"ऐ मेरे वतन के लोगों" ये गाना जब सुनाया गया तो सुनने वाले के हर एक शख्स की आंखों में आंसू और रेजांगला के उन 120 चार्ली यानी की वीर अहिर कंपनी के जाबांजो के प्रति इज्जत और प्यार था।और गाना सुनकर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू तक 1962 युद्ध के रेजांगला के शहीदों और देश के शहीदों के लिए रोए। वीरता और साहस का सबसे बड़े उदाहरण बने मेजर शैतान सिंह भाटी , और उनकी 120 जवानों की चार्ली यानी कि वीर अहीर कंपनी। चीन आज भी रेजांगला को याद करके सिहर उठता है। और यही एक ऐसा मोर्चा था, जहां पर खुद चीन ने अपनी हार भारत से स्वीकार करी । और हार कर वापस जाते हुए रिजंगला के शहीदों को गार्ड ऑफ ऑनर देकर गए।
आज 18 नवम्बर है, आज ही के दिन हुए एक इतिहासिक रेजांगला के युद्ध और उसके वीरो को मेरा नमन।
वो वीर जिनकी वीरता और उनके खौफ को याद कर चीन की पीपल लेब्रेशन आर्मी आज भी डर से सिहर जाती है।
How can a Man die Better than facing Fearful Odds,
For the Ashes of His Fathers and the Temples of His Gods,
ये चंद लाइने किसी के जज्बे और हिम्मत को दिखाती है, ये लाइने ये दिखाती है कि एक सच्चा बेटा अपनी भारत माँ की रक्षा के लिए कोई भी नामुमकिन काम को आसानी से कर सकता है। फिर उसके लिए अपनी कमजोरी या सामने वाले कि ताकत कोई मायने नही रखती।
"ऐ मेरे वतन के लोगों" ये गाना जब सुनाया गया तो सुनने वाले के हर एक शख्स की आंखों में आंसू और रेजांगला के उन 120 चार्ली यानी की वीर अहिर कंपनी के जाबांजो के प्रति इज्जत और प्यार था।और गाना सुनकर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू तक 1962 युद्ध के रेजांगला के शहीदों और देश के शहीदों के लिए रोए। वीरता और साहस का सबसे बड़े उदाहरण बने मेजर शैतान सिंह भाटी , और उनकी 120 जवानों की चार्ली यानी कि वीर अहीर कंपनी। चीन आज भी रेजांगला को याद करके सिहर उठता है। और यही एक ऐसा मोर्चा था, जहां पर खुद चीन ने अपनी हार भारत से स्वीकार करी । और हार कर वापस जाते हुए रिजंगला के शहीदों को गार्ड ऑफ ऑनर देकर गए।
अगर हम भारत के योद्धिक इतिहास के परिदृश्य की कल्पना करें तो हमें भारत में ऐसे बहुत सारे वीर और वीरों की टोली और ऐसे बहुत सारे युद्ध मिलेंगे जहां पर वीरता के बहुत बड़े बड़े उदाहरण बने । लेकिन अगर मैं अपनी नज़र से देखु तो मूल रूप से भारत में तीन ऐसे बड़े युद्ध हुए जो इतिहास के पन्ने में दर्ज हुए । और जो विश्व की सबसे बड़ी लड़ाईयों में भी आते हैं। यह सबसे वीभत्स युद्ध हुए, जिसमें एक छोटी टुकड़ी ने सामने दुश्मनों की बड़ी से बड़ी फौज का धूल चटा दी। 3 सर्वश्रेष्ठ युद्धों में से पहले और दूसरे नंबर पर कौन है यह डिसाइड करना नामुमकिन है।
सबसे पहला जो युद्ध हुआ, वह था चमकौर का। जो मुगल काल में 6 दिसंबर 1704 को लड़ा गया।
एक तरफ से मुगल साम्राज्य की सेना और दूसरी तरफ से सिखों के दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह जी, और उनके खालसा। विकीपीडिया के आंकड़े बताते हैं कि मुगलों की सेना 10 लाख के ऊपर थी , और वही सिक्खों कि सेना में सिर्फ 42 खालसा ही थे ।कहा जाता है कि गुरु गोविंद सिंह की 40 लोगों की उस फौज ने मुगलों की पांच लाख से ज्यादा की सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया।
"चिड़िया दे नाल बाज लड़ावा, गीदड़ को मैं शेर बनावा,
सवा लाख से एक लड़ावां, ताहि गोविंद सिंह नाम कहावा"
की गुरुबानी को सिद्ध करते हुए मुगलों को और उनके सेनापति वजीर खान को सिखों ने हरा दिया।
गुरु गोविंद सिंह आनंदपुर साहिब से निकलकर दिन की शाम को चमकौर पहुंचे थे। यह खबर मुगलों को लगी और उन्होंने दस लाख की भारी-भरकम फौज के साथ उनका घेराव कर लिया। तब इन 40 सिखों ने मिलकर 5 लाख से ज्यादा सैनिकों को मौत के घाट उतारा, और गुरु गोविंद सिंह को वहां से निकालने में कामयाब रहे,
ऐसे भी नहीं की चोरी छुपे ।
जब गुरु गोविंद सिंह निकले तब सिखों ने चिल्लाया और मुग़ल फौज को ललकारा की "देखो वह जा रहा है हिंद का पीर, जिसमें दम हो , वह पकड़ कर दिखाएं "
कहा जाता है कि जब गुरु गोविंद सिंह निकले तो इतना प्रकाश और इतनी बिजली गरजने लगी कि ,मुग़ल सेना घबरा गई।
इस युद्ध का वर्णन खुद गुरु गोविंद सिंह ने "जफरनामा" में किया। इस युद्ध में गुरु गोविंद सिंह के दोनों बड़े साहिबजादा अजीत सिंह और जुझार सिंह जी शहीद हुए। लेकिन यह अपने आप में एक बहुत बड़ा इतिहास बन गया कि, जहां पर मात्र 40 सिखों ने दस लाख की मुगल फौज को धूल चटा कर अपने गुरु को सुरक्षित निकाल लिया। मुग़ल सेना 40 सिक्खों को पार कर गुरु गोविंद सिंह को पकड़ नही पाई।
इसी तरह दूसरा युद्ध , भारत की आजादी के बाद 1971 में भारत पाकिस्तान की लड़ाई के दौरान देखने को मिला। पोस्ट थी लोंगेवाला और हीरो थे मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी। एक तरफ थे
सिख रेजिमेंट के एम ट्रूप के 120 जवान, तो दूसरी तरफ पाकिस्तान के पूरी की पूरी बटालियन थी जिसमें लगभग 70 टैंक ढाई हजार सैनिक 10 मोबाइल इन्फेंट्री ।
ये लड़ाई भी 6 दिसंबर के दिन ही हुई।
और एक बार फिर से वीरता के नए आयाम सिक्खों ने गढ़े। 6 दिसंबर 1971 को भारत-पाकिस्तान की लड़ाई के बीच में पाकिस्तान ने लोंगेवाला पोस्ट पर 120 सैनिकों के सूचना होने के बाद हमला किया । उनका इरादा लोंगेवाला से होते हुए जैसलमेर में कब्जा करके दिल्ली तक पहुंचने का था। लेकिन उनको यह नहीं पता था कि लोंगेवाला पोस्ट पर उन 120 जवानों के साथ मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी खड़े थे। जिन्होंने अपनी समझदारी और अपनी अदम्य वीरता से पाकिस्तानियों को मार भगाने का दृढ़ संकल्प कर दिया था ।
रात को 10:00 बजे से शुरू हुए इस महायुद्ध में भारत की तरफ से सिर्फ 2 सैनिकों की शहादत हुई । और उनका एक एंटी टैंक मोबाइल जीप डिस्ट्रॉय किया गया । जबकि भारत ने पाकिस्तान के लगभग लगभग 400 सैनिकों को मार गिराया, और उनके 500 से भी ज्यादा गाड़ियों को उड़ा दिया। साथ ही उनके कुछ टैंक कब्जे में ले लिए और 50 से ज्यादा टैंकों को उड़ा दिया।
यह युद्ध अपने आप में एक मिसाल इसलिए बना क्योंकि ढाई हजार से भी ज्यादा सैनिकों का मुकाबला कर रहे सिख रेजीमेंट के 120 जवानों ने रात भर उनको लोंगेवाला पोस्ट में उलझा कर रखा। और उस दौरान मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी की सूझबूझ से भारत को नुकसान नही हुआ । अपने सैनिकों की जान बचाते हुए मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी ने भारत के कदम पर दुश्मनों के पैर नहीं रखने दिए । और किसी तरह उनको रात भर बॉर्डर के पीछे ही संभाल कर रखा।
मेजर कुलदीप सिंह जानते थे कि सुबह होते ही उन्हें एयरसपोर्ट मिलेगा । और हुआ भी यही , सूरज की पहली किरण के साथ हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड के जहाजों ने पाकिस्तानी टैंकों की कब्र खोदने शुरू कर दी । एक एक करके सारे पाकिस्तानी टैंक मिट्टी में मिलते चले गए । और पाकिस्तान के 400 से भी ज्यादा सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया। मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी को उनकी इस अदम्य वीरता के लिए महावीर चक्र दिया गया।
मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी ने पूरी दुनिया को यह दिखा दिया कि अगर देश भक्ति और देश की मिट्टी के लिए दिल में प्यार और जुनून हो तो फिर फौज का नंबर मायने नहीं रखता । सिख रेजीमेंट के 120 जवानों ने ढाई हजार से ज्यादा पाकिस्तानियों को मुंह की खिलाई और उनको वापस मार भगाया। मेजर कुलदीप सिंह की इस बहादुरी पर 1997 में बॉर्डर नाम की फिल्म भी आई, जिसमें उनका रोल सनी देओल ने किया।
और तीसरी लड़ाई है रेजांगला की। 1962 में लड़ी गई जब भारत और चीन के बीच एक भयंकर युद्ध में हुआ । और उस में भारत की हार हुई । लेकिन हम कह सकते हैं कि सिर्फ रेजांगला ही एक ऐसा मोर्चा था , जहां पर भारत ने चीनियों को हराया। दरअसल रिजंगला भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य के लद्दाख में चुशूल घाटी के दक्षिण में है । यह एक पहाड़ी दर्रा है ।
1962 के भारत-चीन युद्ध में 13 वीं कुमायूं रेजिमेंट के कुमायूं दस्ते की चार्ली कंपनी जिसे "वीर अहिर कंपनी" भी कहते हैं। उसे वहां पर तैनात किया गया और इसका नेतृत्व मेजर शैतान सिंह भाटी को दिया गया ।
इस युद्ध के दौरान रेजांगला पोस्ट पर वर्ष 1962 की इस लड़ाई में तत्कालीन 13 कुमाऊं बटालियन के कुल 124 जवान शामिल थे, जिसे चार्ली कंपनी या "वीर अहिर कंपनी" भी कहा जाता था। क्योकि इस रेजिमेंट में अकसर हरियाणा और राजस्थान के पट्टी अहिरान इलाके और देश के अन्य हिस्से के यादव भर्ती किया जाते है । रेजांगला की उस रात 18 नवंबर को जब पूरा देश दिवाली मना रहा था तब उस समय अहिर कंपनी के 120 जवानों ने अपनी जिंदगी को दांव पर लगा दिया ।
युद्ध में घायल अवस्था मे हुआ एक दो जवान बताते है कि जब चीनियों ने उनके पोस्ट पर हमला किया , तब उनको कमांड की तरफ से आदेश मिला, कि आप पीछे हट जाइए , क्योंकि चीनियों की फौज 3000 से ऊपर की है और उनके साथ अत्याधुनिक हथियार और जरूरत की सारी सामान्य हैं। मेजर शैतान सिंह ने अपने कमांड को खुद पीछे हटने से मना कर दिया। और अपने सैनिकों को बोला कि मैं नहीं हटूंगा।
साथ मे उन्होंने कमांड का निर्णय ऊनी कंपनी को भी बताया। और उनसे पूछा कि जिसको भी हटना है वह हटे और चला जाए। तब 120 अहिर कंपनी के जवानों ने यही जवाब दिया कि "सर एक महीना लगा है पोस्ट बनाने में। अब दुश्मन आए चाहे कोई भी आए हम यहीं रहेंगे ।और यहां से हटेंगे नहीं। मरेंगे भी तो यही मरेंगे और यही समा जाएंगे, लेकिन यहां से आगे दुश्मन को बढ़ने नहीं देंगे।"
उस रात खुद यमराज भी यही सोच रहे होंगे कि वो किन वीरो को आज लेने आये है। जो ये तक।कह रहे है कि हम लाश बन कर इसी मित्तिम में समायेंगे , और दुश्मन को आगे नही बढ़ने देंगे।
उस समय कंपनी में 120 जवानों में जिनमें से 114 शहीद हो गये थे । और 5 को गंभीर रूप से जख्मी हालत में चीन ने बंदी बनाया। शहीद होने से पूर्व इन जवानों ने देश की सरहद की ओर बढ़ रहे चीन के 1300 से भी ज्यादा जवानों को मौत के घाट उतार दिया था ।
इस युद्ध की खास बात यह थी कि चीनी सैनिक जहां पहाड़ी क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियों व बर्फीले मौसम से पूरी तरह अभ्यस्त थे। वहीं मैदानी क्षेत्रों से गये भारतीय सैनिकों के लिए परिस्थितियां पूरी तरह अनजानी थी । हथियारों के मामले में भी भारतीय जवान चीन के सैनिकों से पीछे थे । चीन जहां पूरी तैयारी के साथ पूरे मंसूबे के साथ युद्ध मैदान में उतरा था, वहीं भारत-चीनी भाई-भाई के नारे के बीच भारत को सपने में भी चीनी आक्रमण का आभास नहीं था।
लद्दाख के चुशुल इलाके में करीब 16,000 फीट की उंचाई पर रेज़ांगला दर्रे के करीब भारतीय सेना के 123 जवानों की इस कंपनी में अधिकतर हरियाणा के रेवाड़ी इलाके के अहीर यादव शामिल थे। चीनी सेना की बुरी नजर चुशुल पर लगी हुई थी। वो किसी भी हालत में चुशुल को अपने कब्जे में करना चाहते थे। जिसके मद्देनजर चीनी सैनिकों ने भी इस इलाके में डेरा डाल लिया था।
इसी क्रम में जब अक्टूबर 1962 में लद्दाख से लेकर नेफा अरुणाचल प्रदेश तक भारतीय सैनिकों के पांव उखड़ गए थे और चीनी सेना भारत की सीमा में घुस आई थी, तब रेज़ांग-ला में ही एक मात्र ऐसी लड़ाई लड़ी गई थी जहां भारतीय सैनिक चीन के पीएलए पर भारी पड़ी थी। और भारतीय सैनिकों के खौफ से चीनी सेना भाग खड़ी हुई।
रेजांगला पोस्ट पर लड़ रहे वीरों के सामने परीक्षा की घड़ी 17 नवंबर की रात उस समय आई, जब तेज आंधी-तूफान के कारण रेजांगला की बर्फीली चोटी पर मेजर शैतान सिंह भाटी के नेतृत्व में मोर्चा संभाल रहे सी कंपनी से जुड़े इन 124 जवानों का संपर्क बटालियन मुख्यालय से टूट गया । चीनी सैनिकों ने एक प्लान के तहत रेज़ांग-ला में तैनात सैनिकों को दो तरफ से घेर लिया । ऐसी ही विषम परिस्थिति में 18 नवंबर को तड़के चार बजे युद्ध शुरू हो गया । भारतीय सैनिक अपने तोपों (आर्टिलेरी) का इस्तेमाल नहीं कर पाई ।
दूसरी पहाडि़यों पर मोर्चो संभाल रहे अन्य सैनिकों को रेजांगला पोस्ट पर चल रहे इस ऐतिहासिक युद्ध की जानकारी तक नहीं थी ।
लद्दाख की बर्फीली, दुर्गम व 18 हजार फुट ऊंची इस पोस्ट पर सूर्योदय से पूर्व हुए इस युद्ध में यहां के वीरों की वीरता देखकर चीनी सेना कांप उठी । चीनी सेना इन जवानों के हौसले और इनकी बहादुरी देखकर बुरी तरह डरी। और उसे इस बात का एहसास हो गया कि वह रेजांगला के इस पोस्ट पर कम से कम इस कंपनी के रहते तो नहीं जीत सकते, किसी हाल में नहीं जी सकते।
इस युद्ध में 120 में से कंपनी के 114 जवान शहीद हो गये, लेकिन उन्होंने चीन के आगे बढ़ने के मंसूबों पर पानी फेर दिया । तोप, मोर्टार और ऑटोमैटिक हथियारों जिनमें मशीन-गन भी शामिल थी से लेस चीनी सेना को भारतीय सेना ने 303 (थ्री-नॉट-थ्री) और ब्रैन-पिस्टल के जरिए ऐसा साहसिक जवाब दिया जो शायद किसी भी सैन्य इतिहास में कभी भी दिखाई नही देगा ।कंपनी के 120 जवानों ने हजारों चीनियों के दांत खट्टे कर दिए । युद्ध के बाद जब सैनिक को शहादत प्राप्त हुई और चीन को वहां पर मुंह की खानी पड़ी।
तो वही पर इस लड़ाई का चीन पर ऐसा असर हुआ कि उन्होंने भारीय शहीदों को सम्मान दिया।
विश्व इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ की किसी विरोधी सैनिक देश ने दुसरे देश के सैनिको को इतना सम्मान दिया। शहीदों की लाशों को चीनियों ने कम्बल से ढका और उनके सिर के साथ उनकी बन्दूक को खड़ा किया और एक कार्ड पर “बहादुर” लिख कर उनके सीने पर रख दिया। इतना ही नही फिर चीन ने रेडियो पीकिंग से खबर दी की चीन का सबसे ज्यादा नुक्सान और चीन की हार रेजांगला में हुई। क्योंकि एक बहुत ही बहादुर कौम ने रेजांगला में मुकाबला किया था ।
1962 के जंग में चीन ने आधिकारिक रूप से रेजांगला मोर्चे पे भारत से अपनी हार को स्वीकारा है।
रेजांगला की उस पोस्ट पर उस दिन वीरता के वह नए आयाम गढ़े गए जो कहीं भी ना देखने को मिलते हैं ना सुनने को । 114 जवानों की शहादत और उनकी शहादत की मिसाल हमेशा सर्वश्रेष्ठ रहेगी । मेजर शैतान सिंह खुद पंद्रह से ऊपर गोलियां लगने के बाद भी लगातार हर मोर्चे पर जाकर सब को संभालते रहे। गोली से उनके दोनों हाथ काम करने बंद कर दिए थे। तो उन्होंने लाइट मशीनगन को अपने पैरों में बांध लिया और उसी से गोली चलाना शुरु कर दी । युद्ध खत्म होने के जब 3 महीने बाद सैनिकों को खोजने के लिए दस्ते निकले तब इन लोगों की लाशे से वहां पर मिली।
उस समय की रिपोर्टों में यह बात लिखी गई और ले गयी तस्वीरों से जो कुछ भी सामने आया वो हमें गर्व से सीना फुलाने में लिए कहता है।जब मेजर शैतान सिंह का लाश को निकाला गया तो वह बिल्कुल फायरिंग पोजिशन में थे, लोगों को ऐसा लगा कि जैसे वह अभी उठकर गोली चलाना शुरू कर देंगे। बहुत सारे सैनिक इसी अवस्था में लड़ते रहे, और वीरगति को प्राप्त हुए। ठीक इसी तरह एक सैनिक के हाथ में हैंड ग्रेनेट था और दूसरे हाथ में उसके ग्रेट से निकाली हुई पिन यानी कि जब वह ग्रेनेड फेंकने जा रहा था तब वह शहादत को प्राप्त हुआ।
रेजांगला पोस्ट पर दिखाई वीरता का सम्मान करते हुए भारत सरकार ने कंपनी कंमाडर मेजर शैतान सिंह को मरणोपरांत देश के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार पदक परमवीर चक्र से अलंकृत किया था । तथा इसी बटालियन के आठ अन्य जवानों को वीर चक्र, चार को सेना मैडल व एक को मैंशन इन डिस्पेच का सम्मान दिया था। । इसके अलावा 13 कुमायूं के सीओ को एवीएसएम से अलंकृत किया गया था ।
यह अपने आप में एक सबसे बड़ा इतिहास था कि तब तक भारतीय सेना के इतिहास में किसी एक बटालियन को एक साथ बहादुरी के इतने पदक अब तक कभी नहीं मिले । सरकार ने चार्ली कंपनी यानी अहिर कंपनी की वीरता को देखते हुए बाद में एक अहम निर्णय लेते हुए कंपनी का दोबारा गठन किया, तथा इसका नाम रेजांगला रखा । और आज पूरे देश में अगर कहीं पर सेना ने धाम बनाया है तो वह है "अहीर धाम" जो रेजांगला में इन्हीं वीरों की शहादत पर बनाया गया है और इन्हीं को सम्मान देने के लिए बनाया है।
13 कुमायूं रेजिमेंट की इस कंपनी के 114 अहीर वीरों की याद में चुशूल से 12 किलोमीटर की दूरी पर एक स्मारक बना है जिसमे सभी वीर सैनिकों के नाम अंकित हैं। उस स्मारक पर ये पंक्तियाँ भी लिखी है-
How can a Man die Better than facing Fearful Odds,
For the Ashes of His Fathers and the Temples of His Gods,
To the sacred memory of the Heroes of Rezang La,
114 Martyrs of 13 Kumaon who fought to the Last Man,
Last Round, Against Hordes of Chinese on 18 November 1962.
(Built by All Ranks 13th Battalion, The Kumaon Regiment)
रेजांगला में ही ‘अहीर धाम’ की स्थापना की गयी है। रेजांगला शौर्य समिति द्वारा रेवाड़ी शहर के धरुहेरा चौक के निकट एक शहीद स्मारक स्थापित किया गया है। यह समिति प्रति वर्ष इन शहीदों कि याद में 18 नवम्बर को रजांग ला दिवस मनाती है।
इस युद्ध की सबसे ख़ास बात यह थी कि जब गोलियां खत्म हो गई तो जवानों ने हथियारों का इस्तेमाल लाठियों के रूप में किया । गोलियां ख़त्म हो जाने के पश्चात भारतीय जवानों ने गुत्थम गुत्थी और कुश्ती की लड़ाई करके चीनियों को मारना शुरू किया । भारतीय सैनिकों के पास जो भी चीजें हाथ में आई, ईट पत्थर लकड़ी कुछ भी उन्होंने उसी से चीनियों को मारना शुरू कर दिया ।
अहिर कंपनी के उन जवानों ने किसी को गला दबाकर मारा तो, किसी को पटक पटक कर मारा। सारे हथियार और सारे गोला बारूद खत्म होने पर भी इन जवानों ने हार नहीं मानी । और आग उगलती बंदूकों के सामने खड़े होकर दुश्मन का गला दबाकर मारा । इसी लिए रेजांगला की इस लड़ाई को "लास्ट मैन लास्ट राउंड " यानी कि आखिरी गोली और आखिरी इंसान तक चली हुई लड़ाई कहा जाता है।
इसी कंपनी में से एक सिंहराम यादव ने तो हथियार और गोलियों के बिना ही चीनी सैनिकों को पकड़-पकड़कर मारना शुरु कर दिया था । चार्ली कंपनी के साथ ही दूसरे मोर्चे पर लड़ाई लड़ रही सिख रेजीमेंट के लोगों ने बताया कि
"सिंह राम के पास जब गोलियां खत्म हो गई तो, वह आगे बढ़े और चीनी सैनिकों को गला दबाकर मारने लगे। और वह भी ऐसे की एक साथ तीन तीन चीनी सैनिकों को गला दबाकर मार दिया। और धोबी जैसे कपड़े पटकता है पत्थरों पर वैसे ही सिंहराम चीनियों को उठा उठाकर पत्थरों पर पटक कर मार रहे थे।"
सिंहराम ने चीनी सैनिकों से मल्ल युद्ध प्रारम्भ कर दिया, एवं चीनी सैनिकों को पकड़ पकड़ के पहाड़ी से टकरा-टकराकर मौत के घाट उतार दिया । सिंहराम ने ना जाने कितने चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया और रेजांगला पोस्ट पर दुश्मन का कब्जा होने नहीं दिया ।
1963 में कवि प्रदीप ने इन्ही वीर अहीरों की याद में ”ए मेरें वतन के लोगों” गीत लिखा…जिसे लता मंगेशकर ने 27 जनवरी, 1963 को तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु की उपस्थिति में राम लीला मैदान, दिल्ली में विशाल जन-सभा के समक्ष गाया.ये गीत सुन कर वहाँ का एक एक श्रोता रोया, प्रधानमंत्री नेहरु जी की आँखें भर आयी थी। और उन्होंने लता जी को बुला कर कहा " बेटी तुमने रुला दिया"।
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