कुतर्की समाज का परित्याग
इस समाज द्वारा बनाई गई रीतियों से खुद को अलग करता हूं। मैं जानता हूं कि मुझे ऐसा करने पर सारी परिस्थितियां मेरे खिलाफ हो जाएंगी। लोग मुझपे तरह तरह के सवाल उठाएंगे , लोग मुझे या मेरे अस्तित्व को स्वीकारने से भी मना करने लगेंगे। मुझे हर तरह से समाज की तरफ से नई नई चुनौतियां और मुश्किले मिलेंगी। लेकिन मुझे ये सब मंजूर होगा बजाय इसके की मैं इन चुनौतियों से घबराकर समाज की इन दोगली और बेतुकी चीज़ों का हिस्सा बनू। क्योकि ऐसा करना मुझे मेरे जमीर और मेरे आदर्श के खिलाफ लगता है।
मुझे इस बात से किसी भी तरह का कोई फर्क नही पड़ता कि जो मैं सोच रहा हू या जो मैं कर रहा हू उससे किसी को क्या लेना देना या मेरे द्वारा किये गए काम के बारे में लोगो का क्या विचार है। कुछ लोग मुझे किसी धर्म विशेष का साथी बता सकते है। कुछ लोग मेरे कामो से मेरे पूर्वजो के धर्म या जाति का हिसाब लगा कर आपस मे चर्चा भी कर सकते है। लेकिन मुझे इससे भी किसी तरह का कोई फर्क नही पड़ता। मैं अपने तर्क हमेशा अपनी शर्तों पर ही रखता आया हु , और रखता रहूंगा। मैंने कभी भी मेरे विचार किसी और पर थोपने की कोसिस नही किया।
मैंने हमेशा वही कहा या वही लिखा जो मैंने महसूस किया, हो सकता हो कि वो गलत या सही हो। मैं उसपर तर्क वितर्क करने के लिए भी तैयार रहूंगा। लेकिन उस तर्क वितर्क के बाद भी किसी की सोच नही बदलती तो भी मुझे कोई अफसोस नही होगा। क्योंकि मैंने वो तर्क वितर्क उसकी सोच को बदलने के लिए नही किया और न ही मेरे ऐसा कोई इरादा है। मैने इस समाज को सही रास्ता दिखाने का कोई प्रण नही किया हुआ है।
हो सकता है कि मेरे लिखने , बोलने या सवाल पूछने से कुछ लोग आहत हो सकते है। हो सकता हो कि मैंने किसी के तरीके और किसी के आस्था पर एक करारा सवाल किया हो जो उसे बिल्कुल अच्छा नही लगा हो। बदले में वो मुझे जी भर कर गालिया भी देता हो। लेकिन मुझे उससे भी कोई फर्क नही पड़ता। क्योकि मैं जानता हूं गालिया सिर्फ वही दे सकता है जो बेहद कमजोर है, या जिसके पास तर्क वितर्क जितनी बुद्धि न हो। एक सच ये भी है कि ऐसे धर्म या ऐसी आस्था बहुत अंत के कगार पर है जो सवालो को सहन करने की क्षमता नही रखती।
मेरा सवाल पूछना , सच बोलना, अपनो को उनकी कमियों के आईना दिखाना मुझे उनसे बेहद दूर कर सकता है। मेरे सवाल पूछने पर वो इसे अपनी आस्था पर हमला मान कर मुझसे दूर जा सकते है। अगर वो ऐसा करते है तो उन्हें भी ये मान लेना चाहिए कि मुझे शुरू से उनकी कोई जरूरत नहीं रही है। क्योंकि इतने कमजोर लोग मेरी जरूरत नही बन सकते है।
मैं परम पिता परमेश्वर द्वारा बनाये गए इंसानो के सामाजिक सीमाओ को भी मानने से इनकार करता हू। अगर इन सीमाओ को मानने के लिए मुझे ईश्वर का अस्तित्व का हवाला दिया जाता है तो मैं ईश्वर के अस्तित्व को भी मानने से इनकार करता हूँ। मैं ईश्वर को न मानकर नास्तिक इसलिए नही बन रहा क्योंकि ईश्वर में मेरा विश्वास नही है। मैं नास्तिक इस लिया बना क्योकि ईश्वर में और लोगो का विश्वास हद से ज्यादा कही ज्यादा है।
लोग ईश्वर , धर्म, आस्था के नाम पर विश्वास करके कुछ भी कर रहे है, लोग कुछ भी करवा रहे हैं। और मैं इस भेड़ जमात का हिस्सा नही रहना चाहता क्योकि मैं जानता हूँ कि अगर कही ईश्वर का अस्तित्व है तो उसे भी ये भेड़ जमात बिल्कुल पसंद नही आयेगी। मेरे इस सामाजिक कुरीतियों से दूरी और ईश्वर में अविश्वास ने कई सारी मुस्किलो को मेरे रास्ते मे खड़ा कर दिया है। लेकिन मैं अपने तर्क और अपने विचारों के साथ हमेशा इन सबसे लड़ता आया हूँ और लड़ता रहूंगा।
मैं जानता हूँ कि ईश्वर की भक्ति न करके या उसे न मान करके मैने अपने लिए ही कई सारे दरवाजे बंद कर लिए है। मुझे उम्मीद की आखिरी की किरण के रूप में अब ईश्वर को याद करने का विकल्प नही मिलेगा। न ही मुझे किसी कार्य को शुरू करने से पहले ईश्वर को नमन करने का विकल्प मिलेगा। लेकिन जब मैंने मेरे लिए ये रास्ता ये जानते हुए भी चुना है कि इसके बाद सारी समाजिक परिस्थितया मेरे खिलाफ भी हो सकती गई हैं तो उसका मतलब की मैं आने वाली चुनौतियों और विपरीत परिस्थितियों के लिए पूरी तरह तैयार हूँ।
ऐसा नही की मैंने ईश्वर या समाज के खिलाफ कोई जंग छेड़ रखी हो क्योकि मैं कबीर या भगत सिंह जितना शक्तिशाली नही । मैंने बस समाज के कुतर्कों और ईश्वरीय पूजा के नाम पर किये जाने वाले ढोंग और अपराध से खुद को अलग किया है। आस्था के नाम पर मुझमे किसी को नीचा दिखाने या किसी के साथ अभद्रतता करने की शक्ति नही है। बल्कि मेरे में उतनी शक्ति है कि मैं ऐसा करने वालो के खिलाफ पूरे जोर शोर से लड़ सकता हूँ।
मेरा इस तरह से समाज के रीतियों को दुत्कार देना समाज के लिए ये साफ इशारा है कि अब मैं आस्था और धर्म के नाम पर तुम्हारे द्वारा किये जा रहे कुप्रचार और पाखंड के खिलाफ खड़ा हूँ। मैं अब इन सब से लड़ने के किये तैयार हूँ। मैं अब इन सब को रोकने के लिए तैयार हूँ।
मैं ये भलीभांति जानता हूँ कि अब मेरे ईश्वर में आस्था न रखने की वजह से लोग मुझे दूसरे धर्म का व्यक्ति भी बता सकते है । लेकिन मैं यहाँ पर ये जरूर बताना चाहता हूँ कि जिस तरह का फर्क मुझे ईश्वर का अस्तित्व होने या न होने से नही पड़ता है ठीक उसी तरह का फर्क मुझे अल्लाह के होने या न होने से नही पड़ता है। मैं जानता हूँ कि दोनों या चारो में ही इनलोगो के नाम पर लोगो को सिर्फ और सिर्फ अपनी भीड़ की जमात में शामिल कराया जा रहा है।
हा मेरे लिए मेरे पूर्वज और मेरा देश जरूर मायने रखता है, बेहद मायने रखता है। लेकिन मैं ये समझता हूँ कि मुझे मेरे देश मेरी मातृभूमि के लिए प्रेम या आस्था किसी और को दिखाने , समझाने या सिद्ध करने की जरूरत नही। क्योकि मैं जानता हूँ ऐसा करने पर मैं खुद को दूसरों के आगे कमजोर दिखा सकता हूँ। मैं तर्क वितर्क में पूरा विश्वास रखता हूँ और इसी नजरिये से पूरी दुनिया को देखता हूँ। मैं मेरे देश मे हो रही ऐसी घटना का हमेशा विरोध करता रहूंगा जो मेरे देश की मर्यादा को भंग करने की कोसिस कर रही हो।
मुझे मेरे कामो या क्रियाकलापो द्वारा समाज को संतुष्ट करने की कोई विशेष जरूरत लगती नही । अगर कोई जरूरत लगती भी तो मैं नही करता। क्योकि जिस समाज, उसके लोग या उसकी संरचना मुझे मानसिक संतुष्टि नही दे सकते है, मैं उन्हें अपने विचारों, काम और बोली द्वारा संतुष्ट करने का कोई भी इरादा नही रखता हूँ।
मुझे जिससे भी सवाल करना है मैं करता रहूंगा, मुझे जिससे भी तर्क वितर्क करना है , मैं करता रहूंगा। मुझे किसी को भी किसी तरह की सफाई देने की कोई जरूरत नही है, या मुझे उस ईश्वर के सामने इसे सिध्द करने की कोई जरूरत है। मैं ईश्वर या समाज को बिना कुछ सिद्ध किये भी आने ध्येय की पूर्ति सही तरीके से कर सकता हूँ। मुझे इस समाज और उस कथित ईश्वर की नैतिकता पर सवाल उठाने का मन करता है जो अलगाव के भाव को लाये या जो अलगाव को सुरक्षति दिशा प्रदान करे।
मुझे सामाजिक या ईश्वरीय प्रकोप का कोई खौंफ नही है। ऐसा इसलिए नही की मैं समझता हूं कि ईश्वर का वजूद नही है। बल्कि मैं जानता हूँ कि अगर मैं अपने रास्ते मे बिना थके हारे चलता रहूंगा तो एक न एक दिन मुझे ये समाज मेरे इसी रूप मेरे इसी तर्क वितर्क और मेरे इसी प्रश्नवाचक रवैये के साथ स्वीकार करेगा। मुझे स्वीकारिता के बाद भी हमेशा इसे सुधारने और सही करने का मौका मिलता रहेगा, और मैं हमेशा इसे करता रहूंगा।
ऐसा नही है कि मैंने कभी भी सामाजिक और ईश्वरीय प्रकोप को खत्म करने के लिए ही ये काम किया हो। मुझे सामाजिक स्वीकार्य से कोई लेना देना नही। न ही मुझे ईश्वर भक्ति का कभी कोई भी लालच नही रहा है। मैं समाज को मेरे नजरिये से देखता हूँ, मैं मेरी किसी भी चीज़ में आस्था को हमेशा तर्क के लिए खुला रखता हूँ। और खुद इसी तरह के सवाल और तर्क के लिए अपनी आस्था, अपने विचारों या अपने कार्यो को हमेशा तर्क की कसौटी पर रखने के लिए तैयार रहा हूँ।
मैं उस सर्वशक्तिमान ईश्वर के अस्तित्व को इसी शर्त पर मानने की कोसिस कर सकता हूँ , या समाज के रीतियों को तभी मान सकता हूँ , जब उन्हें हर तरह के सवाल, आशंका, विचार , और तर्क वितर्क के लिए खुला रखा जाए। और उसे हर कसौटी पर कस कसा जाए। तब मैं उस समाज या उस ईश्वर को अपने तर्क सवाल और विचार की कसौटी पर कस कर ही खुद को उसे मानने या स्वीकारने की अनुमति दे सकता हूँ।
मैं जानता हूँ कि मैं परिस्थतिया मेरे खिलाफ है । और अब समाज और ईश्वर के प्रति उस रवैये ने उसे और भी बढ़ा दिया। इतना ज्यादा बढा दिया है कि मेरा व्यक्तित्व और मेरी सख्शियत समाज के लोगों के लिये उनके रास्ते का कांटा लग सकती हैं।मेरे सवाल सवालो के जवाब में एक और सवाल मिलेगा, जिसके जवाब में निरुत्तर हो जाता हूँ।
निरुत्तर इसलिए नही होता कि मुझे सवाल का जवाब नही आता। बल्कि मैं निरुत्तर इसलिए हो जाता हूँ क्योंकि मैं समझता हूँ कि मेरे तर्क उनको किसी तरह के घाव की तरह लगेंगे। और मेरे तर्क और सवालो को सहने की क्षमता इस ढंगी समाज मे नही है।
प्रश्नों , तर्कों और तार्किट बातो से आहत होने वाला धर्म या आस्था अपने अंत के बेहद पास खड़ा होता है। जो आस्था तर्क संगत सवालो को सहन नही कर सकती उसे बिखर ही जाना चाहिए। जो समाज का नजरिया और उसके क्रिया क़िलाप सवालो का उत्तर न दे पाए उसे भी बिखरने में ज्यादा देर नही लगती।
मैं ये समझता हूँ कि मैं इतने कमजोर आस्था में मेरा कोई विश्वास नही हो सकता। मैं ये समझता हूँ कि इतने कुतर्की समाज और उसकी बेहद रीतियों का हिस्सा मैं नही बन सकता। इसी लिए धर्मिक और ईश्वरीय आस्था को न मानते हुए, इन सामाजिक रीतियों को धता देते हुए मैं खुद को समाज की भेड़ जमात से अलग करता हूँ। मुझे इस आस्था को मजबूत करने या इस समाज को सही करने वाली किसी भी चुनौती से कोई लेना देना नही है। न ही मैं ऐसी कोई चुनौती बनाऊंगा और न ही ऐसी कोई चुनौती लूंगा। मुझे किसी से अपनी बातों का पालन करवाने को कोई शौक नही है।
मैं किसी हिन्दू की तरह अगले जन्म में किसी राजा के यहां पैदा होकर राज पाठ करने का बिल्कुल भी इछुक नही हूँ। मैं किसी मुसलमान की भी तरह मौत के बाद जन्नत और हूरो के मिलने का बिल्कुल भी शौक नही रखता हूँ। न तो मेरा विश्वास स्वर्ग या नरक में है या न ही मेरा प्रयास किसी राज पाठ में है। मुझे किसी को भी खुश करने या उसे सब कुछ सिद्ध करने की कोई जरूरत नही लगती। मैं खुद ही इस समाज का व्यतक्तित्व तौर पर बहिस्कार करता हूं।
मैं हर उस आस्था का , हर उस समाज का सम्मान करता हूँ जो हर तरह के सवाल जवाब के लिए खुले रहे। मुझे ये भलीभांति पता है समाज को इस तरह आईना दिखाने के बाद मुझे असामाजिक ठहराया जा सकता है। अपनी कमजोरियों और नाकामियो को मेरे सवालो के पीछे छुपा कर खुद को सर्वश्रेष्ठ और बलवान घोषित किया जा सकता है। लेकिन ये बात मैं बहुत अच्छे से जानता हूँ और मानता भी हूँ कि मेरे विचार और मेरे तर्क वितर्क को किसी के भी स्वीकृति या किसी के हामी की कोई जरूरत नही है।
मैं जानता हूँ कि मेरे तर्क इतने मजबूत है कि उसे झुठलाना समाज के बस की बात नही हो सकती। मेरी दृढ़इच्छा इतनी मजबूत है कि उसे ईश्वर के प्रकोप का डर दिखा कर तोड़ा नही जा सकता। और जब झुठलाना या तोड़ना मुमकिन नही हो पायेगा तो मुझे घमंडी, धर्मविरोधी बोलकर मेरी निन्दा भी किया जा सकती है। लेकिन ये सच है कि मैं घमंड की वजह से ईश्वर में अविश्वाशी नही बन रहा हूँ। बल्कि मैं नास्तिक इसलिए बन रहा हूँ क्योंकि इस समाज या उसकी आस्था के पास मुझे ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखने का एक भी तर्क नही था।
मैं सिर्फ तर्क के आधार पर चीज़ों को स्वीकारने या उनको अपनाने की कोसिस करता हूँ। मैं समाज द्वारा असामाजिक घोषित करने और या ईश्वर के ठेकेदारों द्वारा अधर्मी घोषित करने पर कोई भी तर्क नही देना चाहता। मैं एक यथार्थवादी इंसान हूँ । मैं आने सामने आने वाली हर चुनौतियों पर , हर व्यवहार और सिर्फ और सर्फ तर्कशील होकर ही जीत पाना चाहता हूँ। मैं हर बार कामयाब नही हो सकता । लेकिन ये मनुष्य का कर्तव्य है कि उसे कोसिस हर हाल में करनी चाहिए। क्योंकि सफलता तो सिर्फ हालात , संयोग और मेहनत पर ही निर्भर करती है।
आज के विकासशील माहौल में हर उस व्यक्ति को जो विकसित होने की श्रुंखला में आगे बढ़ रहा है , उसे अपनी हर पुरानी आस्था, हर पुराने सुद्धान्तों में दोष ढूंढे। हर विकाशशील समाज और व्यक्ति को एक एक करके समाज की हर मान्यताओ को और उसे मानने के लिए कहने वालों को सवालो के कठघरे में खड़ा करके सवाल करना चाहिए। मान्यताओ और सिद्धांतों की हर बारीक से बारीक बातो का जांच कर इसे तर्कों की कसौटी की कसना चाहिए। तर्क वितर्क से ही समाज के नए बीज का निर्माण किया जा सकता है। उसके उलट पुरानी मान्यताओ के प्रति अड़ियल रवैया, या कठोर अति विश्वास व्यक्ति की सोच समझ की शक्ति को खा जाता है, और उसे सुधार विरोधी बना देता है। ऐसे में मेरा इस समाज और उसके सामाजिक लोगो की धारणाओं को चुनौती देना और उसके बाद उस चुनौती पर खरा न उतरने पर उसे छोड़कर नया सामाजिक संरचना करना ही एकमात्र सही एवं अनुकूलित फैसला है।
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