महराष्ट्र का पालघर इस लिए हुआ, क्योकि रकबर खान के हत्यारों को फूल पहना कर स्वागत किया गया, इस्पेक्टर सुबोध के हत्यारों को राजनीतिक और सत्ता की शह देकर बचाया गया। शंभू लाल रेगर जैसे आतंकी हत्यारे को हीरो बनाने की कोसिस की गई, अखलाक की हत्या को जायज ठहराया गया। स्वामी अग्निवेश की पिटाई को सही बताया गया। जब खुद सत्ता ने ऐसे अपराधियो को बढ़ावा दिया तब ऐसे अपराधियो का हौसला बढ़ा गया, उनके अंदर का डर समाप्त हुआ और ये भस्मासुरी हत्यारो ने अब निर्दोष संतो की हत्या कर दी। और अभी ये इन हत्यारो को रोका नही गया तो न जाने ये हत्यारे किसको अपना निशाना बनाएंगे।
ये भीड़ खुद एक भष्मासुर है। और इस भीड़ के जनक , भीड़ को विरोधियों के खिलाफ अमर्यादित रूप से इस्तेमाल करने वाले या भीड़ के लोगो की सहायता से मारकाट फैलाने वाले खुद इस बात से अनभिज्ञ है की ये भष्मासुर आज नहीं तो कल इन लोगो को भी भस्म कर देगा। जिस तरह की नफरत और गुस्से को लोगो के मन मर भरा जा रहा है, नफरतो की आग को हवा दी जा रही है वो हम सबका घर जलाने के लिए काफी है। और जब ये जलाना शुरू करेगी तो शायद ही कोई नारायण नर्तकी के वेश में हमे बचाने आये। क्योकि अब ये राक्षस इतना बढ़ चुका है कि अब इसे हम ही खत्म कर सकते है।
महाराष्ट्र के पालघर मे दो निहत्थे संतो पर भीड़तंत्र का हमला ओर उनकी हत्या इस बात का सीधा प्रमाण है कि देश की जनता अब अंधी और बिगलांग हो चुकी है। खैर इसके दो तीन पहले से ही फेसबुक और कही जगह पर एक न्यूज वायरल हो रही थी , जिसमे लिखा था कि कुछ मुल्ले साधु के वेश में घूम रहे है, अब हो सकता हो कि महाराष्ट्र के पालघर में हुई हिंसा में इस पोस्ट का हाथ रहा हो।
उन संतो की हत्या की वीडियो को देखकर , उनको इसतरह अपमानित होते देखकर , मन बहुत दुखित हुआ। जब उनको मारा जा रहा था तब भी वे हस रहे थे, उन संतो की ये तस्वीर मन को व्याकुलता और असंतोष से भर दे रही है। बेचैनी इतनी है कि उनका हसता हुआ चेहरा आंख के सामने से नही हट रहा है। बच्चा चोरी के झूठे अफवाह में उन निरीह संतो को मारा गया। प्रकृति की इतनी भीषण मार के बाद भी शायद हम सुधर नही रहे है और उन्ही के बंदों को मार रहे है। संतत्व का ऐसा घोर अपमान, और संतो के साथ ऐसा सुलूक सजा के काबिल है।
अभी हमे इस बात की सोचने और तर्क वितर्क करने की जरूरत है कि क्यो हम धार्मिक और सामाजिक रूप से इतने कमजोर हो चुके है, क्यो हम अपनो की ही पहचान नही कर पा रहे है। हम एक भीड़ के रूप में एक मशीनी हत्यारे के रूप में घूम रहे है। जो कभी भी, कही भी किसी का भी हत्या कर सकता है, फिर वो अपना हो या पराया, क्योकि अपने परायो को परखने की शक्ति मीडिया हमसे पहले ही छीन चुका है।
संतो की हत्या के तुरतं बाद ही आईटी सेल अपने उद्दश्यों में लग गयी, टारगेट यही था कि इस हत्या को धार्मिक रंग देकर महाराष्ट्र की सरकार को अस्थिर किया जाए। महाराष्ट्र को दंगो की आग में झोका जाए। पूरे देश मे आईटी सेल के टट्टुओं ने सोशल मीडिया पर अपनी गंदगी दिखाना शुरुबकर ही दिया था। लेकिन महाराष्ट्र पोलिस ने तत्तपरता दिखाते हुए आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया और ये 101 आरोपियों की गिरफ्तारी से ये सिद्ध कर दिया कि ये कोई धर्मिक रंग नही है। इसी के साथ आईटी सेल की सारी प्लानिंग चौपट हो गयी। और इस हत्या के आरोप में गिरफ्तार हुए लोगो में कथिर हिंदूवादी पार्टी के एक दो विधायक भी है, जिन्होंने उन निर्दोष संतो की हत्या किया।
एक सीधी सी बात हम सबके समझ में आ सकती है। और आने भी चाहिए कि जिस भी देश में भीड़ तंत्र काम करने लगे तो उसके दो ही मतलब होते हैं । या तो उस देश में शासन चलाने का कोई प्रावधान नहीं है । या फिर उस देश का प्रशासनिक मैकेनिज्म फेल हो चुका है । उस देश के शासक निरंकुशता और और कमजोरी के शिकार हो चुके हैं । उस देश के शासकों में इतनी भी कुवत नहीं बची है कि वह लिखित रूप से मौजूद संविधान को पालित करवा सके। वह करवाएंगे भी कहां से जब खुद उनके ऊपर हत्या और दंगों के मुकदमे दर्ज हैं।
अपराधी चाहे जो भी हो , उसका अपराध चाहे जो भी हो , उसके आरोप चाहे जो भी हो। अपराध की सज़ा चाहे जो भी हो। लेकिन भीड़ के द्वारा किया गया इंसाफ के नाम पर क्रिया को कभी भी सही नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि भीड़ के कथित इंसाफ की सिर्फ एक ही सीमा होती है , वह है "मौत"। और जब की देश के शासक इस भीड़ का इस्तेमाल अपने राजनीतिक विद्रोहियों को खत्म करने के लिए कर रहे हैं, तो वह यह बात को समझना पड़ेगा हैं कि ये भीड़ खुद एक भष्मासुर है। इस भीड़ के जनक भीड़ या ट्रॉल्स को विरोधियों के खिलाफ अमर्यादित रूप से इस्तेमाल करने वाले या भीड़ के लोगो को फॉलो करने वाले खुद इस बात से अनभिज्ञ है की ये भष्मासुर आज नहीं तो कल इन लोगो को भी भस्म कर देगा।
देश में एक बार फिर से भीड़ ने वही किया जिसके लिए उस फिल्म को पिछले 6 सालों से पाला पोसा और बढ़ाया जा रहा है भीड़ को सांप्रदायिकता दंगा अराजकता कट्टरता तानाशाही के अलग-अलग दूध से फला और चलाया जा रहा है सत्ता में बैठे हुए भीड़ के नेतृत्व वाले नेता या बाबा लोग भीड़ के माध्यम से अपने राजनीतिक और व्यक्तिगत दुश्मनी निकाल रहे हैं
भीड़ की हिंसा का जो दौर चला है , वह एक दो दिन या एक दो महीने महीने नही, बल्कि सालो से पली आ रही धार्मिक नफरत और असहनशीलता का परिणाम है। अगर आपको किसी से दुश्मनी है , और आपको उससे वह दुश्मनी निकालनी है , तो आपको कुछ नहीं करना होगा , बस आपको कुछ मूर्खों की जमात में जा कर यह कहना होगा कि फलां व्यक्ति मुसलमान है , और गाय की तस्करी करके लेकर जा रहा है।
फिर आप देखिए यह भीड़ और मूर्खों की और जमात किस तरह से आपकी दुश्मनी को पूरा करती है । और आपके दुश्मन को पीट-पीटकर खत्म कर देती है। पहलू खान, अखलाक से लेकर रकबर खान तक, इंस्पेक्टर सुबोध और अब महाराष्ट्र के दो संतो की हत्या। देश में एक जानवर के बदले या उन जानवर के नाम पर इंसान को मारने की एक नया ट्रेंड चल चुका है । जब इंस्पेक्टर सुबोध की हत्या हुए और प्रदेश के मुख्यमंत्री सिर्फ गौ हत्या के आरोपियों को सज़ा देने की बाग करते है, यानी कि हम ये समझ सकते है की खुद मुख्यमंत्री बाबा के लिए क्या जरूरी है। और हमारी पोलिस की बाबा के नजर मे औकात एक जानवर से भी बदतर है।
" जिस देश की भीड़ वहां के सही गलत का फैसला खुद ही करने लगे, तो यह समझ लेना चाहिए की राजा निकम्मा, नकारा और तथ्यविहीन है । "
भले ही यह किसी धार्मिक ग्रंथ या शास्त्र में नहीं लिखा हो । भले ही इसे चाणक्य सरीखे विद्वान आदमी ने नहीं लिखा हो। लेकिन यह वाक्य पूरी तरह से सत्य है। हमारे शास्त्रों में और हमारे इतिहास के बड़े-बड़े विद्वानों को इस लाइन को जरूर लिखना चाहिए था । क्योंकि यह आज के परिस्थिति को दर्शाता है। और हमारे विद्वान इतने ग्यानी तो थे ही कि वह आज की परिस्थिति को देख सकें । या फिर आज की इतिहासकारो को ये बात अब से मरे विचार लिखकर मेरे नाम से लिख देनी चाहिए। ये बिल्कुल सत्यार्थ और सार्वभौमिक सत्य है, की जहाँ भीड़ ने प्रशासनिक जिम्मा अपने हाथ मे किया वहाँ कानून तोड़ा जाता है। मानवता शर्मशार हो जाती है।
भीड़ एक ऐसा तत्व है जिसे राजनीति और सत्ता दोनों मिलकर पैदा करते है, ताकि वो इसके माध्यम से अपने अपने राजनीतिक हित साध सके । वो इस भीड़ को भावनाओ को भड़काते है, और लागतार भड़काते है। और एक समय ऐसा आ जाता है जब यह भीड़ उनके पकड़ से भी परे चली जाती है । और फिर जो भीड़ करती है वह बड़ा ही बीभत्स और डरावना होता है। भीड़ हमेशा किसी एक टारगेट को देख कर चलती है, लेकिन उस भीड़ को उस टारगेट की वजह नही मालूम होती। और कई तो ऐसे होते है जिनका टारगेट और वजह से कोई मतलब नही होता, और कुछ का टारगेट के पीछे की वजह व्यक्तिगत होती है ।
एक तरफ देश का सुप्रीम कोर्ट भीड़तंत्र को खत्म करने की बात कर रहा था, और दूसरी तरफ उसी समय मूर्खों की वह जमात अपने काम पर लगी हुई थी । इन जमात में अपनी ड्यूटी निभाते हुए एक इस्पेक्टर को साजिश पूर्वक मारा क्योंकि वह इस्पेक्टर इन आतंकवादियों के काम में लगातार रोड़ा अटका रहा था इन आतंकवादियों को अब तकिया एहसास हो चुका था , की इस्पेक्टर सुबोध के रहते हुए इन सफेदपोश आतंकवादियों के मंसूबे कामयाब नहीं होंगे।
हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे समाज में सांप्रदायिकता का फैलता जहर एक सच्चाई है। और वह किसी अनियोजित भीड़ के तात्कालिक उकसावे का कारण हो सकती है। भीड़ को एक अवसर चाहिए, बहाना चाहिए। संभव है कि जिसने अपने जीवन में एक मच्छर या चींटी भी न मारा हो, वह भी भीड़ का हिस्सा बनकर खूंखार हो जाए और मानवहत्या जैसे जघन्य कार्य को अंजाम दे दे।
सांप्रदायिकता, अंधविश्वास, पूर्वाग्रह, ज़ेनोफोबिया, आत्महीनता, ऐतिहासिक पीड़ाबोध की मिथ्या चेतना, किसी भी प्रकार की कट्टरता, निजी जीवन की विफलताएं इत्यादि कुछ मौलिक कारण होते हैं, जो कमोबेश हर जाति और संप्रदाय के लोगों में पाए जाते है। लेकिन जिन समाजों ने मानवीय मूल्यों से भरी शिक्षा, सामाजिक प्रबोधन, आर्थिक अवसरों और राजनीतिक परिपक्वता को जितना अधिक हासिल किया है, वहां भीड़-हिंसा की प्रवृत्ति कम देखी जाती है। हालांकि व्यक्तिगत स्तर पर हिंसा उनके लिए भी एक आध्यात्मिक चुनौती बनी ही हुई है। राज्य-व्यवस्थाओं द्वारा संगठित हिंसा के रूप में युद्ध अभी भी इन समाजों ने जारी ही रखा हुआ है।
व्यक्ति विशेष को भीड़ में कन्वर्ट करने का प्रोसेस थोड़ा लंबा जरूर है, लेकिन एकदम सटीक बैठता है। सबसे पहले इंसान की सम्वेदनाओं को खत्म किया जाता है। और सम्वेदनाओं को खत्म करने के लिए दूसरे धर्म दूसरी जाति या दूसरे संप्रदाय के लोगों की रहन सहन, पहनने के तरीके , खाने पीने के तरीके, बोल भाषा के प्रति नफरत पैदा कर की जाती है।
अगर आपको भी किसी मनुष्य की पहनने-ओढ़ने चलने-फिरने भाषा बोल खाने-पीने रहन-सहन के तरीकों से समस्या हो रही है , तो समझिए कि आप की संवेदना धीरे-धीरे खत्म हो रही है । और अगर आप दूसरे की तरीकों को बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं, तो समझे कि आप की संवेदना खत्म हो चुकी है ।
और जैसे ही आपकी संवेदना खत्म होती है इंसान की भावनाओं को उग्र रुप दिया जाता है। उनकी भावनाओं को बढ़ा चढ़ाकर बनाया जाता है । फिर उसी भावना की सांचे में उस आदमी को कुछ इस तरह फिट किया जाता है , कि वह सही गलत ऊंच-नीच , सच्चा झूठा हिंसा - अहिंसा सब के बारे में सोचना छोड़ देता है। या यूं कहें कि उस आदमी का दिमाग उस सांचे से बाहर कुछ भी नहीं सोच पाता है । इतना सब कुछ होने के बाद जब संवेदना मर गई हो , भावनाएं उग्र रुप ले चुकी हो , दिमाग कुछ सोचने समझने की क्षमता खो चुका हो , और दिमाग केवल एक ही लाइन से मिल रहे दिशा-निर्देशों को पालन करना बाध्यकारी मानता हो । तो वह व्यक्ति एक परफेक्ट मशीनी हत्यारे के रूप में बदल दिया जाता है ।
और इसी तरह ढेर सारे व्यक्तियों को मशीनी हत्यारे के रूप में बदलकर एक भीड़ का रुप दिया जाता है अनियंत्रित होती है। वह भीड़ जिसकी संवेदनाएं मर चुकी हैं। वह भीड़ जो उग्र होती है। वह भीड़ जो किसी दूसरे के निशान दिशा निर्देश पर बिना कुछ सोचे समझे मरने मारने को उतारू हो जाती है।
हम अपनी सभ्यता पर चाहे जितना गर्व कर लें, अपनी उपलब्धियों पर चाहे जितना इठला लें, यह एक कठोर सत्य है कि हम और हमारा समाज बेहद हिंसक और बर्बर हैं। कहीं गाय के नाम पर, कहीं धर्म के नाम पर, कहीं बेईमानी और शको-सुबहा से ग्रस्त भीड़ हत्या पर उतारू होने लगी है।
यह सिलसिला कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक जारी है। इससे भी खतरनाक वह रवैया है, जो इन हत्याओं को किंतु-परंतु-लेकिन लगाकर सही ठहराता है। इस तरह की घटनाओं पर तभी अंकुश लगाया जा सकता है, जब हम इन्हें मूल-अधिकारों के उल्लंघन के तौर पर देखेंगे और कानून दोषियों को सज़ा देगा। आज अनुच्छेद 21 का दायरा काफी व्यापक हो गया है। अतः ज़रूरी है न्यापालिका भी सक्रियता दिखाए।
दरअसल, इस हत्यारी मानसिकता को जो शह मिल रही है, उसके पीछे एक दकियानूसी और घृणा पर आधारित राजनीतिक सोच है। यह हमारी प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्था के चरमराने का संकेत है। नृशंस हत्याओं के बावजूद हत्यारों और उनके समर्थकों में पछतावा का कोई भाव नहीं है।
होगा भी कैसे जब सरेआम लोगों को गाली देने वाले लोगों को मारने की धमकी देने वालों को हमारे देश का प्रधानमंत्री खुद ट्विटर पर फॉलो करता है तो ऐसे लोगों की संख्या तो बढ़ेगी ही भीड़ की हिंसा के लिए जिम्मेदार लोगों को केंद्रीय मंत्री जाकर माला पहना था है तो ऐसे लोगों की हिम्मत भी जरूर बढ़ेगी
केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा हत्या के आरोपियों को माला पहना कर स्वागत कर चुके है, और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह भीड़ के हिंसा के अपराधियो से जेल में मिल के आये है।
तो क्या अब हम ये मान ले कि इस तरह की हत्यारी भीड़ और इस तरह के गुंडों का सरक्षण भारतीय जनता पार्टी और उसके नेता कर रहे है ?
अब ये भीड़ एक पक्ष विशेष , एक धर्म विशेष , एयर एक जाति विशेष के रूप में परिवर्तित हो हई है । ये इस तरह की भीड़ एक बहुत अच्छा रिजल्ट है उन नेताओ की मेहनत का जो दिन रात एक करके अथक प्रयास करके लोगो के बीच हिन्दू मुस्लिम , ऊँच नीच, का नीच बोते है। और इस बीच के फसल की सिंचाई ये फेक न्यूज़ और गोदी मीडिया से लगातार करवाते रहते है । ताकि फसल मजबूत और पौष्टिक बनी रहे , इतनी को धर्म से जाती के नाम पर मारने मरने पे उतारू हो जाये।
यह भी कहना गलत नही होगा की ये भीड़ किसी राज्य किसी क्षेत्र किसी भाषा या किसी धर्म तक ही सीमित नहीं रह गई है। यह इन के हिसाब से अलग-अलग गुटों में बदलती रहती है । लेकिन हम यह जरूर कह सकते हैं कि इस भीड़ के इंसाफ का शिकार खास धर्म और खास जाति के लोग ही हुए हैं । जैसे मुसलमान , दलित और सेना ।
इसके अलावा देश में कहीं भी जिंदा लोग भीड़ के इस बर्बरता का शिकार नहीं हुए हैं । मूर्तियों को भी इस भीड़ ने नहीं बख्शा। जरा सोचिए यह मानसिकता वाले आज उन महापुरुषों और नायकों की मूर्तियों से इतना डर रहे हैं कि , उनकी मूर्ति को तोड़ दे रहे हैं। तो ऐसी मानसिकता वाले उन नायकों के समय में क्या-क्या करते होंगे ? और उनसे पहले उन्होंने क्या-क्या किया होगा ?
बस एक कल्पना भर ही कर लीजिए ।
भीड़ के द्वारा गलत बातों पर समर्थन और लोगों की हत्या करना या हिंसा फैलाना का मनोविज्ञान यही कहता है की, भीड़ में कभी भी हिंसा की भावना पहले से नहीं होती है। जब लोग भीड़ में बदलते हैं विचारों का आदान-प्रदान करते हैं, तो इनको कंट्रोल करने वाले उनके मन में हिंसा की भावना उत्पन्न करते हैं । और उसके लिए यह टारगेट वाले समुदाय के लिए नफरत पैदा करते हैं ।
भीड़ को जुटाने से पहले इसकी पूरी तैयारी की जाती है । पहले लोगों की भावनाओं को उनकी सम्वेदनाओं को खत्म कर दिया जाता है । उन्हें एक ऐसे व्यक्तित्व का गुलाम बनाया जाता है जिसकी सोच के आगे वह कुछ भी सोच नहीं सकते हैं । फिर उन लोगों को इकट्ठा करके उन्हें भीड़ का रुप दिया जाता है। उसके बाद वह भीड़ को अपने तरीके से इस्तेमाल करते हैं। जबकि भीड़ में शामिल लोगों को इस बात का एहसास ही नहीं होता कि वह हत्या किस लिए कर रहे हैं, या उनके हत्या करने का उद्देश्य क्या है। हिंसा फैलाने का उद्देश्य क्या है।
लोगों की भावनाएं और उनकी संवेदनाएं मरने के यही संकेत हैं कि, जब वह अपने से दूसरे धर्म या दूसरी जाति या दूसरे क्षेत्र के लोगों के अलग रहन-सहन, तौर- तरीकों, को अपनाने से या उनको देखने उसे भी मना कर दे ।या बराबरी का दर्जा देने तक से मना कर दे।
उनको दूसरे समुदाय के लोगों के खाने पीने पर एतराज हो। दूसरे समुदाय की भाषा उनको देशद्रोही भाषा लगती हो । दाढ़ी और मूछों के आकार से उनको चिढ़ होने लगे। सर पर रखे हुए टोपी या गमछे से उनको ऊंच-नीच की भावना आने लगे तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि अब लोगों की भावनाएं मर चुकी हैं। उनमें इतनी संवेदना भी नहीं बची की राह चलते किसी की मदद भी कर सकें।अगर ऐसे ही चलता रहा तो , हर फैसले बंदूक और तलवार की नोक पे होंगे। फिर न तो पुलिस की जरूरत होएगी, न प्रधानमंत्री की न मुख्यमंत्री की। फिर जिसके पास जितने गुर्गे होंगें वो उतना बड़ा सत्यवादी साबित होगा।
कोर्ट, कानून, विधायक, मंत्री, अधिकारी, पुलिस , संसद , लोकतंत्र , व्यवस्था, फिर किसी की कोई जरूरत नही रहेगी। सब माफियाराज से डिसाइड होगा। फिर ये देश व नही बन पाएगा, जिसका सपना सरदार भगत सिंह ने देखा था।
यह देश वही बन गया है , जो उन्होंने चेताया था की " गोरे साहब चले जायेंगे और भूरे साहब आ जाएंगे"।
अगर हम भी सारे फैसले एकतरफा सुनवाई मनमानी कानून दकियानूसी विचार सत्ता का घमंड तानाशाही की भावना और भीड़ की भड़काऊ भावना के आधार पर करने लगे , अपनी सोच दूसरो पर थोपने लगे तो फिर क्या फर्क रह गया है हममे और तालिबान में ?
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