कांग्रेस ने इन दोनों नेताओं को उनकी मेहनत का फल न देकर दो ऐसे लोगो को दिया जिनके नाम पर वोट ही नही पड़े। अगर निष्पक्षता से देखा जाए तो सिंधिया और पायलट दोनो ने सिर्फ अपने अपमान का बदला लिया है। इनके राजनीतिक दलगत बदलाव को मैं गलत नही मानता। क्योकि सरकार आने के बाद इन दोनों ही नेताओ को खुद की सरकार द्वारा नीचा दिखाने का पूरा प्रयास किया गया।
सचिन पायलट से वादा करके भी राहुल गांधी उनको मुख्यमंत्री नही बना सके। वो सोनिया गांधी के फैसले के आगे असहाय नजर आए। तो वही मध्यप्रदेश में भी सिंधिया ने भोपाल में एक बंगले की मांग किया तो कमलनाथ से वो बंगला अपने बेटे को अलॉट कर दिया। राहुल एक बार फिर असहाय दिखे अपने दोस्त को असली मेहनत का ईनाम देने में।
मध्यप्रेदश में जो हुआ या राजस्थान में जो हुआ वो सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस के असली टैलंट न पहचान कर , युवा नेतृत्व पर भरोसा न करने की वजह से ही हुआ है। जिसका फायदा बीजेपी जैसे बागड़ बिल्ले उठा रहे है। यह पहली बार ऐसा नहीं हुआ है कि कांग्रेस के रवैया में भिलाई की वजह से या कांग्रेस के लोगों में आपसी लड़ाई की वजह से इन्होंने अपने हाथ आई सत्ता को गवा दिया और इनकी इस गलती की सजा आज देश के कई बड़े प्रदेश भोग रहे हैं जिसमें इनकी लापरवाही इनकी सुस्ती और उनके आपसी कलह ने उस प्रदेश की सत्ता की बागडोर भारतीय जनता पार्टी जैसी पार्टी के हाथ में दे दिया
हाल ही में मध्य प्रदेश में हुए घटनाक्रम के बाद लोगों को यह लगा था कि शायद कांग्रेस अब अपनी गलती से सीख ले और साफ साफ बहुमत पाने के बाद भी सत्ता से बेदखल होने वाली गलती दोबारा न दोहराए लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है कांग्रेस ने पहले भी ऐसी कई सारी गलतियां कर दी जहां पर गोवा में 40 सीटों की विधानसभा मैं सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी सरकार बनाने में असफल रही क्योंकि नेतृत्व की तरफ से कोई स्पष्ट फैसला नहीं आया था उसी तरह अरुणाचल प्रदेश में भी कांग्रेस का यही हाल रहा इनकी बनी बनाई सरकार को टीवी की लापरवाही और अनदेखी की वजह से तोड़ दी गई और गिरा दी गई
यह सिर्फ यही दिखाता है कि कांग्रेस में अब टैलेंट और क्षमता को ना पहचान कर सिर्फ करीबी लोगों को टिकट या पद दिए जा रहे हैं युवा शक्ति और युवा नेतृत्व पर भरोसा करके उनके हाथ में शक्ति देने का फैसला कांग्रेसमें जल्दी नहीं हो पा रहा है पुराने नेताओं के भरोसे चल रही कांग्रेस युवाओं से चुनाव में मेहनत तो पूरी तरह करवाती है और इसका साफ-साफ उदाहरण मध्यप्रदेश और राजस्थान में देखा जा सकता है जहां पर ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट की मेहनत का नतीजा रहा कि दोनों राज्यों में कांग्रेस की बहुमत आई लेकिन जब मुख्यमंत्री बनाने की बात आई तो इन दोनों फसलों में राहुल गांधी असहाय दिखे और अपने दोस्त ज्योतिरादित्य सिंधिया सचिन पायलट को सत्ता का मुखिया बनाने में असफल रहे मुख्यमंत्री बनाने के फैसले में सिर्फ सोनिया गांधी की ही चली सोनिया गांधी के फैसले के आगे राहुल गांधी भी कुछ कर नहीं पाए
अभी राजस्थान में कांग्रेस सरकार का जो हश्र हो रहा है या उनकी सरकार जिस डामाडोल स्थिति में है यह कांग्रेस के लचर रवैया का ही प्रदर्शन रहा है हो सकता हो कि अभी फिलहाल कांग्रेस की सरकार राजस्थान में बस जाए या सिंधिया जैसे पायलट सफल ना हो पाए लेकिन इससे एक बात तो साफ हो जाती है कि कांग्रेस में युवा नेतृत्व की क्षमता पर भरोसा बहुत कम किया जा रहा है और कांग्रेस की अंदरूनी स्थिति में सब कुछ सही नहीं है
जिस युवा नेतृत्व के दम को साबित करने के लिए कांग्रेस ने राहुल गांधी को अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया व युवा नेतृत्व के दावे की हकीकत सिंधिया और पायलट के रूप में सामने आ रही है लचर रवैया विश्वास एवं सही समय पर फैसला लेने की कमी मैं आज कांग्रेश को देश की कई राज्यों की सत्ता से बेहद दूर कर दिया है
सिंधिया के कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी ज्वाइन करने पर राहुल गांधी ने मीडिया में आकर कहा कि वो उन्हें अच्छी तरह जानते हैं.। सही बात है जानते जरूर थे, लेकिन शायद समझने की कोशिश नहीं किये। कुछ तो मजबूरियां रही होंगी। सवाल ये है कि क्या वैसी ही मजबूरियां सचिन पायलट की मुश्किलों को समझने में आड़े आ रही हैं? 2017 के गुजरात चुनाव में राहुल गांधी को नये अवतार में देखा गया था और उन दिनों भी उनके दो साथी करीब ही नजर आते थे - ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट। गुजरात चुनाव खत्म होने के बाद और नतीजे आने से पहले राहुल गांधी ने अध्यक्ष की कुर्सी संभाली थी। तब से सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया की सियासी मुश्किलें ऐसे नजर आयीं जैसे जुड़वां भाइयों की समस्याएं होती हैं। दोनों ही के सामने दो सीनियर और गांधी परिवार के करीबी नेता चुनौती बन गये।
दोनों ने विधानसभा चुनाव में बराबर मेहनत की, लेकिन सत्ता हासिल होने पर मलाई खाने दूसरे नेता आ डटे। सचिन पायलट तो डिप्टी सीएम बना दिये गये, लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया की कौन कहे, उनके किसी समर्थक विधायक को भी ये ओहदा देने के लिए पार्टी नेतृत्व राजी नहीं हुआ - और सिंधिया झोला उठाकर दूसरे फकीरों की टोली में पहुंच गये। और साथ ही कांग्रेस की रही सही इज्जत और सरकार दोनों का बंटाधार मध्यप्रदेश में करवा दिया।
ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने पर जिस तरीके से सचिन पायलट ने रिएक्ट किया , उस एक ही ट्वीट में राहुल गांधी और सोनिया गांधी के लिए बड़ा संदेश था। अगर राहुल गांधी और सोनिया गांधी जान बूझ कर ऐसी चीजों को नजरअंदाज करते हैं तो ये मान लेना बिलकुल गलत नहीं होगा कि बिगड़ी बातों को बनाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। और उन्हें कांग्रेस की बिगड़ी हुई छवि एक लचर प्रशासक और काफी देर से रिस्पांस करने वाली नेतृत्व की रूप से कोई समस्या नहीं है।
सोनिया गांधी और राहुल गांधी मां-बेटे जरूर हैं, लेकिन दोनों के कुर्सी पर होते कांग्रेस के भीतर की तमाम चीजें एक दूसरे के उलट ही देखने को मिली हैं। राहुल गांधी ने कुर्सी संभालते ही जिस तरह पुराने नेताओं को ठिकाने लगा दिया था, सोनिया गांधी ने भी वही व्यवहार किया है। नतीजा ये हुआ है कि राहुल गांधी की वजह से कांग्रेस में दबदबा रखने वाले नेता उनके कुर्सी छोड़ते ही असुरक्षित महसूस करने लगे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया से पहले हरियाणा कांग्रेस के अध्यक्ष रहे अशोक तंवर के मामले में जो हुआ सबके सामने ही है। अशोक तंवर तो सोनिया के भी करीबी हुआ करते थे, लेकिन एक झटके में सब खत्म हो गया। और राहुल गांधी ने उन्हें ओहदे से बाहर का रास्ता दिखाते हुए यह स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस में नेतृत्व युवा शक्ति की क्षमता का ही रहेगा।
अगर थोड़ा सा पीछे नजर डाला जाए तो हरियाणा के साथ ही महाराष्ट्र चुनाव भी हुए थे और तब ज्योतिरादित्य सिंधिया महाराष्ट्र के चुनाव प्रभारी बनाये गये थे। जरा याद कीजिये संजय निरूपम ने प्रेस कांफ्रेंस करके क्या कहा था। संजय निरूपम के निशाने पर भी कांग्रेस के बुजुर्गों की टीम ही रही। मिलिंद देवड़ा भी तो जब तक ऐसे मुद्दे उठाते रहे हैं। आम चुनाव के दौरान जितिन प्रसाद ने भी तो बागी रुख अख्तियार कर ही लिया था। नवजोत सिंह सिद्धू भी तो कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन के ही शिकार लगते हैं। जहां सिद्धू को राहुल गांधी का करीबी माना जाता है तो वहीं पर कैप्टन अमरिंदर सोनिया गांधी के करीबी माने जाते रहे और अंत में नवजोत सिंह सिद्धू का क्या हश्र हुआ यह सभी को पता चला ।कुछ नेताओं की अपनी अलग मजबूरी हो सकती है, लेकिन सचिन पायलट और मिलिंद देवड़ा के मामले में तो कम से कम ऐसा नहीं लगता।
अब हम सब यही सोचने के लिए मजबूर हैं की क्या ऐसा नहीं लगता कि सोनिया गांधी ने राहुल गांधी की टीम के ज्यादातर नेताओं को सिंधिया बनने के लिए छोड़ दिया है ,और सचिन पायलट भी मुहाने पर ही खड़े हैं। अब ये राहुल गांधी को ही देखना होगा कि वो सचिन पायलट को कितना जानते हैं और कितना समझना चाहते हैं। समाचारों की हेड लाइन में लगातार दिख रहा है कि राहुल गांधी के सूत्र बता रहे हैं कि राहुल गांधी और सचिन पायलट एक दूसरे का सम्मान करते हैं , और दोनों की एक दूसरे से लगातार बात हो रही है । तो फिर यह बात बिल्कुल भी समझ में नहीं आ रही है कि कम्युनिकेशन गैप आ कहां पर रहा है ? राहुल गांधी की बात लगातार पायलट से हो रही है इसका मतलब कि या तो राहुल गांधी पायलट की बात नहीं सुन रहे हैं, जो कि लगभग नामुमकिन सा दिखता है। या फिर राहुल गांधी की बात कांग्रेस नेतृत्व नहीं सुन रहा है जिसकी संभावना मौजूदा वक्त में बेहद ज्यादा है।
अगर राहुल गांधी ये कहते हैं कि राज्य सभा चुनाव में उनका कोई रोल नहीं रहा तो क्या उनके करीबी नेताओं को सिर्फ नाम पर ही टिकट दे दिया गया, जबकि एक एक टिकट के लिए तगड़ी रेस लगी रही ? आखिर कैसे राजस्थान से केसी वेणुगोपाल टिकट पा गये और तारिक अनवर से लेकर राजीव अरोड़ा और भंवर जितेंद्र सिंह से लेकर गौरव वल्लभ तक बस मुंह देखते रह गये। आखिर कैसे राजीव साटव महाराष्ट्र से बाजी मारने में कामयाब रहे और मुकुल वासनिक और रजनी पाटिल मन मसोस कर रह गये। आखिर ये दोनों नेता टिकट पाने में सफल तो राहुल गांधी के कारण ही रहे।
राहुल गांधी भले ही कहते फिरें कि वो वायनाड के सांसद भर हैं, लेकिन जिस तरीके से दिल्ली चुनाव और दंगे प्रभावित इलाकों में भाषण देते रहे, वायनाड क्या केरल का कोई नेता या कांग्रेस का ही दूसरा कोई नेता बोल सकता है क्या?क्या बदले हुए नाजुक हालात में भी राहुल गांधी को एक बार नहीं लगा कि सचिन पायलट की बातों को बार बार नजरअंदाज नाइंसाफी नहीं तो क्या है?
ज्योतिरादित्य सिंधिया के मुद्दे पर तो बोला ही है, जब सोनिया गांधी ने कोटा अस्पताल भेज कर ग्राउंट रिपोर्ट मांगी थी वो पहुंचे और मौके पर भी बरस पड़े। अपनी ही सरकार और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को सारी गलतियों का जिम्मेदार बता डाला था।
राजस्थान से कांग्रेस के दो उम्मीदवार तय किये गये थे, केसी वेणुगोपाल और नीरज डांगी।सचिन पायलट को जैसे ही राज्य सभा के लिए उम्मीदवारों की फाइल सूची का पता चला, वो सक्रिय हो गये और विरोध करने लगे। सचिन पायलट को केसी वेणुगोपाल को लेकर आपत्ति का तो मतलब भी नहीं था, लेकिन नीरज डांगी को लेकर कड़ा ऐतराज जताया इतना ही नहीं, सचिन पायलट ने अपनी तरफ से एक नाम का भी सुझाव दिया था, लेकिन उसे खारिज कर दिया गया।
कुल मिलाकर यही देखा जा सकता है या जो बातें समझ में आ रही है उससे सिर्फ यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि, कांग्रेस पार्टी सिर्फ केंद्र राजनीति में ही ज्यादा विश्वास रख रही है । और उसका प्रदेश राजनीति में कोई विशेष रुचि नहीं दिख रही है । इसे इस एंगल से भी देखा जा सकता है कि क्योंकि राहुल गांधी और सोनिया गांधी केंद्र में राजनीति के दावेदारी पर हैं तो पूरी की पूरी कांग्रेस पार्टी और उनके कार्यकर्ताओं का ध्यान सिर्फ केंद्र की राजनीति में ज्यादा से ज्यादा लगा हुआ है । अन्य प्रदेशों की राजनीति में कांग्रेस का और उनके नेताओं का कोई विशेष रूचि नहीं दिख रही है। सत्ता जो जनता द्वारा कांग्रेस को दी गई, उसको गवाने मैं विरोधियों के षड्यंत्र सफल होने देना कांग्रेस की बहुत बड़ी कमजोरी बन चुकी है।
कांग्रेस पहले भी ऐसे कई प्रदेश अपनी झोली से गंवा चुकी है। अगर कांग्रेस का यही लचर रवैया अन्य प्रदेशों के लिए भी रहा, यही फैसले में देरी और युवाओं की बातों की अनदेखी कांग्रेस में होती रही तो अन्य राज्यों में भी कांग्रेस का वही हश्र होगा जो उत्तर प्रदेश और दिल्ली में हुआ है। कांग्रेस अन्य प्रदेशों में भी इसी तर्ज पर हाशिये पर चली जायेगी। वक्त अभी भी इनके पास है,जो कि अपने नेतृत्व के तरीके में बदलाव लाएं और सही फैसले तेजी के साथ लोगों की बातों को सुनते हुए करें । टैलेंट और मेहनत की पहचान करें बराबर मौके दें, और सही व्यक्ति को मेहनत का फल दें। वरना अभी कांग्रेस में ना जाने कितने ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट अपना कैरियर बर्बाद होते देख निकल कर दूसरी पार्टियों में जाने को आतुर रहेंगे। और इस मौके का फायदा उठाकर भाजपाई गिद्ध शिकार करने को भरपूर सज्ज रहेंगे।
Comments
Post a Comment