देश के गृहमंत्री जब सरेआम बोलते है कि "हमने किसानों के कर्ज माफ नहीं किये , हमने सिर्फ बिजनेसमैन लोगो के कर्ज माफ किया है " तो फिर किसानों के कर्जमाफी पर न कुछ बोलने को रह जाता है न कुछ सुनने को रह जाता है। हालांकि ये सच है कि किसानों की कर्जमाफी उनकी दुर्दशा में कोई खास सुधार नही कर सकती, और न ही ये देश की अर्थव्यवस्था के लिए सही है। लेकिन किसानों को की जगह बड़े बड़े घरानों को कर्ज देना और फिर एनपीए के नाम पर कर्ज माफी करना देश की अर्थव्यवस्था में कौन सा चार चांद लगा देगा , ये जवाब हर कोई जानना चाहता है ??? समस्या है तो उन लोगो से जो अपने दोस्तों को ढेर सारा कर्ज दिलवा कर विदेश भगवा देते है।

हाल ही में खबर सबके सामने आई, जिसमे हमारी भारत सरकार और इनकी बैंको ने कुछ कॉर्पोरेट विशेष महोदयो को इतना लोन दे रखा है कि वो लोन की राशि कई देशों के अर्थव्यवस्था से भी बड़ी है। ये महोदय देश के पांच टॉप कॉर्पोरेट घराने है। ऐसी क्या मेहरबानी किया है अडानी, अम्बानी जी ने जो सरकार और बैंको ने उनपे इतनी बड़ी कृपा कर रखी है। इस कंपनियों को अनकूत लोन और उसके रिकवरी का कोई हिसाब नही, और जब लोन लेने वाला कोई प्यारा हो तो पैसा एनपीए बना दो। बस सरकार की यही  मुद्रा नीति और उद्योगनीति रही है।
देश में कार्पोरेट घरानों पर सरकारी के बैंकों का 5 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है जिसमे खास तौर पर अदाणी समूह का पर ‘‘अकल्पनीय कृपा’’ की गई है और उसके कर्ज की रकम 72,000 करोड़ रूपये है.अब सरकार ये बताये  कि क्या उसे इसकी जानकारी है या नहीं. अगर उसे इसकी जानकारी है तो वह क्या कर रही है. एक कंपनी पर इतना कर्ज बकाया है जितना देश में कुल किसानों पर बकाया है.
देश में कारपोरेट घरानों पर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का पांच लाख करोड़ रूपये का कर्ज है जिनमें से 1.4 लाख करोड़ रुपये का कर्ज 5 कंपनियों पर है। 5 कंपनियों में लैंको, जीवीके, सुजलॉन एनर्जी, हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी और अदाणी ग्रुप एंड अदाणी पावर शामिल हैं। अदाणी समूह कहलाने वाली कंपनी पर करीब 72,000 करोड़ रुपये का अल्पकालिक और दीर्घकालिक कर्ज है जो कि देश में सभी किसानों के कुल कर्ज के बराबर है। किसानों पर 72,000 करोड़ रूपये का फसल कर्ज बकाया है जिसका उन्हें भुगतान करना है ।मुझे नहीं पता कि सरकार का इस कारोबारी घराने से क्या संबंध है।
मैं यह भी नहीं जानता कि क्या वह एक दूसरे को जानते हैं लेकिन प्रधानमंत्री के प्रत्येक विदेशी दौरे में इस समूह के स्वामी गौतम अदाणी उनके साथ नजर आते हैं, चाहे वह चीन दौरा हो, या अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोप या जापान का दौरा हो। गुजरात में उच्च न्यायालय की फटकार के बावजूद उसके सेज को मंजूरी दी गई। यह राज्य सरकार पर छोड़ा गया था। तत्कालीन यूपीए सरकार ने इसे नामंजूर कर दिया था और जब यह सरकार सत्ता में आई तो उसने इसे मंजूरी दे दी। सवाल यह नहीं है कि कंपनी इस राशि को अदा कर पाएगी या नहीं। पिछले 2-3 साल में कंपनी का मुनाफा 85 फीसदी बढ़ा है लेकिन आर्थिक विश्लेषकों का कहना है कि उत्तरोत्तर वित्तीय वर्ष में कंपनी के कर्ज पर भुगतान किए जाने वाले ब्याज में नाटकीय तरीके से कमी आई है. और बचे खुचे कर्जदार एनपीए की लिस्ट में आ गए है। जी हा ये एनपीए।
इन्वेस्टमेंट , चंदा, कर्जा, दोस्ती , फ़र्ज़ , जुगाड़ सबका परफेक्ट उदाहरण है रे अपना एनपीए। ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर , सबके लिए मददगार है रे अपना एनपीए। दोस्तो कप विदेश भगाने के बाद बट्टा खाता तैयार रहता है दोस्तो की चोरी चकारी की रिकवरी करने के लिए। रिकवरी इस लिए नही की नुकसान हुई खजाने को भरा जाए, रिकवरी इसलिए कि फिर से ऊपर वाली कहानी दोहराई जा सके।
और जब जो चोरी पकड़े जाने का खतरा हो वो हल्ला मचा दो की उसी जगह खूब मुनाफा हुआ है, और धीरे से फ़ाइल पास करवा लो। कुछ ऐसा ही हुआ अभी कुछ दिनों पहले एक भक्त को बड़ा खुश होकर जाते देखा, नॉर्मली भक्त ऐसे तब खुश होते है जब उन्हें वो अहमदाबाद वाली चाय सूंघने को मिल जाती है ।खैर मैने भी उस भक्त से कारण पूछा तो उसने बताया कि मोदी सरकार ने चार सालों में नौ लाख करोड़ एनपीए हुई रकम में से चार लाख करोड़ रुपये की वसूली कर ली है।बड़ी बड़ी बात है ना, चार लाख करोड़ की वापसी ? अबे भक्तो तुम्हारे दादा परदादा ने भी सुना होगा कभी चार लाख करोड़ ?
खैर भक्त समुदाय ने इस खबर को हाथो हाथ लिया था, साथ ही साथ भक्तो के पापाओं यानी भाजपा नेताओं ने इस सम्बंध में ट्वीट किए थे।  लेकिन यह सम्भव ही नही है क्योंकि जिस आधार पर वह खबर लिखी गयी हैं वह पूर्ण रूप से भ्रामक ओर तथ्यों के विपरीत है।
कुछ दिन पहले ही पूरी तरह से इस झूठ की पोल खुली है।  इस चार लाख करोड़ की वापसी को लेकर रिजर्व बैंक ने भी अपने आंकड़े जारी कर दिए है।
घर ऐसे झूठी बातें बोलना और मूर्खतापूर्ण तथ्यों का हवाला देना तो इन लोगों की पुरानी आदत रही है । यह वही लोग हैं जो  बतख से ऑक्सीजन निकाल देते हैं।  या  मोर के आंसू से  बच्चा मोर पैदा कर देते हैं ।  ऐसे लोगों को इस बात की खास ट्रेनिंग मिली रहती है । इन्हें सिर्फ  मूर्खता और झूठी बातें ही फैलानी है  । इन्होंने महाभारत काल में इंटरनेट फैला दिया।  इन्होंने हनुमान चालीसा गाकर बंदरों को भगा दिया । इन्होंने नारद जी को पत्रकार बना दिया ।इन्होंने  पकोड़े को रोजगार बना दिया । इन्होंने  चंबल से निकलने वाली मीथेन गैस  को कुकिंग गैस गैस में बदल दिया। इन्होंने  भारत में 600 करोड़ वोटर बना डाले । इन्होंने अटल जी द्वारा किए गए  कार्यों को दूसरा ही नाम दे डाला  ।
नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपने कार्यकाल में बड़े औद्योगिक घरानों के 5.50 लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा का क़र्ज़ माफ़ कर दिया। औद्योगिक घरानों के प्रति यह दरियादिली उस सरकार ने दिखाई है, जो पेट्रोल-डीज़ल, रसोई गैस और किरासन तेल जैसी ज़रूरी और आम लोगों के इस्तेमाल की चीजों पर सब्सिडी में ज़बरदस्त कटौती यह कह कर की कि सरकार के पास पैसे नहीं हैं।कारपोरेट घरानों का क़र्ज़ माफ़ करने का यह पहला वाक़या नहीं है। इसके पहले की सरकारों ने भी यह काम किया है। लेकिन ग़रीबों की हितैषी होने का दावा करने वाली सरकार ने सबसे ज़्यादा क़र्ज़ माफ़ उद्योगपतियों का ही किया है। अंग्रेज़ी अख़बार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के पूछे एक सवाल के जवाब में रिज़र्व बैंक ने कहा कि पिछले दस साल में कुल 7 लाख करोड़ रुपये के क़र्ज़ माफ़ कर दिए गए।
सरकार ने अप्रैल 2014 के बाद से अब तक 5,55,603 करोड़ रुपये के क़र्ज़ माफ़ कर दिए गए। यानी, बीते दस साल में हुई क़र्ज़माफ़ी का तक़रीबन 80 प्रतिशत क़र्ज़ हिस्सा मोदी सरकार ने किया। कॉरपोरेट जगत को यह फ़ायदा तब पहुँचाया गया, जब ग़रीबों को पहले से मिल रही सब्सिडी में ज़बरदस्त कटौती की गई।
दरअसल होता यह है कि बैंकों को जब दिए हुए क़र्ज़ पर ब्याज़ मिलना बंद हो जाता है तो वे उसे ‘नन परफ़ॉर्मिग असेट’ क़रार देते हैं। लेकिन उसे खाते में दिखाना तो होता है। इससे उनका बैलंस शीट ख़राब हो जाता है। इससे बचने के लिए वे एक सीमा के बाद क़र्ज को ‘राइट ऑफ़’ कर देते हैं यानी माफ़ कर देते हैं। दरअसल वह क़र्ज तो बना ही रहता है, लेकिन वह बैलंस शीट में नहीं दिखाया जाता है। उसके बाद बैंक उस क़र्ज़ की उगाही को लेकर उदासीन हो जाते हैं। उस कर्ज के 20 प्रतिशत से अधिक की वसूली नहीं हो पाती है। लेकिन इसके पीछे राजनीतिक कारण भी होते हैं, ख़ास कर सरकारी बैंकों के मामलों में। कई बार सरकार बैंकों को संकेत देती है और दबाव भी बनाती है कि क़र्ज़ माफ़ कर दिए जाएँ।
देश के सरकारी बैंकों ने वित्तीय वर्ष 2016-17 में 1,08,374 करोड़ रुपये का क़र्ज़ माफ़ कर दिया तो वित्तीय वर्ष 2017-18 के दौरान उन्होंने 161,328 करोड़ रुपए का क़र्ज़ छोड़ दिया। इसके अगले साल यानी 2018-19 के पहले छह महीने में ही 82,799 करोड़ रुपये के क़र्ज़ माफ़ कर दिए गए।ये पैसे किसके माफ़ किए गए हैं, किन उद्योगपतियों को सबसे ज़्यादा फ़ायदा मिला है, यह साफ़ नहीं है। बैंकों के खातों में इसका पूरा ब्योरा होगा और थोड़ी सी पड़ताल से यह मालूम पड़ जाएगा कि किसने पैसे नहीं दिए। पर अब तक इस पर स्थिति साफ़ नहीं है।
याद रहे कि बैंकों से पैसे लेकर रफ़ूचक्कर हो जाने का मामला विवादों में रहा है। पहले शराब उद्योग के बेताज़ बादशाह समझे जाने वाले और ‘किंग ऑफ़ गुड टाइम्स’ कहे जाने वाले विजय माल्या 10 हज़ार करोड़ रुपये से अधिक लेकर विदेश भाग गए और लंदन में जा बसे। उसके बाद मेहुल चोक्सी और हीरा व्यापार से जुड़े नीरव मोदी भी अरबों रुपये का क़र्ज़ लेकर बग़ैर चुकाए ही विदेश भाग गए। मेहुल चोक्सी ने कैरीबियाई द्वीप एंटीगा एंड बारबडोस की नागरिकता ले ली है। नीरव मोदी को लंदन में रहने और काम करने का वीज़ा मिला है और वह वहीं हैं।
यह महज़ संयोग नही है कि ये तीनों लोग नरेंद्र मोदी के ही शासनकाल में भागे हैं। इनमें से चोक्सी और नीरव तो मोदी के नज़दीक समझे जाते थे। नरेंद्र मोदी ने मेहुल चोक्सी की सार्वजनिक तारीफ़ कई बार की थी। नीरव मोदी वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम की बैठक में भाग लेने डावोस गए भारतीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल थे। इस प्रतिनिधिमंडल की अगुआई ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी कर रहे थे।इस पूरी क़वायद का आर्थिक पक्ष तो है ही, इसके राजनीतिक मायने भी हैं। अडानी-अंबानी के साथ रिश्तों को लेकर सुर्खियों में रह चुके नरेंद्र मोदी चोक्सी-नीरव नोदी के प्रति नरमी दिखाने के लिए भी जाने जाते हैं। और यही नरमी बैंकिंग व्यवस्था और कॉर्पोरेट पर भारी पड़ रही है।
भारत में फिलहाल सबकुछ ‘सेल’ पर है! एयरपोर्ट, सड़क, बंदरगाह, स्टील प्लांट, सीमेंट कारखाने, रिफायनरी, मॉल, कॉरपोरेट पार्क, लैंड बैंक, कोयला खान, तेल ब्लॉक, एक्सप्रेस हाईवे, वायु तरंगें, फार्मूला वन टीम, होटल, प्राइवेट जेट से लेकर कॉरपोरेट मुख्यालयों की बिल्डिंग सभी की बिक्री लगी है या लगेगी। यही नहीं कंपनियां पूरी की पूरी बिकने को तैयार हैं। मतलब सरकार के विनिवेश कार्यक्रम में पता नहीं कुछ बिके या नहीं मगर भारत के प्राइवेट क्षेत्र के बड़े कॉरपोरेट घराने बहुत कुछ बेचने को तैयार हैं।रिजर्व बैंक के हाल के पत्र के अनुसार, स़िर्फ 10 बड़ी कंपनियां ही सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की 28,000 करोड़ रुपये की डिफाल्टर हैं।
स्वाभाविक तौर पर अगर कई औद्योगिक घरानों ने जनता के पैसों यानी बैंकों पर भरोसा करके जमा की गई धनराशि को कर्ज लेकर नहीं चुकाया है, तो उनकी जांच होनी चाहिए। लेकिन उन्होंने कर्ज क्यों नहीं चुकाया, यह समझने के लिए पहले देखना होगा कि वे करोड़पति कैसे बने? यह एक तथ्य है कि नब्बे के दशक में जब भारत में उदारीकरण की शुरुआत हुई, तो भारतीय कंपनियों में रातोंरात बड़ा बनने की प्रतिस्पर्धा शुरू हुई। ये रातोंरात खड़े होने वाले औद्योगिक घराने बाज़ार की पूंजी या संस्थागत अथवा रणनीतिक निवेशकों के पैसों के बजाय बैंकों से उधार लिए गए पैसों से खड़े हो गए। चाहे जो भी निहितार्थ हों, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि उधार की पूंजी के इस बीजारोपण की प्रक्रिया से शायद भारत में इतिहास के सबसे ज़्यादा करोड़पति हो गए।
हालांकि, इन उधार के करोड़पतियों के भी अपने ईमानदार कारण थे। शेयर बाज़ार से पूंजी उठाने में बहुत लंबी प्रक्रिया एवं बाधाएं पहले से हैं, अब भी हैं। आम निवेशकों को बचाने की मानसिकता के कारण नियामकों द्वारा बहुत लंबी प्रक्रिया अपनाई जाती है और सरकार में लालफीताशाही बहुत ज़्यादा है।इसलिए उद्योगपतियों ने अपने इन स्रोतों से पैसा लेने के बजाय पूंजी की ज़रूरतें पूरी करने के लिए अपेक्षाकृत सरल तरीके यानी उधार की पूंजी का प्रयोग किया। लेकिन, वर्तमान एनपीए संकट के लिए स़िर्फ संस्थाओं एवं सरकारी सिस्टम को सारा दोष देना सही नहीं होगा, बल्कि भारतीय उद्योगपतियों को भी इसकी ज़िम्मेदारी लेनी होगी।
भारतीय उद्योगपतियों के बारे में एक अप्रिय बात यह है कि वे कभी भी अपने शेयर (इक्विटी) वितरित करना नहीं चाहते। स्वामित्व का विचार एक बीमारी की तरह जीवन भर उनसे जुड़ा रहता है। जब आप छोटे कारोबारी होते हैं, तो यह विचार अच्छा है, लेकिन जब आपका कारोबार विकसित हो जाता है, तो यह एक कमजोरी हो जाती है। भारतीय उद्योगपतियों की दूसरी समस्या यह है कि उन्हें सोना और अचल संपत्तियां जमा करने का शौक है।
सामूहिक संपत्तियों में निवेश करने के पीछे औद्योगिक घरानों का तर्क यह रहता है कि उनका इस्तेमाल भविष्य में ज़्यादा से ज़्यादा कर्ज लेने में किया जा सकता है. ज़मीन, सोना और शेयर की लालसा का त्रिकोण एक ऐसा दलदल बन गया है, जहां भारतीय उद्योगपति ब्याज के पैसों से अपना उद्योग चला रहे हैं। इसी वजह से हम ब्याज/ कर्ज न चुका पाने वाली कंपनियां, टूटे हुए व्यापार चक्र और कंपनियों की क़ीमती संपदा बैंकों द्वारा औने-पौने दामों पर बेचने के विज्ञापन आएदिन समाचार-पत्रों में देखते हैं। यह देखकर याद आता है कि जब उधार की रकम से हनीमून मनाया जाता है, तो एक दिन यही होता है।
अब रास्ता यही है कि इन्हें बेचना होगा। इसलिए कि इन पर इतना कर्ज चढ़ा हुआ है कि जैसे भी हो इन्हें अपनी संपदा, पूंजी याकि ऐसेट बेच कर अपने को विजय माल्या बनने से बचाना है। रिजर्व बैंक ने सरकारी बैंकों पर डंडा किया है कि वे अपनी बैलेंस शीट ठीक करें। जिन्हें कर्ज दिया उनसे या तो पैसा वसूलें या उनकी संपदा बेच पैसा वसूलें। दरअसल भारत के दस आला औद्योगिक घरानों ने बैंकों से कोई पांच लाख करोड़ रुपए का कर्ज लिया हुआ है। इसमें से इस साल कम से कम दो लाख करोड़ रु की बैंकों को वसूली करनी है। इसलिए इतनी कीमत का माल इन दस घरानों को बेचना ही होगा।
इसमें नंबर एक पर अनिल अंबानी का रिलायंस ग्रुप है। इस ग्रुप पर बैंकों का एक लाख 21 हजार करोड़ रु. का कर्ज है। इस ग्रुप की आयकर लायक 9,848 करोड़ की आय के आगे सालाना ब्याज की देनदारी ही कोई 8 हजार 299 करोड़ रु. बनती है। सो ग्रुप ने कोई 44 हजार करोड़ रु. की संपदा बिक्री के लिए निकाली हुई है। इसमें 22 हजार करोड़ रु. के संचार टॉवर सहित रिलायंस कम्युनिकेशन की और भी संपदा बेची जानी है। ऐसे ही रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर पर कर्ज 25 हजार करोड़ रु. का है। इसने मुंबई के आसपास में बिजली जनरेशन, वितरण में 49 प्रतिशत शेयर बेचने की बात कही है। रिलांयस कैपिटल पर भी 24 हजार करोड़ रु. का कर्ज है। जाहिर है अनिल अंबानी पर बैंकों के कर्ज की स्थिति पर गौर करें तो विजय माल्या का मामला हाथी के आगे चींटी माफिक दिखलाई देगा।
अंबानी की तरह एस्सार ग्रुप पर भी कोई 1 लाख 1 हजार 461 करोड़ रु. का कर्ज है। ग्रुप कर्ज के निपटारे के लिए एस्सार ऑयल के 25 हजार करोड़ रु. के शेयर बेच रहा है तो स्टील और बंदरगाह, पॉवर के धंधे में भी हिस्सेदारी बेच कर कर्ज के निपटारे की कोशिश है। देश का तीसरा बड़ा फंसा कर्जदार गौतम अदानी का अदानी ग्रुप है। कोई 96 हजार करोड़ रु. का कर्ज है। ग्रुप नए कर्ज लेने या कमाई से चुकाने में असमर्थ है तभी एबॉट पाइंट कोयला खान, बंदरगाह, रेल प्रोजेक्ट सभी में हिस्सेदारी बेचने का दबाव बना हुआ है। आला दस में से नंबर चार पर जेपी ग्रुप है। 75 हजार करोड़ रु. का कर्ज बताया जाता है।
सीमेंट यूनिट, थर्मल पॉवर प्लांट, हाईड्रोपॉवर प्लांट, एक्सप्रेसवे प्रोजेक्ट से लेकर भू बैंक सभी को सही कीमत पर बेचने की कोशिश हो रही है लेकिन कायदे के खरीदार नहीं मिल रहे हैं। पिछले साल मनोज गौड़ का जेपी ग्रुप 350 मिलियन डॉलर का कर्ज तय तारीख पर नहीं चुका पाया था। न ही ब्याज दे सकने की क्षमता सुधरी है। जीएम राव के जीएमआर ग्रुप ने सबसे पहले हालात समझते हुए अपनी कंपनियों की हिस्सेदारी बेच कर कर्ज चुकाने का सिलसिला शुरू किया। सड़क, पॉवर, कोयला खान की संपदा में 11 हजार करोड़ रु. की हिस्सेदारी बेच कर्ज चुकाया। बावजूद इसके मार्च 2015 में ग्रुप पर 47 हजार 738 करोड़ रु. की कर्जदारी थी। एयरपोर्ट की हिस्सेदारी को भी ग्रुप बेच रहा है। मधुसूदन राव के लांको ग्रुप पर कोई 47 हजार करोड़ रु. का कर्ज है और वह लगातार बढ़ता जा रहा है।
पॉवर प्रोजेक्ट बेच कर 25 हजार करोड़ रु. जुटाने की कोशिश हुई। वेणूगोपाल धूत के विडियोकॉन ग्रुप ने मोजांबिक गैस फील्ड बेच कर कोई 15 हजार करोड़ रु का कर्ज चुकाया। बावजूद इसके कर्ज बढ़ 39 हजार करोड़ रु. का है। जीवे कृष्णा रेड्डी के जीवीके ग्रुप पर कोई 34 हजार करोड़ रु. का कर्ज है। एयरपोर्ट, रेल, पोर्ट के सभी धंधों में हिस्सेदारी बेच कर्ज को हल्का बनाने की कोशिश में ग्रुप है। यों देश का नंबर एक कर्जदार ग्रुप शायद मुकेश अंबानी का रिलायंस ग्रुप है। रपट अनुसार कुल कर्ज 1 लाख 87 हजार करोड़ रु. का है। मगर इस ग्रुप की खूबी है कि मूल कर्ज हो या ब्याज उसकी अदायगी ठीक समय पर करता है।
टाटा ग्रुप में कोई सौ से ज्यादा कंपनियां हैं। इसे सर्वाधिक नुकसान ब्रिटेन के स्टील धंधे में हुआ। उसे अब ग्रुप बेच रहा है। कंपनी पर सितंबर 2015 में कोई 10.7 बिलियन डालर का कर्ज था। ऐसे ही नवीन जिंदल के ग्रुप पर कोई 46 हजार करोड़ रु. का कर्ज है। यह पॉवर प्लांट बेच रहा है तो डीएलएफ कंपनी किराए के धंधे की हिस्सेदारी बेच रही है। भारत की सबसे बड़ी चीनी उत्पादक कंपनी रेणुका शुगर भी संपत्ति बेचने को मजबूर है तो सहारा ग्रुप में तो सब कुछ बिकने को तैयार है।
इन्ही बिकने को तैयार कुछ डिफ़ॉल्टर कंपनियों के नाम भी रिज़र्व बैंक के द्वारा सामने आए, जिनमे एशियन कलर कोटेड इस्पात, कॉस्टेक्स टेक्नोलॉजीज, कोस्टल प्रोजेक्ट्स, ईस्ट कोस्ट एनर्जी, आईवीआरसीएल, आर्किड फार्मा, एसईएल मैन्यूफैक्चरिंग, उत्तम गाल्वा मेटेलिक, उत्तम गाल्वा स्टील, वीजा स्टील, एस्सार प्रोजेक्ट्स, जय बालाजी इंडस्ट्रीज, मोनेट पावर, नागार्जुन ऑयल रिफाइनरी, रुचि सोया इंडस्ट्रीज और विंड वल्र्ड इंडिया शामिल हैं। दूसरी सूची में शामिल 28 डिफॉल्टर्स में से 12 भारतीय स्टेट बैंक के ग्राहक हैं। इनमें वीडियोकॉन इंडस्ट्रीज सहित करीब दर्जन भर डिफॉल्टर कंपनियों पर एसबीआई दिवालिया कानून के तहत कार्यवाही करने जा रहा है। एसबीआई वीडियोकॉन इंडस्ट्रीज, वीजा स्टील, मोनेट पावर, उत्तम स्टील, एस्सार प्रोजेक्ट्स, वीडियोकॉन टेलीकॉम, जायसवाल नेको और जय बालाजी को मंगलवार से एनसीएसटी को रेफर करने की शुरुआत करेगा।
रिजर्व बैंक की दूसरी लिस्ट में जिन कंपनियों के नाम हैं, उनसे बैंकों को 2 लाख करोड़ रुपए वसूलने हैं। कंपनियों को एनसीएलटी में रेफर करने का मतलब है कि इनके लिए बैंकों को प्रोविजनिंग बढ़ानी पड़ेगी, जिसका उनके मुनाफे पर बुरा असर पड़ेगा। आरबीआई ने एनसीएलटी में भेजे जाने वाले मामलों के लिए बैंकों को 50 प्रतिशत प्रोविजनिंग करने का निर्देश दिया है। वहीं, अगर इन कंपनियों का लिक्विडेशन होता है तो उसके लिए बैंकों को 100 प्रतिशत प्रोविजनिंग करनी पड़ेगी। आरबीआई ने बैंकों को प्रोविजनिंग के लिए मार्च 2018 तक का समय दिया है। इनमें सबसे अधिक लोन वीडियोकॉन इंडस्ट्रीज पर है। वह 47,000 करोड़ रुपये के लोन पर डिफॉल्ट कर चुकी है।
आर्थिक मंदी के कारण फँसे कर्ज़ (जो उद्योगों ने पूँजी विस्तार के लिये लिया था) और जानबूझकर कर्ज़ न चुकाने वालों के बीच कोई अंतर न करते हुए सभी को एक ही लाठी से हाँकते हुए बैंकों ने बैड लोन की श्रेणी में डाल दिया है, जबकि इनको अलग-अलग रखने से स्थिति कुछ बेहतर हो सकती थी।बड़े कर्ज़दारों पर सरकार (बैंकों) को उसी प्रकार सख्ती करनी चाहिये जिस प्रकार वह छोटे दुकानदारों और किसानों के साथ करते हैं और कर्ज़ अदायगी न होने पर उन्हें जेल में डाल दिया जाता है।बड़ा कर्ज़ लेने वालों को छोटा कर्ज़ लेने वालों की तुलना में बहुत कम ब्याज देना पड़ता है, फिर भी वे कर्ज़ नहीं चुका पाते। इस विसंगति को भी दूर करना ज़रूरी है।
जब एनपीए को लेकर बैंक और सरकार सबकुछ जानते हैं तो उन्हें उनके खिलाफ कार्रवाई करने में क्या कठिनाई है? क्यों उनके नाम सार्वजनिक नहीं किये जाते? इस दिशा में सरकार को गंभीरता से प्रयास करने होंगे।उद्योगों की तरह यदि बैंकों में मंदी या दिवालियेपन की स्थिति आ गई तो यह देश की अर्थव्यवस्था के लिये बेहद घातक हो सकता है। इसलिये इस समस्या को हल करने के लिये तुरंत प्रभावी कार्रवाई करने की आवश्यकता है।बैंकों के विलय के दौरान भी सावधानी बरतने की ज़रुरत है।
घाटे में चल रहे बैंकों का बड़े बैंक में विलय करने से बड़े बैंक की हालत भी ख़राब हो सकती है। इसलिये घाटे वाले बैंकों में पूँजी डालने की प्रक्रिया में बदलाव करना पड़ सकता है।देश में अवसंरचना विकास और विदेशों में निर्यात बढ़ाकर भी आने वाले समय में इस समस्या को कम किया जा सकता है, अन्यथा हर 10 वर्ष बाद ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
कॉरपोरेट्स से उम्मीद की जाती है कि वे आर्थिक सुधार की बुनियाद तैयार करेंगे, लेकिन वे आज स्वयं बैंक कर्ज में डूब गए हैं या डूबने वाले हैं। बहरहाल, वर्तमान माहौल में ऐसी कंपनियों की बैलेंस शीट में सुधार लाना आसान नहीं है, क्योंकि कम मुद्रास्फीति वाले माहौल में ऐसा करना संभव नहीं है। दूसरी तरफ, कॉरपोरेट्स की आय में तेजी नहीं आ रही है, जबकि बैंक-कर्ज की ब्याज-दर लागत लगातार ऊंचे स्तर पर बनी हुई है।
अगर मौजूदा माहौल में सुधार नहीं होता है तो उद्योग जगत के लिए पूंजी जुटाना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि बैंक, मौजूदा समय में उद्योग जगत को कर्ज देने से परहेज कर रहे हैं। ऐसी स्थिति निजी निवेश में इजाफा करने की सरकार की कोशिशों के लिए भी एक बड़ी चुनौती है।विकास के लिए निजी क्षेत्र में निवेश करना आवश्यक है। वरना सारा एनपीए 15 लाख करोड़ से ऊपर जाता है दिखेगा। जो कर्जे आज 73000 करोड़ के रूप में दिख रहे है वो 200000 करोड़ के रूप में दिखाई देने लगेंगे।
लेकिन इन सब से बेखबर बैंक बढ़ते एनपीए से परेशान होकर उद्योग जगत को कर्ज नहीं देना चाहते हैं, जबकि अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और विकास दर में इजाफा करने के लिए आवश्यक है कि बैंक, कंपनियों को कर्ज वितरण में कोताही न बरतें, क्योंकि उद्योग जगत को कर्ज मिलने से ही विनिर्माण क्षेत्र में तेजी, रोजगार में बढ़ोतरी, विविध उत्पादों की बिक्री में तेजी आदि संभव हो सकते हैं।
इधर, बैंकों का एनपीए और ‘पुनर्गठित’ कर्ज छह लाख करोड़ रुपए से अधिक हो चुका है। बासेल तृतीय के विविध मानकों को पूरा करने के लिए भी बैंकों को लाखों करोड़ रुपए की जरूरत है।लब्बोलुआब यह कि कंपनियों को कर्ज देने में या उनके कर्ज को पुनर्गठित करने में जिस तरह से बैंक लचीला रुख अपना रहे हैं, उससे नुकसान अंतत: आम आदमी और देश को हो रहा है।
ऐसे मामलों में राजनीतिक दलों के हस्तक्षेप के मामले भी देखे जाते हैं, जिससे बैंक गलत कंपनियों को कर्ज देने के लिए मजबूर होते हैं। बुरे कर्ज के कुछ मामलों में आवेदन की जांच-पड़ताल में कोताही एक प्रमुख वजह रहती है। यानी आवेदन से संबंधित परियोजना की व्यावहारिकता और लाभप्रद है या नहीं, इसका ठीक से आकलन किए बगैर कर्ज जारी कर दिया जाता है। कुछ मामलों में भ्रष्टाचार भी एक कारण रहता होगा।
पर भ्रष्टाचार के साथ-साथ कर्ज-वसूली में बैंकों तथा सरकार का ढीला-ढाला रवैया भी कॉरपोरेट कर्ज के एनपीए में तब्दील होने का अहम कारण है।एनपीए वसूली नहीं होने या उसमें हो रही देरी के लिए भी ऐसी वजहें जिम्मेवार हैं। उदाहरण के तौर पर माल्या को कर्ज देने में लचीला रुख अपनाया गया और अब उसके एनपीए होने के बाद उसकी वसूली में भी लापरवाही बरती जा रही है, जिसके लिए निश्चित रूप से हमारी मौजूदा प्रणाली दोषी है। राजकोषीय घाटे को पाटने के लिए हर तरह की सबसिडी की सीमा बांधी जा रही है।
लेकिन अर्थव्यवस्था की छाती पर एनपीए के रूप में जो सबसे बड़ा बोझ है उससे मुक्ति के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं? एनपीए न सिर्फ बैंकों के लिए, बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह हैं। इसके चलते बैंकों के पास कारोबारी पूंजी कम हो जाती है, जिससे कई बहुत अच्छे प्रस्तावों के लिए भी कर्ज देने को उनके पास पर्याप्त रकम नहीं होती।यही नहीं, डूबी रकम की भरपाई के लिए वे नए कर्जों पर ब्याज दर बढ़ा सकते हैं, जिसका खमियाजा ग्राहकों को भुगतना पड़ेगा।
अगर एक छोटा व्यापारी या किसान लोन लेने जाएगा तो उसे पचास तरह के पेपर मांगे जाएंगे। बीस जगहों पर उससे साइन लिया जाएगा ।और लोन दोगुनी गारंटी ली जाएगी। फिर हर महीने लोन के ब्याज ले ले कर उनका खून चूस लिया जाएगा। 
एक लाख , दो लाख या पांच लाख तक कर्जा लेने वालों के लिए यह स्कीम है।  अगर यह लोग कर्जा वापस नही कर पाते हैं तो कई बार एजेंट भेजकर इनकी कुटाई भी कर दी जाती है। और अंत में इन्हें इतना परेशान और इतना टॉर्चर कर दिया जाता है कि यह या तो कुएं में कूदकर आत्महत्या कर लेते हैं , या तो ट्रेन के नीचे आकर आत्महत्या कर लेते हैं। 
वहीं इसके उलट पचास लाख से ऊपर की रकम या यूं कहें कि जो करोड़ों की रकम में लोन लेते हैं उनको  सुविधाएं बढ़ती जाती हैं।  बिल्कुल प्लेन के फ्लेक्सी किराए की तरह । मतलब जितना ज्यादा लोन उतनी सारी सुविधा।  यकीन मानिए अगर कोई दो या चार लाख करोड़ का लोन ले ले तो प्रधानमंत्री उसे खुद बकायदा जहाज में बैठाकर विदेश छोड़कर आएंगे। 
और यही नहीं विदेश में उनके रहने का खाने-पीने का सारा इंतजाम करके आएंगे।  क्योंकि प्रधानमंत्री को आपके जीने या मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। प्रधानमंत्री को फर्क पड़ता है तो बस अपना खजाना भरने से। ताकि वो जहां जहां चुनाव हारे,  वहां वहां सौ, सौ करोड़ रुपए का खुल्ला आफर देकर विधायक खरीद लिया जाए। या  राज्यसभा के सांसद बनवा लिया जाए।अधिकारी से लेकर के न्याय व्यवस्था तक सब को खरीदकर अपना गुलाम बना सके।  और सात सौ करोड़ का मुख्यालय बना सके। साथ कि चन्देरूपी इन्वेस्टमेंट के माध्यम से हर शहर में अपने दस दस करोड़ के मुख्यालय बना सके।

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