जिन्ना का जिन्न सावरकर के साथ
"अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में जिन्ना का फोटो लगा होना बेहद ही दुर्भाग्यपूर्ण है । वहां के अध्यापकों और छात्रों को स्वयं ही वह फोटो हटा देना चाहिए । लेकिन साथ में ही गोडसे के मंदिर बनाकर पूजा करने वालों को भी , बताकर गोडसे के मंदिरों को तोड़ देना चाहिए । - जावेद अख्तर
अगर हम भारतीय इतिहास में जिन्ना को आजादी से अलग किसी जगह खड़े हुए देखे तो , उसके साथ एक और आदमी खड़ा हुआ दिखाई देगा , वह थे "विनायक दामोदर सावरकर "। क्योंकि दोनों ने लगभग - लगभग एक ही सिद्धांत पर काम किया ।
दोनों ने अपनी जिंदगी की शुरुआत या अपने सार्वजनिक जीवन की शुरूआत एक कट्टर देशभक्त के तौर पर किया । दोनों ही अंग्रेजी सरकार के भय और लालच के भंवर जाल में फंस कर अपनी आत्मा को बेचा । उसके बाद दोनों ही कट्टरता के रास्ते पर आगे बढ़े , और आजादी तक दोनों ने ही अपने जमीर और अपनी आत्मा तक को धो दिया और ।
दोनों ने ही देश के दो टुकड़े करने में बिल्कुल समान भूमिका निभाई । एक ने टू नेशन थ्योरी की मांग को सबके 80% जनता की मांग के नाम पर सामने रखा और दूसरे ने इस विरासत को आगे बढ़ाया ।
जिन्ना और सावरकर दोनों ही द्विराष्ट्र सिद्धांत को बड़े पुरजोर तरीके से समर्थन करते हुए एक ही नक्शे कदम पर आगे बढ़े , इसी के साथ ही उन्होंने अंग्रेजो की फुट डालो और शासन करो की निति को भरपूर सहयोग प्रदान किया।
जिन्ना ने मुस्लिम लीग के बैनर के तले और सावरकर ने हिन्दू महासभा , आरएसएस के बैनर के तले स्वतंत्रता संग्राम का यह कहकर विरोध किया , की हिन्दू और मुस्लिम दो अलग राष्ट्र है । आज़ादी की लड़ाई को पूरी तरह से नाकाम करने के लिए इन दोनों कथित राष्ट्रवादियों ने अंग्रेजो से हाथ मिला लिया , ताकि वे दोनों अपनी पसंद के धार्मिक राष्ट्र हथिया सके।
अगर इस पूरे वाकिये को आज की नज़र से देखा जाए तो जिन्नाह और सावरकर में कोई फर्क नहीं है।
मुस्लिम लीग और राजनैतिक हिन्दुत्वा दोनों ही द्विराष्ट्र सिद्धांत पे काम कर थे, इसी तरह वि डी सावरकर और आरएसएस की द्विराष्ट्र का उद्देश्य भी सफ़ साफ़ समझाजा सकता है , थोड़ा और गहराई में जाए तो यह मिलता है की १९४० में मुस्लिम लीग के तरफ से जिन्न्हा नेअलग मुस्लिम राष्ट्र की मांग किया था , लेकिन उससेकाफी पहले १९३७ में ही अहमदाबाद में हिन्दू महासभा के १९वे महाधिवेशन में सावरकर ने हिन्दू और मुसलमानो के लिए अलग राष्ट्र की मांग कर लिया था , उस समय वो हिन्दू महासभा के अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए ये कहा था की ''फ़िलहाल भारत में दो प्रतिद्वंदी राष्ट्र अगल-बगल रह रहे हैं. कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मान कर गंभीर ग़लती कर बैठते हैं कि हिन्दुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रूप ढल गया है या केवल हमारी इच्छा होने से इस रूप में ढल जाएगा. इस प्रकार के हमारे नेक नीयत वाले पर कच्ची सोच वाले दोस्त मात्र सपनों को सच्चाई में बदलना चाहते हैं. इसलिए वे सांप्रदायिक उलझनों से अधीर हो उठते हैं और इसके लिए सांप्रदायिक संगठनों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. लेकिन ठोस तथ्य यह है कि तथाकथित सांप्रदायिक प्रश्न और कुछ नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता के नतीजे में हम तक पहुंचे हैं. हमें अप्रिय इन तथ्यों का हिम्मत के साथ सामना करना चाहिए. आज यह क़तई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एकता में पिरोया हुआ राष्ट्र है, इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्यतः दो राष्ट्र हैं, हिंदू और मुसलमान.’ सावरकर आरएसएस के वह विचारक है जो हिन्दू और मुसलमान के दो अलग अलग राष्ट्र को बनाने का पूरा प्रयास करता है "
जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस जी ने अन्य देशो की सहायता से युद्ध के माध्यम से देश को आज़ाद कराने का प्रयास किया तब इन्ही कथित वीरो ने अंग्रेजी सेना की सहायता किया ।
उस समय ''वीर'' सावरकर ने ये वक्तव्य कहा ''‘जहां तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारतसरकार के युद्ध संबंधी प्रयासों में सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब तक यह हिंदू हितों के फ़ायदे में हो. हिंदुओं को बड़ी संख्या में थलसेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनानेवाले कारख़ानों वगै़रह में प्रवेश करना चाहिए। ग़ौरतलब है कि युद्ध में जापान के कूदने कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के हमलों के सीधे निशाने पर आ गए हैं. इसलिए हम चाहें या न चाहें, हमें युद्ध के क़हर से अपने परिवार और घर को बचाना है और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताक़त पहुंचा कर ही किया जा सकता है. इसलिए हिंदू महासभाइयों को ख़ासकर बंगाल और असम के प्रांतों में, जितना असरदार तरीक़े से संभव हो, हिंदुओं को अविलंब सेनाओं में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए."
इसके साथ ही जिन्ना भी कुछ इसी तरह के ढर्रे पर चल रहे थे उन्होंने भी मुस्लिम लीग के बैनर के तले मुसलमानों के ऊपर कट्टरता का नशा चढ़ाते हुए यहां तक कहा कि आजादी की लड़ाई से उनका तब तक कोई सरोकार नहीं होगा जब तक भारत सरकार उन्हें एक अलग देश देने का वादा नहीं कर देती है।
दरअसल जिन्ना का जिन्न निकलने का अपना एक उद्देश्य है । जिसमें तत्कालीन कर्नाटक चुनाव मुख्य तरीके से शामिल है। लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि , इस प्रकरण से तीन दिन पहले ही अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में आरएसएस की मुस्लिम शाखा के एक सदस्य ने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी प्रशासन से पत्र लिखकर विश्वविद्यालय में आरएसएस की शाखा लगाने की मांग किया था।
जिसे उस समय प्रशासन ने नकार दिया ।
अगर इस प्रकरण को देखा जाए तो इससे दो ही चीजें साबित होती हैं । एक तो कि इनका उद्देश्य कर्नाटक चुनाव को हिंदू-मुस्लिम करना । और दूसरा किसी तरह एएमयू मैं भी हाफ पैंट वालो की शाखा लगाना।
इसमें कोई संदेह नहीं कि जिन्ना भारत विभाजन के सबसे बड़े गुनहगार हैं। यह भी सत्य है कि आजादी के पहले एएमयू ने जिन्ना और पाकिस्तान आंदोलन के लिए सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा मध्यवर्गीय कैडर मुहैया कराया था।
यह भी सच है कि जिन्ना 1920 में बनी पहली यूनिवर्सिटी कोर्ट के संस्थापक सदस्य बने थे। यह भी इतिहास से कौन मिटा सकता है कि यूनिवर्सिटी ने अपनी परंपरा के अनुरूप 1938 में जिन्ना को आजीवन सदस्य बनाया था।
लेकिन इस अधूरे तथ्य के साथ यह भी जानना जरूरी है कि ऐसे सम्मान पाने वाले जिन्ना अकेले राजनीतिज्ञ नहीं थे। जिन्ना को जो आजीवन सदस्यता 1938 में मिली, गांधीजी को वो उनसे 18 साल पहले 1920 में ही नवाजी जा चुकी थी।
यह जानना भी जरूरी है कि जिस एएमयू में आज जिन्ना की कोई जयंती सेलिब्रेट नहीं होती, वहां गांधी जयंती और उनका शहादत दिवस दोनों धूमधाम से मनाये जाते हैं। 30 जनवरी को तो उनकी हत्या के समय ठीक पांच बजकर सत्रह मिनट पर यूनिवर्सिटी में हूटर बजता है और जो जहां है वहीं खड़ा होकर दो मिनट का मौन रखता है।
एएमयू से जिन्ना को जोड़कर यूनिवर्सिटी को पाकिस्तान परस्त सिद्ध करने की कोशिशें भले की जा रही हों , लेकिन एएमयू ने आजादी की लड़ाई को एक से बढ़कर एक दीवाने दिए हैं। इनमें भारत के तीसरे राष्ट्रपति और जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे राष्ट्रवादी इदारे के सहसंस्थापक डॉ० जाकिर हुसैन शामिल हैं।
सीमांत गांधी और बादशाह खान के नाम से मशहूर खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे लालकुर्ती वाले भी यहीं से पढ़कर आजादी की लड़ाई में कूदे और न सिर्फ अंग्रेजों बल्कि खुद मुस्लिम लीग की आंख की भी किरकिरी बने रहे।
बिहार के कद्दावर राष्ट्रवादी नेता सैय्यद महमूद भी यहीं के तालिब-ए-इल्म थे जो मुस्लिम सांप्रदायिकता के सामने हमेशा ढाल बनकर खड़े रहे. कांग्रेस मुस्लिम मास कांटेक्ट कार्यक्रम के सूत्रधार कुंवर मोहम्मद अशरफ भी यहीं पढ़े थे।
यह कार्यक्रम अगर मुस्लिम लीग की गुंडागर्दी की वजह से नाकाम न कर दिया गया होता तो शायद भारतीय उपमहाद्वीप का नक्शा आज कुछ और होता। अशरफ के अलावा नेहरू जी के दाहिने हाथ माने जाने वाले महान स्वाधीनता सेनानी रफी अहमद किदवई भी और कहीं नहीं एएमयू के रास्ते ही सार्वजनिक जीवन में गए थे।
अब सवाल उठता है कि हम मुहम्मद अली जिन्ना को कैसे समझते हैं?
जिन्ना की जिंदगी को साफ तौर पर दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। एक 1937 के पहले के जिन्ना जिन्हें गोखले से लेकर सरोजिनी नायडू तक हिंदू- मुस्लिम एकता का दूत मानते थे।
एक जिन्ना वो हैं जो गांधी के आगमन के पहले तक स्वाधीनता सेनानियों की अगली पीढ़ी के तेजतर्रार नुमाइंदे माने जाते थे।जिन्ना की जिंदगी का एक शुरुआती पन्ना है कि वे भारत के पितामह कहे जाने वाले दादाभाई नौरोजी के पर्सनल सेक्रेटरी थे और फिर एनी बेसेंट की होम रूल लीग के एक महत्वपूर्ण स्तम्भ भी ।
मुस्लिम लीग के शुरुआती दौर में उन्होंने उसे कांग्रेस के करीब लाने की कोशिश की और 1916 का कांग्रेस- मुस्लिम लीग का लखनऊ समझौता लोकमान्य तिलक और जिन्ना के साझे प्रयासों का परिणाम था।
गांधी के आने के बाद जिन्ना सहित बिपन चंद्र पाल, एनी बेसेंट और जीएस खपर्डे जैसे अन्य बड़े नेता कांग्रेस से अलग हो गए। उसकी वजह थी कि वो लोग आंदोलन के उसी पुराने ढर्रे पर चलना पसंद करते थे जहां कानून का रत्ती भर भी उल्लंघन गलत माना जाता था।
इसके बाद जिन्ना ने कुछ समय के लिए राजनीति से छुट्टी ले ली और वह अपने हितों को साधने में लग गए।
तकरीबन डेढ़ दशक बाद जब वो भारतीय राजनीति में सक्रिय होकर आये तो यह पहले के जिन्ना नहीं थे। इनके पास राजनीति का एक वैकल्पिक नक्शा था जो आक्रामक मुस्लिम सांप्रदायिकता की पैरवी करता था।
जिन्ना ने इस बार आकर कांग्रेस को हिंदुओं का संगठन सिद्ध करने की कोशिशें कीं। गांधी को हर तरह से हिंदुओं का नेता कहकर उनकी खिल्ली उड़ाई। मौलाना आजाद सरीखे कांग्रेस के मुसलमान नेताओं को गद्दार बताने की मुहिम का नेतृत्व किया।
इस तरह जिन्ना अब एक उदार सांप्रदायिक की तरह मुस्लिम हितों की पैरवी करने वाले नेता बनने को तैयार नहीं थे। इस दफा वो मुस्लिम सांप्रदायिकता को नए नाखून और नए दांत लगाकर निकले थे।
इसीलिए जब 1937 के चुनावों में मुस्लिम लीग बुरी तरह हार गई तो वो कांग्रेस पर दबाव बनाने लगे कि वो यूनाइटेड प्रोविंस (आज के उत्तर प्रदेश) में मुस्लिम लीग को मुसलमानों के प्रतिनिधि के तौर पर सरकार में शामिल करे। इससे यह साबित हो जाता कि कांग्रेस सिर्फ हिंदुओं की नुमाइंदगी करती है जबकि मुस्लिम लीग ही मुसलमानों की इकलौती प्रतिनिधि है।
दरअसल जिन्ना की मुख्य चिंता कांग्रेस का मुस्लिम मास कांटेक्ट प्रोग्राम था। 1936 से मुसलमानों को कांग्रेस से जोड़ने के लिए चलाये जा रहे इस अभियान को कई राज्यों में उल्लेखनीय सफलता मिल रही थी।
सिर्फ यूनाइटेड प्रोविंस में ही 1937 के अंत तक तकरीबन 30,000 मुस्लिम कार्यकर्ता कांग्रेस में शामिल हुए थे।यही हाल पंजाब और पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत जैसे राज्यों का भी था।
कांग्रेस और मुस्लिम लीग अलग-अलग चुनाव लड़ी थीं और दोनों दलों के बीच किसी तरह का कोई औपचारिक गठबंधन नहीं हुआ था।कांग्रेस के सामने जिन्ना के इस प्रस्ताव को मानने की कोई प्रत्यक्ष वजह नहीं थी इसलिए नेहरू और कांग्रेस ने जिन्ना का प्रस्ताव अंततः ठुकरा दिया।
यही वो मोड़ है जिस पर आकर जिन्ना ने पहली बार सांप्रदायिकता को एक उग्र हिंसक राजनीति में तब्दील कर दिया। सिर्फ यूनाइटेड प्रोविंसेज में ही 1938 के साल में बड़े और छोटे सांप्रदायिक दंगों की बाढ़ सी आ गई। इन दंगों में जहां मुस्लिम लीग सबसे प्रभावी कारक थी तो छोटे-छोटे हिंदू सांप्रदायिक दल इसमें जूनियर पार्टनर की भूमिका अदा कर रहे थे।
जिन्ना ने प्रखर हिंदूवादी तिलक के लिए अदालत में फ्री मुकदमा लड़ा था। भगत सिंह को फांसी देने में जल्दबाज़ी कर रही ब्रिटिश सरकार को जिन्ना ने एसेंबली में जैसी लताड़ लगाई थी वैसी किसी ने कभी ही लगाई होगी। गांधी की मुस्लिम नेताओं के रुझान वाली राजनीति के सबसे बड़े आलोचक जिन्ना ही थे। तो फिर?
ये सब सही होने के बावजूद मोहम्मद अली जिन्ना के जीवन का सबसे बड़ा पक्ष “पाकिस्तान” है। वो पाकिस्तान जो हिंदुओं के प्रति कृत्रिम और काल्पनिक भय के आधार पर बनाया गया। वो पाकिस्तान जो डायरेक्ट एक्शन डे में बहे खून से सींचा गया। वो पाकिस्तान जिसकी नींव में एक अनावश्यक विभाजन का दर्द है।
जिन्ना के विचार से ना भारत तब सहमत था और ना आज सहमत है। यही विचार सावरकर का रहा है। ये मानते हैं कि हिंदू मुसलमान एक-साथ नहीं रह सकते। हम मानते हैं कि दोनों ना सिर्फ साथ रह सकते हैं बल्कि इस मुल्क का आधार ही विविधता है।
इतिहास के विद्यार्थी के तौर पर मैं जिन्ना के जीवन को दो भागों में बांटकर कह सकता हूं । पहले भाग में वो हिंदू-मुस्लिम एकता के अग्रदूत थे (सरोजिनी नायडू के शब्द) । और दूसरे भाग में ऐसे धूर्त शख्स जैसे थे जो अपने मां-बाप का कत्ल करके कोर्ट से इस तर्क पर रहम मांग लेता है कि , वो यतीम हो गया है (नेहरू के शब्द) । वहीं भारत के नागरिक के नाते मैं जिन्ना को पूरे परिप्रेक्ष्य में देखूंगा और उन्हें एक गैर ज़रूरी विभाजनकारी व्यक्ति के तौर पर नही नकारूंगा। सच यही है कि वो हमारे आदर्श नहीं हैं मगर चाहे-अनचाहे इतिहास का हिस्सा तो हैं।
और देश के इतिहास में कुछ इस तरह का रोल सावरकर का भी रहा है । उन्होंने भी हर तरीके के काम को हर तरह से करने की कोशिश की । और कुछ को तो अंजाम भी दे दिया । और इसी लिए उनपे गांधी हत्या का केस भी चला ।टू नेशन थ्योरी की सबसे पहले मांग करने वाला अगर कोई था , तो वह सावरकर ही थे। जिन्होंने हिंदू महासभा के अधिवेशन में इसकी मांग सबसे पहले रखी थी ।
तो हम सिर्फ जिन्ना को ही भारत के बंटवारे के लिए जिम्मेदार क्यों माने ? जिन्ना भी उतने ही दोषी हैं जितने कि सावरकर। इनकी टू नेशन थ्योरी के खिलाफ अगर कोई खड़ा था तो वह गांधी जी और नेहरू जी ही थे । लेकिन नेहरू जी जिन्ना की मांग के आगे अपना विचार बदलने को मजबूर हुए। जिन्ना आजादी के बाद खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे , यहां तक तो नेहरू को सही लगा । लेकिन उसके बाद उन्होंने देश के सभी उच्च पदों पर मुसलमानों की नियुक्ति की भी मांग कर दी। जो एक तरह से हिंदुओं के साथ अन्याय था । और यही बात पंडित नेहरू को भी खली । उनके साथ साथ सरदार पटेल को भी यही बात खली। जबकि देश के दो टुकड़े होने से बचाने के लिए गांधीजी यह भी बात मानने को तैयार हो गए थे।
संयोग नहीं है कि अपनी जिंदगी के पहले हिस्से की उपलब्धियों को अपनी बाद की जिंदगी में धो डालने वाले यह दोनों राजनीतिज्ञ भारत विभाजन के द्विराष्ट्र सिद्धांत के गजब पैरोकार थे। और यह तो बिलकुल ही संयोग नहीं है कि अंग्रेजों के सामने गिड़गिड़ाने वाले सावरकर को ‘वीर’ कहकर उनकी तस्वीर को संसद के सेंट्रल हॉल में लगाने वाले एएमयू के यूनियन हॉल में जिन्ना की तस्वीर पर अपनी सांप्रदायिक राजनीति चमका रहे हैं।
“हमने तो उसी दिन जिन्नाह को हमेशा के लिए नकार दिया था जिस दिन हमने इस मुल्क़ को अपना मुल्क़ और तिरंगे को अपनी किस्मत में चुना था” हमें ना तो जिन्नाह से कोई गरज़ है ना ही उसकी तस्वीरों से और ना ही हमें सावरकर और गोडसे की देश बांटने वाली विचारधारा से कोई सरोकार है। हमें जिन्नाह की याद दिलाने वाले ये बात हमेशा भूल जाते हैं की अगर हमें जिन्नाह की ही सुननी होती तब हमारे पुरखे कब का उसके साथ इस मुल्क़ को छोड़कर जा चुके होते।
जिन्ना इतिहास जरूर है , आस्था नही, लेकिन गोडसे के मंदिर बनाने वाले बतायें कि गांधी का हत्यारा उनका ‘भगवान’ कैसे हो गया ? जबकि उसी गांधी के जीते जी आरएसएस और सावरकर उनके सामने नतमस्तक ही थे। और वैचारिक तर्क में तो उनकी औकात भी गांधी के आगे खड़े होने की नही थी।
बहुत ही अच्छे भाई साहब जी शानदार लेखन..
ReplyDelete