"रुपया गिरा नहीं बस डॉलर मजबूत हुआ है" -अरुण जेटली इस हिसाब से 2003 का वर्ल्ड कप भारत हारा नहीं बस ऑस्ट्रेलिया जीत गया , तो उस हिसाब से 1962 की लड़ाई भारत हारा नहीं बस चीन जीत गया, तो उसके हिसाब से 2014 में कांग्रेस हारी नहीं बस BJP जीत गई ,तो इसके हिसाब से वित्त मंत्री काम किए बस नियत बदल गई। और अब जैसे-जैसे रुपया गिर रहा है वैसे-वैसे प्रधानमंत्री की गरिमा भक्तों की नजर में बढ़ती जा रही है। साहब समझ नहीं पा रहे हैं कि यह रुपया है या शिमला वाली बर्फ जो गिरे ही जा रहा है गिरे ही जा रहा है।
यह तो प्रकृति का नियम है जो ऊपर उठता है वह नीचे ही आता है। और जो गिरता है वह उठता भी हैं। लेकिन सिर्फ जम्बू दीपे , आर्यावर्त भारतखंडे में ही ऐसा हो सकता है कि जो चीज एक बार गिरे फिर वो गिरती ही रहती है। चाहे वो सरकार हो या नेता या लोग। अगर कोई गलती से एक बार थोड़ा सा उठा भी तो अगली बार उससे कई गुना ज्यादा नीचे गिरेगा।
पहले ये नियम नेताओ पर लागू होता था। लेकिन आज कल नेताओ की संगत में अपना रुपया भी खूब बिगड़ गया है । गुरूत्वाकर्षण के नियम के अनुसार यदि कोई वस्तु हाथों से छूट जाती है तो वह नीचे ही गिरेगी। अर्थशास्त्र के अनुसार रूपया स्वयं उछलता है। व्यक्ति स्वयं नहीं उछलता है। व्यक्ति की जेब में जो रुपया होता है वही उछलता है। जब रूपया उछलेगा तो गिरेगा ही। गिरकर उठने वाले को ही बाजीगर कहते हैं। रूपया ही तो असली बाजीगर है।
रूपये की मजबूती के लिए और उसे गिरने से बचाने के लिए हम और आप तो सिर्फ़ दुआ ही कर सकते हैं। रूपये को और नीचे गिरने से ठहराने के लिए एक ठीहा चाहिए। इस ठीहे को बनाने के लिए और इसकी मजबूती के लिए सरकार समय-समय पर आवश्यक कदम उठाती है। देश के बड़े-बड़े अर्थशास्त्री सरकार को आवश्यक कदम उठाने के लिए सहयोग करते हैं।
ये अर्थशास्त्र के प्रखंड ज्ञानी हर साल सरकार और देश की जनता को `फील गुड फैक्टर` का अहसास करवाते हैं। प्रत्येक वर्ष ये अर्थशास्त्र के पंडित एक ही वक्तव्य देते हैं- 'मानसून की भविष्यवाणी के अनुसार इस बार अच्छी बारिश होगी जिससे खरीफ की फसल तो अच्छी होगी और अच्छी बारिश से ज़मीन में जो नमी बनी रहेगी उससे रबी की फसल भी अच्छी हो जाएगी। इससे फेस्टीव सीजन में व्यापार-व्यवसाय में वृद्धि होगी जिससे जीडीपी की ग्रोथ सुधर जाएगी, देश में खुशहाली आ जाएगी और गिरते हुए रूपये में मजबूती आ जाएगी।'
डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत में गिरावट पर नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने दिलचस्प तर्क दिया है। वो कहते हैं कि रुपये की कीमत का संबंध थर्मामीटर में पारे की तरह है। जिस तरह से थर्मामीटर में पारा अलग अलग परिस्थितियों में चढ़ता और उतरता है, ठीक वैसे ही रुपये की कीमत में उतार और चढ़ाव देखने को मिलता है। वो बताते हैं कि ये कहना गलत होगा कि रूपये की कीमत में गिरावट की वजह से मुद्रास्फीति बढ़ेगी। रुपये की कीमत सिर्फ और सिर्फ मांग और आपूर्ति पर निर्भर करती है।
यह मानना भी गलत होगा कि रुपये की कीमत में गिरावट की वजह से बाजार की साख पर असर पड़ रहा है। सच तो ये है कि रुपये की मजबूती किसी देश की कामयाबी की दर, गरीब लोगों की संख्या और देश में रोजगार की तस्वीर कैसी है।
डॉलर के मुकाबले रुपया लगातार गिरावट के नये रिकॉर्ड बना रहा है. सोमवार को इसने 72.67 प्रति डॉलर का ऐतिहासिक स्तर छुआ. मंगलवार को रुपये ने थोड़ी बढ़त के साथ कारोबार की शुरुआत की. इसके बावजूद यह 72 के पार ही बना हुआ है.
देश में रुपये में जारी गिरावट को लेकर काफी ज्यादा हंगामा हो रहा है. दरअसल गिरते रुपये की वजह से इकोनॉमी के सामने कई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं. लेकिन रुपया अकेला नहीं है, जिसमें गिरावट जारी है.
पिछले 5 सालों के दौरान रुपया 15.52 फीसदी टूटा है. डॉलर में लगातार आ रही मजबूती, कच्चे तेल के बढ़ते दाम और तुर्की व वेनेजुएला में जारी आर्थिक संकट ने कई देशों की मुद्राओं की कमर तोड़ी है.
पिछले 5 सालों के दौरान अर्जेंटीना की मुद्रा पेसो में सबसे ज्यादा गिरावट देखी गई है. डॉलर के मुकाबले यहां की मुद्रा 546.72 फीसदी गिरी है. दूसरे नंबर पर इस मामले में तुर्कीश लीरा है. यह इस दौरान 221 फीसदी तक गिर चुकी है.
तीसरे नंबर रूस की करंसी रबल है. जो 5 साल के अवधि के दौरान 117.41 फीसदी गिरी है. इसके बाद ब्राजील की मुद्रा रियल 84 फीसदी, दक्षिण अफ्रीका की रैंड 51.42 फीसदी, मेक्सिकन पेसो 47.15 फीसदी, इंडोनेशियाई रुपया 28.17 फीसदी गिरा है.
दूसरी तरफ, रुपये में इस दौरान 15.52 फीसदी की गिरावट देखी गई है. चीन की मुद्रा 12 फीसदी और सिंगापुर डॉलर 9.63 फीसदी तक गिरे हैं.
इस तरह दुनिया भर के अलग-अलग देशों के सामने नई चुनौतियां खड़ी हो रही हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तैयार हो रहे हालातों की वजह से दिक्कत बढ़ती जा रही है.
डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत में गिरावट पर नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने दिलचस्प तर्क दिया है। वो कहते हैं कि रुपये की कीमत का संबंध थर्मामीटर में पारे की तरह है। जिस तरह से थर्मामीटर में पारा अलग अलग परिस्थितियों में चढ़ता और उतरता है, ठीक वैसे ही रुपये की कीमत में उतार और चढ़ाव देखने को मिलता है। वो बताते हैं कि ये कहना गलत होगा कि रूपये की कीमत में गिरावट की वजह से मुद्रास्फीति बढ़ेगी। रुपये की कीमत सिर्फ और सिर्फ मांग और आपूर्ति पर निर्भर करती है।
अपने तर्क को धार देते राजीव कुमार कहते हैं ये मानना भी गलत होगा कि रुपये की कीमत में गिरावट की वजह से बाजार की साख पर असर पड़ रहा है। सच तो ये है कि रुपये की मजबूती किसी देश की कामयाबी की दर, गरीब लोगों की संख्या और देश में रोजगार की तस्वीर कैसी है।
एक कमजोर मुद्रा हमेशा देश को नुकसान पहुंचाती है। चाहे फिर वह भारत हो या फिर दुनिया का कोई दूसरा हिस्सा। आसान शब्दों में कहा जाए तो मुद्रा में गिरावट होने से सबकुछ महंगा हो जाता है। इसमें विलासिता शामिल है जैसे विदेश में छुट्टी मनाना, विदेशों में पढ़ाई, आयातित सामान जैसे कि कार और स्मार्टफोन खरीदना आदि। यह मुद्रास्फीति को जन्म देता है और रोटी, कपड़ा और मकान महंगा हो जाता है।
रुपये में गिरावट का एक सीधा असर होम लोन पर पड़ता है।
इसका मतलब यह है कि यह घर खरीदने के लिए सही समय नहीं है।एक और क्षेत्र जो चिंता करने वाला है वह है आयात। डॉलर के मुकाबल रुपये की कम कीमत आयात को महंगा बनाता है। कुछ वस्तुएं ऐसी होती हैं जिन्हें आयात करना ही पड़ता है। भारत में तेल का आयात जरूरी है। जो चालू खाता घाटे के मोर्ट पर निश्चित तौर पर दोहरा झटका है।
हालांकि, निर्यातकों के लिए यह अच्छी खबर है, क्योंकि रुपये में गिरावट के कारण निर्यात में निश्चित तौर पर बढ़ोतरी होती है, हालांकि व्यापार युद्ध ने भारत को नकारात्मक रुप से प्रभावित किया है। आईटी और फार्मास्यूटिकल इंडस्ट्रीज को रुपये की कीमत गिरने का लाभ मिल सकता है लेकिन तभी जब व्यापार युद्ध इसमें बाधा न बने।
फिलहाल तेल की कीमतों में गिरावट के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं. विशेषज्ञों की मानें तो 2019 तल की कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल तक हो सकती हैं, हालांकि फिलहाल यह दूर की बात है.
समस्या सरकार के उपायों में भी है जो तेल पर लगने वाली एक्ससाइड ड्यूटी में कटौती के लिए तैयार नहीं है। राजकोषीय घाटे को पूरा न करने पाने के डर के कारण एक्साइज ड्यूटी में कटौती एक दूर की कौड़ी है। सूत्रों के मुताबिक सरकार द्वारा ऐसा कोई कदम उठाने की संभावना भी नहीं है, क्योंकि ऐसा तब भी नहीं किया गया जब क्रूड ऑयल की कीमत मात्र 35 डॉलर प्रति बैरल तक गिर गई थी।
संभवत आरबीआई रेपो दर में बदलाव करके या एनआरआई बॉन्ड को जारी करने पर विचार कर सका है ताकि रुपये की गिरावट को रोका जा सके।
रुपये में गिरावट बॉन्ड यील्ड को उच्च स्तर पर रखेगी। इसके चलते अथॉरिटीज को ब्याज दरों में वृद्धि करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है।उच्च ब्याज दरों के चलते विदेशी पूंजी की आवक में जो कमी आई है उस पर रोक लगेगी। हालांकि, यह लॉन्ग टर्म डेट फंड्स के लिए खराब है। क्योंकि इससे फंड के नेट एसेट वैल्यू (एनएवी) पर खराब असर पड़ेगा, क्योंकि ब्याज दरें बढ़ने पर रिटर्न गिरेगा।
इसके अलावा, यह एनपीएस में सरकारी बॉन्ड योजनाओं के प्रदर्शन को प्रभावित करेगा। ऊंची ब्याज दरें लोन लेने वालों को भी चोट पहुंचाएंगी। इसलिए होम लोन की ईएमआई बढ़ जाएगी।विदेश यात्रा और विदेश में पढ़ाई का खर्च भी बढ़ जाएगा।
रुपये में गिरावट से आयात महंगा होने के कारण अर्थव्यवस्था में महंगाई बढ़ने का खतरा बढ़ जाएगा। इतना ही नहीं विदेशों से आयात महंगा होने से जो भी उद्योग विदेश से कच्चा माल मंगाते हैं, उनकी लागत में वृद्धि देखी जाएगी और उनमें से कुछ उद्योग बढ़ी हुई लागत अपने उपभोक्ताओं पर डालेंगे। 2016-17 में 983 कंपनियों ने 1.28 लाख करोड़ रुपये की कच्ची सामग्री आयात की थी। यह उनकी कुल बिक्री का करीब 14.5 फीसदी है।
रुपये में कमजोरी विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई) के निवेश को भी प्रभावित कर रही है। ब्लूमबर्ग इंटेलिजेंस के मुताबिक, जनवरी-फरवरी 2018 में देश में इक्विटी प्रवाह 2.9 बिलियन डॉलर (1 9, 823 करोड़ रुपये) का रहा, जो अक्टूबर-दिसंबर 2017 में 3.6 अरब डॉलर (24,608 करोड़ रुपये) के मासिक औसत की तुलना में मामूली है।
एफआईआई रुपये में उतार-चढ़ाव से काफी चिंतित हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि यह इक्विटी और डेट सेगमेंट में उनके रिटर्न को प्रभावित करता है। रुपये में कमजोरी होगी तो विदेशी निवेशकों के लिए डेट की होल्डिंग लागत बढ़ेगी। इस वजह से डेट से प्रवाह बढ़ सकता है।
एक्सपर्ट्स का कहना है कि अगस्त महीने के अंत में डॉलर की बढ़ी मांग और विदेशी फंडों की निकासी से रुपये में गिरावट आई है। बैंकों और आयातकों की लगातार डॉलर की मांग से रुपया दबाव में आ गया है। कच्चे तेल के दाम बढ़ने से मुख्य रूप से तेल रिफाइनरी कंपनियों की डॉलर की मांग बढ़ी है। कारोबारियों ने कहा कि विदेशी बाजारों में अन्य मुद्राओं की तुलना में डॉलर की मजबूती से भी रुपया प्रभावित हुआ है।
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, 2018-19 की अप्रैल-जून तिमाही के दौरान भारत में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश 23 फीसदी बढ़कर 12.75 अरब डॉलर हो गया। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि विदेशी निवेश से चालू खाता घाटे (सीएडी) को कम करने में मदद मिलेगी। इसके 2018-19 में सकल घरेलू उत्पाद के 2.8 फीसदी तक बढ़ने की उम्मीद है। इस बीच रुपए की गिरावट पर एचडीएफसी बैंक ने कहा कि रुपया 71 के स्तर तक लुढ़क सकता है।
और हुआ भी यही, डॉलर के मुकाबले रुपये में लगातार गिरावट का दौर जारी है। सोमवार को भी रुपये में रिकॉर्ड गिरावट दर्ज की गई। डॉलर के मुकाबले रुपया 72.30 के निम्न स्तर तक लुढ़क गया जबकि बीते कारोबारी सत्र में यह 71.73 पर बंद हुआ था। सुबह लगभग 9.25 बजे रुपया 72.14 पर था।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों और इमर्जिंग इकोनॉमी के सामने खड़ी चुनौतियों का असर डॉलर के मुकाबले रुपये की मजबूती पर दिख रहा है।विशेषज्ञों का कहना है कि फिलहाल जब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हालात नहीं सुधरते, तब तक रुपये की सेहत सुधरनी मुश्किल है।
अमेरिका और चीन के बीच व्यापारिक तनाव गहराने से बीते कुछ सप्ताह से रुपये में गिरावट बनी हुई है। रुपया छह सितंबर को पहली बार रुपया, डॉलर के मुकाबले 72 के नीचे लुढ़का था।
अगर हम एक बार मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान रुपये की कीमत पर नज़र डालें तो ,
26 मई 2014 – 58.66
26 मई 2015 – 63.97
26 मई 2016 – 66.93
26 मई 2017 – 64.51
26 मई 2018 – 67.72
15 अगस्त 2018 – 70.39
15 सितंबर 2018- 72.92
"रुपया 72 पार कर गया, और अब 73 भी पर करेगा, लेकिन वित्तमंत्री ने कहा घबराने की जरूरत नहीं"।मतलब अब हम ये समझें कि जो चीज ऊपर जाती है वो बाद में गुरुत्वाकर्षण की वजह से नीचे आती है, कभी न कभी रुपया वजनदार होकर नीचे आ जाएगा और तब वित्त मंत्री छाती ठोककर आएंगे।
जेटली जी और कहते है "हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि डॉलर के मुकाबले सभी करंसी टूटी हैं। हालांकि, उस वक्त में भी रुपया या तो कम गिरा या फिर स्थिर बना रहा।"उनके कहने का मतलब ये है कि रुपया ही नहीं दूसरी करेंसी भी गिर रही हैं। ये वैसी ही दलील है कि हमें फेल होने का गम नहीं क्योंकि पूरी क्लास ही फेल हो गई।
जेटली ने कहा कि गिरते रुपये के पीछे कोई घरेलू नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय कारण हैं। मजबूत होते डॉलर के पीछे वित्त मंत्री जेटली ने यूएस की मजबूत पॉलिसी को कारण बताया।ग्लोबल वजह हैं रुपये की कमजोरी के।मतलब ग्लोबल लोग निपटें अपने को क्या पड़ी है।
जेटली ने आगे कहा कि सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था को इतनी जल्दी घबराने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में उतार-चढ़ाव हो रहा है और इनमें कोई तय बदलाव नहीं दिख रहा है।इससे हम ये समझ सकते है किभारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली इकनॉमी है। जल्दबाजी में फैसले नहीं लेंगे। रुपया और पेट्रोल डीज़ल का 6 महीने से बुरा हाल है मतलब 6 साल में आप फ़ैसले लेंगे ?
उन्होंने कहा कि भारत कच्चे तेल का शुद्ध खरीदार है और जब इसकी कीमतें अल्पकालिक तौर पर भी ऊपर जाती हैं, भारत पर गहरा प्रतिकूल असर होता है।माने विदेशी कच्चे तेल के दाम बढ़ने की वजह से पेट्रोल-डीजल महंगा हो रहा है। जैसे 2014 के पहले हम सारा कच्चा तेल देश में ही निकाल लेते थे और इतना निकाल लिए की अब देश मे कच्चा तेल बचा ही नही, तो अब विदेश से मंगाना पड़ रहा है।
अब बस यही रास्ता बचा है कि हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे, और रुपए के गिरने का इंतजार करते रहे । और 2013 के आसपास हमारी विदुषी विदेश मंत्री द्वारा संसद में दिए गए उस बयान को याद करते रहे, जिसमें उन्होंने कहा था कि " जैसे-जैसे रुपया गिर रहा है वैसे वैसे प्रधानमंत्री के पद की गरिमा गिर रही है"। इससे होगा कुछ नहीं बस हमको थोड़ी शांति मिलेगी और वह लॉलीपॉप मिलेगा जो लॉलीपॉप हम लोग पिछले 4 साल से लेकर चूस रहे हैं। वैसे देश के लोगों को कोई खास परवाह नहीं है । क्योंकि उन लोगों को हिंदू मुसलमान से फुर्सत नहीं है ।
पेट्रोल की कीमतें बढ़े या नीचे आ जाएं, रुपए की कीमत बढ़े या नीचे आ जाए। घर में भी बच्चे खाना खाए, या मर जाएं। देश के लोग भूखे सोये या भरपेट खाना खाकर सोए। ऐसे लोगों को इन चीजों से कोई फर्क नहीं पड़ता है। इन्हे बस झूठ का प्रोपोगंडा दिनभर बरगलाया रखा जाता है । और इसी प्रोपोगंडा से कुपोषित होकर यह अंधे हो चुके हैं। और इस अंधभक्ति के दौर में ना तो मानवता ना तो देश ना तो धर्म किसी भी चीज की परवाह नहीं है ।
ये सब बस मूर्खों की एक कतार में खड़े हैं। और आंख बंद करके भेड़ चाल की तरह बस आगे बढ़ रहे हैं । इन लोगों की आंखें तब खुलेगी जब सब कुछ बर्बाद हो चुका होगा । और उनके बच्चे दंगाई बन चुके होंगे। उनका खुद का कोई भविष्य नहीं बचा होगा। इनके समाज का सत्यानाश हो चुका होगा। तब उनकी आंखे खुलेंगी, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
जय समाजवाद
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