संघ और भाजपा , नेताजी सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल के नाम पर राजनीति इसलिए कर रहे हैं क्योंकि स्वतंत्रता संघर्ष की विरासत के नाम पर उनके पास कुछ नहीं है ? जब ज्यादा चर्चा होने लगती है, तो इतिहास के पन्नों से वीर कहे जाने वाले वीडी सावरकर के गिड़गिड़ाते हुए 22 माफीनामें निकलते है ? या श्यामा प्रसाद मुखर्जी के भारत छोड़ो आंदोलन को कुचल देने अंग्रेज सरकार को लिखा हुआ शपथ पत्र मिलता है। इतनी राजनीति इतनी सेल्फ़ ब्रांडिंग सिर्फ इसलिए कि भाजपा और संघ के लोग आजादी की लड़ाई में शामिल न होने की शर्म से बचने के लिए सरदार पटेल पर और नेता जी बोस पर दावा ठोंक रहे हैं? और मूर्ति तो लगाई गई सरदार पटेल की लेकिन मूर्ति का आगे ही मूर्ति से बड़ी ब्रांडिंग मोदी जी की की गई। तरह तरह पोज़ के साथ मोदी जी को पटेल जी से भी बड़ा ब्रैंड किया गया।
भारत में सरदार वल्लभ भाई पटेल को पीड़ित असहाय दिखा करके , और पंडित जवाहरलाल नेहरू का अत्याचारी दिखा करके बहुत लोगों के अपने वोट जुगाड़ करने की कोशिश की । 2014 से लेकर अब तक हमारे साहिब छाती पीट-पीटकर यही कहते नहीं थके कि, अगर पटेल प्रधानमंत्री होते तो यह कर देते,व अगर सरदार पटेल प्रधानमंत्री होते तो यह कर देते । उनकी बातों से तो यह लगता था कि अगर सरदार वल्लभभाई पटेल प्रधानमंत्री बनते तो अब तक तो शायद प्रधानमंत्री कार्यालय चांद पर होता । और मोदी जी मंगल ग्रह से चांद पर रोज डाउन करते ।
मोदी जी जब यह कहते हैं कि अगर सरदार पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री बने होते तो , आज यह हो गया होता । और आज वह हो गया होता । तब वह यह कहते हुए क्यों भूल जाते हैं, या मोदी जी जानबूझकर यह नहीं बताते हैं कि " अगर सरदार पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री बने होते तो आज न आरएसएस होती ना उसका कोई निशान होता । न भाजपा बनती , न मोदी जी प्रधानमंत्री पद पर पहुंचते।
मोदी जी को एक तरह से नेहरू जी का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि , सरदार पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री नहीं बने । वरना सरदार पटेल ने तो गृह मंत्री रहते हुए ही लाठी लेकर हाफ पेंट पहनने वालों को आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया, और उनको बैन कर दिया । इन हाफ पैंट वालों को पंडित जवाहरलाल नेहरू का शुक्रिया अदा करना चाहिए जिन्होंने उ बैन को हटाया, और 1962 की परेड में इन हाफ चड्डी वालों को शामिल किया। ताकि इनकी इमेज सुधर सके ।
और आज यही लोग और इसी आरएसएस के प्रचारक रहे हमारे प्रधानमंत्री जी इतिहास की उन दो महान व्यक्तियों को आमने सामने लाकर खड़ा कर दे रहे हैं । जो अपने समय में एक दूसरे के कट्टर समर्थक और परम मित्र रहे हैं । जो एक दूसरे के पूरक रहे है हमेंशा से। सरदार पटेल हमेशा नेहरू को अपने से बड़ा ही मानते थे, और इसीलिए उन्होंने नेहरू को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे बढ़ाया।
मोदी जी हमेशा एक बात कहते हैं कि पटेल जी को प्रधानमंत्री बनने नहीं दिया गया । मोदी जी को यह बात समझ में क्यों नहीं आती है कि वह लौहपुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल थे। जो अगर प्रधानमंत्री बनना चाहते तो उनको कोई रोक नहीं पाता। और वह स्वयं बन सकते थे । वह भाजपा के आधुनिक लौहपुरुष लालकृष्ण आडवाणी नहीं है , जो भे ही लाख बार प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति बनना चाहे लेकिन उसके ही चले उनको नहीं बनने दिए।
मोदी जी ने सरदार पटेल के बारे में यह कहकर कि "उनको प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया गया" उनकी छवि को बेहद कमजोर करने की कोशिश की है। सरदार पटेल अपने आप में पूर्ण समर्थन थे। वह जब चाहते, जिसको चाहते प्रधानमंत्री बनवा सकते थे । और उन्होंने यही किया भी। वह नेहरू को प्रधानमंत्री बनवाना चाहते थे। और उन्होंने नेहरू जी को प्रधानमंत्री बनाया भी । ऐसे में यह कहना बेहद गलत है कि सरदार पटेल के साथ गलत हुआ और उनको प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया गया।
यह कहना सरदार पटेल की शक्तियों कम आंकना होगा और उन्हें एक कमजोर व्यक्ति के रूप में दर्शाना होगा । जो चाहते हुए भी अपने पद को ना पा सका ।जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं था इसके विपरीत सरदार पटेल तन से और अपनी आत्मा से एक लौह पुरुष ही थे जिसने पूरे देश को एक धागे में पिरोया।
और आज जब मोदी जी सरदार पटेल कि ना हो चुकी उपलब्धियों को गिनाते हैं तो वह यह भूल जाते हैं कि उनके लिए और उनके जन्मस्रोत संगठन आरएसएस के लिए यह बहुत अच्छा हुआ , कि सरदार पटेल प्रधानमंत्री नहीं बने। वरना जो काम होने गृह मंत्री रहते हुए किया था उस से बढ़कर कह वह काम प्रधानमंत्रीरहते हुए करते । सरदार पटेल आर एस एस की पूरी सच्चाई से वाकिफ थे, और वह इसीलिए आर एस एस को बैन करने के पक्ष में थे।
देश के राष्ट्रपिता और आजादी के शीर्ष नायकों के सम्माननीय महात्मा गांधी की हत्या के बाद भी आरएसएस ने देश भर में जश्न मनाने का फैसला किया था । सरदार पटेल आरएसएस के नियत को भली-भांति जानते थे । और उन्होंने इसी वजह से संघ को प्रतिबंधित कर दिया । इसके साथ ही 4 फरवरी 1948 को एक सरकारी पत्राचार में उन्होंने स्पष्टीकरण दिया-
‘‘देश में सक्रिय नफ़रत और हिंसा की शक्तियों को, जो देश की आज़ादी को ख़तरे में डालने का काम कर रही हैं, जड़ से उखाड़ने के लिये भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ग़ैरक़ानूनी घोषित करने का फ़ैसला किया है। देश के कई हिस्सों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कई व्यक्ति हिंसा, आगजनी, लूटपाट, डकैती, हत्या आदि की घटनाओं में शामिल रहे हैं और उन्होंने अवैध हथियार तथा गोला-बारूद जमा कर रखा है।वे ऐसे पर्चे बांटते पकड़े गए हैं, जिनमें लोगों को आतंकी तरीक़े से बंदूक आदि जमा करने को कहा जा रहा है।संघ की गतिविधियों से प्रभावित और प्रायोजित होनेवाले हिंसक पंथ ने कई लोगों को अपना शिकार बनाया है।उन्होंने गांधी जी, जिनका जीवन हमारे लिए अमूल्य था, को अपना सबसे नया शिकार बनाया है। इन परिस्थितियों में सरकार इस ज़िम्मेदारी से बंध गई है कि वह हिंसा को फिर से इतने ज़हरीले रूप में प्रकट होने से रोके।इस दिशा में पहले क़दम के तौर पर सरकार ने संघ को एक ग़ैरक़ानूनी संगठन घोषित करने का फ़ैसला किया है।’'
अब जब प्रधानमंत्री, सरदार पटेल जी के नाम का नारा लगा लगा कर दुनिया हिला रहे हैं। और उनकी पार्टी के कथित देशभक्त लोग अखंड हिंदू राष्ट्र के लिए हथियार उठाने और मारपीट करने की घोषणा कर रहे हैं। तब उनको यह भी बताना जरूरी हो गया है कि सरदार पटेल की नजर में हिंदू मुसलमान और सारे धर्मों के लोग एक समान थे । और सरदार पटेल भी एक बड़े कांग्रेसी नेता थे। वे सभी तीव्र सामाजिक और आर्थिक रूपांतरण तथा समाज और राजनीति के जनवादीकरण के प्रति पूर्णत: समर्पित थे।
नेहरू के साथ-साथ सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद और सी राजगोपालाचारी भी जनवाद, नागरिक स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और स्वतंत्र आर्थिक विकास, साम्राज्यवाद विरोध, सामाजिक सुधार और गरीबी उन्मूलन की नीतियों के प्रति उतने ही समर्पित थे। नेहरू का इन नेताओं के साथ असली मतभेद समाजवाद और समाज के वर्गीय विश्लेषण को लेकर था।
इस अतीत को देखते हुए कहा जा सकता है कि पटेल जी के समर्थकों और पटेल जी के आलोचकों दोनों ने ही पटेल जी को गलत समझा। और जो तथ्य प्रस्तुत किया , एक तरफ जहां कुछ लोगों ने उनका इस्तेमाल नेहरू जी की नीतियों को गलत साबित करने के लिए किया। तो वहीं कुछ लोगों ने उन्हें बिल्कुल एक खलनायक की तरह चरम दक्षिणपंथी के रूप में दिखाया । हालांकि यह दोनों गलत है ।
जब सरदार पटेल ने संघ को आतंकवादी संगठन करार देते हुए उसे बंद कर दिया, तो ऐसे सरदार पटेल को संघ और भाजपा के लोग अपना नायक बनाकर क्या इस बात को बचा सकते हैं ? और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी यह बताने का कष्ट करें कि क्या वह सरदार पटेल को अपना नेता मानते हैं ? और यदि हां तो वह पटेल की धर्मनिरपेक्षता के प्रति सद्भावना के प्रति जो लगन थी उसको अपनाएं, और इसके लिए अलग हिंदू राष्ट्र की मांग करने वाले से फिरे विधायकों, सांसदों और मंत्रियों पर फौरन कार्रवाई करें । साथ ही अपने पार्टी में से जितने भी कथित कम्युनल चेहरे हैं उनको बाहर का रास्ता दिखाएं ।
जब पहली बार गुजरात में मोदी जी ने पटेल जी के नाम को बेचकर वोट मांगना शुरू किया तभी यह बात जानने योग्य थी कि क्या सचमुच सरदार की हालत वैसी ही थी जैसी यह बता रहे हैं ? क्या सचमुच सरदार पटेल की उपेक्षा हुई ? और उनका अपमान किया गया? उनके साथ अन्याय हुआ? यह पूरा विश्व जानता है । सरदार पटेल अपने पूरे जीवन भर कांग्रेसी रहे वह सिर्फ भारत की सरकार के पहले गृह मंत्री नहीं रहे बल्कि भारत को बनाने में सबसे बड़ा योगदान था। सरदार पटेल भारत के शिल्पी विश्वकर्मा बने । उन्ह पांच सौ रियासतों को मिलाकर भारत का निर्माण किया।
हम ये भी कह सकते है कि सरदार पटेल ने देश को उसका पहला प्रधानमंत्री भी दिया। क्योकि वह जानते थे कि इस पद के लिए उस वक़्त नेहरू से ज्यादा काबिल कोई नही था। और सरदार पटेल और नेहरू एक दूसरे के पूरक थे।
फिर ऐसी क्या वजह हो सकती है कि गैर कांग्रेसी नेता आज का सरदार पटेल को अपना नेता बताकर नेहरू पर वार करने से बाज नहीं आ रहे हैं ?क्या कारण है कि नेहरू, कांग्रेस, धर्मनिरपेक्षता, संसदीय लोकतंत्र, तिरंगा झंडा और संविधान के शासन का विरोध करने वाले लोग सरदार पटेल को अपना नेता कहना चाहते हैं?
क्या सिर्फ इसलिए की इतिहासकारों का एक धड़ा सरदार पटेल को कांग्रेस में मौजूद दक्षिणपंथी नेता बताता रहा? एक तरफ कट्टर हिंदूवादी तत्व गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का मंदिर बनवाने की बात करते हैं, दूसरी तरफ हिंदुत्व की राजनीति करने वाले लोग उन सरदार पटेल को अपना कहते घूम रहे हैं जिन्होंने गांधी की हत्या के बाद संघ परिवार पर प्रतिबंध लगाया था ?
क्या वास्तव में सरदार पटेल आरएसएस और राजनीतिक हिंदुत्व के नायक हैं? क्या आरएसएस की हिंदू धर्म के नाम पर विभाजन की राजनीति और हिंदूराष्ट्र के सपने से पटेल का कोई तालमेल है? संघ और भाजपा , नेताजी सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल के नाम पर राजनीति इसलिए कर रहे हैं क्योंकि स्वतंत्रता संघर्ष की विरासत के नाम पर उनके पास कुछ नहीं है ? जब ज्यादा चर्चा होने लगती है, तो इतिहास के पन्नों से वीर कहे जाने वाले वीडी सावरकर के गिड़गिड़ाते हुए 22 माफीनामें निकलते है ? या श्यामा प्रसाद मुखर्जी के भारत छोड़ो आंदोलन को कुचल देने अंग्रेज सरकार को लिखा हुआ शपथ पत्र मिलता है।
इतनी राजनीति इतनी सेल्फ़ ब्रांडिंग सिर्फ इसलिए कि भाजपा और संघ के लोग आजादी की लड़ाई में शामिल न होने की शर्म से बचने के लिए सरदार पटेल पर और नेता जी बोस पर दावा ठोंक रहे हैं?
जिस समय नेहरू सांप्रदायिकता से लड़ते हुए लिख रहे थे कि ‘यदि इसे खुलकर खेलने दिया गया, तो सांप्रदायिकता भारत को तोड़ डालेगी।’ उसी समय सरदार पटेल 1948 में कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में कहा कि ‘कांग्रेस और सरकार इस बात के लिए प्रतिबद्ध है कि भारत एक सच्चा धर्मनिरपेक्ष राज्य हो" ।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने यह बार-बार हर जगह दोहराया कि धर्मनिरपेक्ष राज्य के अधिकतम कोई राज्य से भी नहीं हो सकता ।
और सरदार पटेल ना सिर्फ नेहरू के साथ खड़े थे बल्कि इस विचार को बाद और आए भी जब नेहरू कह रहे थे " यदि कोई भी व्यक्ति धर्म के नाम पर किसी अन्य व्यक्ति पर प्रहार करने के लिए आजमाने की कोशिश करेगा तो मैं उससे अपनी जिंदगी की आखिरी सांस तक सरकार के प्रमुख और उससे बाहर दोनों ही है सीटों से लड़ता रहूंगा" । तब सांप्रदायिकता के विरुद्ध इस संघर्ष में नेहरू को सरदार पटेल श्री गोपाल चारी जैसे महत्वपूर्ण दोस्तों का साथ मिला।
सरदार पटेल ने फरवरी, 1949 में ‘हिंदू राज’ यानी हिंदू राष्ट्र की चर्चा को ‘एक पागलपन भरा विचार’ बताया। और 1950 में उन्होंने कहा कि ‘हमारा एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। यहां हर एक मुसलमान को यह महसूस करना चाहिए कि वह भारत का नागरिक है और भारतीय होने के नाते उसका समान अधिकार है। यदि हम उसे ऐसा महसूस नहीं करा सकते तो हम अपनी विरासत और अपने देश के लायक नहीं हैं। आरएसएस की गतिविधियां राज्य और सरकार के अस्तित्व के लिए गंभीर खतरा है"।
सरदार की चिट्ठियों से आरएसएस और मुसलमानों के प्रति सरदार का नजरिया सामने लाया गया है। सरदार की सोच थी कि आरएसएस सांप्रदायिकता का जहर फैला रही है, वहीं मुसलमानों का एक धड़ा भी भारत के प्रति वफादार नहीं है। गांधी जी की हत्या के महीने भर बाद सरदार पटेल ने प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को 27 फरवरी 1948 को एक चिट्ठी लिखी थी, जिसमें कहा गया कि आरएसएस का इसमें सीधा हाथ नहीं था, इस हत्या में हिंदू महासभा के उग्रपंथी गुट का हाथ था जिसने सावरकर की अगुआई में यह षडयंत्र रचा था।
पटेल के मुताबिक ‘आरएसएस और महासभा दोनों ने गांधी की हत्या का स्वागत किया था, क्योंकि दोनों महात्मा गांधी की सोच के कट्टर विरोधी थे, लेकिन बावजूद इसके मुझे नहीं लगता कि आरएसएस के किसी अन्य सदस्य का इसमें कोई हाथ था।आरएसएस को उसके कई अन्य पापों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, लेकिन इस मामले में उसकी भूमिका नहीं थी‘।
सरदार पटेल अपने इस सोच के बाद भी काफी समय तक आरएसएस पर प्रतिबंध के हामी भी रहे। उस वक्त श्यामा प्रसाद मुखर्जी जिन्होंने बाद में जनसंघ की स्थापना की, ने पटेल को जुलाई 1948 में आरएसएस पर से प्रतिबंध हटाने के लिए पत्र लिखा था, जिसमें यह भी कहा गया था कि "कुछ मुसलमान देश के प्रति वफादार नहीं है"।
इस पर पटेल ने आरएसएस को गहरे प्रहार के साथ तीखे जवाब दिए। पटेल ने लिखा था कि-
‘आरएसएस की गतिविधियां राज्य और सरकार के अस्तित्व के लिए गंभीर खतरा हैं। वहीं मुलमानों की बात पर उन्होंने लिखा था कि मैं इस बात से सहमत हूं कि मुसलमानों में कुछ तत्व देश के प्रति वफादार नहीं हैं‘।
गांधी जी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया दया था। सितंबर 1948 में आरएसएस के प्रमुख एमएस गोलवलकर ने सरदार को चिट्ठी लिखकर आरएसएस से प्रतिबंध हटाने की मांग की थी। इस पर सरदार ने 11 सितंबर 1948 को जवाब में कहा था कि-
‘आरएसएस ने हिंदू समाज के लिए काम किया है, लेकिन आरएसएस बदले की आग से खेल रही है और मुसलमानों पर हमले कर रही है। उनके सारे भाषण सांप्रदायिकता के जहर से भरे होते हैं। इस जहर का नतीजा देश को गांधी जी के बलिदान के रूप में चुकाना पड़ा।"
1937 तक महाराष्ट्र के लोग तीन प्रमुख संगठनों से जुड़े थे। एक कांग्रेस दूसरा हिंदू महासभा और तीसरा आएसएस। 1937 के बाद कांग्रेस और आरएसएस के बीच विभाजन स्पष्ट दिखाई देने लगा। इसी दौरान आरएसएस भी संगठन के रूप में उभर रहा था। हिंदू महासभा आरएसएस की आलोचना करती थी, लेकिन आरएसएस के संस्थापक डॉ . हेड़गेवार हिंदू एकता के मद्देनजर कभी हिंदू महासभा की आलोचना नहीं करते थे।
महात्मा गांधी अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव पर सबसे ज्यादा सांप्रदायिकता से दुखी थे। जब महात्मा गांधी भारतीय राजनीति में आए तो एक सनातन और सार्वभौम मानवतावाद के साथ आए और देश को नेतृत्व प्रदान किया। लेकिन जब देश आजादी की आधी रात का जश्न मना रहा था तब महात्मा गांधी नितांत अकेले इस सांप्रदायिकता की आग में जल रहे बिहार और बंगाल में इस पर पानी डाल रहे थे। और ये आग हिन्दुमहासभा और आरएसएस के लोगो के द्वारा लगाई गई थी।
1947 में अपने जन्मदिन पर एक संदेश के जवाब में महात्मा गांधी ने कहा कि ‘अब वे और जीने के इच्छुक नहीं हैं और वे उस सर्वशक्तिमान की मदद मागेंगे कि उन्हें जंगली बन गए इंसानों द्वारा, चाहे वे अपने को मुसलमान कहने की जुर्रत करें या हिंदू या कुछ और, कत्लेआम किए जाने का असहाय दर्शक बनाने के बजाए आंसू के इस दरिया से उठा ले जाए।’
उन्हें परमात्मा ने तो नहीं उठाया, लेकिन एक जंगली बन गए नपुंशक आतंकवादी नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या कर दी।
देश भर में दंगों की स्थिति देखकर जब पटेल और नेहरू भी विभाजन के बारे में सोचने को विवश हो गए थे, तब एक आदमी ऐसा था जिसने बिहार, कलकत्ता और दिल्ली के दंगाग्रस्त इलाकों में अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था ताकि अहिंसा और हृदय परिवर्तन के जिन सिद्धांतों को उन्होंने जीवन भर माना है, वे झूठे साबित नही हो। गाँधी जी ने नोआखली, बेलियाघाट, दिल्ली और पंजाब में अनशन करके हिंसा रोकने में सफलता हासिल की। जब यह सबसे आसान था कि गांधी सत्ता हथिया लेते, उसके प्रति तिरस्कार भाव से वे देश भर में संप्रदायवाद से लड़ रहे थे।
सरदार पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने का स्पष्टीकरण देते हुए गोलवलकर को सितंबर में एक पत्र लिखा-
‘आरएसएस के भाषण सांप्रदायिक उत्तेजना से भरे हुए होते है। देश को इस ज़हर का अंतिम नतीजा महात्मा गांधी की बेशक़ीमती ज़िंदगी की शहादत के तौर पर भुगतना पड़ा है। इस देश की सरकार और यहां के लोगों के मन में आरएसएस के प्रति रत्ती भर भी सहानुभूति नहीं बची है। हक़ीक़त यह है कि उसका विरोध बढ़ता गया। जब आरएसएस के लोगों ने गांधी जी की हत्या पर ख़ुशी का इज़हार किया और मिठाइयां बाटीं, तो यह विरोध और तेज़ हो गया। इन परिस्थितियों में सरकार के पास आरएसएस पर कार्रवाई करने के अलावा और कोई चारा नहीं था।"
इसके अलावा 18 जुलाई, 1948 को पटेल ने हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को एक पत्र लिखा,
‘जहां तक आरएसएस और हिंदू महासभा की बात है, गांधी जी की हत्या का मामला अदालत में है और मुझे इसमें इन दोनों संगठनों की भागीदारी के बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए लेकिन हमें मिली रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि इन दोनों संस्थाओं का, खासकर आरएसएस की गतिविधियों के फलस्वरूप देश में ऐसा माहौल बना कि ऐसा बर्बर कांड संभव हो सका। मेरे दिमाग में कोई संदेह नहीं है कि हिंदू महासभा का एक अतिवादी भाग षडयंत्र में शामिल था।
आरएसएस की गतिविधियां सरकार और राज्य व्यवस्था के अस्तित्व के लिए खतरा थीं। हमें मिली रिपोर्ट बताती है कि प्रतिबंध के बावजूद गतिविधियां समाप्त नहीं हुई हैं। दरअसल समय बीतने के साथ आरएसएस की टोली उग्र हो रही है और विनाशकारी गतिविधियों में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रही है।"
जिस नेहरू को आज कल आए दिन कोसते रहते हैं और देश की सारी समस्याओं के लिए जिम्मेदार बताते हैं। वही नेहरू आरएसएस के लिए ना जाने कितने काम किए । नेहरू के न जाने कितने उपकार आरएसएस के ऊपर है । नेहरू आरएसएस को एक फासीवादी संगठन मानते थे। दिसंबर, 1947 में उन्होंने लिखा-
‘हमारे पास बहुत सारे साक्ष्य मौजूद हैं जिनसे दिखाया जा सकता है कि आरएसएस एक ऐसा संगठन है जिसका चरित्र निजी सेना की तरह है और जो निश्चित रूप से नाजी आधारों पर आगे बढ़ रही है, यहां तक कि उसके संगठन की तकनीकों का पालन भी कर रही है।इस सबके बावजूद सरकार नागरिक स्वतंत्रता जैसे विचार को कमजोर नहीं करना चाहती थी. गांधी की हत्या के बावजूद सरकार दमनकारी नहीं होना चाहती थी।"
29 जून, 1949 को नेहरू ने पटेल को लिखा था,
‘मौजूदा परिस्थितियों में ऐसे प्रतिबंध और गिरफ्तारियां जितनी कम हों उतना ही अच्छा है।’
आरएसएस ने सरदार पटेल की शर्तों को स्वीकार कर लिया तो जुलाई, 1949 में इस पर प्रतिबंध हटा लिया गया। ये शर्तें थीं-
1-आरएसएस एक लिखित और प्रकाशित संविधान स्वीकार करेगा।
2-अपने को सांस्कृतिक गतिविधियों तक सीमित रखेगा।राजनीति में कोई दखलंदाजी नहीं देगा
3- हिंसा और गोपनीयता का त्याग करेगा।
4- भारतीय झंडा और संविधान के प्रति आस्था प्रकट करेगा और अपने को जनवादी आधारों पर संगठित करेगा।
इसी के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का एक और डायलॉग लोगो को बार बार याद आता रहेगा । जो उन्होंने यह कहा कि "कांग्रेस ने सिर्फ एक परिवार को आगे करने के लिए सभी लोगों को पीछे कर दिया ।और इतिहास में दफन कर दिया, किसी के परिवार के साथ कोई न्याय नहीं हुआ"। साथ ही उन्होंने कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगाया कि कांग्रेस ने सिर्फ गांधी नेहरू परिवार को आगे बढ़ाया। लगता है मोदी जी, लालबहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई, नरसिम्हाराव को भूल गए।
उन्होंने यह बात सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल के लिए भी कहा है। मैं मोदी जी को यह बताना चाहता हूं कि सरदार पटेल की बेटी भी कांग्रेस में थी और उनका नाम मड़ीबेन था मणिबेन अपने पिता सरदार पटेल के लिए उसी तरह थीं जैसे कि इंदिरा, नेहरू के लिए। वे सरदार पटेल के साथ साये की तरह रहती थीं। पटेल की मृत्यु के बाद उनके दुख को नेहरू से ज़्यादा कौन समझ सकता था। लिहाज़ा 1952 के पहले ही आम चुनाव में ही नेहरू जी ने उन्हें काँग्रेस का टिकट दिलवाया।
वे खेड़ा लोकसभा क्षेत्र से सांसद बनीं। 1957 में वे आणंद लोकसभा क्षेत्र से चुनी गईं। महागुजरात आंदोलन के तल्खी भरे दिनों के बीच 1962 में वे स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवार से लोकसभा चुनाव हार गईं। लेकिन 1964 में उन्हें काँग्रेस ने राज्यसभा भेज दिया जहाँ वे 1970 तक रहीं। वे 1953 से 1956 के बीच गुजरात प्रदेश काँग्रेस कमेटी की सचिव और 1957 से 1964 के बीच उपाध्यक्ष रहीं। इस तरह नेहरू के रहते मणिबेन को काँग्रेस में पूरा मान-सम्मान मिला।
सरदार पटेल के बेटे डाह्याभाई पटेल भी राजनीति में सक्रिय थे। वे बाम्बे म्युनिस्पल कारपोरेशन में कांग्रेस के नेता रहे मेयर भी बने। 1957 में वे कांग्रेस की ओर से लोकसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन कुछ मतभेदों की वजह से वे स्वतंत्र पार्टी में चले गए। लेकिन वे कांग्रेस के खिलाफ़ लोकसभा चुनाव लड़ने को तैयार नहीं हुए। 1958 में वे राज्यसभा गए जहाँ मृत्युपर्यंत यानी 1973 तक रहे।
यानी एक समय ऐसा भी था जब सरदार पटेल के बेटे और बेटी, दोनों ही एक साथ लोकसभा और राज्यसभा में थे। भाई-बहन के लिए ऐसा संयोग ‘वंशवादी नेहरू’ ने ही निर्मित किया था जिन्होंने अपनी बेटी इंदिरा को जीते-जी काँग्रेस का टिकट नहीं मिलने दिया।नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे, न कि इंदिरा गाँधी।
फिर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिन-रात चुनावी रैलियों में नेहरू से लेकर के तब के तत्कालीन नेताओं पर अनर्गल बयानबाजी और बेतुके बयान देते आए हैं। देश की सारी समस्याओं के लिए सिर्फ और सिर्फ नेहरू को जिम्मेदार बताने वाले प्रधानमंत्री एक बार भी नेहरू जी के योगदान को मानने को तैयार नहीं है । जबकि उन्हीं के कैबिनेट मंत्री और सरकार में नंबर दो राजनाथ सिंह ने कांस्टीट्यूशन क्लब में सबके सामने इस बात को स्वीकार किया कि , "देश में लोकतंत्र प्रजातंत्र की नींव पंडित नेहरू ने रखी और देश को आगे बढ़ाने की नींव भी पंडित नेहरू में ही रखी।"
पंडित नेहरू ने देश के शुरुआती समय में जो उपलब्धियां हासिल की वह ना तो अब कोई हासिल कर पाया है, ना कोई आगे कर पाएगा । एक जवान बेटे का खर्चा उठाना हर कोई तैयार रहता है। लेकिन पैदा हुए बेटे को पालना पोषना हर किसी के बस की बात नहीं है । और 1947 में हमारा देश एक नया देश के तौर पर पैदा हुआ था। जिसका भरण पोषण और लालन-पालन सरदार पटेल और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने किया है।
और मूर्ति तो सरदार पटेल की लगाई गई लेकिन बड़ी-बड़ी ब्रांडिंग मोदी जी की की गई । न्यूज़ में, मीडिया में पटेल जी की फोटो से ज्यादा कहीं फुटेज मोदी जी को दी गई । हर जगह पर सिर्फ और सिर्फ पटेल जी की फोटो के साथ मोदी जी की फोटो दी गई। और बेशर्मी की हद तो तब हो गई जब कैमरे के एंगल को इस तरह से घुमाकर फोटो खींचा गया कि मोदी जी पटेल जी की मूर्ति से भी बड़े दिखाई दे रहे थे । तो हम यह कह सकते हैं कि मूर्ति तो बनाई गई थी धोती कुर्ता और शॉल उड़े पटेल जी की , लेकिन ब्रांडिंग की गई 10 लाख का कपड़े पहनने वाले सूट बूट वाले साहेब की।
जय समाजवाद
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