लोग कबीर के आगे शीश झुकाते है वो लोग कबीर जैसा बन सकते है ? कबीर की प्रतिमा को देख कर हाथ जोड़कर प्रणाम करने वाले नेता कबीर की तरह साफ साफ और खरा बोलने की चेस्टा कर सकते है ? नही।। क्योकि कबीर धर्म व्यवस्था के खिलाफ थे। और आज के कुछ मुख्य नेताओ की सफलता और कुर्सी पाने का मुख्य रास्ता ही धार्मिक उन्माद से होकर जाता है । कोई कबीर जैसा हो सकता है क्या जो चरम मुग़लकाल मे भी इस्लाम को जम कर धोया। साथ ही काशी में खड़े होकर हिन्दू धर्म को भी धोया। कबीर ही थे जिन्होंने ये साबित किया कि पाखंडियो के लिए धर्म सिर्फ एक "प्रोडक्ट" है। जिसकी मार्केटिंग मंदिर और मस्जिद से की जाती है
कबीर के बारे में बचपन से सब लोगो ने पढ़ा, सब ने सुना। लेकिन कितने लोगों ने कबीर से सीखा ? या हममे से कितनो ने कबीर को सीखने की कोसिस किया ? किसी ने नही। क्योकि कबीर से सीखने या कबीर को सीखने का मतलब है धर्म के आडम्बर भरे चोले को उतार कर फेकना। खुली आँखों से धार्मिक कर्मकांडो पर सवाल जवाब करना। विधियों को तर्क वितर्क की नज़र से तुलना करना। लाभ हानि की परवाह किये बिना समाज की नंगी सच्चाई को सबके सामने रखना , और उस पर अंत तक उसी जिद के साथ अड़े रहना, सही ईश्वर भक्ति सही राश्ता देना और आडम्बर से लोगो को बचाने का नाम है कबीर।
क्या कबीर नास्तिक थे , जो वो धर्मो को नही मानते थे ? नही वो नास्तिक नही थे वो तो बस ईश्वर की सही भक्ति और आंखे खोल कर ईश्वर विश्वास करने की नसीहत देते रहे। धर्मो के पाखंडो और इनके नाम पर किये जा रहे अत्यचार से कबीर लोगो को सचेत करते रहे। कबीर उस समय के कट्टरता भरे माहौल में खड़े होकर के हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों को धिक्कार तौर पर करते थे इन दोनों धर्मों के कुछ और कुप्रथा ओं के खिलाफ उन्होंने ऐसे ऐसे घातक शब्द और वाक्य कहे की इन धर्मों के नाम पर ढोंग करने वालों की दुकानें बंद हो गई कबीर को कई बार जान से मारने की कोशिश की गई धर्म के ठेकेदारों को कबीर फूटी आंख नहीं सुहाती थी सुहाय भी कैसे कबीर ने उनके सारे दुकानों पर ताले मार दिए उनका सच लोगों के सामने लाया लोगों को समझाया कि यह धर्म और भगवान के नाम पर सिर्फ कुछ लोग पूरी पूरी जनता को अपना गुलाम बना कर रखना चाहते हैं और उस समय वह बनाकर रखे भी थे जाति व्यवस्था में पूछने का उदाहरण इसी धर्म के कुप्रथा ओं का एक बुरा परिणाम रहा।
क्योकि कबीर खुद को हिन्दू और मुसलमान दोनों मानते थे। वो कहते थे कि हिन्दू माँ ने जन्म दिया और मुसलमान माँ ने पाला । तो मैंने दोनो धर्मो की कमियां देखी है। यह जो धर्म का पूरा संघ व्यवस्था बना हुआ है इसमें सिर्फ 10% ही सही है बाकी का 90% सिर्फ ढोंग पाखंड कर्मकांड और अपने को हमेशा श्रेष्ठ रखने का लोभ छुपा हुआ था। कुछ कथित लोग धर्म के पाखंडो का इस्तेमाल सिर्फ अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए अपनी गलतियों को छुपाने के लिए और अपनी नाकारी पीढियो को सर्वश्रेठ साबित करने के लिए करते थे। ये कथित सर्वश्रेष्ठ लोग कथित नीच लोगो के ऊपर अत्याचार और जुल्म में बहुत आगे थे। कबीर का ये सब देखकर सारे धर्मो से या मुख्य रूप से दो धर्मो से विश्वास उठ गया। उन्होंने वनारस में खड़े होकर दोनो धर्मो के पाखंडियो की धर्म की दुकान बंद करवा दिया । और उनके प्रोडक्ट "धर्म" के खामियों को सबके सामने लाया।
कबीर स्वयं उच्च कुल के न थे। किंतु उन्हें अपने सदाचार एव भगवत प्रेम पर स्वाभिमान था। इसलिए वे उच्च कुलोदभव पंडितों से तर्क करते समय यह बता देतेे थे कि तुम्हें मेरी बात पर विश्वास न हो, तो नारद, व्यास का प्रमाण देखो, शुकदेव से जाकर पूछ लो। उन्होंने कहा "पंडितों, तुम दुबर्द्ध से ग्रस्त हो गए हो जो राम नहीं कहते। वेद-पुराण पढ़कर और उन पर आचरण न करके तुम चंदन का भार ढोने वाले गधे बन गए हो। वेद पढ़ने का फल तो यह होना चाहिए कि व्यकित सब में राम को देखें, जन्म-मरण के बंधन से छूट जाए, सफल-काम हो जाए। तुम यज्ञ में पशुओं की हिंसा करते हो और उसे धर्म कहते हो। यदि यह धर्म है तो अधर्म कहाँ है? तुम अपने को मुनिजन समझ बैठे हो। अगर तुम मुनिजन हो तो 'कसाई किसे कहा जाये।
वेद पुरान पढ़त अस पांडे, खर चंदन जैसे भारा।
राम नाम तत समझत नाहीं, अंत पडै़ मुखि छारा।।
वेद पढया का यहु फल पांडे, सब घट देखें रामा।
जनम मरन थैं तो तूं छूटै सुफल हहि सब कामा।।
जीव बधत अरु धरम कहत हौ, अधरम कहौ है भाराई।
आपन तौ मुनि जन बैठे का सनि कहौ कसाई।।
नारद कहै व्यास यौं भाषैं, सुखदेव पूछौ जाई।
राम नाम तत समझत नाहीं, अंत पडै़ मुखि छारा।।
वेद पढया का यहु फल पांडे, सब घट देखें रामा।
जनम मरन थैं तो तूं छूटै सुफल हहि सब कामा।।
जीव बधत अरु धरम कहत हौ, अधरम कहौ है भाराई।
आपन तौ मुनि जन बैठे का सनि कहौ कसाई।।
नारद कहै व्यास यौं भाषैं, सुखदेव पूछौ जाई।
कबीर का मत था कि मनुष्य मात्रा समान हैं। उच्च कुलाभिमानी ब्राह्राणों को अकाटय तर्क देते हुए उन्होंने कहा "जिस तरह और लोग इस जगत में आते हैं उसी तरह तुम भी आते हो। अन्यों से तुम श्रेष्ठ होते तो किसी अन्य विधि से उत्पन्न होते हैं।कबीर ने हिंदू धर्म अधिकारियों की तरह इस्लामी धर्म अधिकारियों मुल्लाओ , काजियों को भी आलोच्य बनाया।उन्होंने मुसलमानो की कई प्रथाओ और उनके व्यवस्था पर सवाल उठाए। उन्हाेंने मुल्ला से कहा "तुम तो खुदा को हाजिर-नाजिर कहते हो, फिर कंकड़-पत्थर की मसिजद बनाकर, उस पर चढ़कर बांग क्यों देते हो, क्या खुदा बहरा हो गया है ?
कबीर ने उनको को भी अपनी साधना में दीक्षित होने का निमंत्राण दिया "मुल्ला तू, ऐसी नमाज पढ़। एक मस्जिद है जिसमें दस दरवाजे हैं। मन को मक्का बना, देह को काबा। यह जो जीव बोल रहा है उसी को गुरु इमाम बना। तमोगुण को मार दे। भ्रम को दस्तरखान बना। पाँचों इनिद्रयों का भक्षण करके संतोष धारण कर"। कबीर मानव-मात्रा को एक मानते थे। वे जात-पाँत, कुल-वंश, रक्त, नस्ल आधार पर मनुष्य और मनुष्य में अंतर करने के विरुद्ध थे। उनका विचार था कि सबसे पहले अल्लाह ने जो प्रकाश उत्पन्न किया, उसी से समस्त जगत निर्मित हुआ। फिर यहाँ कौन भला है, कौन मंद है। सभी कुदरत के बन्दे हैं। स्रष्टा सृषिट में एवं सृषिट स्रष्टा में व्याप्त है। हर इंसान में भगवान में है और हर भगवान इंसान है।
कबीर ने जब धर्मपंथों में व्याप्त पाखंड, बाह्याचार और अंधविश्वासों की ओर समाज का ध्यान दिलाना चाहा, तो उन्होंने केवल किसी एक धर्मपंथ पर कटाक्ष नहीं किया था। उन्होंने सामान्य रूप से सभी धर्मपंथों पर करुणा भरे व्यंग्य की भाषा में अपनी बातें कही हैं।जितना उन्होंने मुल्लों के समझाया, उतना ही पंडे-पुरोहितों को भी समझाया। उन्होंने तो अपनी तरह के साधुओं तक को समझाया। लेकिन उनके द्वारा किए गए कटाक्ष में द्वेष का कोई स्थान नहीं है। उनमें केवल करुणा है, प्रेम है, लोकमंगल के उद्देश्य से किया गया आह्वान है। उन्होंने हिन्दुओ की मूर्ति का भी विरोध करते हुए कहा कि अगर पत्थर की मूर्ति पूजने से भगवान मिलते है तो मैं पूरा का पूरा पहाड़ पूजने को तैयार हूं।
कबीर दास ने कहा जो संत होता है, महात्मा होता है, वह किसी भी व्यक्तिविशेष या समुदायविशेष प्रति क्रोध, आवेश, आक्रोश, प्रतिक्रिया, घृणा इत्यादि से ग्रसित नहीं होता। उसके हृदय में सबके प्रति समान रूप से प्रेम, सहानुभूति और करुणा होती है। यदि वह किसी को फटकारता भी है, तो वह कबीर के ही शब्दों में ‘अन्तर हाथ सहार दै, बाहर मारै चोट’ जैसी फटकार होती है।
कबीर जैसे संतों के लिए क्या राजा लोदी, क्या बाभन बुद्धिनाथ, क्या बनिया बाबूलाल और क्या बुधिया रंक। उन्होंने अपने साथ-साथ सबको एक ही पलड़े में तौला- ‘आए हैं सो जाएंगे राजा रंक फकीर, एक सिंहासन चढ़ चले एक बंधे जंजीर’ या ‘एक दिन ऐसा होयगा, सबसे पड़ै बिछोह। राजा राना राव रंक सावध क्यों नहीं होय।’
और कबीर जैसे संत सांप्रदायिक विद्वेष के नहीं, बल्कि सांप्रदायिक सौहार्द्र के प्रतीक हैं। उन्होंने तो यह कहा,
"भाई रे दुइ जगदीश कहां ते आया, कहु कौने बौराया।
अल्लाह राम करीमा केशव, हरि-हजरत नाम धराया।।
वोही महादेव वोही मोहम्मद, ब्रह्मा आदम कहिये।
को हिन्दू को तुरुक कहावे, एक जिमी पर रहिये।"
"भाई रे दुइ जगदीश कहां ते आया, कहु कौने बौराया।
अल्लाह राम करीमा केशव, हरि-हजरत नाम धराया।।
वोही महादेव वोही मोहम्मद, ब्रह्मा आदम कहिये।
को हिन्दू को तुरुक कहावे, एक जिमी पर रहिये।"
संतों का वचन हमें ऊपर-ऊपर से सामाजिक या राजनीतिक निहितार्थों वाला दिखाई देता हो भले, लेकिन अपने शुद्ध रूप में, अपने मौलिक रूप में, वह नितांत आध्यात्मिक होता है। वह तो हम जैसे सीमित साधना वाले लोग हैं, जो वहां तक पहुंच नहीं पाते।एक जाति, जाति-समूह या धर्मपंथ को दूसरी जाति, जाति-समूहों या पंथ के खिलाफ एक खड़ा करके राजनीतिक और सामाजिक व्याख्या अपेक्षाकृत आसान होती है। हम सबके अपने व्यक्तिगत अनुभव और अपनी वृत्तियों की वजह से वह हमें सुहाता भी है। इसलिए हम कबीर को भी जब-तब सामुदायिक संघर्ष के नज़रिए से देखने लगते हैं। जबकि आध्यात्मिक साधना से निकला स्वर अपने आप में हद दर्जे का क्रांतिकाराना स्वर होता अवश्य है, लेकिन उसका लक्ष्य कोई व्यक्तिविशेष या समुदायविशेष या पदविशेष नहीं होता, बल्कि मनुष्य की मौलिक वृत्तियां होती हैं।
पिछले कुछ दशकों में कबीर को एक राजनीतिक क्रांतिकारी साबित करनेवाली एक धारा सक्रिय रही है। आज दिनानुदिन प्रतिक्रियावादी होते जा रहे अस्मिता वादी उभारों ने भी कबीर के राजनीतिक अपहरण की कोशिश शुरू कर दी है। एक तरफ जहां उन्हें ‘जुलाहा’ जाति का साबित कर ओबीसी आंदोलन उन्हें हड़पने की तैयारी में है, वहीं दलित विमर्श भी उन्हें आध्यात्मिक कम और राजनीतिक ज्यादा साबित करने पर तुला हुआ है। किसी जमाने में बिना-सोचे समझे हमारे वामपंथी मित्रों ने भी कबीर को अपना ‘कॉमरेड’ बनाने की कोशिश की थी। लेकिन आध्यात्मिकता के प्रति दुराग्रह के चलते ऐसे लोगों ने अब कबीर से कन्नी काट ली है।
आज भारत का बहुसंख्यक संप्रदाय आत्महीनता का शिकार हुआ लगता है।ठीक इसी तरह यहां के अल्पसंख्यक समुदाय भी विक्टिमहुड या पीड़ितपने का शिकार दिखाई देते हैं। इन दोनों को ही इन दोनों प्रकार के आग्रहों से बाहर निकलना होगा।तभी कोई वास्तविक संवाद भी संभव होगा।अभी क्या है कि यदि हमने गौरक्षा के नाम पर चल रही विवेकहीन हिंसा पर विनम्रतापूर्वक भी कुछ कहा, तो इसे ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ का नाम दे दिया जाएगा।ठीक इसी तरह यदि हमने भूले से भी भारतीय परंपरा का जिक्र कर दिया, तो इसे ‘हिंदू पुष्टिकरण’ का नाम दे दिया जाएगा।ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि हमने उदारता, तटस्थता और अनेकांतता के नजरिए से विचारों और घटनाओं को देखना बंद कर दिया है।
इसलिए जिन संतों ने खुद को तपाकर अपनी आध्यात्मिक अनुभूति से सत्य का साक्षात्कार किया।जिनका हृदय प्राणिमात्र के लिए करुणा से भर गया। उनकी वाणी को भी गाली के रूप में इस्तेमाल करने की चेष्टा करने लगते हैं। इससे अपनी आध्यात्मिक और नैतिक क्षति तो होती ही है, देश और समाज का भी लाभ होने के बजाय नुकसान ही होता है। इसलिए संतों और उनकी वाणियों के प्रति अवसरवादी किस्म का प्रेम पालने के बजाय हमें सबके प्रति अनंत और शर्तरहित प्रेम की ओर बढ़ना पड़ेगा।कबीर जैसे संतों के कंधे पर रखकर अपनी द्वेषपूर्ण भड़ास वाली बंदूक किसी एक संप्रदाय के खिलाफ चलाने का प्रयास वैसा ही होगा, जिसे अंग्रेजी में ‘डेविल क्वोटिंग बाइबल’ (शैतान खुद ही बाइबिल बांचने लग जाए) वाली स्थिति कहते हैं. हमें अपने भीतर के उस शैतान को पहचानकर उसे निकाल बाहर करना होगा।संत और उनकी वाणी इसी में तो हमारी मदद करते हैं।
हमसे भले तो हमारे पूर्वज मालूम होते हैं, जिन्होंने संतों की कटु वाणियों को भी शिरोधार्य किया, उनसे मार्गदर्शन लिया। कबीर जैसे करुणावान लेकिन कटु सत्य बोलनेवाले महात्माओं को तो आज हम एक पल के लिए भी बरदाश्त न कर पाते। शायद जीने भी नहीं देते। जबकि किंवदंतियों में ऐसा कहा जाता है कि कबीर के शव को अपनाने के लिए हिंदू और मुसलमान दोनों ही लड़ पड़े थे। 1655 की आईने-ए-अकबरी वाली पांडुलिपि में कबीर की स्वाभाविक मृत्यु और शव को दफनाने और जलाने को लेकर ‘ब्राह्मणों ’ और मुसलमानों के बीच विवाद का जिक्र है। लिखा है- ‘चूं खानए उस्तुख्वानी वा परदाख्त बरहमन बसोख्तन रू आर्बूद वा मुसलमान बगोरिस्तान बुर्दन।’
कबीरदास भक्त कवि थे। मध्यकाल में भकित-आंदोलन 'यधपि मूलत: धार्मिक आंदोलन था, किंतु उसका प्रभाव सभी सांस्कृतिक क्षेत्रो पर पड़ा है। प्रत्येक युग की अपनी कोर्इ प्रमुख दार्शनिक पृष्ठभूमि होती है। यह दार्शनिक पृष्ठभूमि उस युग की सभी सांस्कृतिक चेष्टाओं को किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्रभावित करती है। इसीलिए वह भक्त-कवि, भक्त, साधक, समाज-सुधारक, कवि और लोकनेता सभी कुछ एक साथ थे। कबीर को ठीक ही समाज-सुधारक भी इसी दृषिट से कहा जाता है। कबीर ने जो समाज देखा था, उसमें नाना प्रकार की विषमतायें थीं। वर्णाश्रम-व्यवस्था का विपरीत रूप सामने था। व्यकित की उच्चता और नीचता का मापदण्ड उसका जन्म कुल ही रह गया था। ब्राह्राण चाहे जितना दुराचारी हो सम्मान्य था, शुद्र चाहे जितना सदाचारी हो नीच समझा जाता था।
कबीर ने इस आधार को अस्वीकृत किया। उन्होंने व्यकित की उच्चता का आधार सदाचार एवं साधना को माना, न कि उसके जन्म-कुल को। कबीर स्वयं उच्च कुल के न थे। किंतु उन्हें अपने सदाचार एव भगवत प्रेम पर स्वाभिमान था। इसलिए वे उच्च कुलोदभव पंडितों से तर्क करते समय यह बता देतेे थे कि तुम्हें मेरी बात पर विश्वास न हो, तो नारद, व्यास का प्रमाण देखो, शुकदेव से जाकर पूछ लो। उन्होंने कहा " पंडितों, तुम दुर्बिद्धि से ग्रस्त हो गए हो जो राम नहीं कहते। वेद-पुराण पढ़कर और उन पर आचरण न करके तुम चंदन का भार ढोने वाले गधे बन गए हो। वेद पढ़ने का फल तो यह होना चाहिए कि व्यकित सब में राम को देखें, जन्म-मरण के बंधन से छूट जाए, सफल-काम हो जाए। तुम यज्ञ में पशुओं की हिंसा करते हो और उसे धर्म कहते हो। यदि यह धर्म है तो अधर्म कहाँ है? तुम अपने को मुनिजन समझ बैठे हो। अगर तुम मुनिजन हो तो 'कसार्इ किसे कहा जाए। कबीरदास आडम्बर, मिथ्याचार एवं कर्मकाण्ड के विरोधी थे। जिस समय कबीर का जन्म हुआ, उस समय इस देश में नाना प्रकार की साधनाएँं प्रचलित थीं।
कबीर के समय में मुस्लिम सल्तनत कायम हो चुकी थी। इस्लाम ने शूद्र-अतिशूद्रों के लिए बंद दरवाजे खोल दिए थे। उनके मदरसों में दलितों के लिए कोई पाबंदी नहीं थी। दूसरी ओर सूफियों के मुहब्बत और बराबरी के व्यवहार से प्रभावित होकर पीड़ित जातियां इस्लाम में दीक्षित हो रही थीं। किन्तु, दूसरी ओर इस्लाम से हिन्दूधर्म को बचाने के लिए ब्राह्मणों की प्रतिक्रांति की भी तीव्र धारा चल रही थी। इस्लाम की प्रतिक्रांति में, 11वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने जो अद्वैतवाद का दर्शन खड़ा किया था, उसने चौदहवीं और पंद्रहवी सदी में एक विशाल वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय का नया अवतार धारण कर लिया था। इसके संस्थापक रामानुज थे। इन्हीं के एक शिष्य रामानंद, दलित जातियों को वैष्णव बनाने के लिए दक्षिण से आकर उत्तर भारत में, काशी में बस गए थे। उन्होंने इस्लाम में दलित जातियों के धर्मान्तरण को रोकने के लिए दलित जातियों, विशेष रूप से चांडालों को रामराम का मंत्र देकर वैष्णव बनाया।
उनकी यह प्रक्रिया भी अजीब थी। वह इतने फासले से कि शरीर स्पर्श न हो सके, कान में रामराम के दो अक्षर बोल देते थे, और वे तत्काल वैष्णव हो जाते थे। हालाँकि, स्वामी रामानंद यह जरूर कहते थे कि ‘जातपात पूछे नहीं कोई/हरि को भजे सो हरि का होई’। पर हकीकत में वैष्णव-सम्प्रदाय वर्णव्यवस्था में विश्वास करता था। इसलिए उनकी कथनी और करनी में अंतर था। इसलिए दलित वैष्णवों के सामाजिक स्तर में कोई परिवर्तन नहीं आया था। उन्हें मन्दिर के गर्भ गृह में भी जाने का अधिकार नहीं था। वे केवल दूर से ही अपने ‘ठाकुर’ के दर्शन कर सकते थे। वैष्णव सम्प्रदाय में दलित वैष्णवों की क्या स्थिति थी, यह जानने के लिए ‘दो सौ चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ को पढ़ना चाहिए, जिसमें उन्हें ब्राह्मणों की जूठन खाने से मुक्ति मिलने की बात कही गयी है।
उस समय नाथ-सिद्ध साधना का प्रचलन रहा होगा। इसके प्रसिद्ध गुरु गोरखनाथ ने जिस हठयोग-साधना का प्रचार किया था, वह प्रारम्भ में शरीर की निर्मलता और संयम पर बहुत बल देती थी। किंतु कालांतर में इसमें भी विकार आ गये थे। सहज साधना के नाम पर कर्इ प्रकार के जुगुपिसत आचारों का समावेश इन पदों में हो गया था। उस समय 'सहज शब्द बहुत प्रचलित था जिसका आशय था इनिद्रयों को वश में करके चित्त को परम सत्ता में लीन कर देना। किंतु इस 'सहज का जो रूप सहज-सुख और महासुख की साधना में सामने आया उसका कोर्इ सम्बंध इनिद्रय-दमन से नहीं था। कबीर ने सहज का जो रूप सामने रखा, वह इस प्रकार था-
सहज सहज सब कोइ कहै, सहज न चीन्है कोइ
जिन्ह सहजैं विषया तजी, सहज कहीजै सोेइ
सहज सहज सब कोर्इ कहै, सहज न चीन्है कोइ
जिन्ह सहजैं हरि जो मिलैं सहज कहीजै सोइ।
जिन्ह सहजैं विषया तजी, सहज कहीजै सोेइ
सहज सहज सब कोर्इ कहै, सहज न चीन्है कोइ
जिन्ह सहजैं हरि जो मिलैं सहज कहीजै सोइ।
कबीर के समय में सत्ता के दो केन्द्र थे—एक मुल्ला और दूसरा पंडित। संयोग से सत्ता के यही दो केन्द्र डा. आंबेडकर के समय में भी थे। मुल्ला और पंडित दोनों ही अपने-अपने समुदाय के निर्विवाद धर्मगुरु थे, और उनकी मारी हलाल थी। उनके विरुद्ध बोलने या उनसे सवाल करने का किसी जनता में साहस नहीं था। कबीर देख रहे थे कि पंडित और मुल्ला किस तरह धर्म के नाम पर वर्णव्यवस्था, अस्पृश्यता, हज, पूजा, नमाज, तीर्थ, परलोक और आवागमन का पाखंड लोगों में भर रहे थे, और इसकी आड़ में सामंत, साहूकार और व्यापारी उनका आर्थिक शोषण करके उनका जीवन नर्क बनाये हुए थे।
कबीर उनकी कथनी और करनी में अंतर देख रहे थे।
कार्लमार्क्स का मत है कि ‘सत्ताधारी वर्ग के विचार हर युग में सत्ताधारी विचार हुआ करते हैं। यानी, जो वर्ग समाज की सत्ताधारी भौतिक शक्ति होता है, वही उसकी सत्ताधारी बौद्धिक शक्ति भी होता है।’ कबीर साफ़-साफ़ देख रहे थे कि मुल्ला-पंडित समाज की सत्ताधारी भौतिक शक्ति के साथ-साथ जनता की बौद्धिक शक्ति भी थे। इसलिए कबीर ने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया था कि जनता के बौद्धिक नेतृत्त्व के लिए एक तीसरी बौद्धिक धारा को प्रवाहित करना होगा। यह तीसरी धारा आँखों देखी थी। कबीर ने दोनों से संवाद किया, पर उनका संवाद न मुल्ला को पसंद आया था और न पंडित को। इसलिए, कबीर ने ‘न-हिन्दू-न-मुसलमान’ के सिद्धांत को अपनाया और मुल्ला-पंडित को नकारते हुए जनता का क्रान्तिकारी नेतृत्व किया।
कबीर ने वेद-पुराण और कुरआन के विरुद्ध समाज को देखने और धर्म के मूल्यांकन का अपना अलग ही सौंदर्यशास्त्र विकसित किया। उन्होंने कहा—‘अलाह राम का गम नहीं, तहं घर किया कबीर। इस पद में राम वैष्णवों के आराध्य देव राजा राम हैं, जो विष्णु के अवतार हैं। इसलिए कबीर ने उनको नहीं माना। उनकी निगाह में अलाह और राम दोनों सगुण हैं, जबकि उन्होंने निर्गुण का आविष्कार किया था, जो वर्णव्यवस्था और परलोक के विरुद्ध एक क्रान्तिकारी खोज थी। उन्होंने कहा था – ‘हमरा झगरा रहा न कोऊ, पंडित मुल्ला छोड़े दोऊ’।
कबीर को सब महान और सबसे बड़ा संत बताते है। सभी उनके आगे शीश भी झुकाते है। लोग कबीर के आगे शीश झुकाते है वो लोग कबीर जैसा बन सकते है ? या क्या उन लोगो मे कबीर जैसा सच्चा और नंगा बोलने की हिम्मत आ सकती है। कबीर की प्रतिमा को देख कर हाथ जोड़कर प्रणाम करने वाले नेता कबीर की तरह साफ साफ और खरा बोलने की चेस्टा कर सकते है ? नही क्योकि कबीर धर्म व्यवस्था के खिलाफ थे। और आज के कुछ मुख्य नेताओ की सफलता और कुर्सी पाने का मुख्य रास्ता ही धार्मिक उन्माद से होकर जाता है ।कोई कबीर जैसा हो सकता है क्या जो चरम मुग़ल काल मे भी इस्लाम को जम कर धोया। साथ ही काशी में खड़े होकर हिन्दू धर्म को भी धोया। कबीर ही थे जिन्होंने ये साबित किया कि पाखंडियो के लिए धर्म सिर्फ एक "प्रोडक्ट" है। जिसकी मार्केटिंग मंदिर और मस्जिद से की जाती है ।
कबीर ने सपने में भी यह नही सोचा होगा कि मध्यकाल के बाद आधुनिक युग में राम राज्य में उनकी मजार को शतरंज की बिसात बनाकर अपनी चालें चलेंगे। एक दशक ऐसा भी आएगा जब वही पाखण्ड से भरा जीवन बसर करने वाले उन्हें अपने सिर पर बैठाएंगे। उनकी आरती उतारेंगे और उनकी मजार पर चादर चढ़ाएंगे। समय का विरोधाभास तो हम इसे कहेंगे ही साथ ही हिंदुत्व की राजनीति का घिनोना खेल भी। जिसकी शुरुआत बीते 28 जून 2018 को मगहर यानि स्वयं उनके ही नगर, सन्त कबीर नगर से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने शुरू की। सन्तों से लेकर बुद्धिजीवियों तक को इससे बढ़कर और चौंकाने वाली दुर्घटना क्या हो सकती है? कबीर ताउम्र ऐसे ढोंगियों को लताड़ते रहे और वही पाखंडियों की जमात उन्हें अपनी गिरफ्त में लेने को आतुर हो गई। योगी के साथ देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी व्यवहारिक रूप से अपनी सहमति भी दे दी।
यही नहीं बल्कि इतिहास की गलत तरह से व्याख्या भी कर दी। उन्होंने कहा कि "इसी मगहर की धरती पर बाबा गोरखनाथ, गुरू नानकदेव और कबीर तीनों एक साथ मिलकर अध्यात्मिक चर्चा करते थे।" कितना हास्यास्पद है यह, प्रधानमंत्री यह भूल गये या फिर उन्होंने जानबुझकर इस सच को नहीं बताया कि तीनों महान संत पुरूषों का जीवन काल अलग-अलग था।भारत जैसे देश के प्रधानमंत्री के द्वारा कबीर पर दिए इस बयान से देश के ही नही विश्व के लेखकों,चिंतकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी दुखद आश्चर्य है। उनके भीतर सवाल दर सवाल उभरते हैं, ऐसा कैसे हो गया ? अब एक बार फिर से पूरे परिदृश्य पर निगाह डालते हैं। मगहर में कबीर की मजार और फ़क़ीर की टोपी,भगवाधारी मुख्यमंत्री, सच को झूठ से ढंकने की धार्मिक साजिश, विचार से मंत्र। मन्त्र से श्लोक। और फिर श्लोक से तथाकथित राम राज्य की वापसी का षडयंत्र।
कबीर जी की 621वीं जयंती के अवसर पर भाजपा के इतिहास का और इससे बढ़कर झूठ क्या होगा कि जो कलबूर्गी, पनसारे, गौरी लंकेश तथा दमोलकर जैसे शख्सियतों के विचारों को नही स्वीकार कर सकते, और उनकी हत्या कर सकते है,वही आज बेशर्म बनकर कबीर को स्वीकार करने की बात करते हैं। भारत मे सदियों से धर्म के नाम पर यही नौटंकी होती रही है। आज के उन राजनीतिक नौटंकीबाजों के बारे में बहुजन समाज के बुद्धिजीवियों को गम्भीरता से सोचना होगा। क्यों एक योगी मुख्यमंत्री बनता है, क्यों एक योगी के राज में हत्यारों और बलात्कारियों को प्रश्रय मिलता है, क्यो फिर से बहुजन समाज के लोगों को हाशिये पर लाकर पटक दिया जाता है, क्यों मन्दिरों, मठों और आश्रमों को सरकारी धन मुहैया कराया जाता है?
आज के दौर में जहां भाजपा के लोगों ने बहुत सारी विसंगतियां पैदा कर दी हैं और खासकर प्रधानमंत्री ने अपने पद की गरिमा का ख्याल नहीं रखते हुए इतिहास का मान मर्दन किया है, वह न केवल समाज में विद्वेष फैलाएगा बल्कि कबीर जो सभी मनुष्यों को एक समान मानते थे, उनके विचारों की ऐसी-तैसी भी करेगा। सत्ता की राजनीति में धर्म का उपयोग एक प्रभावकारी हथियार के रूप में किया जाता रहा है। दुखद यह है कि अब कबीर के नाम पर वह सब होने लगा है, जिसे भुलाने में सालों लग जाएंगे। कबीर ने तो सामाजिक न्याय की बात की थी। कबीर ने तो पंडित और मुल्ला को फटकारा था। कबीर ने तो साम्प्रदायिक तत्वों के खिलाफ वह सब लिखा था, जिसे लिने के लिए उन दिनों कोई सोच भी नही सकता था।
कबीर के अनुसरण का ढोंग करने वाले आज के नेताओं को अगर कबीर को थोड़ा भी फॉलो करने के लिए बोला जाए तो वह शायद भाग जाएं, या अपने असलियत पर आ जाएं । कबीर के प्रति श्रद्धा का ढोंग करने वाले नेता बताएं क्या वह कबीर के विचारों को खुलकर प्रकट कर सकते हैं ? क्या वह कबीर की राह पर चलने की कसम ले सकते है ? कबीर की मूर्तियों के सामने हाथ जोड़ने वाले नेता यह बता सकते हैं कि क्या वह कबीर के विचारों को और कबीर के कर्मकांड विरोधी बातों को लोगों के सामने अपने शब्दों में प्रस्तुत करेंगे ? कबीर ने जिस तरह मानव संरचना और सृष्टि संरचना को अध्यात्म की दृष्टि से सबके सामने पेश किया, क्या उस तरह के विचार को आज के नेता लोगों के सामने प्रस्तुत करने में सक्षम है ?
इन नेताओं की असलियत को सबके सामने लाने के लिए इन समाज के ढोंगी और पाखंडी ओं को धर्म के नाम पर फैलाए जा रहे उन्माद से रोकने के लिए कबीर को आना होगा। अब कबीर को आना होगा , क्योंकि धर्म के नाम पर जो जाति व्यवस्था फैलाकर ऊंच-नीच का पाखंड करके एकछत्र राज करने की जो साजिश है, उसे खत्म करने का समय है। कबीर के विचारों को अब और जोर शोर से आना होगा ,क्योंकि यह वक्त समानता का है। और यह वक़्त ढ़ोंग से परे आगे बढ़ने का है। कबीर को वापस आना होगा क्योकि वो दौर फिर से आ रहा है। जहाँ पर अपनी कमियों को छुपाने के लिए "जय श्रीराम" और " अल्ला हो अकबर" के नारे लगाए जा रहे है। जहां पर ऊंच नीच जाती के नाम पर लोगो को मारा जा रहा है और एक जाति एक वर्ग खुद को श्रेष्ठ माना बैठा है। इन कथित "ऊंच" लोगो को उनकी असली औकात दिखाने के लिए और सबको सामान लाने के लिए कबीर को आना होगा।
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