फिल्मे समाज को अक्सर सही रास्ता दिखाती आयी है, या यूं कहें कि फिल्मे समाज को आइना दिखाती आयी है। लेकिन समस्या इस बात की है कि कुछ लोग इन फिल्मों के सब्जेक्ट को अपनी अपनी सुविधानुसार दिखाकर या उसके भाव को मोड़कर अपने लिए प्रयोग कर लेते है। हाल फिलहाल कश्मीर फाइल्स इसी तरह के प्रयोग का शिकार हुई है।कश्मीरी पंडितों ने असहनीय दर्द सहे, अनगिनत अपमान झेले और अपना सब कुछ गवां दिया। लेकिन उन्होंने अपना आत्मसम्मान और अपनी आस्था जिंदा रखी। लेकिन फ़िल्म में सिर्फ राष्ट्रवाद को धर्म की चासनी में लपेट कर सिर्फ सोने का अंडा देने वाली मुर्गी से एक और अंडा लेने की कोसिस की गई है। जबकि ऐसे ही मुद्दों पर बनी अन्य फिल्मो को एक सिरे से नकार दिया गया। समाज के दबे कुचले वर्ग के दर्द को दिखाने पर उनको झूठा और फरेबी कहा गया।

कश्मीरी पंडितों के सबसे बड़े गुनाहगार फ़िल्म में दिखाए गए लोग नही, बल्कि वो निकम्मे लोग, वो निकम्मी सरकारे रही है , जो 1995 के बाद से सत्ता में रही है, और फिर भी 3 लाख से ज्यादा विस्थापितों को उनका हक नही दिला सकें।एक निकम्मी सरकार के निकम्मेपन को दिखाने की जगह पूरी फिल्म में एक धर्म विशेष को अपराधी दिखाकर सेंटीमेंट्स को टिकट की खिड़की तक लाने का एक घटिया प्रयास है। ऐसा नही की फ़िल्म में कश्मीरी पंडितों का दिखाया गया दर्द गलत है।  कश्मीरी पंडितों ने इससे कही ज्यादा दर्द हकीकत में सहा है। लेकिन और जिन लोगो ने ऐसा ही दर्द सहा या इससे ज्यादा दर्द सहा, उनके दर्द पर लोगो का दोहरा रवैया क्यो है ? आखिर जय भीम, शुद्र, आर्टिकल 15 या मुल्क जैसी फिल्मो की गंभीरता पर बात क्यो नही होती। 


पंडितो के दर्द को अपनी सुविधानुसार दिखाने वाले लोग उस समय क्यों चुप हो जाते है, जब जय भीम, शुद्र, आर्टिकल 15 या मुल्क जैसी फिल्में भी इसी तरह के दर्द को दिखाती है। शुद्रो की स्थिति और उनके साथ किये जा रहे व्यवहार पर जब इन फिल्मों ने एक आवाज बनने की कोसिस की गई तो उसे दबा दिया गया। सामाजिक बहिष्कार, जश्नों पर मनाही, सिर्फ जीने भर की इजाज़त , कदम कदम पर  अपमान, घर बार से भगाया जाना,  जाति के नाम पर हत्या, बलात्कार,  अपने से कमजोर लोगो के हक़ छीनना, ये सब हमारे देश की 5000 सालो की विरासत में से कुछ ही है। कश्मीरी पंडितों के साथ अलगाववादियों ने वही किया जो हमारे देश मे चमार, पासी , मुशहर, जैसी जातियों के साथ सामाजिक व्यवस्था की शुरुआत से ही वो किया गया , जैसा कश्मीर फाइल्स में कश्मीरी पंडितों के साथ होते हुए दिखाया गया है। 

कश्मीर पलायन में पीड़ितों के दर्द को फ़िल्म में बहुत मार्मिक तरीके से दिखाया गया है,  इस गुनाह के गुनाहगारो का जो एक हिस्सा दिखाया गया है, वो भी पूरी तरह न्यायसंगत है।  लेकिन तब से लेकर आज तक पुनर्विथापित करवाने में नाकाम सरकारों के निकम्मेपन को क्यो नही दिखाया गया ये सोचने लायक बात जरूर है। अब सवाल ये उठता है इस एक फ़िल्म ने समाज में धर्म के नाम पर पीडितों का दर्द सबके सामने रखा, लेकिन उन फिल्मों का क्या जिन्होंने जाति वर्ग या स्थान विशेष के नाम पर होने वाले दर्द को दिखाया ?  ऐसी फिल्मो को सरहना कब मिलेगी ?

जिन्हें वोट लेने की खातिर हिन्दू तो कहा जाता है लेकिन उन्ही  हिन्दुओ को अपने भगवान में मंदिरों में जाने की इजाज़त नही है, मूँछ रखने की इजाज़त नही है, घोड़े पे चढ़ने, जूते पहनने, वाहन का प्रयोग करने की इजाज़त नही है। सवाल ये है कि लोगो का दिल सिर्फ कश्मीर फाइल्स पर ही क्यो पसीज रहा है, उनका दिल अन्य फिल्मो पर क्यो नही पसीजता ? क्या संवेदना, मानवता, स्वाभिमान सिर्फ धर्म के नाम पर ही जागता है।

कश्मीर फाइल्स में जिन मुद्दों और जिन बातों को देखकर हमारा खून खोलता है, गुस्सा आता है, मन घिन्न से भर जाता है कि, ऐसा कैसे कोई कर सकता है। लेकिन तभी हम यह भूल जाते हैं कि हमने और हमारे समाज में ऐसा या इससे भी ज्यादा बुरा पिछले कई हजार सालों से समाज के कुछ वर्गों के साथ किया है, और करते आए हैं। हमने उनसे शिक्षा के अधिकार छीने, हमने उनसे लड़ने का अधिकार छीना, हमने उनसे बोलने का अधिकार छीना, हमने उनसे इज्जत के अधिकार छीने, हमने उनको बंजारा बना दिया, हमने उनको बेसहारा बना दिया, हमने उनको अपंग बनाने की पूरी कोशिश की। लेकिन हमें अपनी हरकत पर जरा भी अफसोस नहीं है।

हमारा खून जरूर खौलेगा, हमारे मन में न्याय और समानता की आग जरूर लगेगी, हमारे अंदर का मानव जरूर जागेगा, इंसानियत हमें जरूर समझ आएगी, लेकिन तब जब समस्या सिर्फ धर्म का दुशाला ओढ़ कर सामने आए। हम यह भूल जाते हैं कि कश्मीरी पंडितों के साथ हुए जिस अन्याय पर हम आंसू बहा रहे हैं, वैसा ही अन्याय हम खुद के लोगों के साथ करते आए हैं। हमने भी कुछ लोगों को अपने से अलग तरीके का होने या अपने से कमजोर होने की वजह से मारा है, पीटा है, उनको घरों से निकाल दिया है, उनके कुएँ में में जहर डाल दिया, उनके घरों में आग लगा दी, उनकी बहू बेटियों को बुरी नजर से देखा, और कई बार उनके साथ खिलवाड़ भी किया, हमने भी अपनी गुलामी करने पर मजबूर किया और मना करने पर जान से मार दिया या भगा दिया, हमने तो लोगों के गले से घड़ा बांधकर लटका दिया ताकि वह जमीन पर थूके न। हमने एक सभ्य समाज के नाम पर उस दबे कुचले समाज की औरतों के स्तन भी ढकने के अधिकार छीन रखे थे। हमें उन बातों पर शर्म नहीं आती । और आज हम कश्मीरी पंडितों के दर्द पर आंसू बहाने का ढोंग कर रहे हैं।

कश्मीर फाइल्स के लोगों के साथ हुए अमानवीय व्यवहार उनके विस्थापन और उनके साथ भीभत्स तनाव के लिए जिम्मेदार लोगों पर कार्रवाई बेहद जरूरी और त्वरित है। परंतु सवाल यह भी है कि जय भीम शुद्ध आर्टिकल 15 या मुल्क जैसी फिल्मों में दिखाए गए पीड़ितों के जैसे पीड़ितों के जिम्मेदारों पर आखिर कार्यवाही कब होगी ?  कब हमारा दिल धर्म के नाम पर पिघलेगा ? कब हमारी मानवता धर्म या जाति देख नही, बल्कि दुख देखकर जागेगी। 

Comments

Popular Posts