भगत सिंह का राजनीतिक शोषण

"जो चीज आजाद विचारों को बर्दाश्त नहीं कर सकती उसे समाप्त हो जाना चाहिए,  दुनिया के नौजवान क्या-क्या नहीं कर रहे हैं।  और हम भारतवासी .... हम क्या कर रहे हैं ? पीपल की एक डाल टूटते ही हिंदुओं की धार्मिक भावनाएं चोटिल हो उठते हैं , बुतों को तोड़ने वाले मुसलमानों के ताजिए नाम के कागज के बूत के पन्ने का एक कोना फटते ही अल्लाह का प्रकोप जाग उठता है।  और फिर वह नापाक हिंदुओं के खून से कम किसी और चीज से संतुष्ट नहीं होता । मनुष्य को पशुओं से अधिक महत्व देना जाना चाहिए । लेकिन यहां भारत में लोग पवित्र पशुओं के नाम पर एक दूसरे का सिर फोड़ते हैं।" -  सरदार भगत सिंह (नौजवान भारत सभा अधिवेशन लाहौर घोषणा)

 पत्र इस बयान को सुनकर यह जरा समझने का प्रयत्न कीजिए कि भगत सिंह कितने बड़े दूरदर्शी रहे होंगे कि उन्होंने जो बात 1928 में कही थी वह बात आज 2018 में उसी तरह से चरितार्थ हो रही है । आप जरा इसका भी अनुमान लगाइए कि अगर आपके देश में कोई यह कह दे कि जो चीज स्वतंत्र विचारों को बर्दाश्त नहीं कर सकती उन्हें खत्म हो जाना चाहिए।  तो उसका क्या हश्र  होगा ?  मीडिया उस आदमी को किस-किस तरह के रंगों से नवाज देगी , आपको भी पता है।  देश में उसे गद्दार,  धर्म विरोधी ,समाज विरोधी,  देशद्रोही जैसे तमगे दे दिए जाएंगे।  लेकिन यह भगत सिंह थे जिन्होंने इस परिवेश की कल्पना 1928 में तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार ही कर ली । 

दरसल हमारे देश का जो इतिहास है वही अपने आप में एक बहुत बड़ा घनचक्कर है।  हमारे देश के इतिहास ने मुख्य रूप से दो लोगों के साथ बहुत ही बड़ा अन्याय किया है।  जिसमें एक थे पंडित नेहरू और दूसरे हैं सरदार भगत सिंह।  इस इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश करने वाले लोगों ने पंडित नेहरु के बारे में इतना झूठ पढ़ाया की,  वह कब हमारी नजरों में हीरो से विलेन बन गए हमें पता ही नहीं चला। 

 और इसी तरह भगत सिंह को सिर्फ उतना ही बताया जाता रहा,  जितना कि वह नेता के वोट के हितों को साधने के लिए सही हो । अगर आपसे कोई यह पूछे कि आप भगत सिंह के बारे में कितना जानते हैं ? या क्या जानते हैं ? तो आप क्या बताएंगे! सिर्फ यही कि उन्होंने सांडर्स की हत्या की,  लाला लाजपत राय का बदला लिया , और असेंबली में बम फोड़ कर देश के लिए फांसी पर झूल गए ?  

दरअसल समस्या इसी तरह के इतिहास को पेश करने वाले लोगों में ही है जो सिर्फ अपने मतलब भर की चीजें ही आपको बताते हैं।  अगर आप भगत सिंह को सिर्फ इन्हीं कामों के लिए जानते हैं,  तो यकीन मानिए कि आप भगत सिंह को 1% भी नहीं जानते हैं।  उस 23 साल के नौजवान ने वह काम कर दिए , जो कि आज के 70 - 80 साल के नेता सोच भी नहीं सकते।  उस 23 साल के नौजवान ने वह प्रसिद्धि और वह मुकाम हासिल कर लिया जिसके लिए आज के नेता तरस भी जाते हैं । 

हमारे सामने एक सवाल जरूर ही उठता है कि भगत सिंह के समय में हजारों क्रांतिकारी मरे,  जिन्होंने देश के लिए हंसते-हंसते अपनी जान कुर्बान की । क्योंकि वह एक दौर था जहां पर देश के लिए मरना किसी भी एक साधारण बात जैसी थी।  क्योंकि उन क्रांतिकारी वीरों के लिए यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी । और सभी देश के लिए फांसी के फंदे पर झूले।  फिर भगत सिंह,  भगत सिंह कैसे बनते हैं ?  ऐसी क्या बात थी जो भगत सिंह को सारे क्रांतिकारियों से अलग करती है ? 

दरअसल जितने भी क्रांतिकारी देश के लिए मरे वह सिर्फ मौत के अंजाम तक ही गए।  लेकिन भगत सिंह एकमात्र ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने अपनी मौत को पूरी तरह से सजाया और संवारा । या यूं कहें कि उन्होंने अपनी मौत के स्ट्रक्चर को पूरी तरह से डिजाइन किया।  मरने से पहले उन्होंने अपने बयानों को अपने लेखों को दुनिया तक सही तरीके से पहुंचा दिया । भगत सिंह सब कुछ जानते थे । वह बात अच्छे से जानते थे की  उनकी जिंदगी इतनी बड़ी या प्रभावशाली कभी नहीं हो सकती जितनी बड़ी और प्रभावशाली उनकी मौत बन सकती है । वह भी जानते थे  कि उनकी जिंदगी सिर्फ एक भगत सिंह को लाएगी।  लेकिन उनकी मौत इस देश के कोने-कोने से भगत सिंह पैदा करेगी । इतने बड़े दूरदर्शी थे कि उन्होंने 23 साल की उम्र में ही सारे काम कर दिए ! जो भी लिखना था , जो भी कहना था,वो सारे उन्होंने पूरा कर दिया ।  उनका सिर्फ एक ही काम अधूरा रह गया , और वह था ब्लादिमीर लेनिन की किताब स्टेट एंड रेजुलशन को पढ़ने का।  क्योंकि उन्हें फांसी 11 घंटे पहले दे दी गई । 

आप जरा सोचिए उस 23 साल के सरदार कि क्या खासियतें रही होंगी ? चेहरे पर पूरी तरीके से दाढ़ी और बाल भी नहीं आए होंगे । और वह ऐसी बड़ी-बड़ी बातें करता था की,  उस समय के सभी लेखक व इतिहासकार हैरान थे । 

भगत सिंह के साथ हमने भी पूरी तरह से छल और बेईमानी की । जब हमने उन्हें सिर्फ एक हिंसा का समर्थन करने वाले क्रांतिकारी का तमगा दे दिया । और उन्हें हिंसा का एक सिंबल बना दिया । जबकि इन सब से बेहद अलग भगत सिंह समाजवाद की बात करने वाले एक जननायक बन चुके थे।  एक ऐसा जननायक जो गांधी जी तक को भी पीछे छोड़ चुका था । लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि  किसी भी किताब , लेखक या किसी भी लेख कि वह औकात ही नहीं कि वह भगत सिंह को सौ प्रतिशत भगत सिंह जैसा ही प्रस्तुत कर सकें । 

भगत सिंह अपने आप में अनंत और अथाह थे  । जहां एक तरफ भगत सिंह कहते थे कि" वह पूरी तरह से नास्तिक हैं  " , वहीं दूसरी तरफ भगत सिंह की जेब में हमेशा भगवत गीता का एक गुटका,  और स्वामी विवेकानंद की  किताब होती थी।  और यकीन मानिए कि जो भी भगत सिंह के इस विचित्र मेल को समझ गया , सिर्फ वही ही भगत सिंह को थोड़ा बहुत समझ पाने में सक्षम हुआ । 

आज के युवाओं के लिए भगत सिंह का नाम लेना तो बेहद आसान है । लेकिन  उनके लिए भगत सिंह जैसा सोचना या भगत सिंह के सोचे हुए पर चलना  उतना ही मुश्किल और लगभग लगभग नामुमकिन है । क्योंकि आज की युवा पीढ़ी सिर्फ और सिर्फ गोदी मीडिया के शिकार  हुए युवा हैं। और गोदी मीडिया के माध्यम से ही यह युवा वह सोचते हैं कि सरदार भगत सिंह जी की फांसी की वजह कांग्रेस है ,  और नेहरू है ,। और अगर गांधी जी चाहते तो भगत सिंह को बचा सकते थे । लेकिन उन्होंने जानबूझकर उनको फांसी दिलवा दी ।

यह बात सही जरूर है  कि दोनों के बीच बैचारिक मतभेद थे , लेकिन वह सिर्फ वैचारिक मतभेद तक ही थे । ऐसा नहीं है कि भगत सिंह गांधी जी से नफरत करते थे । उन्होंने लिखा है कि "वह गांधीजी का बहुत सम्मान करते है । क्योंकि गांधीजी ही एकमात्र वह शख्स थे जिनके आवाहन पर पूरा देश एक छात्र नीचे खड़े होकर के देश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ रहा था "। 

इसी लेख में भगत सिंह आगे लिखते हैं कि " धर्मों ने इस देश का बेड़ा गर्क कर रखा है।  पता नहीं इस देश को धर्म के इस जंजाल से कब मुक्ति मिलेगी ? इस समय देश के सांप्रदायिक दंगों में सिर्फ दो लोगों का हाथ है,  एक हैं नेता और दूसरे हैं अखबार।  इस समय देश के नेताओं ने ऐसी लीद की हुई है कि चुप ही भली । सेेभी नेता धार्मिक और सांप्रदायिक कट्टरता की अंघंत में बह चले हैं । और दूसरे सज्जन है जो सांप्रदायिक दंगो को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं।  वह हैं हमारे अखबार।  पत्रकारिता का व्यवसाय जो किसी समय में बहुत ही ऊंचा समझा जाता था , वह आज बहुत ही गंदा हो चुका है । यही कारण है कि भारत की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं । और दिल में सवाल उठता है कि हमारे इस भारत का आखिर में बनेगा क्या ? " 


उस समय भगत सिंह की उम्र ही क्या रही होगी ? जबकि पूरी जिंदगी ही 23 साल और कुछ महीने की थी । जब उन्होंने इस मीडिया की सच्चाई को सामने लाने की कोशिश की।  जो मीडिया कैराना को कश्मीर बनाने पर तुली हुई थी । या जो मीडिया 2000 के नोट में जीपीएस चिप लगे हुए होने की बात कहती है । 

जैसा कि भगत सिंह ने कहा कि "धर्मों ने देश का बेड़ा गर्क कर रखा है"  इस समय क्या कोई और कहता तो उसे क्या-क्या उपाधि दी जाती ? धर्म विरोधी,  नास्तिक  , पागल असमाजिक , देशद्रोही और आतंकवादी तक कह दिया जाता । 
यह कहना गलत नहीं होगा भगत सिंह अपने लड़ाई के शुरुआती दिनों में सिर्फ एक क्रांतिकारी ही थे । जो कि हिंसा के माध्यम से अंग्रेजों को भगाना चाहते थे  । लेकिन जब उन्होंने चीजों को एकाग्रता पूर्वक  समझा , तब उन्हें यह बात समझ में आ गई की क्रांति सिर्फ विचारों के माध्यम से ही लाई जा सकती है । और इसीलिए भगत सिंह अपने जीवन के अंतिम दिनों में एक समाजवादी , महान विचारक,  और एक महान जननायक बन चुके थे । एक ऐसा जननायक जो देश के लोगों की वैचारिक आजादी चाहता था , जो देश के लोगों को एक दूसरे के सहयोग करते हुए देखना चाहता था ।


गलती हमारी ही है , जो हम इस देश के कथित 65% नौजवान भगत सिंह को सिर्फ एक ही हिंसा के सिंबल में देखते हैं।  और कई जगह तो हिंसा के पर्यायवाची में उनका नाम भी ले लेते हैं । भगत सिंह इस बात को भली भांति ही जानते थे कि उनके द्वारा कही गई बातों , या उनके द्वारा दिए गए बयानों का आने वाले भारत में नेता अपने अपने हिसाब से दुरुपयोग करके , अपने - अपने वोट बैंक के हितों को साधने में लगे रहेंगे । और उनकी बातों को उस तरीके से नहीं पेश किया जाएगा,  जिस तरीके से वह कह रहे हैं।  इसलिए भगत सिंह ने आजीवन यह कोशिश पूरी तरह से कि वह अपने सारे बयानों और अपने सारे विचारों को लिखित रूप दे सकें । और वह इसमें कामयाब भी रहे । और इसी तरह उन्होंने " मैं नास्तिक क्यों हूं " और " समाजवाद के सिद्धांत"  नाम की किताबें भी लिखी ।

लेकिन भगत सिंह से एक गलती हुई । उन्हें यह मालूम नहीं चल पाया कि आज,  2018 के युवा इतने बड़े गूंगे और बहरे हो चुके हैं , कि वह भगत सिंह के उन लेखों और उन किताबों को पढ़ने का भी कष्ट नहीं करेंगे।  जो भगत सिंह ने अपनी विरासत के तौर पर इन लोगों के लिए छोड़ के गए है । आज के कथित 65% नौजवान सिर्फ नेताओं द्वारा बताए गए भगत सिंह को ही अपना आदर्श मानने लगे हैं । और असली भगत सिंह को सिर्फ किताबी भगत सिंह बना दिया है।  यह नौजवान हाथ पर टैटू भी भगत सिंह के नाम का करवा देते हैं,  या भगत सिंह की प्रिंट वाली टी शर्ट तक पहन लेते हैं।  लेकिन अगर इनसे यही पूछा जाए कि भगत सिंह ने कौन-कौन सी किताबें लिखी हैं , तो यह शायद ही बता पाए ? या इनको शायद पहली बार पता चले कि भगत सिंह ने किताबें भी लिखी थी ? 

जब जेएनयू का प्रसंग चला तो एक अधिकारी ने रिपोर्ट दाखिल की की " यूनिवर्सिटी राजनीति का अड्डा नहीं होना चाहिए" । इसके बारे में भगत सिंह ने एक लेख लिखा था।  जो उस समय 1928 में कीर्ति में छापा गया था । भगत सिंह लिखते हैं " इस बात का बड़ा ही भारी शोर सुना जा रहा है कि पढ़ने वाले नौजवान पॉलिटिकल या राजनीतिक कार्यों में हिस्सा ना लें । पंजाब सरकार का यह फैसला बिल्कुल ही न्यारा है।  विद्यार्थियों की कॉलेजों में दाखिले से पहले ही इस आशय की शर्त पर हस्ताक्षर करवाए जाते हैं कि,  वह पॉलिटिकल कामों में किसी तरह से कोई हिस्सा नहीं लेंगे" । भगत सिंह इसके आगे लिखते हैं की "यह बात जरूरी है , और सही भी है एक विद्यार्थी के लिए उसका सबसे पहला लक्ष्य पढ़ाई ही होना चाहिए । लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान , और उनके सुधार का उपाय सोचने का ज्ञान इस पढ़ाई में शामिल नहीं होना चाहिए ?  सभी नौजवान राजनीति की भी शिक्षा और जानकारी ग्रहण करें,  और जब जरूरत हो तो पूरी तरह से राजनीति में कूद पड़े । " 


भगत सिंह उस दौर के नेता या जननायक रहे जिस दौर में अलग-अलग विचारों के नेताओं की भरमार थी । कोई अहिंसावादी धरने-प्रदर्शन में विश्वास रखता था । तो कोई समाजवादी विचार में विश्वास रखता था।  तो कोई कट्टरता और धार्मिक विचारों में विश्वास रखता था । लेकिन हमने यह भी देखा है की विचारों से परे जहां भगत सिंह ने महात्मा गांधी के बारे में लिखा कि"  उनकी वजह से ही सारा देश आज आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए एकजुट खड़ा हुआ है",  कांग्रेस के नेताओं ने भी भगत सिंह की वीरता और उनकी विचारों की प्रशंसा किया । यह मैं इसलिए बता रहा हूं क्योंकि आजकल के फर्जी इतिहासकार फर्जी , फेंकू नेताओं से कांग्रेस की और नेहरु जी की एक अलग ही छवि प्रस्तुत करवाते हैं । या वह नेता खुद ही करते हैं । क्योंकि अभी भी नेहरू जी पर यह आरोप,  और कांग्रेस या गांधीजी पर भी आरोप लगता है कि " उन्होंने भगत सिंह की किसी भी तरीके से कोई भी मदद नहीं की , ना ही उनके बारे में कभी कुछ भी नही कहा " 

 जबकि पंडित नेहरू ने भगत सिंह के विचारों की और उनके आदर्शों की प्रशंसा तब के कांग्रेस बुलेटिन में किया था पंडित नेहरु लिखते हैं- 
'यह क्या बात है कि यह लड़का यकायक इतना प्रसिद्ध हो गया और दूसरों के लिए रहनुमा हो गया. महात्मा गांधी, जो अहिंसा के दूत हैं, आज भगत सिंह के महान त्याग की प्रशंसा करते हैं. वैसे तो पेशावर, शोलापुर, बम्बई और अन्य स्थानों में सैकड़ों आदमियों ने अपनी जान दी है. बात यह है कि भगत सिंह का निस्वार्थ- त्याग और उसकी वीरता बहुत ऊंचे दर्जे की थी. लेकिन इस उत्तेजना और जोश के समय भगत सिंह का सम्मान करते हुए हमें यह न भूलना चाहिए कि हमने अहिंसा के मार्ग से अपने लक्ष्य की प्राप्ति का निश्चय किया है. मैं साफ कहना चाहता हूं कि मुझे ऐसे मार्ग का अवलम्बन किए जाने पर लज्जा नहीं होती है, लेकिन मैं अनुभव करता हूं कि हिंसा मार्ग का अवलम्बन करने से देश का सर्वोत्कृष्ट हित नहीं हो सकता और इससे साम्प्रदायिक होने का भी भय है. हम नहीं कह सकते कि भारत के स्वतंत्र होने के पहले हमें कितने भगत सिंहों का बलिदान करना पड़ेगा. भगत सिंह से हमें यह सबक लेना चाहिए कि हमें देश के लिए बहादुरी से मरना चाहिए.' 
वैसे भी कांग्रेस उस समय किसी एक परिवार की पार्टी नहीं थी।  ना ही वह गांधी परिवार के पास भी आई थी । हां अगर आप लोग के पास की जानकारी हो कि कांग्रेस की स्थापना 1906 में अफगानिस्तान में 4 मुसलमानों ने मिलकर की थी । जिन मुसलमानों में से एक मुसलमान ने अपना नाम बाद में बदलकर मोतीलाल नेहरु कर लिया , तो फिर मैं तो क्या,  दुनिया का कोई भी आदमी आप के दिमाग का कुछ नहीं कर सकता । 

उस कांग्रेस उस समय सरदार पटेल भी एक बढ़े कद्दावर नेता थे।  लेकिन सरदार पटेल हमेशा पंडित नेहरू को अपने से सीनियर मानते रहे । और हमेशा ही उनको अपने आगे रखते रहे । यह अलग बात है कि आज कुछ लोग उन्हें सरदार पटेल के नाम पर राजनीति करने से बाज नहीं आते । सरदार पटेल ने भी भगत सिंह के विचारों की भूरि-भूरि प्रशंसा की , और उनकी फांसी दिए जाने का भी विरोध किया । सरदार पटेल कांग्रेस बुलेटिन के हवाले से लिखते हैं- 
'युवक भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी से सारा देश विक्षुब्ध हो गया है. मैं इन वीरों की प्रथा का अनुकरण नहीं कर सकता. राजनीतिक हत्या अन्य प्रकार की हत्याओं से कम निंदनीय नहीं है, इसमें मुझे तो कोई संदेह नहीं पर सरदार भगत सिंह और उनके साथियों के देशप्रेम, साहस और आत्मबल का कायल हूं. फांसी की सज़ा रद्द करने के लिए जो प्रार्थना अखिल देश ने की थी, उनकी अवहेलना से वर्तमान शासन की ह्रदयहीनता और विदेशीयता जिस प्रकार प्रकट हुई है, वैसे पहले कभी नहीं हुई थी. पर विक्षोभ के आवेश में हमें कर्तव्य से तनिक भी विचलित न होना चाहिए, इन वीर देश भक्तों की आत्माओं को शांति मिले.' "

इसके अलावा कुछ इतिहासकार यहां तक मानते हैं कि पंडित मदन मोहन मालवीय ने  भी भगत सिंह की फांसी रुकवाने का भरपूर प्रयास किया । लेकिन भगत सिंह के प्रभाव को देखकर ब्रिटिश सरकार इतना ज्यादा डर चुकी थी कि , वह भगत सिंह को जल्द से जल्द अपने रास्ते से हटाना चाहती थी। 

जैसा की मैंने पहले भी कहा कि सभी नेता अपनी अपनी तरह से भगत सिंह का इस्तेमाल करके अपनी चुनावी रोटियां सेक रहे हैं।  अभी हाल ही में एक रैली में कर्नाटक चुनाव में ही हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी जी ने यह कहा कि " उन्हें जहां तक जानकारी है जब  भगत सिंह जेल में बंद थे,  कोई भी कांग्रेसी नेता उनसे मिलने नहीं गया " । पहली बात तो यह सवाल ही अपने आप में एक बहुत ही वाहियात और व्यर्थता से भरा हुआ विचार है , कि "कौन नेता किस से मिलने गया ? या कौन नेता किससे मिलने नहीं गया ? या किस नेता ने किसके बारे में बोला ? या किस नेता ने किसके बारे में नहीं बोला" 

लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री जी की इस बात का जवाब देना जरूरी है । क्योंकि उन्होंने कहा था कि " अगर किसी के पास इसके अलावा सही जानकारी हो तो वह बताए तो मैं सुधार कर लूंगा। "

 मैं माननीय प्रधानमंत्री जी की जानकारी के लिए बताना चाहता हूं,  9 अगस्त 1929 को पंडित नेहरु जी न सिर्फ  भगत सिंह बल्कि उनके सारे साथियों से मिलने जेल पहुंचे थे । और इस बात का खुलासा उन्होंने अगले ही दिन " द ट्रिब्यूनल " के इंटरव्यू में किया।  

पंडित नेहरू कहते हैं- 'मैं कल सेंट्रल जेल गया था. सरदार भगत सिंह, श्री बटुकेश्वर दत्त, श्री जतिन नाथ दास और लाहौर केस के सभी आरोपियों को देखा, जो भूख हड़ताल पर बैठे थे. कई दिनों से उन्हें जबरन खिलाने का प्रयास हो रहा है. कुछ को इस तरह जबरन खिलाया जा रहा है कि उन्हें चोट पहुंच रही है. जतिन दास की स्थिति काफी नाजुक है. वे काफी कमजोर हो चुके हैं और चलफिर नहीं सकते. बोल नहीं पाते, बस बुदबुदाते हैं. उन्हें काफी दर्द है. ऐसा लगता है कि वे इस दर्द से मुक्ति के लिए प्राण त्याग देना चाहते हों. उनकी स्थिति काफी गंभीर है. मैंने शिव वर्मा, अजय कुमार घोष और एल जयदेव को भी देखा. मेरे लिए असधारण रूप से इन बहादुर नौजवानों को इस स्थिति में देखना बहुत पीड़ादायक था. मुझे उनसे मिलकर यही लगा कि वे अपनी प्रतिज्ञा पर कायम हैं. चाहे जो नतीजा हो. बल्कि वे अपने बारे में जरा भी परवाह नहीं करते हैं. सरदार भगत सिंह ने उन्हें वहां की स्थिति बताई कि कत्ल के अपराध को छोड़कर सभी राजनीतिक बंदियों से विशिष्ट व्यवहार होना चाहए. मुझे पूर्ण आशा है कि उन युवकों का महान आत्मत्याग सफल होगा.'। 

जैसा की मैंने पहले भी यह कहा कि , यह सवाल अपने आप में बेहद ही वाहियात है कि कौन सा नेता किस से मिलने गया या नहीं।  लेकिन फिर भी अगर हमारे देश के प्रधानमंत्री जी ने यह सवाल किया तो मैंने उसका जवाब दिया । अब मैं चाहता हूं कि प्रधानमंत्री जी अपने उस बयान का सुधार करें और ट्वीट करके देश से सार्वजनिक रूप से माफी मांगे । 

और इससे आगे मैं माननीय प्रधानमंत्री श्री मोदी जी से पूछना चाहूंगा कि कृपया करके वह यह बताएं कि भाजपा के जन्मस्रोत संगठन आरएसएस के उस समय के बड़े नेता गोवलकर जी , गुरुजी और हेडगेवार जी या सावरकर,  श्यामा प्रसाद मुखर्जी । क्या इनमें से कोई भी नेता कभी भी भगत सिंह या किसी और अन्य क्रांतिकारी से मिलने गया था?  अगर हां तो कृपया उसकी जानकारी उपलब्ध कराएं । और अगर नहीं तो । आपने जिस पंडित नेहरू को भगत सिंह से नहीं मिलने पर देशद्रोही करार दिया था , तो उसी आधार पर RSS के इन नेताओं को हम क्या करार दें?

जय हिंद


बृजेश यदुवंशी

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