समाजवाद के मायने

"मैं तो उस परंपरा की कड़ी हूं जो प्रह्लाद से शुरू होकर सुकरात से होते हुए गांधी तक पहुंची है।मैं चाहता हूं कि मनुष्य हथियारों या ताकत का उपयोग किए बिना अन्याय एवं शोषण के विरोध करने की कला को सीखें ।"

अंधेरे में जब यह रौबदार आवाज गूँजी तो लोगों को समझते देर नहीं लगी , यह कोई और नहीं बल्कि समाजवाद के प्रबल समर्थक डॉ राम मनोहर लोहिया हैं ।भारतेंदु नाट्य अकादमी के थिएटर में  डॉक्टर लोहिया खुद समाजवाद की परिभाषा समझाने आए थे।

समाजवाद यह शब्द सुनने में और पढ़ने में चाहे जितना साधारण क्यों ना लगे , लेकिन इस शब्द के मायनो ने और इसके असर ने पूरी दुनिया को कई बार परिवर्तन और क्रांति दिखाया है । इस की महत्वता इसी बात से देखी जा सकती है कि दुनिया की 99% आबादी आज समाजवाद के सिद्धांत को फॉलो कर रही है।  1% वह बच जाते हैं जिनका भरोसा सामंतवादी ताकतों में है,  या जो इन ताकतों के पालक पोषक हैं।
इस देश की संविधान की मूल भावना ही समाजवाद है । समाजवाद के आधार पर ही इस देश के संविधान की रचना हुई है।  और आज उस संविधान द्वारा निर्मित पदों पर बैठकर कुछ लोग उसी संविधान को और उसकी मूल भावना को पेट भर-भर कर गाली दे रहे हैं । जिन पदों पर बैठकर अपने झूठ और फरेब के वंश को सींच कर बड़ा कर रहे हैं,  उन्हीं पदों के निर्माता को कोस रहे हैं , और देश में तानाशाही का माहौल बना रहे हैं ।

सही मायनों में भ्रमवाद और समाप्तवाद  इसे कहते हैं ।

अगर बीजेपी की बात करें तो पंडित अटल बिहारी वाजपेई के समय में थोड़ी बहुत समाजवाद की भावना जरू भाजपा में पनपी थी ।  1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना वाले अधिवेशन में भाजपा के पहले अध्यक्ष के नाते पंडित श्री अटल बिहारी वाजपेई ने जो भाषण दिया था,  उसमें क्या कहा गया था ?  यह वही मशहूर भाषण है जिसे भाजपा वाले "अंधेरा छटेगा । सूरज निकलेगा । कमल खिलेगा । " के लिए याद करते हैं । तब मुंबई में मंच पर बैठे हुए लालकृष्ण आडवाणी और अन्य नेताओं की मौजूदगी में वाजपेई ने यह कहा था कि " गांधीवादी समाजवाद पार्टी की मुख्य नीति होगी "। पार्टी इस पर कितनी चली यह तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह ही बेहतर जानते है।  लेकिन पार्टी ने अधिकारिक पन्नों पर आधिकारिक तौर से समाजवाद शब्द का इस्तेमाल किया । और  वह भी तब जब संविधान सभा में समाजवाद शब्द को जुड़े हुए दो दशक हो चुके थे। क्या आप भाजपा के नरेंद्र मोदी और अमित शाह जी यह बताने का कष्ट करेंगे कि गांधीवादी समाजवाद उनकी पार्टी में अब कहां है ? और अब जब उनके नेता समाजवाद को गालियां दे रहे हैं , तब क्या अब अटल जी की कही गई उन बातों को भाजपा से निकाल दिया जाएगा ?
भारतीय जनता पार्टी में समाजवाद  पंडित अटल बिहारी वाजपेई जी की मौत की तरह ही एक अफवाह बन कर रह गयी गई है । अटल जी की खून से सींची गई बीजेपी में आज दूसरी प्रवृत्ति के लोग आकर उन को दरकिनार कर दिए हैं ।और उनकी मेहनत का फल खुद भोग रहे हैं।

सही मायनों में इसे ही जूठन खाना कहा जाता है ।

चाहे वह फ्रांस की क्रांति हो,  या रूस की क्रांति गांधी की क्रांति हो,  या भगत सिंह जी की क्रांति , विश्व की लगभग लगभग सारी बड़ी क्रांतियों का एक ही आधार था । वह था समाजवाद ।
आजकल जो लोग शहीद ए आजम सरदार भगत सिंह जी के नाम पर ढोंग करके चुनावी रोटियां सीख रहे हैं । अगर वह शहीद-ए-आजम भगत सिंह जी को थोड़ा ही भी पढ़ ले , तो उन्हें समाजवाद की समझ आ जाएगी । भगत सिंह जी ने HSRA ( भारतीय समाजवादगणतंत्र संघ) की स्थापना की।  इसके नाम के अंत में संघ लगे होने से आप ही बिल्कुल न सोचें कि इनका संबंध कहीं से कुछ भी आरएसएस से रहा होगा ।

सावरकर और गोडसे की पूजा करने वालों को शायद एच एस आर ए का पूरा नाम भी नहीं मालूम होगा । तो इसके मायने उनको कहां से पता चलेंगे ?सरदार भगत सिंह जी ने अपने पूरे जीवन भर समाजवाद की इसी विचारधारा के साथ लड़ाई किया । भगत सिंह जी समाजवाद के कितने बड़े पुजारी थे यह बात उन की लिखी हुई किताब "समाजवाद के आदर्श"  को पढ़कर समझ में आता है । उनकी इसी विचारधारा और दीवानेपन ने उनका स्थान देश में गांधी जी से भी ऊपर कर दिया । भगत सिंह जी ने हमेशा ही सामंतवादी ताकतों का विरोध किया और साथ ही उन्होंने कट्टरपंथी ताकतों का भी विरोध किया,  जिसमें मुस्लिम लीग आरएसएस और हिंदू महासभा भी शामिल थे ।भगत सिंह जी समाजवादी क्रांतिकारी धारा के सबसे बड़े नेताओं में से एक थे । उन्होंने अपने पूरे जीवन में अपनी बातों को लिखित रूप से दर्ज कराने की पूरा कोशिश किया।  जिससे कि उनके बाद उनकी बातों को तोड़ मरोड़कर लोग अपना स्वार्थ सिद्ध न करें।  लेकिन फिर भी भगतसिंह जी की इस विचारधारा को सबके सामने लाने में भारतीय इतिहासकारों को 40 साल से भी ज्यादा का समय लग गया । और आज यही कथित इतिहासकार 2 घंटे में ही भीड़ को को हिन्दू और मुस्लिम का रूप दे देते हैं। यह सब इतने तेजी से हो रहा  हैं कि,  नेताओं के खाने से लेकर बर्तन तक और उनकी चप्पल को भी किताब के पन्नों पर अंकित कर देते हैं। ये सूचक हैं सामंतवादी ताकत की आगाज की।
आज इसी सामंतवादी ताकतों के अनुनायी समाजवाद को सम्पटवाव और  जूठन बता रहे हैं।

सही मायनों में अगर समाजवाद के मायने देखा जाए तो वह यह होता है कि,  एक ऐसा समाज की संरचना करना जिसमें जाति , धर्म,  क्षेत्र, ऊँच नीच , के भेदभाव के बिना एक दूसरे के साथ मिलकर एक दूसरे के सहयोग करने की भावना बनाना। अपने से पहले दूसरों की भलाई करने की
भावना हो। 
समाजवाद को मानने वालों का दिल कितना बड़ा होता है कि सारे विश्व को अपना परिवार समझते हैं । "वसुधैव कुटुंबकम" की भावना से समाजवाद से ही आती है।
समाजवाद को सीधे–सरल शब्दों में परिभाषित करने को कहा जाए तो उसका अर्थ होगा, ऐसी व्यवस्था जिसमें समाज के संसाधनों पर जन–जन का साझा हो. सभी लोग अपनी क्षमतानुसार काम करें. अर्जित संपत्ति का मिल–बांटकर, अपने और सर्व–हित में उपयोग करें. उसका प्रबंधन समाज द्वारा लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित व्यवस्था,सरकार द्वारा किया जाता हो। सरकार प्रत्येक से उसकी क्षमता के अनुसार काम लेकर, हर एक को उसकी आवश्यकता के अनुरूप लौटाए। यह बिना समर्पण और त्याग के असंभव है. इसलिए ईश्वास्योपनिषद में कहा गया—‘त्येन त्यक्तेनभुंजीथा’ । यानी ‘जिसने त्यागा है, उसी ने भोग किया है’। व्यक्ति त्याग करेगा तभी तो दूसरे के अभावों की पूर्ति के संसाधन जमा होंगे। यह कोई पहेली नहीं, सीधी–सी व्यवस्था थी। त्याग और भोग के बीच संतुलन बनाए रखने की। सहकार और सहयोग की जरूरत को स्थापित करने वाली। ऐसी व्यवस्था जिसमें—‘एक सबके लिए और सब एक के लिए काम करें'। जिसमें आर्थिक–सामाजिक–राजनीतिक , यानी हर स्तर पर समानता हो।
गौर से देखें तो त्याग और भोग व्यक्ति और समाज का पर्याय दिखने लगते हैं। हर व्यक्ति यथा संभव त्याग करे ताकि सब मिलकर यथा संभव भोग कर सकें। संदेश साफ है, लोगों के बीच जाति, धर्म, क्षेत्र, जन्म, कुल, गोत्र,व्यवसाय, भाषा आदि के नाम पर किसी प्रकार का भेदभाव न हो। न किसी की उपेक्षा हो, न किसी को विशेषाधिकार प्राप्त हों।

दूसरे शब्दों में ‘समाजवाद’ वह कल्याणकारी व्यवस्था है, जिसमें नागरिकों के बीच निजता कालोप होकर, कल्याण का सम विभाजन होने लगता है। ‘सर्वभूतहितेरत’ की कामना आज की नहीं है। जबसे समाज का गठन हुआ है, मनुष्य ने संगठित होना सीखा है, तभी से किसी न किसी रूप में चली आ रही है। हालांकि इसमें विक्षोभ भी हुए है।  दूसरे का हिस्से पर अधिकार जमा लेने वाले, लोगों के श्रम,उनके खून–पसीने की कमाई पर जीवन यापन करने वाले,  और दूसरों का हक मारकर विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले लोग भी समाज में रहे हैं। उन्होंने समाज को अपनी मर्जी के अनुसार हांकने की कोशिश भी है। कुछ को अस्थायी सफलता भी मिली है। परंतु उस दुरवस्था के प्रति विरुद्ध जनाक्रोश भी देर–सवेर पनपा है। महामानवों ने अवतरित होकर लोगों को अपने–अपने अधिकारों के प्रति जागरूक किया है। अन्याय के प्रति चेताया है। उनके आवाह्न पर उमड़ी जन शक्ति ने उत्पीड़क शक्तियों को चुनौती देकर उन्हें समानता पर आधारित व्यवस्था लागू करने के लिए बाध्य भी किया है, जिससे समाज को घूम–फिरकर समानता और सर्व कल्याण के समावेशी रूप की ओर लौटना पड़ा है।

प्रषिद्ध विचारक वेकर कोकर के अनुसार - ‘‘समाजवाद वह नीति या सिध्दांत है जिसका उददेश्य एक लोकतांत्रिक केन्द्रीय सत्ता द्वारा प्रचलित व्यवस्था की अपेक्षा धन का श्रेष्ठ कर वितरण और उसके अधीन रहते हुए धन का श्रेृठतर उत्पादन करना है।’’

बर्नार्ड शॉ के अनुसार - ‘‘समाजवाद का अभिप्राय संपत्ति के सभी आधारभूत साधनो पर नियंत्रण से है । यह नियंत्रण समाजवाद के किसी एक वर्ग द्वारा न होकर स्वयं समाज के द्वारा होगा और धीरे धीरे व्यवस्थित ढंग से स्थापित किया जायेगा।’’
समाजवाद अपने आप में इतना विशाल है कि इसे ससाझाना किसी दार्शनिक या किसी किताब के बस का नहीं है। समाजवाद कभी भी किसी अन्य विचारधारा या किसी अन्य संगठन का मोहताज नहीं रहा । यह अपने आप में पूरा एक संसार है ।समाजवाद में व्यक्ति विशेष को महत्व ना देकर पूरे समाज की को महत्व दिया जाता है ।
पूंजीवाद का विरोध किया जाता है ।
एक दूसरे के सहयोग पर आधारित होता है ।
यह आर्थिक समानता का पक्षधर है ।
यह लोगों को लोकतंत्र में आस्था रखना सिखाता है
सामाजिक शोषण का अंत करता है ।
सामाजिक न्याय की वकालत करता है।
सभी को उन्नति के समान अवसर देता है ।साम्राज्यवाद का विरोध करता है।
                   और यही बातें पूंजीवादी विचारों को पसंद नहीं आती।  इसीलिए वह बार-बार इस देश में तानाशाही के दौर को वापस  लेकर आते है , ताकि एक छत्रराज कर सकें । और अपने आकाओं का पेट भर सके।  समाजवाद सूचक है , देश की गरीब का , जो लकड़ियों को ढोकर । गड्ढा खोदकर।  सच में चाय बेचकर।  अपने परिवार के लिए अपने लिए ईमानदारी से दो वक्त के खाने रहने की व्यवस्था करता है लेकिन एक पूंजीवादी सोच वाली सरकार या उसके नुमाइंदे ना तो समाजवाद की कदर करते हैं,  और ना ही उसकी देखभाल । क्योंकि उनका मुख्य उद्देश्य समाजवाद को हटाकर पूंजीवाद को लागू करना है । चंद मुट्ठी भर लोगों को देश का भगवान बनाना है।  उनके
मंसूबे इतने गंदे हैं जितने कि एक आतंकवादी के ।पहले मैं इसे एक खुले पत्र के रूप में किसी व्यक्ति विशेष को लिखने वाला था।  जिसने एक दो दिन पहले ही समाजवाद को गालियां दी हैं । लेकिन फिर समझ आया कि परिभाषाएं और तर्क वितर्क उन लोगों को बताया जाता है जिनका उनमें विश्वास होता है। या जिन को उनका मतलब मालूम हो या फिर जिनका के बौद्धिक स्तर इतना अच्छा हो कि वह से समझ सके।  यही सोच कर मैंने इसे यहाँपर लिखा।

बृजेश यदुवंशी।

Comments

Popular Posts