प्राइवेट सेक्टर की बैंको का एनपीए लगभग न के बराबर रहा है, सिर्फ सार्वजनिक सेक्टर की बैंको पर एनपीए इतना ज्यादा कैसे हो सकता है ? इशारा साफ है कि सार्वजनिक क्षेत्रो में पैसा जनता का होता है, और जहा जनता का पैसा होता है वहा तो सत्ता में बैठे लालचियों के लिये खुला ऑफर रहता है । उन्हें ये पता है कि वो पेटभर कर नंगी नाच कर लेंगे फिर कोई एक दो कलम चला कर सब कुछ बट्टा खाते में डाल देंगे।

पहले अपने उद्योगपति दोस्तो से चंदा लो, फिर उस चंदे से सबको खरीद कर सरकार बनाओ, फिर उस सरकार की शक्तियों का इस्तेमाल करके उद्योगपति दोस्त को ढेर सारा कर्ज देकर विदेश भगा दो।उद्योगपति का  चंदे के रूप में किया गया इन्वेस्टमेंट सफल हो गया। और उसको विदेश भगवा कर सरकार ने चंदे का एहसान पूरा कर लिया।

जी है इन्वेस्टमेंट , चंदा, कर्जा, दोस्ती , फ़र्ज़ , जुगाड़ सबका परफेक्ट उदाहरण है रे अपना एनपीए। ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर , सबके लिए मददगार है रे अपना एनपीए। दोस्तो कप विदेश भगाने के बाद बट्टा खाता तैयार रहता है दोस्तो की चोरी चकारी की रिकवरी करने के लिए। रिकवरी इस लिए नही की नुकसान हुई खजाने को भरा जाए, रिकवरी इसलिए कि फिर से ऊपर वाली कहानी दोहराई जा सके।

और जब जो चोरी पकड़े जाने का खतरा हो वो हल्ला मचा दो की उसी जगह खूब मुनाफा हुआ है, और धीरे से फ़ाइल पास करवा लो। कुछ ऐसा ही हुआ अभी कुछ दिनों पहले एक भक्त को बड़ा खुश होकर जाते देखा, नॉर्मली भक्त ऐसे तब खुश होते है जब उन्हें वो अहमदाबाद वाली चाय सूंघने को मिल जाती है ।

खैर मैने भी उस भक्त से कारण पूछा तो उसने बताया कि मोदी सरकार ने चार सालों में नौ लाख करोड़ एनपीए हुई रकम में से चार लाख करोड़ रुपये की वसूली कर ली है।बड़ी बड़ी बात है ना, चार लाख करोड़ की वापसी ? अबे भक्तो तुम्हारे दादा परदादा ने भी सुना होगा कभी चार लाख करोड़ ?

खैर भक्त समुदाय ने इस खबर को हाथो हाथ लिया था, साथ ही साथ भक्तो के पापाओं यानी भाजपा नेताओं ने इस सम्बंध में ट्वीट किए थे।  लेकिन यह सम्भव ही नही है क्योंकि जिस आधार पर वह खबर लिखी गयी हैं वह पूर्ण रूप से भ्रामक ओर तथ्यों के विपरीत है।
कुछ दिन पहले ही पूरी तरह से इस झूठ की पोल खुली है।  इस चार लाख करोड़ की वापसी को लेकर रिजर्व बैंक ने भी अपने आंकड़े जारी कर दिए है।

घर ऐसे झूठी बातें बोलना और मूर्खतापूर्ण तथ्यों का हवाला देना तो इन लोगों की पुरानी आदत रही है । यह वही लोग हैं जो  बतख से ऑक्सीजन निकाल देते हैं।  या  मोर के आंसू से  बच्चा मोर पैदा कर देते हैं ।  ऐसे लोगों को इस बात की खास ट्रेनिंग मिली रहती है । इन्हें सिर्फ  मूर्खता और झूठी बातें ही फैलानी है  । इन्होंने महाभारत काल में इंटरनेट फैला दिया।  इन्होंने हनुमान चालीसा गाकर बंदरों को भगा दिया । इन्होंने नारद जी को पत्रकार बना दिया ।इन्होंने  पकोड़े को रोजगार बना दिया । इन्होंने  चंबल से निकलने वाली मीथेन गैस  को कुकिंग गैस गैस में बदल दिया। इन्होंने  भारत में 600 करोड़ वोटर बना डाले । इन्होंने अटल जी द्वारा किए गए  कार्यों को दूसरा ही नाम दे डाला  ।

खैर रिजर्व बैंक के मुताबिक पिछले चार साल में मात्र 29 हजार करोड़ की वसूली हो पाई है। पिछले चार वित्तीय वर्ष (2014-2018) में 21 सार्वजनिक बैंक महज 29,343 करोड़ रुपये की वसूली कर पाए हैं। जबकि इस दौरान बैंकों ने 2.72 लाख करोड़ रुपये के फंसे कर्ज को राइट ऑफ कर दिया ।और यह जानकारी संसद में खुद हमारे होनहार वित्त राज्य मंत्री ने दी है।

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, बीजेपी के कुछ नेताओं ने शनिवार को ट्वीट कर यह दावा किया था कि, 'इनसॉल्वेंसी और बैंकरप्सी कोड' (IBC) की वजह से 4 लाख करोड़ के एनपीए की वसूली हुई है। यूपीए सरकार द्वारा कॉरपोरेट को दिया गया करीब 9 लाख करोड़ रुपये का कर्ज एनपीए या फंसे कर्ज में तब्दील हो गया था, उसमें से ही यह वसूली की गई है।

लेकिन रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़ों से पता चलता है कि साल 2016-17 और 2017-18 (दिसंबर तक) में सार्वजनिक बैंकों ने महज 15,786 करोड़ रुपये की वसूली की है। इनमें आईबीसी सहित सभी माध्यमों से वसूली शामिल है। बैंकों ने आईबीसी के तहत जनवरी 2017 से वसूली शुरू की थी।

रिजर्व बैंक के इन आंकड़ों की जानकारी खुद वित्त राज्य मंत्री शिव प्रताप शुक्ला ने राज्यसभा में 27 मार्च को दी थी. इस दौरान सार्वजनिक बैंकों की 89 फीसदी गैर निष्पादित संपत्त‍ि यानी एनपीए की वसूली नहीं हो पाई और इन्हें बट्टे खाते में डालना पड़ा।

असल में आईबीसी के तहत आने वाले कर्जों के मामले में कर्जधारक को 180 दिन के भीतर मामले को सुलझाने और डेडलाइन को फिर आगे 90 दिन तक बढ़ाने का मौका मिलता है।

एनपीए के इस खेल में सरकार ने अपना मोहरा प्रमुख बैंको को बनाया है। प्राइवेट सेक्टर की बैंको का एनपीए लगभग न के बराबर रहा है, सिर्फ सार्वजनिक सेक्टर की बैंको पर एनपीए इतना ज्यादा कैसे हो सकता है ? इशारा साफ है कि सार्वजनिक क्षेत्रो में पैसा जनता का होता है, और जहा जनता का पैसा होता है वहा तो सत्ता में बैठे लालचियों के लिये खुला ऑफर रहता है । उन्हें ये पता है कि वो पेटभर कर नंगी नाच कर लेंगे फिर कोई एक दो कलम चला कर सब कुछ बट्टा खाते में डाल देंगे।

भारतीय स्टेट बैंक का एनपीए सर्वाधिक 1.86 लाख करोड़ रुपए रहा। इसके बाद पंजाब नेशनल बैंक ( 57,630 करोड़ रुपए), बैंक ऑफ इंडिया (49,307 करोड़ रुपए), बैंक ऑफ बड़ौदा (46,307 करोड़ रुपए), कैनरा बैंक (39,164 करोड़ रुपए) और यूनियन बैंक ऑफ इंडिया का (38,286 करोड़ रुपए) का नंबर रहा। निजी बैंकों में आईसीआईसीआई बैंक 44,237 करोड़ रुपए के एनपीए के साथ शीर्ष पर है। इसके बाद एक्सिस बैंक 22,136 करोड़ रुपए, एचडीएफसी बैंक 7,644 करोड़ रुपए और जम्मू एंड कश्मीर बैंक का एनपीए 5,983 करोड़ रुपए रहा।

अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ ने हाल ही में देश के सबसे बड़े 50 लोन बकाएदारों (सिर्फ कंपनियों) की सूची जारी की है। इस सूची में कुछ ऐसी कंपनियों के नाम भी शामिल हैं, जिनका देश के साथ-साथ विदेशों में भी काफी बोलबाला है। इन सभी बकाएदारों पर कुल मिलाकर लगभग 40,528 करोड़ रुपए का कर्ज है। संघ बैंकों में पड़े आम लोगों के पैसों को सुरक्षित रखने के लिए जल्द से जल्द बकाएदारों से पैसे वसूलने की मांग कर रहा है।

जो कुछ इस तरह रहे है।

मोजर बेयर इंडिया लिमिटेड और समूह
बकाया लोन की राशि - 581 करोड़ रुपए

सेंचुरी कम्युनिकेशन लिमिटेड
बकाया लोन की राशि - 624 करोड़ रुपए

इंडियन टेक्नोमैक
बकाया लोन की राशि - 629 करोड़ रुपए

आईसीएसए (भारत)
बकाया लोन की राशि - 646 करोड़ रुपए

डेक्कन क्रॉनिकल होल्डिंग्स लिमिटेड
बकाया लोन की राशि - 700 करोड़ रुपए

के. एस ऑयल रिसोर्सेज
बकाया लोन की राशि - 678 करोड़ रुपए

पिक्सन मीडिया प्रा. लिमिटेड
बकाया लोन की राशि - 712 करोड़ रुपए

जायलॉग सिस्टम्स (इंडिया) लिमिटेड
बकाया लोन की राशि - 715 करोड़ रुपए

सूर्या फार्मा
बकाया लोन की राशि - 726 करोड़ रुपए

एसटीसीएल लिमिटेड
बकाया लोन की राशि - 860 करोड़ रुपए

राष्ट्रीय कृषि सहकारी
बकाया लोन की राशि - 862 करोड़ रुपए

मुरली इंडस्ट्रीज एवं निर्यात लिमिटेड
बकाया लोन की राशि - 884 करोड़ रुपए

केमरॉक इंडस्ट्रीज एवं एक्सपोर्ट्स
बकाया लोन की राशि - 929 करोड़ रुपए

ऑर्किड केमिकल्स एंड फार्मास्युटिकल
बकाया लोन की राशि - 928 करोड़ रुपए

वरुण इंडस्ट्रीज लिमिटेड
बकाया लोन की राशि - 1,129 करोड़ रुपए

स्टर्लिंग ऑयल रिसोर्सेज
बकाया लोन की राशि - 1,197 करोड़ रुपए

फॉरएवर प्रिशियस ज्वेलरी एवं डायमंड्स
बकाया लोन की राशि - 1,254 करोड़ रुपए

कॉर्पोरेट इस्पात अलॉयज
बकाया लोन की राशि - 1360 करोड़ रुपए

सूर्य विनायक इंडस्ट्रीज
बकाया लोन की राशि - 1,446 करोड़ रुपए

एस. कुमार्स नेशनवाइड लिमिटेड
बकाया लोन की राशि - 1,692 करोड़ रुपए

स्टर्लिंग बायोटेक लिमिटेड
बकाया लोन की राशि - 1,732 करोड़ रुपए

ज़ूम डेव्लपर्स प्राइवेट लिमिटेड
बकाया लोन की राशि - 1,810 करोड़ रुपए

इलेक्ट्रोथर्म इंडिया लिमिटेड
बकाया लोन की राशि - 2,211 करोड़ रुपए

विनसम डायमंड एवं ज्वेलरी
बकाया लोन की राशि - 2,660 करोड़ रुपए

किंगफिशर एयरलाइंस
बकाया लोन की राशि - 2,673 करोड़ रुपए

एक बार समझने की कोसिस करते है कि ये एनपीए होता क्या है, या ये कैसे होता है।

मान लीजिए आपके पास कोई कंपनी है ।और आपने बैंक से 10 करोड़ रुपए का लोन लिया और बैंक वालों ने आपसे कहा कि आप इस राशि पर 10 फीसदी का ब्याज देते रहिए, हम आपसे वायदा करते हैं कि जबतक आपका बिजनेस बेहतर नहीं चलता है और आप ब्याज समय पर देते रहते हैं तबतक कोई दिक्कत नहीं है।

लेकिन बाद में अगर कंपनी के भीतर किसी भी तरह का विवाद हो जाता है, वह कंपनी अपेक्षा के अनुरूप काम नहीं करती है और 90 दिनों तक ब्याज बैंक को नहीं दिया जाता है तो उस लोन राशि को बैंक एनपीए घोषित कर देता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि एनपीए कितने तरह का होता है और आखिर क्यों बैंक लोन देने से पहले कंपनी के बारे में सही से जानकारी हासिल नहीं करते हैं।
  

तीन प्रकार के एनपीए
एनपीए मुख्य रूप से तीन प्रकार का होता है, पहला सबस्टैंडर्ड, दूसरा डाउटफुल और तीसरा लॉस यानि हानि वाला। सबस्टैंडर्ड एनपीए के तहत उस राशि को डाला जाता है जिसमे 12 महीने या उससे कम समय तक कोई भी रिटर्न नहीं आता है, डाउटफुल एनपीए में वह लोन आता है जिसमे 12 महीने बाद भी कोई रिटर्न नहीं आता है। जबकि लॉस में उस राशि को डाला जात है जब आरबीआई को यह पता चल जाता है कि यह पैसा लॉस का है और इसे राइट ऑफ नहीं किया जा सकता है।

ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर कैसे बैंकों से यह चूक होती है, जिसका भुगतान एनपीए के तौर पर उन्हें उठाना पड़ता है। ब्रिक्स देशों के समहूों में भारत सबसे फिसड्डी देश है, जहां 2016 में 10 फीसदी एनपीए था, जोकि कुल 7 लाख करोड़ रुपए था। लेकिन बांद में यह सामने आया कि यह एनपीए 10 फीसदी नहीं बल्कि 80 फीसदी है। दरअसल जब कोई कंपनी अपनी अपेक्षा के प्रतिकूल कंपनी का आंकलन करती और अपने बिजनसे को संभाल नहीं पाती है तो वह लोन वापस देने में विफल हो जाता है।

दूसरी स्थिति में जब वैश्विक मंदी आती है तो कोई विशेष सेक्टर उसकी चपेट में आता है तो कंपनी लोन चुकाने में विफल रहती है और तीसरी स्थिति वह होती है जब कंपनी के अंदर किसी तरह का घोटाला हुआ और गलत तरीके से बैंक से लोन लिया गया।

  जिस तरह से वर्ष 2007 में रिसेसन आया , उस दौर में बैंकों ने इससे निपटने में अहम भूमिका निभाई, ऐसे में बैंकों पर एनपीए की समस्या का पूरा ठीकरा फोड़ना कतई जायज नहीं है। इस मंदी के दौर में जिस तरह से बैंकों ने बड़ी भूमिका निभाई उसके बाद बैंकों को तुरंत सशक्त करने के कदम नहीं उठाए जाने से देश की अर्थव्यस्था पर दूरगामी प्रभाव पड़े।

इसकी वजह से कई बड़ी समस्या निकलकर सामने आई जिसमे पहली थी।लोन देने से बैंक परहेज करने लगे, दूसरा एनपीए की समस्या का स्थाई समाधान नहीं होने की वजह से कई बड़े प्रोजेक्ट पर ब्रेक लग गया, बैंक इन प्रोजेक्ट्स के लिए और पैसा देने की स्थिति में नहीं थे, जबकि तीसरी असर यह पड़ा कि उद्योगपति कर्ज में डूब गए और नया लोन लेने की स्थिति में नहीं थे।

रिजर्व बैंक ने सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत जानकारी दी है कि नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में सरकारी बैंकों का एनपीए यानी बैड लोन तिगुना हो गया है। इंडिया टुडे टीवी के सवालों का जवाब देते हुए आरबीआई ने कहा है कि 30 जून, 2014 से दिसंबर, 2017 के अंत तक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए बढ़कर तीन गुना हो गया है।

रिजर्व बैंक ने कहा है, 30 जून, 2014 तक सरकारी क्षेत्र के बैंकों का कुल एनपीए 2,24,542 करोड़ रुपये था जो साढ़े तीन साल यानी दिसंबर 2017 तक बढ़कर 7,23,513 करोड़ रुपये हो गया। रिजर्व बैंक ने सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों की रिपोर्ट के आधार पर यह आंकड़ा जारी किया है।
आरटीआई में 30 जून, 2018 तक बैड लोन की जानकारी मांगी गई थी लेकिन आरबीआई ने आंकड़ा नहीं होने का हवाला देकर आगे की सूचना देने में असमर्थता जाहिर की।

आरबीआई ने आरटीआई के जवाब में यह भी बताया है कि अप्रैल 2014 से लेकर 31 मार्च, 2018 तक इन बैंकों द्वारा कुल 1,77,931 करोड़ रुपये की लोन रिकवरी हुई है। यह आंकड़ा दिसंबर 2017 तक बांटे गए बैड लोन से बहुत छोटा है। बता दें कि कुछ दिनों पहले रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने संसदीय समिति को लिखित जवाब में कहा था कि उन्होंने बड़े बैंक घोटालेबाजों की एक लिस्ट प्रधानमंत्री कार्यालय भेजकर आगाह किया था लेकिन उनमें से एक के खिलाफ भी कार्रवाई नहीं हुई।

राजन के बयान के बाद से केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार विपक्ष के निशाने पर है। विपक्ष घोटालेबाजों को बचाने का आरोप मोदी सरकार पर लगा रहा है।

केंद्र सरकार इन बैड लोन के एक बड़े घोटालेबाज और भगोड़े विजय माल्या के बयान से भी निशाने पर है। पिछले हफ्ते माल्या ने आरोप लगाया था कि उसने लंदन आने से पहले वित्त मंत्री अरुण जेटली से मुलाकात की थी और सेटलमेंट की बात कही थी। हालांकि, जेटली ने माल्या से संसद में चलते-फिरते अनौपचारिक मुलाकात की बात कबूल की लेकिन सेटलमेंट के आरोपों से इनकार किया।

साथ ही यह भी कहा था कि उन्होंने कोई औपचारिक मुलाकात नहीं की थी। विपक्ष इस मामले में जेटली से इस्तीफा मांग रहा है और माल्या को विदेश भगाने का आरोप लगा रहा है।

बैंक यूनियनों ने केंद्र की मोदी सरकार के बैंक आॅफ बड़ौदा (बॉब) की अगुवाई में तीन बैंकों के विलय के प्रस्ताव का विरोध किया है। सरकार ने बैंक आॅफ बड़ौदा, विजया बैंक और देना बैंक के विलय का प्रस्ताव किया है।

यूनियनों का आरोप है कि सरकार का इस कदम के पीछे मकसद गैर निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) और बड़ी कंपनियों से कर्ज की वसूली के मुद्दे से ध्यान हटाना है।

आॅल इंडिया बैंक आॅफिसर्स कनफेडरेशन (एआईबीओसी) ने कहा कि भारतीय बैंकिंग उद्योग की प्रमुख समस्या बढ़ता एनपीए है जो 10 लाख करोड़ रुपये के पार हो चुका है।

एआईबीओसी ने कहा कि विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चोकसी के खिलाफ कड़ी दंडात्मक कार्रवाई नहीं होना सरकार की ओर से राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को दर्शाता है।

केंद्र सरकार के तीन बैंकों को विलय करने के फैसले का विरोध करते हुए आॅल इंडिया बैंक इम्प्लाइज़ एसोसिएशन (एआईबीईए) के महासचिव सीएच वेंकटचलम ने कहा कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि बैंकों का विलय बैंकों को मजबूत करेगा या उन्हें अधिक कुशल बना देगा।

वेंकटचलम ने आगे कहा कि एसबीआई के साथ पांच सहयोगी बैंको के विलय के बाद कोई चमत्कार नहीं हुआ है।

पहले हुए विलय पर उन्होंने कहा, ‘दूसरी तरफ, इसके परिणामस्वरूप शाखाओं को बंद करना, खराब ऋण में वृद्धि, कर्मचारियों में कमी, व्यापार में कमी आई है। 200 वर्षों में पहली बार एसबीआई नुकसान में गया है।

बैंक श्रमिक का राष्ट्रीय संगठन (एनओबीडब्ल्यू) के उपाध्यक्ष अश्विनी राणा ने आश्चर्य जताते हुए कहा कि विलय का उद्देश्य स्पष्ट नहीं है और इन बैंकों के कर्मचारी प्रभावित होंगे।

टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, गुजरात बैंक कर्मचारी यूनियन (जीबीडब्ल्यूयू) के सदस्यों ने मंगलवार को सूरत में बैंक आॅफ बड़ौदा, विजया बैंक और देना बैंक के विलय का प्रस्ताव के विरोध में प्रदर्शन किया।

प्रदर्शनकारियों ने कहा कि केंद्र सरकार नोटबंदी और जीएसटी के फायदे बताने में पूरी तरह से असफल रही अब बैंकों के विलय से अर्थव्यवस्था को सिर्फ नुकसान पहुंचेगा।

यूनियन के महासचिव वसंत बरोट ने कहा, ‘बैंको का एनपीए बढ़ रहा है। बैंकों का विलय करने से देश में बेरोज़गारी बढ़ेगी। बैंक आॅफ बड़ौदा एक लाभकारी बैंक हैं।दो बैंकों के विलय से इस बैंक का नाम भी एनपीए लिस्ट में आ जाएगा।

मालूम हो कि केंद्र सरकार ने बीते 17 सितंबर को कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र के तीन बैंकों- बैंक ऑफ बड़ौदा, विजय बैंक और देना बैंक का आपस मे विलय किया जाएगा। इस निर्णय के साथ देश का तीसरा सबसे बड़ा बैंक अस्तित्व में आएगा।

बैंकों के विलय की योजना की घोषणा करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि इससे बैंक और मज़बूत होंगे और उनकी क़र्ज़ देने की क्षमता बढ़ेगी।विलय के कारणों को बताते हुए उन्होंने कहा बैंकों की क़र्ज़ देने की स्थिति कमज़ोर होने से कंपनियों का निवेश प्रभावित हो रहा है।

आर्थिक मंदी के कारण फँसे कर्ज़ (जो उद्योगों ने पूँजी विस्तार के लिये लिया था) और जानबूझकर कर्ज़ न चुकाने वालों के बीच कोई अंतर न करते हुए सभी को एक ही लाठी से हाँकते हुए बैंकों ने बैड लोन की श्रेणी में डाल दिया है, जबकि इनको अलग-अलग रखने से स्थिति कुछ बेहतर हो सकती थी।

बड़े कर्ज़दारों पर सरकार (बैंकों) को उसी प्रकार सख्ती करनी चाहिये जिस प्रकार वह छोटे दुकानदारों और किसानों के साथ करते हैं और कर्ज़ अदायगी न होने पर उन्हें जेल में डाल दिया जाता है।

बड़ा कर्ज़ लेने वालों को छोटा कर्ज़ लेने वालों की तुलना में बहुत कम ब्याज देना पड़ता है, फिर भी वे कर्ज़ नहीं चुका पाते। इस विसंगति को भी दूर करना ज़रूरी है।

जब एनपीए को लेकर बैंक और सरकार सबकुछ जानते हैं तो उन्हें उनके खिलाफ कार्रवाई करने में क्या कठिनाई है? क्यों उनके नाम सार्वजनिक नहीं किये जाते? इस दिशा में सरकार को गंभीरता से प्रयास करने होंगे।

उद्योगों की तरह यदि बैंकों में मंदी या दिवालियेपन की स्थिति आ गई तो यह देश की अर्थव्यवस्था के लिये बेहद घातक हो सकता है। इसलिये इस समस्या को हल करने के लिये तुरंत प्रभावी कार्रवाई करने की आवश्यकता है।
बैंकों के विलय के दौरान भी सावधानी बरतने की ज़रुरत है।

घाटे में चल रहे बैंकों का बड़े बैंक में विलय करने से बड़े बैंक की हालत भी ख़राब हो सकती है। इसलिये घाटे वाले बैंकों में पूँजी डालने की प्रक्रिया में बदलाव करना पड़ सकता है।
देश में अवसंरचना विकास और विदेशों में निर्यात बढ़ाकर भी आने वाले समय में इस समस्या को कम किया जा सकता है, अन्यथा हर 10 वर्ष बाद ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

कॉरपोरेट्स से उम्मीद की जाती है कि वे आर्थिक सुधार की बुनियाद तैयार करेंगे, लेकिन वे आज स्वयं बैंक कर्ज में डूब गए हैं या डूबने वाले हैं। बहरहाल, वर्तमान माहौल में ऐसी कंपनियों की बैलेंस शीट में सुधार लाना आसान नहीं है, क्योंकि कम मुद्रास्फीति वाले माहौल में ऐसा करना संभव नहीं है। दूसरी तरफ, कॉरपोरेट्स की आय में तेजी नहीं आ रही है, जबकि बैंक-कर्ज की ब्याज-दर लागत लगातार ऊंचे स्तर पर बनी हुई है।

अगर मौजूदा माहौल में सुधार नहीं होता है तो उद्योग जगत के लिए पूंजी जुटाना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि बैंक, मौजूदा समय में उद्योग जगत को कर्ज देने से परहेज कर रहे हैं। ऐसी स्थिति निजी निवेश में इजाफा करने की सरकार की कोशिशों के लिए भी एक बड़ी चुनौती है।
विकास के लिए निजी क्षेत्र में निवेश करना आवश्यक है।

लेकिन बैंक बढ़ते एनपीए से परेशान होकर उद्योग जगत को कर्ज नहीं देना चाहते हैं, जबकि अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और विकास दर में इजाफा करने के लिए आवश्यक है कि बैंक, कंपनियों को कर्ज वितरण में कोताही न बरतें, क्योंकि उद्योग जगत को कर्ज मिलने से ही विनिर्माण क्षेत्र में तेजी, रोजगार में बढ़ोतरी, विविध उत्पादों की बिक्री में तेजी आदि संभव हो सकते हैं।

इधर, बैंकों का एनपीए और ‘पुनर्गठित’ कर्ज छह लाख करोड़ रुपए से अधिक हो चुका है। बासेल तृतीय के विविध मानकों को पूरा करने के लिए भी बैंकों को लाखों करोड़ रुपए की जरूरत है।
लब्बोलुआब यह कि कंपनियों को कर्ज देने में या उनके कर्ज को पुनर्गठित करने में जिस तरह से बैंक लचीला रुख अपना रहे हैं, उससे नुकसान अंतत: आम आदमी और देश को हो रहा है।

ऐसे मामलों में राजनीतिक दलों के हस्तक्षेप के मामले भी देखे जाते हैं, जिससे बैंक गलत कंपनियों को कर्ज देने के लिए मजबूर होते हैं। बुरे कर्ज के कुछ मामलों में आवेदन की जांच-पड़ताल में कोताही एक प्रमुख वजह रहती है। यानी आवेदन से संबंधित परियोजना की व्यावहारिकता और लाभप्रद है या नहीं, इसका ठीक से आकलन किए बगैर कर्ज जारी कर दिया जाता है। कुछ मामलों में भ्रष्टाचार भी एक कारण रहता होगा।

पर भ्रष्टाचार के साथ-साथ कर्ज-वसूली में बैंकों तथा सरकार का ढीला-ढाला रवैया भी कॉरपोरेट कर्ज के एनपीए में तब्दील होने का अहम कारण है।

एनपीए वसूली नहीं होने या उसमें हो रही देरी के लिए भी ऐसी वजहें जिम्मेवार हैं। उदाहरण के तौर पर माल्या को कर्ज देने में लचीला रुख अपनाया गया और अब उसके एनपीए होने के बाद उसकी वसूली में भी लापरवाही बरती जा रही है, जिसके लिए निश्चित रूप से हमारी मौजूदा प्रणाली दोषी है। राजकोषीय घाटे को पाटने के लिए हर तरह की सबसिडी की सीमा बांधी जा रही है।

लेकिन अर्थव्यवस्था की छाती पर एनपीए के रूप में जो सबसे बड़ा बोझ है उससे मुक्ति के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं? एनपीए न सिर्फ बैंकों के लिए, बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह हैं। इसके चलते बैंकों के पास कारोबारी पूंजी कम हो जाती है, जिससे कई बहुत अच्छे प्रस्तावों के लिए भी कर्ज देने को उनके पास पर्याप्त रकम नहीं होती।

यही नहीं, डूबी रकम की भरपाई के लिए वे नए कर्जों पर ब्याज दर बढ़ा सकते हैं, जिसका खमियाजा ग्राहकों को भुगतना पड़ेगा।

अगर एक छोटा व्यापारी या किसान लोन लेने जाएगा तो उसे पचास तरह के पेपर मांगे जाएंगे। बीस जगहों पर उससे साइन लिया जाएगा ।और लोन दोगुनी गारंटी ली जाएगी। फिर हर महीने लोन के ब्याज ले ले कर उनका खून चूस लिया जाएगा। 

एक लाख , दो लाख या पांच लाख तक कर्जा लेने वालों के लिए यह स्कीम है।  अगर यह लोग कर्जा वापस नही कर पाते हैं तो कई बार एजेंट भेजकर इनकी कुटाई भी कर दी जाती है। और अंत में इन्हें इतना परेशान और इतना टॉर्चर कर दिया जाता है कि यह या तो कुएं में कूदकर आत्महत्या कर लेते हैं , या तो ट्रेन के नीचे आकर आत्महत्या कर लेते हैं। 

वहीं इसके उलट पचास लाख से ऊपर की रकम या यूं कहें कि जो करोड़ों की रकम में लोन लेते हैं उनको  सुविधाएं बढ़ती जाती हैं।  बिल्कुल प्लेन के फ्लेक्सी किराए की तरह । मतलब जितना ज्यादा लोन उतनी सारी सुविधा।  यकीन मानिए अगर कोई दो या चार लाख करोड़ का लोन ले ले तो प्रधानमंत्री उसे खुद बकायदा जहाज में बैठाकर विदेश छोड़कर आएंगे। 

और यही नहीं विदेश में उनके रहने का खाने-पीने का सारा इंतजाम करके आएंगे।  क्योंकि प्रधानमंत्री को आपके जीने या मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। प्रधानमंत्री को फर्क पड़ता है तो बस अपना खजाना भरने से। ताकि वो जहां जहां चुनाव हारे,  वहां वहां सौ, सौ करोड़ रुपए का खुल्ला आफर देकर विधायक खरीद लिया जाए। या  राज्यसभा के सांसद बनवा लिया जाए।

अधिकारी से लेकर के न्याय व्यवस्था तक सब को खरीदकर अपना गुलाम बना सके।  और सात सौ करोड़ का मुख्यालय बना सके। साथ कि चन्देरूपी इन्वेस्टमेंट के माध्यम से हर शहर में अपने दस दस करोड़ के मुख्यालय बना सके।

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