जब भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता पात्रा जी कहते है, " ये मुल्ला जी ,मंदिर वही बनेगा , सुन ले मुल्ला जी "। तब यह कहते हुए संबित पात्रा जी न तो मुल्ला जी को और न ही देश को मंदिर बनाने का तारीख बताते है। अगर हम इसे समझने की कोसिस करेंगे तो पाएंगे की राम मंदिर वो मुद्दा है, जिसे बीजेपी धरातल पर आने नही देगी। यानी मन्दिर बनने नही देगी। ऐसा इसलिए कि कोई भी समझदार सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को एक ही बार मे काट कर सारे अंडे नही निकलेगा। ठीक वैसे ही राम मंदिर बीजेपी के लिए सोने के अंडे वाली मुर्गी है। जिसे वो मंदिर बनवा कर मरना नही चाहते। बीजेपी हर चुनाव में मंदिर के नाम पर ही लोगो को भड़का कर वोट लेती आयी है, और इसी मंदिर वाली सोने के अंडे से वो 4 बार सत्ता के शिखर ओर पहुची है। और अब जब वो मंदिर बना देगी तो हो सकता है कि वो एक बार चुनाव जीत जाए, लेकिन उनके पास कोई और मुद्दा नही बचेगा, फिर जिस तरह वो लोग अपनी गलतियां छुपाने के लिए राम मंदिर का सहारा लेते थे, वो बंद हो जाएगा, तो जनता के सामने इनका सच आ जायेगा।
राम मंदिर वह मुद्दा है, जो किसी भी सड़ी गली, मैली कुचैली , घटिया से भी घटिया पार्टी को सत्ता को शिखर पर पहुँचा देता है। दरअसल ये कमाल भगवान राम का है, जो मरी हुई पार्टी को भी जिंदा कर देते है। भगवान राम के लिए जो काम हनुमान जी ने संजीवनी लाकर किया था, वही काम राजीव गांधी ने राम मंदिर का मुद्दा बीजेपी को देकर किया।
जरा कल्पना कीजिये, अगर ये राम मंदिर का मुद्दा होता ही नही, तो भारतीय जनता पार्टी की क्या औकात रहती ? वो कहा स्टैंड करती और किस मुद्दे पर वोट मांगती?
राम मंदिर के खुलने के बाद, अब तक केन्द्र में 4 बार भारतीय जनता पार्टी का प्रधानमंत्री बना, 3 बार अटल जी और एक बार हमारे साहेब। और शायद एक बार केंद्र सरकार के सहयोगी बने। लेकिन क्या ये वक़्त काफी नही था राम मंदिर बनाने के लिए ? जब भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता पात्रा जी कहते है, " ये मुल्ला जी ,मंदिर वही बनेगा , सुन ले मुल्ला जी "।तब यह कहते हुए संबित पात्रा जी न तो मुल्ला जी को और न ही देश को मंदिर बनाने का तारीख बताते है।
अगर हम इसे समझने की कोसिस करेंगे तो पाएंगे की राम मंदिर वो मुद्दा है, जिसे बीजेपी धरातल पर आने नही देगी। यानी मन्दिर बनने नही देगी। ऐसा इसलिए कि कोई भी समझदार सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को एक ही बार मे काट कर सारे अंडे नही निकलेगा। ठीक वैसे ही राम मंदिर बीजेपी के लिए सोने के अंडे वाली मुर्गी है। जिसे वो मंदिर बनवा कर मरना नही चाहते।
बीजेपी हर चुनाव में मंदिर के नाम पर ही लोगो को भड़का कर वोट लेती आयी है, और इसी मंदिर वाली सोने के अंडे से वो 4 बार सत्ता के शिखर ओर पहुची है। और अब जब वो मंदिर बना देगी तो हो सकता है कि वो एक बार चुनाव जीत जाए, लेकिन उनके पास कोई और मुद्दा नही बचेगा, फिर जिस तरह वो लोग अपनी गलतियां छुपाने के लिए राम मंदिर का सहारा लेते थे, वो बंद हो जाएगा, तो जनता के सामने इनका सच आ जायेगा।
और ये बात बीजेपी को भलीभांति मालूम है। इसी लिए वो हर चुनाव में सोने की अंडे देने मुर्गी राम मंदिर के मुद्दे को हवा देते है, जैसा कि अभी भाजपा की जन्मश्रोत संगठन के प्रमुख भागवत जी ने किया। इन लोगो को सुप्रीम कोर्ट का भी लिहाज या डर नही है, जब मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है तो उसके फैसले आने से पहले अनुमानित फैसले को लेकर चुनावी रोटियां सेंकनी सुरु हो गयी है।
और अगर ध्यान से देखा जाए तो ये मुद्दा भी भाजपा ने हाईजैक किया है। क्योंकि इनका अपना तो कुछ भी रियल नही है। पहले आडवाणी जी को पटेल जी की तरह "लौहपुरुष" कहना शुरू किया, और डुप्लीकेट लौह पुरुष बना दिया। और जब इससे दाल नही गली तो फिर ओरिजिनल पटेल जी की मूर्ति बनवाने के नाम पर पटेल जी के नाम पर वोट का जुगाड़ सेट कर लिया। "प्रधानमंत्री नही प्रधानसेवक " से लेकर यूपी के चुनावी धोषणा पत्र तक भाजपाइयों ने हर जगह कॉपी पेस्ट का एक शानदार नमूना पेश किया है।
राम मंदिर वाला मुद्दा भी कट पेस्ट का एक सटीक उदाहरण है। इस मुद्दे की सुरुआत और विवादित जगह का ताला खुलवाने तक का सभी चीजों का श्रेय राजीव गांधी जी को जाता है। लेकिन मंदिर के मुद्दे को पूरा जानने से पहले ये जानना बेहद जरूरी है कि मस्जिद कब बनी और कैसे बनी ।
मुस्लिम सम्राट बाबर ने फतेहपुर सीकरी के राजा राणा संग्राम सिंह को वर्ष 1527 में हराने के बाद इस स्थान पर बाबरी मस्जिद का निर्माण किया था। बाबर ने अपने जनरल मीर बांकी को क्षेत्र का वायसराय नियुक्त किया। मीर बांकी ने अयोध्या में वर्ष 1528 में बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया।
इस बारे में कई तह के मत प्रचलित हैं कि जब मस्जिद का निर्माण हुआ तो मंदिर को नष्ट कर दिया गया या बड़े पैमाने पर उसमे बदलाव किये गए। कई वर्षों बाद आधुनिक भारत में हिंदुओं ने फिर से राम जन्मभूमि पर दावे करने शुरू किये जबकि देश के मुसलमानों ने विवादित स्थल पर स्थित बाबरी मस्जिद का बचाव करना शुरू किया।
प्रमाणिक किताबों के अनुसार पुन: इस विवाद की शुरुआत सालों बाद वर्ष 1987 में हुई। वर्ष 1940 से पहले मुसलमान इस मस्जिद को मस्जिद-ए-जन्मस्थान कहते थे, इस बात के भी प्रमाण मिले हैं।
वर्ष 1947 में जब विवाद शुरू हुआ तब भारत सरकार ने मुसलमानों के विवादित स्थल से दूर रहने के आदेश दिए और मस्जिद के मुख्य द्वार पर ताला डाल दिया गया जबकि हिंदू श्रद्धालुओं को एक अलग जगह से प्रवेश दिया जाता रहा।
वर्ष 1984 में विश्व हिंदू परिषद ने हिंदुओं का एक अभियान शिरू किया कि " हमें दोबारा इस जगह पर मंदिर बनाने के लिए जमान वापस चाहिए"।
1989 में इलाहाबाद उच्च न्यायलय ने आदेश दिया कि विवादित स्थल के मुख्य द्वारों को खोल देना चाहिए। और इस जगह को हमेशा के लिए हिंदुओं को दे देना चाहिए।
सांप्रदायिक ज्वाला तब भड़की जब विवादित स्थल पर स्थित मस्जिद को नुकसान पहुंचाया गया। जब भारत सरकार के आदेश के अनुसार ( राजीव गांधी की सरकार) इस स्थल पर नये मंदिर का निर्माण सुरू हुआ तब मुसलमानों के विरोध ने सामुदायिक गुस्से का रूप लेना शरु किया।
1992 को 6 दिसंबर के दिन बाबरी मस्जिद विध्वंस के साथ ही यह मुद्दा सांप्रदायिक हिंसा और नफरत का रूप लेकर पूरे देश में संक्रामक रोग की तरह फैलने लगा। इन दंगों में 2000 से ऊपर लोग मारे गए। मस्जिद विध्वंस के 10 दिन बाद मामले की जांच के लिए लिब्रहान आयोग का गठन किया गया।
फिर 2003 में उच्च न्यायालय के आदेश पर भारतीय पुरात्तव विभाग ने विवादित स्थल पर 12 मार्च 2003 से 7 अगस्त 2003 तक खुदाई की जिसमें एक प्राचीन मंदिर के प्रमाण मिले। वर्ष 2003 में इलाहाबाद उच्च न्यायल की लखनऊ बेंच में 574 पेज की नक्शों और समस्त साक्ष्यों सहित एक रिपोर्ट पेश की गयी।
भारतीय पुरात्तव विभाग के अनुसार खुदाई में मिले भग्वशेषों के मुताबिक विवादित स्थल पर एक प्रचीन उत्तर भारतीय मंदिर के प्रचुर प्रमाण मिले हैं। विवादित स्थल पर 50X30 के ढांचे का मंदिर के प्रमाण मिले हैं।
5 जुलाई 2005 को 5 आतंकियों ने अयोध्या के रामलला मंदिर पर हमला किया। इस हमले का मौके पर मौजूद सीआरपीएफ जवानों ने वीरतापूर्वक जवाब दिया और पांचों आतंकियों को मार गिराया।
24 सितंबर 2010 को दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने फैसले की तारीख मुकर्रर की थी। फैसले के एक दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को टालने के लिए की गयी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए इसे 28 सितंबर तक के लिए टाल दिया। फिर जब फैसला आया तो किसी भी पक्ष को संतोष नही हुआ, और सब और सुप्रीम कोर्ट भाग गए।
बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा से लेकर उत्तरप्रदेश के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने बयान दिया था कि अगर कोई विकल्प नहीं बचेगा तो केंद्र सरकार संसद में कानून लाएगी।हालांकि बाद में मौर्य ने कहा हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहे हैं। लोकसभा में हमारे पास बहुमत है, लेकिन हमारे पास बिल पास करने के लिए राज्यसभा में बहुमत नहीं है। इसलिए विकल्प चुनने का समय नहीं है।
बीजेपी राम मंदिर के नाम पर 30 सालों से वोट मांग रही है। 2014 में भी बीजेपी ने राम मंदिर के निर्माण का वादा किया था। हालांकि उस चुनाव में नरेंद्र मोदी ने विकास का नारा देकर भारी बहुमत हासिल किया था।लेकिन अब 2019 के चुनावी समर में उतरने से पहले राम फिर याद आने लगे हैं।
उत्तरप्रदेश में भी बीजेपी की सरकार है, ऐसे में अक्सर लोग बीजेपी को उसका वादा भी याद दिलाते हैं, लेकिन मामला सुप्रीम कोर्ट में है तो बीजेपी भी ये दलील देकर खामोश हो जाती है। लेकिन अब चुनाव सिर पर हैं, तो फिर राम मंदिर की चर्चा शुरू हो गई है।हमारे देश के नेताओं ने राजनीति में प्रतीकों के जरिये अपने काम को बखूबी अंजाम दिया है। राम मंदिर में ताले लगाने की बात हो, या खुलवाने की, आडवाणी की रथ यात्रा हो या फिर इफ्तार पार्टियों के बीच होने वाला मेल मिलाप।नेताओं ने भारत की इसी सांस्कृतिक और धार्मिक बहुलतावादी ढांचे को वोट बैंक के रूप में बखूबी भुनाया है, किसी ने अल्पसंख्यकों को रिझाया तो किसी ने बहुसंख्यकों को साधा।
जहाँ एक तरफ़ मोहन भागवत ये कहते हैं कि साधुओं को अगुवाई करनी चाहिए, वहीं हज़ारों किसान खेती-किसानी के मुद्दे पर सरकार की उदासीनता के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन के लिए दिल्ली की तरफ़ कूच कर रहे थे।
वे राजधानी में दाख़िल न हो सकें, इसलिए पुलिस ने पानी की बौछारों और आँसू गैस के गोलों से उन्हें रोकने की कोशिश की।
वहीं महाराष्ट्र में किसानों ने टमाटर की फसल खेत में ही छोड़ दी क्योंकि इसकी कीमतें उनकी लागत से भी काफ़ी कम हो गई थीं।
बाक़ी देश में ख़ूनी भीड़ की दरिंदगी और वर्दी पहने पुलिसवालों के हाथों हत्याओं का सिलसिला बेरोकटोक जारी है।
सुप्रीम कोर्ट ने ये संकेत दिया है कि राम मंदिर विवाद पर एक फ़ैसला आने वाले वक्त में कभी भी आ सकता है।
लेकिन ये दिखाई देता है कि मोहन भागवत इस फ़ैसले का इंतज़ार नहीं करना चाहते।
वे कहते हैं कि हिंदू संत समाज पर सरकार की तरह कोई बंदिश नहीं है और उन्हें राम मंदिर के मुद्दे को आगे बढ़ाना चाहिए।
मोहन भागवत का ये बयान एक खुला निमंत्रण है कि भगवा पहने हिंदू संत समाज आगे आकर नेतृत्व करे।
एक ऐसे वक़्त में जब इसी संत समाज के दो प्रमुख लोग आसाराम और दाती महाराज पर अपनी महिला भक्तों के बलात्कार का सामना कर रहे हैं।
ऐसी रिपोर्ट्स हैं कि पाँच अक्तूबर को दिल्ली में राम मंदिर के मुद्दे पर संतों-धर्माचायों की उच्चाधिकार प्राप्त समिति की बैठक होने जा रही है।
ये संकेत मिल रहे हैं कि अलग-अलग मठों और पंथों के धर्म गुरुओं को इस मुहिम की अगुवाई दी जा सकती है।
मोहन भागवत ने ये भी कहा है कि विपक्ष में किसी के पास इतना माद्दा नहीं होगा कि कोई राम मंदिर का निर्माण रोक सके।
वे न केवल बड़ी चालाकी से इस तथ्य को उलझा रहे थे कि विवाद राम मंदिर के निर्माण को लेकर नहीं है बल्कि उस जगह पर इसके निर्माण को लेकर है जहाँ साल 1992 में उनके समर्थकों और अनुयायियों ने बाबरी मस्जिद को जमींदोज़ कर दिया था।
दरअसल, आरएसएस और भाजपा उत्तर भारतीयों के सबसे प्रिय देवता राम से राजनीतिक मुनाफ़ा अर्जित करना चाहती है। यही उसका मक़सद है।
आरएसएस ख़ुद को राम का सबसे बड़ा भक्त संगठन बताता है और अपने स्वयंसेवकों को सच्चा देशभक्त, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने देश की आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया था।
लेकिन धार्मिक भावनाओं का फ़ायदा उठाने वाले राजनीतिक दल आसानी से 'राम' को एक मुद्दा बना सकते हैं।
मोहन भागवत के बयान के तुरंत बाद सत्ताधारी पार्टी के नेताओं ने फ़ुर्ती दिखाई और अपने बयान जारी किये।
भाजपा सांसद साक्षी महाजन ने कहा कि राम मंदिर का निर्माण कार्य निश्चित रूप से साल 2019 के आम चुनाव से पहले ही शुरू होगा।
और अब जबकि यूपी के उपचुनाव में, खास तौर से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गढ़ में, पार्टी की हार हुई है तो क्या अब राम मंदिर के सहारे अगले साल का आम चुनाव लड़ना पार्टी की मजबूरी होगी?
सुब्रमण्यम स्वामी के अनुसार पार्टी या सरकार ने इस सिलसिले में अब तक कुछ नहीं किया और वो डर रहे हैं कि राम मंदिर पर उनके हक़ में फ़ैसला आया तो इसका श्रेय उन्हें नहीं मिलेगा। वो कहते हैं, "सत्तारूढ़ पार्टी के कई लोग डरे हुए हैं कि सारा क्रेडिट मेरे पास जाएगा।"
बुधवार के अदालत के फ़ैसले के बाद उन्होंने बताया कि अदालत में उनकी दलील क्या थी। वो कहते हैं, "मैंने अदालत में खड़े होकर कहा कि आप या तो मेरी बात सुनें यहाँ या फिर मेरी याचिका को रिट पिटीशन बनाकर किसी अदालत को सौंप दीजिए जहाँ उस पर मैं जिरह कर सकता हूँ तो उन्होंने यही किया।"
सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के ज़फ़रयाब जिलानी स्वीकार तो करते हैं कि इस मुक़दमे में गति उस समय आई जब स्वामी ने हस्तक्षेप किया लेकिन उनके अनुसार इससे सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मुक़दमे पर कोई असर नहीं होगा।
जिलानी कहते हैं, "ये सही है कि इसमें (मुक़दमे को गति देने में) सुब्रमण्यम स्वामी की भूमिका है। उस वक़्त मोदी जी को ये लग रहा था कि छह महीने में फ़ैसला आ जाएगा। लेकिन जब अदालत में बहस शुरू हुई तो सब को अंदाज़ा हुआ कि बहस की क्या सूरत है। अब मामला अदालत में चल रहा है।
सुप्रीम कोर्ट में ये मामला साढ़े सात साल पहले आया था। अगर मुक़दमे की सुनवाई तेज़ी से भी हुई तो आम चुनाव से पहले फ़ैसला नहीं आएगा। और अगर फ़ैसला आया भी और ये राम जन्म भूमि के हक़ में गया तो इसका श्रेय सुब्रमण्यम स्वामी के अनुसार उन्हें जाना चाहिए।
विशेषज्ञ कहते हैं कि जब तक केंद्र और यूपी सरकारों की ओर से मंदिर निर्माण की तरफ़ ठोस क़दम उठते नहीं दिखेगा तब तक उनके समर्थक उनका यक़ीन नहीं करेंगे। ठोस क़दम उठाने के लिए अब समय बहुत कम है। इसलिए भाजपा को विचार करना होगा कि इस मुद्दे को उठाने से उसे आम चुनाव में फ़ायदा कितना होगा।
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने राम मंदिर की सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई को लेकर कांग्रेस पर प्रहार किया। उन्होंने कहा, "एक ओर गुजरात में राहुल गांधी मंदिरों के चुनावी दौरे कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर श्री राम जन्मभूमि केस पर सुनवाई को टालने के लिए कपिल सिब्बल का उपयोग किया जा रहा है।"
बीजेपी के लिये हिन्दुत्व की प्रयोगशाला माने जाने वाले गुजरात में इस बार बीजेपी का एक भी हिन्दू कार्ड काम नहीं आ रहा है। चुनाव की धोषणा के साथ ही बीजेपी ने दो आतंकी के पकड़े जाने के बाद अहमद पटेल पर सवाल खड़े कर दिये। क्योंकि पकड़े गये आतंकियों में से एक, उस अस्पताल में काम करता था, जिसके ट्रस्टी 2014 में कांग्रेस नेता अहमद पटेल हुआ करते थे।अहमद पटेल का अस्पताल से पहले ही इस्तीफा दे देने के कारण हिन्दु मुस्लिम भावना को भड़काने का बीजेपी का ये प्रयास भी असफल रहा।
वहीं हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर ओर जिग्नेश मेवानी की जातिवादी राजनीति के सामने प्रधानमंत्री जब गुजरात में चुनावी रैली करने पहुंचे, तो सालों पहले गुजरात में हुए क्षत्रिय और पाटीदारों के बीच हुए मानगढ़ हादसे को याद कराया। उम्मीद थी की पाटीदार तो नाराज चल रहे हैं. लेकिन क्षत्रिय मान जायेंगे। हालांकि ये दांव भी बीजेपी को काम नहीं आया। उल्टे ये मैसेज गया कि बीजेपी, पाटीदार और क्षत्रियों के बीच आपस में फूट डालने का प्रयास कर रही है।
चाहे विकास का मुद्दा हो या जातिवादी राजनीति का, नोटबंदी या जीएसटी का, गुजरात में बीजेपी बैकफुट पर आ गई है। बीजेपी के लिये अब हिन्दुत्व का एजेंडा ही आखरी रास्ता बचा है। इसे बीजेपी छोड़ना नहीं चाहती है। सांप्रदायिकता के नाम पर बीजेपी लोगों को सोशल मीडिया पर 22 साल पहले की कांग्रेस सरकार को याद करा रही है।लेकिन इस बार ये दांव भी काम नहीं आ रहा है। ऐसे में बीजेपी अध्यक्ष एक बार फिर राम मंदिर के मुद्दे को लेकर आ गये हैं।
गुजरात की राजनीति में राम मंदिर मुद्दा इसलिये भी महत्वपूर्ण है क्योंकि 1993 में राम मंदिर के मुद्दे के साथ आडवानी ने गुजरात से ही सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा निकाली थी।उस वक़्त गुजरात ही पूरे बाबरी मस्जिद विध्वंस का केंद्र रहा था। दिलचस्प बात तो ये है कि उस वक़्त बीजेपी के साथ साथ वीएचपी भी काफ़ी सक्रिय भुमिका में थी। इतने साल बात गुजरात चुनाव से ठीक पहले बीजेपी ने वापस राम मंदिर का राग अलापा है।हालांकि इस बार वीएचपी, बीजेपी के इस मिशन में उनका साथ नहीं दे रही है।
वीएचपी के पूर्व अध्यक्ष प्रवीण तोगड़िया का कहना है कि बीजेपी को संसद में कानुन बनाकर राम मंदिर का निर्माण करा देना चाहिए। अब तो संसद में भी बीजेपी को ही बहुमत है। इस तरह वीएचपी का स्टैंन्ड काफ़ी हद तक क्लियर है कि वो इसबार राम मंदिर के मुद्दे पर खुलकर राजनीति में नहीं कूदेंगे।
अबतक का इतिहास रहा है कि बीजेपी जब भी ग्राउण्ड ज़ीरो पर फंसती दिखी है, उसने राम मंदिर का सहारा लिया है। ऐसे में बीजेपी के लिये गुजरात में राम मंदिर का मुद्दा डूबते को तिनके का सहारा जैसा है।
आप 1989 से लेकर 1998 तक के लोकसभा चुनावों में उसके घोषणापत्रों को देख लीजिए। सबमें प्रथम पृष्ठ का आरंभ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की व्याख्या से होता और विवादित स्थान पर राम मंदिर का निर्माण उसमें शामिल होता था। हालांकि 2009 और 2014 के चुनावों में यह अंतिम पृष्ठ पर चला गया। 2014 का चुनाव एक अलग वातावरण में हुआ था। नरेंद्र मोदी अलग-अलग श्रेणी के लोगों की आकांक्षाओं के समुच्चय बनकर उभरे थे।
किंतु उसमें हिंदुत्व और राष्ट्रवाद भी शामिल था। ऐसे लोगों के लिए मोदी हिंदुत्व आधारित राष्ट्रवाद के प्रतीक थे और उनका विश्वास था कि प्रधानमंत्री बनने के बाद वे मंदिर निर्माण का रास्ता अवश्य निकालेंगे। कहने का तात्पर्य यह कि अंतर्धारा में मंदिर निर्माण का मुद्दा बिल्कुल शामिल था।
2004 में हिंदुत्व समर्थकों ने अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के प्रति बेरुखी प्रदर्शित की थी जिसका असर चुनाव परिणामों पर हुआ। वे सभी नए उत्साह से मोदी के पक्ष में आ गए थे। निश्चय मानिए, यदि अगले आम चुनाव तक बीजेपी मंदिर निर्माण की दिशा में कुछ करती नहीं दिखी तो उसका चुनावी प्रदर्शन इससे प्रभावित होगा।
इसका आभास नेताओं को होना चाहिए। यह कहने से सभी संतुष्ट नहीं होंगे कि मामला न्यायालय में लंबित है। मामला तब भी न्यायालय में था जब बीजेपी ने इसे अपने अजेंडा में शामिल किया और आंदोलन चलाया। मामला तब भी न्यायालय में ही था जब आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या रथयात्रा निकाली। इन तर्कों का बीजेपी कोई जवाब नहीं दे सकती।
अभी तक का सच यही है कि मोदी सरकार की ओर से अयोध्या विवाद को हल करने का कोई प्रयास नहीं हुआ है। वाजपेयी ने अपने शासन के अंतिम समय में बातचीत करने की पहल की थी। बातचीत हुई, किंतु यह इतनी देर से आरंभ हुई कि चुनाव आ गया और वे सत्ता से बाहर हो गए। मोदी सरकार की ओर से तो अयोध्या पर अभी तक कुछ किया ही नहीं गया है।
कहा जा रहा है कि उच्चतम न्यायालय जो फैसला देगा वह हमें स्वीकार होगा। नेताओं से बात करिए तो उनका कहना है कि 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जिन सारे सबूतों को देखने के बाद यह माना था कि मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई, उसे सुप्रीम कोर्ट भी नकार नहीं सकता। यानी सुप्रीम कोर्ट का फैसला मंदिर के पक्ष में आएगा, ऐसी इनको उम्मीद है। पता नहीं क्या होगा, लेकिन यह फैसला आएगा कब? पहले प्रतिदिन सुनवाई की बात थी, अब तो इसमें भी तारीखें लगने लगी हैं।
और अगर फैसला आ गया और वह पक्ष में नहीं आया तो? ये दोनों प्रश्न बीजेपी की चिंता बढ़ा रहे हैं। कुल मिलाकर मोदी सरकार के शासनकाल में मंदिर निर्माण को लेकर अभी तक निरपेक्षता का ही आलम है। सिर्फ रह रह कर इनके इक्का दुक्का मंत्री, प्रवक्ता और भागवत जी मंदिर और बयान दे देते है। ताकि मुद्दा गरम रहे।
इस मायने में वाजपेयी सरकार और इनमें कोई अंतर नहीं है। हां, तब जिस तरह वीएचपी और बजरंग दल वाजपेयी सरकार के विरुद्ध सड़कों पर उतरते थे, वैसा मोदी के कार्यकाल में नहीं हो रहा है। वाजपेयी सरकार के समय तो हालत यह थी कि इस विषय पर मंत्री और सांसद साफ बोलने तक से बचते थे।
वीएचपी ने एक प्रपत्र पर सांसदों से हस्ताक्षर लेने का सामान्य अभियान चलाया था। कुछेक अपवादों को छोड़कर सांसद उस प्रपत्र पर हस्ताक्षर तक करने को तैयार नहीं थे, क्योंकि पूरा वातावरण ही वैसा बन गया था। अभी चूंकि वैसा कोई अभियान भी नहीं चलाया जा सका है, इसलिए इसकी जांच मुश्किल है कि वातावरण कैसा है। जो भी हो, चुनाव में जन समर्थन पाने के लिए बीजेपी को किसी न किसी रूप में मंदिर निर्माण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता साबित करनी होगी।
सुप्रीम कोर्ट का बहाना बनाकर निरपेक्ष रुख अख्तियार किए रहने से यह नहीं हो पाएगा। सबसे बेहतर रास्ता यही है कि मोदी सरकार इससे संबंधित विधेयक लाने का साहस करे।
और इसी तरह हर बार बीजेपी सत्ता पा जाती है। जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूं भारतीय जनता पार्टी उससे इसलिए राम मंदिर का नाम लेती है ताकि वह अपने वोट का जुगाड़ सेट कर सके। भगवान राम को भी जब हिचकी आती होगी तब वो समझ जाते होंगे कि नीचे भारत मे या तो केंद्र का या किसी राज्य का चुनाव है, और बीजेपी घोषणापत्र में उनके मंदिर का जिक्र हो रहा होगा। भले ही उस राज्य का राम मंदिर के मुद्दे में कानूनी रूप से कोई रोल हो या नही। बस जिस राज्य में हिन्दू होंगे वहाँ राम मंदिर का मुद्दा उछलेंगे और भर भर कर वोट बटोरेंगे। मंदिर के नाम और 20 हज़ार करोड़ से भी ज्यादा रकम चंदे के रूप में अर्जित की गई। खुद भाजपा ने 700 करोड़ की हाई टेक आफिस बना लिया। जो किसी सेवन स्टार होटल से कम नही है। भाजपा में नेता और राम मंदिर के नाम पर राजनीति करने वाले साररे नेताजी लोगो की दिन दूनी रात चौगुनी धनिक बृद्धि हुई है। खुद महलो में रह रहे है। लेकिन ट्रिपल तलाक , और एस सी ,एस टी एक्ट की तर्ज़ पर एक अध्यादेश लाकर मंदिर बनाने का कानूनी राश्ता साफ नही कर रहे हैं। क्योकि नियत नही है।
इनके बारे में तो कहावत भी प्रचलित हुई-
राम लाल टाट में,पट्ठे सारे ठाठ में।
मंदिर वही बनाएंगे , लेकिन तारीख नही बताएंगे।
बोलो जय सियाराम ।
जय समाजवाद
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