कर्नाटक में लोकतंत्र की पूजा
इस समय कर्नाटक चुनावो के बाद नैतिक अधिकारों का जो हनन चला हुआ है वह सीधा संकेत है कि अब इस देश मे लोक तंत्र समाप्त हो चुका है।
इस हम इस तरह से समझ सकते है , जैसे की इस चल रहे खेल की दो टीमें हैं , और इस खेल के अंपायर , रेफरी, कॉमेंटेटर , ग्राउंड मेंन, पिच क्यूरेटर, सब भाजपा है । और मजे की बात यह है कि दोनों टीम मिलकर ही खेल रही है ।
पहले टीम में जहां पर मेघालय ,त्रिपुरा, बिहार , गोवा है । तो दूसरी टीम में कर्नाटक है ।
एक बात समझ में नहीं आती कि क्या देश का संविधान राज्यों के हिसाब से बदल जाता है ? क्योंकि मेघालय, बिहार , त्रिपुरा , गोवा में राज्यपाल ने पार्टी के समूह (जो कि सबसे ज्यादा बहुमत के करीब या बहुमत पा चुका था) को बुलाकर सत्ता लाभ लेने का मौका दिया। लेकिन कर्नाटक में इसके उलट जब जेडीएस और कांग्रेस एक साथ मिलकर तैयार थे , तब राज्यपाल ने भाजपा को सरकार बनाने का न्योता दे दिया।
इस मौके पर 1996 में भारत के राष्ट्रपति के आर नारायणन द्वारा भाजपा के तत्कालीन नेता पंडित अटल बिहारी वाजपेई जी को एक लिखा हुआ खत की याद आती है, जिसमें उन्होंने लिखा था कि "संविधान की अनुरूपता अनुसार जब चुनाव में त्रिशंकु उत्पन्न हो , तब उस पार्टी या पार्टी के समूह को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाता है जो बहुमत से सबसे ज्यादा करीब हो या बहुमत प्राप्त कर चुकी हो और इसी आधार पर मैं आप को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करता हूं" ।
ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ है इसके पहले भी ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं। और कल जब सुप्रीम कोर्ट देर रात मैं फैसला देती है , और फैसले में यह कहती है कि वह राज्यपाल को रोक नहीं सकती , तब 2005 के झारखंड विधानसभा चुनाव की याद आ जाती है। उस समय वही दोनों वकील आमने सामने थे जो आज के समय में आमने सामने हैं ।
यानी कि मुकुल रोहतगी और अभिषेक मनु सिंघवी।
बस फर्क इतना है कि इस समय दोनों के पाले बदल गए हैं । उस समय जहां पर मुकुल रोहतगी सरकार बनाने को, वह भी इसी तरह से गलत बता रहे थे । आज वह अपने उसी तर्क के खिलाफ एक नये तर्क के साथ खड़े हैं । इसीलिए शायद एक अच्छा वकील, एक बहुत अच्छा नेता भी बनता है। क्योंकि झूठ और फरेब दोनों को करना है। खैर हम बात करते हैं उस समय सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले की ।
सुप्रीम कोर्ट का कहना यह था कि "जिसके पास बहुमत हो( यानी कि अर्जुन मुंडा या शिबू सोरेन) वह उसे साबित करें"। उस वक्त की एक घटना याद याद आती है, अर्जुन मुंडा अपने समर्थित विधायकों को बस में बैठाकर राज्यपाल आवास पर चले गए थे । सुप्रीम कोर्ट ने इसके साथ यह भी कहा था कि " शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री बनाना राज्यपाल का संविधान के साथ ही धोखा है । और इस धोखे को हम आगे रोकना चाहते हैं" ।
उस समय जजों की बेंच में चीफ जस्टिस आर सी लाहोटी के अलावा जस्टिस राकेश सबरवाल और जस्टिस धर्माधिकारी भी थे। और इन्होंने तत्कालीन राज्यपाल शिब्ते रजी के कई विशेषाधिकार छीन लिए।
इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक को आदेश दिया कि सभी विधायक विधानसभा में आए और बिना किसी गड़बड़ी के वोटिंग हो। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने सीधे-सीधे वार्निंग दिया की पूरी प्रक्रिया शांतिपूर्वक चलनी चाहिए। और खुद अदालत पूरी प्रक्रिया को देखेगी। कार्यवाही का नतीजा, प्रक्रिया, और सारे कार्य सब की वीडियो रिकॉर्डिंग को कोर्ट में जमा करने के लिए कहा गया।
और उस समय राज्यपाल ने 5 दिनों का समय दिया था बहुमत साबित करने के लिए, जिसे मुकुल रोहतगी ने यह कह कर बहुत ज्यादा बताया था कि "5 दिन का समय खरीद फरोख्त के लिए बहुत ज्यादा होता है "। तब सुप्रीम कोर्ट ने इस समय सीमा को घटाकर केवल 2 दिन कर दिया था। आज वही मुकुल रोहतगी यह कहते नहीं थक रहे हैं कि "समय सीमा देना राज्यपाल के विवेक पर निर्भर करता है "। और राज्यपाल का " विवेक कहां से भरा और ठूसा जाता है, यह शायद पुणे के हेड क्वार्टर से ही समझा जा सकता है।
वैसे कर्नाटक के कथित राज्यपाल वजू वाला भाई गुजरात भाजपा इकाई के प्रमुख भी रह चुके है। तो उनका अपनी पुरानी पार्टी और अपने पुराने आकाओं के प्रति फ़र्ज़ भी समझा जा सकता है।
जब बिहार, त्रिपुरा , मेघालय और गोवा सही है तो, कर्नाटक गलत क्यों नहीं ? और अगर कर्नाटक सही है तो फिर यह चारों राज सही कैसे है? अगर सबसे बड़ी पार्टी को ही सरकार बनाने का मौका दिया जाता है तो, बिहार में आरजेडी जिसकी 90 सीटें हैं ,उनको मिलना चाहिए यह मौका । और मेघालय, त्रिपुरा , और गोवा में यह मौका कांग्रेस को मिलना चाहिए। क्योंकि तीनों जगह कांग्रेस सिंगल लार्जेस्ट पार्टी है । और यदि पार्टी के समूह जो की सबसे ज्यादा नंबर में है, उनको मौका देना सही है, तो फिर कर्नाटक में कांग्रेस और जेडियस के गठबंधन को मौका देना चाहिए। राज्यो के हिसाब से संविधान कैसे बदल रहे हैं?
यह समझ नहीं आ रहा है क्या संविधान में इसका भी कोई क्लाज है की राज्यपाल या राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री या भाजपा का अध्यक्ष अपनी सुविधानुसार संविधान को राज्यों के हिसाब से बदल सकता है ??
टेलीविज़न स्क्रीन पर पिछले दो दिनों से जो चेहरे नज़र आ रहे हैं, उनमें भाजपा की तरफ़ से नरेंद्र मोदी, अमित शाह, बीएस येदियुरप्पा, प्रकाश जावड़ेकर, अनंत कुमार, जेपी नड्डा और रविशंकर प्रसाद हैं।
जनता दल-सेक्युलर की तरफ़ से एचडी देवगौड़ा और कुमारास्वामी ने मोर्चा संभाला है।
कांग्रेस के किले में तैनात सिपहसालारों में पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के अलावा गुलाम नबी आज़ाद, अशोक गहलोत दिख रहे हैं।
लेकिन कांग्रेस के जिस चेहरे को सबसे ज़्यादा दिखना चाहिए था, वो अभी पर्दे के पीछे ही दिख रहे हैं. राहुल गांधी।
15 मई को नतीजे आने वाले दिन उन्होंने एक ट्वीट में लिखा था, "इन चुनावों में कांग्रेस को वोट देने वालों का शुक्रिया। हम आपके समर्थन का सम्मान करते हैं और आपके लिए लड़ेंगे भी। साथ ही कार्यकर्ताओं और नेताओं का भी साधुवाद जिन्होंने लड़ने का हौसला दिखाया।"
लेकिन इसके बाद दो दिन सियासी पारा चढ़ा रहा और ड्रामा जारी रहा लेकिन राहुल गांधी ने इस पर कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
जब ये तय हो गया है कि गुरुवार सवेरे नौ बजे येदियुरप्पा मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे, तो राहुल ने चंद मिनट पहले एक और ट्वीट किया, "भाजपा के पास पर्याप्त संख्याबल नहीं है लेकिन इसके बावजूद वो कर्नाटक में सरकार बनाने पर ज़ोर दे रही है।"
"ये कुछ और नहीं बल्कि संविधान का मज़ाक है. आज सवेरे भाजपा जब खोखली जीत का जश्न मना रही है, तो देश लोकतंत्र की हार पर दुखी है."
इसके कुछ देर बाद रायपुर में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने येदियुरप्पा की ताज़पोशी पर हमला बोलते हुए कहा कि तानाशाही में ऐसा ही होता है।
लेकिन क्या दो ट्वीट और एक जनसभा में चंद लाइनें कर्नाटक में भाजपा को बैकफ़ुट पर लाने के लिए काफ़ी साबित होंगी।
राहुल के ट्वीट के जवाब में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने जवाबी हमला बोला।
उन्होंने लिखा, "कांग्रेस अध्यक्ष को अपनी पार्टी का इतिहास शायद याद नहीं है. उनकी पार्टी की विरासत आपातकाल, आर्टिकल 356 का दुरुपयोग, अदालत, मीडिया और सिविल सोसाइटी पर हमला करने से जुड़ी रही है।"
शाह ने एक और ट्वीट किया, "किसके पास कर्नाटक की जनता का जनादेश है? 104 सीटें जीतने वाली भाजपा या फिर कांग्रेस जो घटकर 78 सीटों पर आ गई और जिसके मुख्यमंत्री-मंत्री अपनी सीटें नहीं बचा सकें। या फिर जनता दल सेक्युलर, जिसने 37 सीटें जीतीं और दूसरों पर ज़मानत तक ज़ब्त हो गई।"
"लोकतंत्र की हत्या उसी पल हो गई थी जब कांग्रेस ने जनता दल सेक्युलर के सामने अवसरवादी ऑफ़र रखा। ये कर्नाटक के भले के लिए नहीं था बल्कि सियासी फ़ायदे के लिए था।शर्मनाक!"
सुप्रीम कोर्ट में मामला जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस पर टिप्पणी की कि "इन सारे वाकयो को देखने पर पता चलता है कि आपके पास टोटल विधायकों की संख्या 103 है तो आप बहुमत का आंकड़ा 111 कहां से लाएंगे ? " सुप्रीम कोर्ट का यह सवाल भारतीय जनता पार्टी से था।
यह अपने आप में बेहद ही हास्यास्पद है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में बैठे हुए जजों को भी मालूम है कि यह काम कैसे होगा । घोड़ा खरीदने की प्रक्रिया जैसे इंग्लिश में "हॉर्स ट्रेडिंग " कहते हैं, शायद इसीलिए बनाई गई थी । 2 दिन से सोशल मीडिया पर भी 100 करोड़ का एक रेट कार्ड लेकर घूमाया जा रहा है। और न्यूज़ चैनल खुलेआम यह बता रहे हैं कि भाजपा विधायकों को खरीद रही है । और यह बताने में अपना सीना भी गर्व से काफी चौड़ा कर रहे हैं ।
कर्नाटक में विधायकों को खरीदने के लिए इतने पैसे बीजेपी के पास कहां से आए ? यह बात जानने की किसी को जरूरत नहीं है । भले ही कर्नाटक चुनाव से पहले सभी लोग को कैश की किल्लत हुई और सभी लोग को पैसों के लिए दौड़-भाग करनी पड़ी ।
मैं यह नहीं कह रहा कि सारे पैसे कर्नाटक के विधायकों को खरीदने के लिए बीजेपी ने ले लिया है। लेकिन मैं जो कहना चाहता हूं वह भी आप समझिए। मैं किसी भी संभावना से इनकार नहीं करता। जिस तरह सरेआम संविधान को और लोकतंत्र को कुचला गया , और सरेआम यह कहा गया कि हम तो करेंगे आप बच सकते हो तो बच लो। यह दिखाता है कि देश में लोकतंत्र खत्म हो चुका है।
आखिर में इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में डालना भी अपने आप में बहुत बड़ी बेवकूफी है।
क्योंकि आप जिस जज के पास जाकर इस मामले को उठा रहे हैं, आपको भी भली भांति पता है कि वह जज किस का पिट्ठू बना बैठा है। सुप्रीम कोर्ट के जज से लेकर के सरकारी एवं प्रशासनिक अधिकारियों तक और राज्यपाल तक सब भाजपा के प्रति अपने नमक का फर्ज अदा कर रहे हैं। भले ही इसके लिए वह संविधान की हत्या ही क्यों ना कर कर दें।
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं कि राहुल गांधी ने कर्नाटक के मोर्चे पर अपने वरिष्ठ नेताओं को लगाया. उन्होंने कहा, "यही वजह है कि भाजपा को इस बार गोवा और मणिपुर जैसा मौका नहीं मिला।"
"कांग्रेस ने एग्ज़िट पोल के बाद ही सक्रियता दिखानी शुरू कर दी थी और रविवार को ही रणनीति को अंतिम रूप दिया गया. कुमारस्वामी और देवगौड़ा से बातचीत की गई। इस बार भाजपा गच्चा खा गई।"
नीरजा कहती हैं, "जिस वक़्त नतीजे अंतिम नंबर की ओर बढ़ रहे थे, कुछ ही घंटों में दोनों दलों के बीच समझौता हो गया. ये साम, दाम, दंड, भेद का दौर है और कांग्रेस ने यही किया।"
"राहुल का सामने आना ऑपरेशन का ही हिस्सा हो सकता है. लेकिन ये बात सही है कि अगर कांग्रेस नेताओं के साथ राहुल भी प्रदर्शन में शामिल होते तो इसका फ़ायदा हो सकता था।"
"एक तरह से सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने का मतलब ये समझा जाता है कि आपने राजनीतिक रूप से हार मान ली है. लेकिन कांग्रेसी नेताओं का धरने पर बैठना ये दिखाता है कि वो दो मोर्चों पर लड़ रही है।"
नीरजा चौधरी के मुताबिक़, "ये बात सही है कि अगर वो अटल बिहारी वाजपेयी की तरह धरने पर बैठ जाते तो पूरे देश के मीडिया का फ़ोकस उन पर चला जाता।"
अटल बिहारी वाजपेयी के धरने पर बैठने का किस्सा उत्तर प्रदेश से जुड़ा है।
फ़रवरी, 1998 में उत्तर प्रदेश में अंतिम दौर का चुनाव होने से पहले ही तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी ने लोकतांत्रिक कांग्रेस के नए नेता जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी।
कल्याण सिंह की अगुवाई वाली भाजपा सरकार को बर्खास्त कर दिया गया और पाल को नई सरकार बनाने का न्योता दिया गया।
इस पर अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा कि" वो कल्याण सिंह को बहुमत साबित करने का मौक़ा दिए बगैर सरकार बर्खास्त करने के ख़िलाफ़ आमरण अनशन पर बैठेंगे।"
ये ऐलान होते ही सारे देश के मीडिया का फ़ोकस वाजपेयी की तरफ़ हो गया था।
हालांकि कुछ जानकारों का कहना है कि राजनीति में असल खेल पीछे रहकर खेला जाता है और राहुल गांधी इस बार सक्रिय हैं और संभलकर चाल चल रहे हैं।
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक उर्मिलेश कहते हैं, "किसी भी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष किस तरह काम करते हैं, ये उनका अपना फ़ैसला है।
"हर नेता का अपना स्टाइल होता है. राहुल गांधी का भी अपना है. उन्हीं के फ़ैसले पर ही कर्नाटक में सब कुछ हो रहा है।"
लेकिन क्या कांग्रेस की सक्रियता की वजह सोनिया गांधी नहीं है, उन्होंने कहा, "कांग्रेस की पूरी कमान राहुल के हाथों में हैं।"
और यह भी बात पूरी तरह से गौर करने योग्य है कि भाजपा या RSS का जो सिद्धांत रहा है, उस सिद्धांत में संविधान, जनता , प्रजातंत्र, समाजवाद सद्भावना, भाईचारा जैसी चीजों का कहीं दूर-दूर तक कोई जगह नहीं है। तो हम फिर उनसे किसी भी तरह के बराबरी वाले मुकाबले की उम्मीद कैसे कर सकते हैं ? यह अपने आप में ही एक बेईमानी होगा। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट से लेकर के राज्य के राज्यपाल तक अपने पिटठूओ को बैठा चुकी बीजेपी अब किसी को भी बराबरी का मुकाबला करने का मौका नहीं देगी। क्योंकि उसे पता है कि जिस दिन यह मुकाबला बराबरी का हुआ बिना उसके पैरों की मदद से उसी दिन BJP की कब्र खोदना शुरू हो जाएगी।
बृजेश यदुवंशी
Well written
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