं बनाते और स्वतंत्रता की रक्षा नहीं करते हैं तो कौन करेगा?' सही लगा सुनकर लेकिन ये समझ नही आता कि जब और पत्रकरो को नौकरी से निकाल दिया गया, हत्या कर दी गयी। जबरजस्ती जेल में ठूँस दिया जाता है। तब उस वक़्त माननीय जज साहब के ये उत्कृष्ठ विचार कहाँ चले जाते है।
इसके आगे जस्टिस चंद्रचूड़ कहते है 'हो सकता है कि आप अर्णब की विचारधारा को पसंद नहीं करते। मुझ पर छोड़ें, मैं उनका चैनल नहीं देखता । लेकिन अगर हाईकोर्ट जमानत नहीं देती है तो नागरिक को जेल भेज दिया जाता है। हमें एक मजबूत संदेश भेजना होगा। पीड़ित निष्पक्ष जांच का हकदार है। जांच को चलने दें, लेकिन अगर राज्य सरकारें इस आधार पर व्यक्तियों को लक्षित करती हैं तो एक मजबूत संदेश को बाहर जाने दें।"
जज साहब को ये समझना चाहिए कि ये उनके व्यक्तिगत इंटरेस्ट की सुनवाई नही हो रही थी और न ही उनका व्यक्तिगत विचार जानने की सुनवाई हो रही थी।
कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश हुए वकील कपिल सिब्बल से पूछा कि 'एक ने आत्महत्या की है और दूसरे के मौत का कारण अज्ञात है। गोस्वामी के खिलाफ आरोप है कि मृतक के कुल 6.45 करोड़ बकाया थे और गोस्वामी को 88 लाख का भुगतान करना था। एफआईआर का कहना है कि मृतक 'मानसिक तड़पन' या मानसिक तनाव से पीड़ित था? साथ ही 306 के लिए वास्तविक उकसावे की जरूरत है। क्या एक को पैसा दूसरे को देना है और वे आत्महत्या कर लेता है तो ये उकसावा हुआ? क्या किसी को इसके लिए जमानत से वंचित करना न्याय का मखौल नहीं होगा? 'हमारा लोकतंत्र असाधारण रूप से लचीला है। पॉइंट है कि सरकारों को उन्हें अनदेखा करना चाहिए। आप सोचते हैं कि वे जो कहते हैं, उससे चुनाव में कोई फर्क पड़ता है?'
इसी आधार पर मेरा सीधा सवाल जस्टिस चंद्रचूड़ से है कि अगर आपके अनुसार "किसी का बहुत बड़ी राशि का बकाया वापस न करना आत्महत्या के लिए उकसाना नही हो सकता है"। तो जज साहब आप ये बताइये की यदि किसी कंपनी में कार्य करने वाले कर्मचारी को वो कंपनी या उसका मालिक वेतन न दे जिसकी वजह उसको खाने का मोहताज होना पड़े, और वो आत्महत्या कर ले तो दोषी कौन होगा ? माननीय जज साहब ये बताएं कि अगर किसी से एक समझौते के तहत कोई काम करने का कॉन्ट्रैक्ट मैंने लिया हो और उस काम के लिए मैंने अपना सबकुछ गिरवी रख कर काम पूरा किया , फिर मुझे यदि उसके बाद उस कार्य का पैसा नही दिया जाता । इस मामले में मेरी न पुलिस मदद करे और न ही न्याय मिले। गिरवी रखने की वजह से मेरी सारी जमा पूंजी उधार देने वाले कानूनी तरीके से कब्जा कर लें तो फिर मेरे पास आत्महत्या करने के अलावा क्या रास्ता बचेगा?
अब अतिमनानीय जज साहब बताए कि ऐसी मौतों का जिम्मेदार कौन हुआ ? ऐसी मौतों के लिए गुनाहगार कौन हुआ ? जज साहब अब आप ये बताए कि अगर आत्महत्या के लिए कोई जिम्मेदार नही है , जैसा कि आपके बयानों से समझ आ रहा है तो देश के संबिधान में " आत्महत्या के लिए उकसाने" से संबंधित आईपीसी की धारा 306 क्या कर रही है ? क्या अब जज साहब आईपीसी की धारा 306 की पूरे तरीके से तार्किक तौर पर व्याख्या करेंगे ? जज साहब बताएंगे कि आईपीसी की धारा 306 का औचित्य, इस्तेमाल, और आधार क्या है ? क्या अब आईपीसी की धारा 306 को अपनी सुविधा के अनुसार लोग नही कर रहे है ? क्योकि दंड संहिता में 306 का व्याख्यान कुछ इस तरह दिया गया है “If any person commits suicide, whoever abets the commission of such suicide shall be punished with imprisonment of either imprisonment for a term which may extend to ten years, and shall also be liable to fine".
अब अगर मेरा सवाल "अतिमनानीय" जज साहब को कोर्ट का अपमान लग रहा हो तो, ये उनकी निजी राय होगी। क्योंकि उनके ही फैसले के आधार पर मैं ये कहूंगा कि ये मेरी अभिव्यक्ति की आज़ादी है। इसके बाद भी जज साहब मुझपर अवमानना का मुकदमा दर्ज कर सकते है।
बृजेश यदुवंशी
Comments
Post a Comment