चौकीदार की चोरी

राजनीतिक दलों को 1976 के बाद मिले विदेशी चंदे की अब जांच नहीं हो सकेगी. इस संबंध में कानून में संशोधन को लोकसभा ने बिना किसी चर्चा के पारित कर दिया गया।
यह वाकई में एक मजेदार बात  है हर मिनट में चींटी और मक्खी तक कि बात पर आपस मे फ़ाड़म फाड़ी करने वाला सत्ता पक्ष और विपक्ष, ने साथ मिल कर इस विधेयक को पास करा लिया,
कितनी खूबसूरती और ढीठता से यह भी शर्त लगा लिया कि 42 साल तक के मीले विदेशी चंदो का कोई हिसाब नही लिया जाएगा, साथ ही विदेशी चंदे देने की सीमा भी खत्म कर दी गयी।
आज जो परिवर्तन हुए ,
उनमें से एक संशोधन विदेशी चंदा नियमन कानून 2010 से संबंधित था. यह कानून विदेशी कंपनियों को राजनीतिक दलों को चंदा देने से रोकता है. जन प्रतिनिधित्व कानून, जिसमें चुनाव के बारे में नियम बनाए गए हैं, राजनीतिक दलों को विदेशी चंदा लेने पर रोक लगाता है.

केंद्र की मोदी सरकार ने पहले वित्त विधेयक 2016 के जरिए विदेशी चंदा नियमन कानून (एफसीआरए) में संशोधन किया था जिससे दलों के लिए विदेशी चंदा लेना आसान कर दिया गया.

लेकिन अब 1976 से ही राजनीतिक दलों को मिले चंदे की जांच की संभावना को समाप्त करने के लिए इसमें आगे और संशोधन कर दिया गया है.

इस संशोधन से भाजपा और कांग्रेस दोनों को ही 2014 के दिल्ली हाईकोर्ट के उस फैसले से बचने में मदद मिलेगी जिसमें दोनों दलों को एफसीआरए कानून के उल्लंघन का दोषी पाया गया था.
चंद रोज पहले दिल्ली उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों के पीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। इस फैसले में कहा गया है कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी, दोनों ने विदेशी अनुदान (नियमन) कानून, 1976 का स्पष्ट तौर पर उल्लंघन किया। अगर इसे सीधे शब्दों में कहा जाए, तो कांग्रेस व भाजपा ने ‘विदेशी स्रोतों से’ धन लिया। यह एक ऐसा कदम है, विदेशी मुद्रा नियमन कानून जिसकी इजाजत नहीं देता। इसी के साथ उच्च न्यायालय ने भारत सरकार और चुनाव आयोग, दोनों को छह महीने के भीतर कानून के मुताबिक कार्रवाई का निर्देश भी दिया है। अदालत में यह मामला एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के साथ ही सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी और केंद्र सरकार के पूर्व सचिव ईएएस शर्मा ने उठाया था। इस याचिका के पीछे का मकसद था राजनीतिक पार्टियों के कामकाज में वित्तीय पारदर्शिता लाने की कोशिश करना।

दरअसल, आयकर से सौ फीसदी की छूट को पाने के लिए चुनाव आयोग के सामने राजनीतिक पार्टियों को उन चंदों का ब्योरा देना होता है, जो 20,000 रुपये से अधिक के होते हैं। सूचना के अधिकार कानून के इस्तेमाल से उन ब्योरों की जांच की गई, तो यह खुलासा हुआ कि कांग्रेस और भाजपा, दोनों राजनीतिक पार्टियों ने कई करोड़ रुपये बतौर चंदा लिए। ये चंदे पॉलिटिकल ऐंड पब्लिक अवेयरनेस ट्रस्ट, जो एक चुनावी ट्रस्ट है, स्टेरलाइट इंडस्ट्रीज, सेसा गोवा और मद्रास एल्युमिनियम कंपनी(मालको) कंपनियों से लिए गए। पॉलिटिकल ऐंड पब्लिक अवेयरनेस ट्रस्ट की थोड़ी-सी जांच से यह उजागर हो गया कि इसे इन्हीं तीनों कंपनियों, यानी स्टेरलाइट, सेसा गोवा और मालको ने मिलकर बनाया था। इन कंपनियों ने अपनी वेबसाइट पर यह घोषित कर रखा है कि वे वेदांता की सहायक कंपनियां हैं। यह जानकारी इन तीनों कंपनियों की वेबसाइट पर एक सरसरी नजर डालने भर से मिल जाती है। गौरतलब है कि वेदांता कंपनी ब्रिटेन में पंजीकृत है। वेदांता की वेबसाइट भी वही बात बताती है, जो इन तीनों कंपनियों की वेबसाइट कहती है। कंपनी की वेबसाइट में यह साफ तौर पर बताया गया है कि इन तीनों कंपनियों की मालकिन वेदांता है और ये वेदांता की सहयोगी कंपनियां हैं।

कंपनी के परदे के पीछे देखने की नीति अपनाने के बाद यह साफ होता है कि राजनीतिक पार्टियों को जो धन मिले, वे चंदे के रूप में थे और पहली नजर में इन तीन कंपनियों ने ही उन्हें ये चंदे दिए। और इन कंपनियों की मालकिन एक विदेशी कंपनी है, क्योंकि यह दूसरे देश में, यानी ब्रिटेन में पंजीकृत है। जाहिर है, यह पूरी गतिविधि विदेशी अनुदान (नियमन) कानून, 1976 के सेक्शन- तीन और चार के विरुद्ध है। ये सेक्शन राजनीतिक पार्टियों को विदेशी कंपनियों से चंदा लेने से मना करते हैं। यहां तक कि उन कंपनियों से भी चंदा लेने से मना करते हैं, जो हैं तो भारत में, लेकिन उनका संचालन विदेशी कंपनियों के जरिये होता है। यही नहीं, कंपनी कानून का सेक्शन-293 (ए) यह साफ कहता है कि ऐसी कोई भी कंपनी जितनी चंदा देती है, उससे तीन गुनी अधिक रकम का उस पर जुर्माना ठोका जाए। साथ ही इस कानून में कंपनी के जिम्मेदार अधिकारी के लिए अधिकतम तीन साल की सजा का प्रावधान है।

इन सब जानकारियों को हासिल करने के बाद ईएएस शर्मा और एडीआर ने दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। उच्च न्यायालय में बहस के दौरान न केवल दोनों राजनीतिक पार्टियों, बल्कि केंद्र सरकार ने भी यह पक्ष रखा कि वेदांता को ‘विदेशी’ कंपनी के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि उसके मालिक अनिल अग्रवाल एक भारतीय नागरिक हैं। उच्च न्यायालय ने यह दलील खारिज कर दी, क्योंकि ‘कंपनी’ और उसका ‘मालिक’, दो अलग-अलग चीज है और दोनों का अलग अस्तित्व भी स्पष्ट है। इस बारे में कानूनी सिद्धांत पहले से ही स्थापित हैं। इसी कानूनी सिद्धांत के तहत उच्च न्यायालय ने यह फैसला दिया कि कानूनी अर्थों में ‘कंपनी’ एक ‘कृत्रिम’ या ‘कानूनी’ पर्सन है, जो उन ‘नेचुरल’ पर्सन्स से भिन्न है, जो किसी भी समय कंपनी के मालिक हो सकते हैं। ‘कृत्रिम’ या ‘कानूनी’ पर्सन्स को ‘नेचुरल’ पर्सन्स से अलग देखने की बुनियादी वजह या जरूरत इस तथ्य से उपजी है कि कंपनियों का वजूद किसी इंसान के वजूद से बहुत लंबा होता है। और कानूनी कार्रवाइयों और कामों को करने के लिए कंपनियों की जरूरत होती है।

बहरहाल, इस फैसले का महत्व उच्च न्यायालय के दूसरे निर्देश में निहित है। इसमें कहा गया है कि मामले के दो प्रतिवादी, यानी केंद्र सरकार और चुनाव आयोग राजनीतिक दलों को मिले चंदे की समीक्षा और उनका पुर्नमूल्यांकन करेंगे और विदेशी स्रोतों से मिले विदेशी चंदों का और उनके संबंध में यदि कोई उल्लंघन हुआ है, तो उस पर कानून के अनुसार कार्रवाई करेंगे। यहीं पर इस फैसले की सीमा भी सामने आ जाती है, यह सीमा ‘कानून-सम्मत कार्रवाई’ की शब्दावली में है। अगर उच्च न्यायालय ने इसकी जगह यह कहा होता कि इस पर उचित कार्रवाई हो, तो शायद यह अधिक कारगर होता। उचित कार्रवाई का अर्थ था कि चुनाव आयोग अगर ठीक समझता, तो राजनीतिक पार्टियों का पंजीकरण तक रद्द कर सकता था। हालांकि, यह संभव नहीं है, क्योंकि हमारे पास सर्वोच्च न्यायालय का एक महत्वपूर्ण फैसला है, जो कहता है कि चुनाव आयोग के पास राजनीतिक पार्टियों के पंजीकरण का अधिकार तो है, लेकिन उनके पंजीकरण को रद्द करने का अधिकार नहीं है।

इन हालात में, चुनाव आयोग सबसे बड़ा कदम यही उठा सकता है कि इन राजनीतिक पार्टियों को अमान्य ठहरा दे। मीडिया रिपोर्ट में यह बात है कि चुनाव आयोग ने संबंधित पार्टियों को अमान्य करने संबंधी कारण बताओ नोटिस जारी किया है। दूसरी तरफ, कुछ रिपोर्टें यह भी इशारा करती हैं कि गृह मंत्रालय अपील पर विचार कर रहा है। विदेशी अनुदान (नियमन) कानून के मामलों में इस मंत्रालय की भूमिका सबसे बड़ी होती है। अगर मंत्रालय इसे रोकने के लिए कोई कदम उठाता है, तो हमारे सामने एक और ऐसा उदाहरण होगा, जब मौजूदा सरकार राजनीतिक तंत्र में सुधारों को रोकने की कोशिश करती नजर आएगी। न्यायपालिका से मंजूरी मिल चुकी है, इस लिहाज से यह एक महत्वपूर्ण राजनीतिक सुधार को सिरे चढ़ाने का मौका है। लेकिन हमारे सामने ऐसे कई उदाहरण हैं, जब राजनीतिक सुधार की न्यायपालिका की कोशिशों को सरकारों ने साकार नहीं होने दिया।

बृजेश यदुवंशी

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