जय जवान ,जय किसान ,जय विज्ञान! जिसमें जवान बिना खाने के मर रहे हैं, किसान आत्महत्या कर रहे हैं , और विज्ञान वाले पकौड़े तल रहे हैं।
जय जवान जय किसान जय विज्ञान आधे जवान गोलियों से मर रहे हैं और आधे बिना खाए विज्ञान के विज्ञान के मामले तो हाल यह है कि छात्रों को सीधा सीधा बोल दिया , सीधे संसद से फरमान आ गया कि पकोड़ा तलो, जूते सीलो और ऑटो चलाओ।
2014 में सरकार बनने के बाद मोदी जी ने देश को कई नायाब तोहफे दिए । और वह तोहफे अब इतने भी वीवत्स रूप ले चुके हैं की लोगों का जीना तक मुहाल हो चुका है । रेलगाड़ी से लेकर बैलगाड़ी , प्लेटफॉर्म से लेकर शमशान तक , हर जगह मोदी जी ने अपनी काबिलियत के झंडे गाड़ दिए हैं। और इनके बहाने हर रैली में दांत चियार कर फिर खड़े हो जाते है।
रेल किराया लखनऊ से कानपुर 45 रूपये था, आज बढोतरी के। बाद 78 रूपये कर दिया ।प्लेटफार्म टिकट 3 रूपये था और इसे 10 रूपये कर दिया गया। सर्विस टैक्स 12.36% था जो आज GST के रूप में 18% है ।एक्साइज ड्यूटी 12% थी , उसे आज 18% तक बढ़ा दी है । सभी बड़े उधोगपतियो की बैलेंस शीट चैक कर ले, इनकी संपत्ति 2014 के बाद 3 से 5 गुना तक इन्ही की कृपा से बढ़ी है ।
सरकारी बैंकों का NPA(गैर उत्पादक संपत्ति) अर्थात वह रूपया जो बड़े उधोगपतियो को कर्ज में दिया था लेकिन नही चुकाने के कारण डूब गया, 2014 में 1.18 लाख करोड़ था जो आज 6.42 लाख करोड़ हो गया है । यानी करदाताओं का 6.42 लाख करोड़ उन उधोगपतियो की जेब मे था, उसे सरकार ने डूबत खाते में डाल दिया। डॉलर का रेट 58.57 था पर मै डॉलर को आज 70 रुपये के पार है। आज भी जब डॉलर के मुकाबले रुपए को गिरते हुए देखता हूं तो विदुषी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज स्वराज का वह वक्त अब याद आता है कि "जैसे जैसे पैसा गिर रहा है वैसे-वैसे प्रधानमंत्री की गरिमा गिर रही है"।
130 करोड रुपये की गैस सब्सिडी खत्म करवाने के लिए 250 करोड़ का विज्ञापन दे दिया गया। स्वच्छता अभियान का विज्ञापन 750 करोड का दिया लेकिन सफाई कर्मियों की तनख्वाह के लिए सरकार के पास पैसे नही है ।योगा डे के लिए 470 करोड दिये, रामदेव को हरियाणा स्कूलो मे योगा सिखाने के लिए सालाना 700 करोड खर्च किये जा रहे है, पर टीचर भर्ती को बजट नही है ।
स्कूलो के लिए पैसे नहीं हैं इसलिये मजबूरन प्राथमिक शिक्षा के बजट में 20% की कटौती करनी पड़ी । सरकार के पास कॉरपोरेट को 1,64,000 करोड टैक्स छूट देने के लिए तो है मगर आत्महत्या कर रहे किसानों का ऋण चुकाने को 50000 करोड़ नहीं है ।
स्किल इंडिया के लिए 200 करोड़ का विज्ञापन बजट दिया , मगर विद्यार्थियों की छात्रवृति में 500 करोड़ की कटौती कर दी। सरकार घाटे में हैं, रेलवे की जमीनें बेचने का टेंडर पास कर दिया है क्योंकि अडानी को रेल के विकास में 22000 करोड़ देने का कुछ प्रावधान किया गया हैं। माल्या को 9000 करोड़ लोन ले कर विदेश भाग गया कोई बात नहीं, देश के हर नागरिक का केवल 75 रुपया ही तो गया है और इस 75 रुपये को भी हर व्यक्ति को एक-एक *किंगफिशर* बीयर की बोतल बेच कर वसूल कर ली जा रही है।
2014 और उससे पहले जिस मुख्य मुद्दे को लेकर बाबा रामदेव श्री श्री रविशंकर जैसे संत छातियां पीट रहे थे , और सलवार पहन कर भाग रहे थे ।उसे मुख्य मुद्दे को पूरी तरह से बनाने के लिए नरेंद्र मोदी जी ने एक भ्रम जाल फेंका और जनता से कहा कि हम सब दिन के अंदर काला धन भारत में लेकर आएंगे । लेकिन मोदी जी के सरकार में आते ही हुआ क्या विदेश मे धन भेजने की सीमा (LRS) 2014 में 75 हजार डालर थी। सरकार के आते ही, एक हफ्ते के अन्दर इस सीमा को बढाकर 125 हजार डालर कर दिया जाता है। और शायद इससे भी मोदी जी का मन नहीं माना या उनका पेट नहीं भरा ? फिर अगले वर्ष 26 मई 2015 को इसको बढाकर 250 हजार डालर कर दिया।
मतलब जय जवान और जय विज्ञान की मिट्टी पलीद तो पहले ही कर दी आज हम बात करेंगे जय किसान के बारे में। वही किसान जिसके बारे में चुनावों में, उपचुनावों में ,नई राजनीति पार्टी बनाते समय, पुरानी राजनीति पार्टी छोड़ते समय, पद पाते समय, पद छोड़ते समय, हर नेता मुह निपोरे बोलता है।
देश नही बिकने दूंगा, महंगाई को बढ़ाने वाले जनता माफ नही करेगी जैसे स्लोगनों के सहारे , जबरजस्त मार्केटिंग शैली , ब्रेनवाश की अद्भुत तकनीकी के सहारे सत्ता में आये भाजपा ने किसानो की हालत को और ज्यादा नाजुक बना दिया है, सिर्फ पिछले 4 साल में लगभग 10% प्रतिशत कृषि परिवारों ने कृषि छोड़ दिया। ये एक बेहद ही भयानक स्थिति को जन्म देने जैसा है।
हाल ही में 16 अगस्त को नाबार्ड ने अपनी एनएएफआईएस की रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश के आधे से ज़्यादा कृषि परिवार कर्ज के दायरे में हैं और हर एक व्यक्ति पर औसतन एक लाख से ज़्यादा का कर्ज है। नाबार्ड ने इस रिपोर्ट को 2015-16 के दौरान 245 जिलों के 2016 गांवों के 40,327 परिवारों के बीच सर्वे करके तैयार किया है।
नाबार्ड की इस रिपोर्ट के बताया गया है कि ग्रामीण भारत में 48 प्रतिशत परिवार ही कृषि परिवार हैं। इसके अलावा गांव के अन्य परिवार गैर-कृषि स्रोतों पर निर्भर हैं।गौरतलब है कि इससे पहले 2014 में एनएसएसओ द्वारा इसी तरह की रिपोर्ट जारी की गई थी. जिसकेे मुताबिक साल 2012-13 में ग्रामीण भारत में 57.8 प्रतिशत कृषि परिवार थे।
इस हिसाब से तीन साल में लगभग 10 प्रतिशत कृषि परिवार घट गए। सबसे ज़्यादा मेघालय (78 प्रतिशत) में कृषि परिवार हैं। इसके बाद मिजोरम (77 प्रतिशत), जम्मू (77 प्रतिशत), हिमाचल प्रदेश (70 प्रतिशत) और अरुणाचल प्रदेश (68 प्रतिशत) कृषि परिवार हैं। सबसे कम गोवा (3 प्रतिशत), तमिलनाडु (13 प्रतिशत) और केरल (13प्रतिशत) में कृषि परिवार हैं।
हालांकि नाबार्ड कि ये रिपोर्ट बताती है कि खेती और पशुपालन के जरिए कमाई में भारी कमी आई है। एनएसएसओ की पिछली रिपोर्ट के मुताबिक साल 2012-13 में कृषि परिवार की कमाई का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा कृषि व्यवसाय (कृषि/पशुपालन) से था जबकि लगभग 32 प्रतिशत कमाई मजदूरी/रोजगार वेतन से होता था।
मौजूदा सर्वे के मुताबिक खेती से ज़्यादा ग्रामीणों की कमाई का 43 प्रतिशत हिस्सा दिहाड़ी मजदूरी से आता है।यहां तक कि कृषि परिवार की भी 34 प्रतिशत कमाई दिहाड़ी मजदूरी से होती है।वहीं ग्रामीणों की कमाई का 24 प्रतिशत हिस्सा सरकारी या निजी नौकरी के जरिए आता है।
कृषि के लिए इंफोसिस चेयर प्रोफेसर अशोक गुलाटी कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लक्ष्य है कि 2022-23 तक किसानों की आय दोगुनी की जाएगी। इसके लिए दलवाई कमेटी ने आकलन किया है कि किसानों की वास्तविक आय 10.4 प्रतिशत प्रति वर्ष के हिसाब से बढ़नी चाहिए, जो कि अब तक के सबसे ज़्यादा वृद्धि दर (3.7 प्रतिशत) का 2.8 गुना है।ये उसी तरह की बात है कि देश की जीडीपी वृद्धि दर को 7.2 प्रतिशत से लेकर 20 प्रतिशत तक पहुंचाना है। क्या ये संभव हो पाएगा?
पिछले तीन से चार साल में सरकार जिस तरह की कृषि योजनाएं लेकर आई है और उसे जिस तरह लागू किया गया है, इसे देखकर लगता है कि किसानों की आय 2025 तक भी दोगुनी नहीं हो सकती है।
30 दिसम्बर 2016 को जारी राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट ‘एक्सिडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया 2015’ के मुताबिक साल 2015 में 12,602 किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों ने आत्महत्या की है। 2014 की तुलना में 2015 में किसानों और कृषि मजदूरों की कुल आत्महत्या में दो फीसदी की बढ़ोतरी हुई। साल 2014 में कुल 12360 किसानों और कृषि मजदूरों ने आत्महत्या की थी। गौर करने वाली बात ये है कि इन 12,602 लोगों में 8,007 किसान थे जबकि 4,595 खेती से जुड़े मजदूर थे। साल 2014 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 5,650 और खेती से जुड़े मजदूरों की संख्या 6,710 थी। इन आंकड़ों के अनुसार किसानों की आत्महत्या के मामले में एक साल में 42 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। वहीं कृषि मजदूरों की आत्महत्या की दर में 31.5 फीसदी की कमी आई है।
किसानों की आत्महत्या के मामले में सबसे ज्यादा खराब हालत महाराष्ट्र की रही। राज्य में साल 2015 में 4291 किसानों ने आत्महत्या कर ली। महाराष्ट्र के बाद किसानों की आत्महत्या के सर्वाधिक मामले कर्नाटक में 1569, तेलंगाना में 1400, मध्य प्रदेश में 1290, छत्तीसगढ़ में 954, आंध्र प्रदेश में 916 और तमिलनाडु में 606 सामने आए। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के रिपोर्ट के अनुसार किसानों और कृषि मजदूरों की आत्महत्या का कारण कर्ज, कंगाली, और खेती से जुड़ी दिक्कतें हैं। आंकड़ों के अनुसार आत्महत्या करने वाले 73 फीसदी किसानों के पास दो एकड़ या उससे कम जमीन थी।
यह सब काम हो रहा है जबकि देश में 2014 के बाद मोदी जी प्रधानमंत्री बने और उन्होंने काला धन के साथ-साथ किसानों की समस्या को पुरजोर तरीके से उठाया। और काला धन को किसानों से जोड़कर किसानों के हितों की बात करने लगे । माहौल कुछ ऐसा घुमाया की हर तबके के लोगों ने उन्हें वोट देकर अपनी भलाई देखने लगे । लेकिन 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद ही किसानों के साथ ऐसे ऐसे मजाक हुए जो यहां पर बताना भी अजीब लग रहा है। जैसे यूपी 2017 के चुनाव में कहा गया कि किसान की कर्ज की माफी होगी, ठीक वही वादा जो वादा नरेंद्र मोदी जी ने किया था । और कर्ज माफी की जब सर्टिफिकेट आई तो किसी के 25 पैसे, किसी के ₹15, किसी के 7 पैसे, किसी के 10 पैसे, तो किसी के ₹200 माफ किए गए थे ।
ऐसे मजाक किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर नहीं करेंगे तो फिर क्या करेंगे यह सोचने वाली बात जरूर है। किसानों की आत्महत्या किसी भी समाज के लिए एक बेहद शर्मनाक स्थिति है। आखिर वो कौन सी परिस्थितियां हो सकती हैं जिसकी वजह से किसान, जो सबके लिए अनाज उपजाता है वो आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है। भारत में अभी हाल के दिनों में किसानों के आत्महत्या करने के आंकड़ों में वृद्धि दर्ज की गयी है जो वाकई चिंता का विषय है और इस ओर अगर वक्त रहते ध्यान नहीं दिया गया तो ये हालात और भी बिगड़ सकते हैं। सरकार को किसानों की आत्महत्या जैसे ज्वलंत मुद्दे को समझने और उन कारणों, जिनकी वजह से किसान इतना बड़ा कदम उठाने पर मजबूर हो जाते हैं, का समाधान सोचने की आवश्यकता है। भारत जैसे एक कृषि प्रधान देश में किसानों की आत्महत्या बेहद चिंताजनक स्थिति है।
किसानों की आत्महत्या रोकने का कार्य सरकार कई किसान कल्याण एवं कृषि विकास की योजनाओं द्वारा कर सकती है। साथ ही सरकार को फसल बीमा एवं कई अन्य प्रकार की सहायता जैसे सहकारी बैंकों से कम ब्याज दर पर ऋण की उपलब्धता कराना एवं उच्च गुणवत्ता वाले बीज, उच्च स्तर के खाद, उत्तम कृषि यंत्र प्रदान करना एवं भूमिहीन किसानों को भूमि उपलब्ध कराना आदि उपायों के द्वारा सरकार किसानों की आत्महत्या को रोकने में कामयाब हो सकती है। कृषि क्षेत्र में निरंतर मौत का तांडव दोषपूर्ण आर्थिक नीतियों का नतीजा है। दोषपूर्ण आर्थिक नीतियों के चलते कृषि धीरे-धीरे घाटे का सौदा बन गई है, जिसके कारण किसान कर्ज के दुश्चक्र में फंस गए हैं।पिछले एक दशक में कृषि ऋणग्रस्तता में 22 गुना बढ़ोतरी हुई है। अत: सरकार को किसानों के लिये प्रभावी नीतियों का निर्माण करना होगा। सबसे बढ़कर इन नीतियों का कार्यान्वयन सुनिश्चित करना होगा।
50% के करीब आबादी कृषि पर निर्भर है। 66% जनसंख्या आजादी के समय कृषि पर िनर्भर थी। देश में किसानों के पास 13 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य जमीन है। 60% किसान देश में सिर्फ साक्षर हैं और 50% के करीब पढ़े-लिखे हैं। देशभर में 28 करोड़ टन पैदावार प्रति वर्ष होती है। सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की हिस्सेदारी 16% है।3080 रु. प्रतिमाह कमा पा रहा है किसान कृषि से। 3320 रु. प्रतिमाह आय इन्हें पशु पालन जैसे गैर कृषि कार्यों से होती है। इस तरह औसत 6400 रुपए होते हैं।12% प्रति वर्ष ग्रोथ रेट चाहिए 6 साल में किसानों की आय दोगुनी करने के लिए। क्योंकि सरकार ने फरवरी 2016 में कहा था कि 2022 तक आय दोगुनी हो जाएगी। 2008 में केंद्र सरकार ने 72 हजार करोड़ रुपए के कर्ज माफ किए थे। लेकिन बाद में सीएजी ने कहा इसमें गड़बड़ियां हुई हैं।
2017 में उत्तरप्रदेश में किसानों के दस-बीस रुपए के कर्ज माफी की बात सामने आई। कर्नाटक में हाल ही के चुनाव से पहले जेडीएस ने वादा किया था कि सरकार में आते ही पहले दिन किसानों के 53 हजार करोड़ रु. के कर्ज माफ कर देंगे। पर ऐसा नहीं हुआ। 22 हजार करोड़ रु. फसल बीमा योजना के लिए बीमा कंपनियों को दिए हैं, पर किसानों को मुआवजा 13 हजार करोड़ ही दिया गया है।
महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में इस साल सरकार द्वारा अधिप्राप्ति को रोकने के बाद दालों की कीमतों में गिरावट के कारण बहुत सारे विरोध प्रदर्शन हुए, जिनमें अरहर दाल विशेष है। 2014 में सत्ता में आने के बाद कृषि मोर्चे पर भाजपा सरकार के लिए लगभग तीन साल बड़े शांति से गुजरे, लेकिन मंदसौर की गोलीबारी ने इस शांति को अशांति में बदल दिया और केंद्र सरकार को एक नए मोड़ पर खड़ा कर दिया। इस मुद्दे से केंद्र सरकार की छवि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। इस मुद्दे पर कृषि संघों और विपक्षी दलों ने सरकार का कड़ा विरोध किया और इसी के चलते कुछ प्रमुख सहयोगियों ने सत्तारूढ़ गठबंधन छोड़ दिया।
औसतन हर इकतालीस मिनट में हमारे देश में कहीं न कहीं एक किसान आत्महत्या करता है। वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र, तेलंगाना, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक व आंध्र प्रदेश जैसे छह राज्यों में ही 94.1 फीसद कृषक-आत्महत्या के मामले दर्ज किए गए हैं। सवाल है कि कृषिक्षेत्र की गुलाबी तस्वीर पेश करने की सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद ये आंकड़े घटने के बजाय बढ़ क्यों रहे हैं? दरअसल, किसान-आत्महत्या का यह सिलसिला दोषपूर्ण आर्थिक नीति का नतीजा है।
एक ऐसी नीति जिसमें गरीब और गरीब हो रहे हैं, जबकि अमीर और अमीर। कृषि को व्यवस्थित तौर पर ऐसा बनाया गया है कि वह पुसाने लायक नहीं रह गई है, जिसके कारण किसान कर्ज के जाल में फंसते जाते हैं। आजादी के समय जहां सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान पचास फीसद से ज्यादा था वहीं मौजूदा दौर में बीस फीसद भी नहीं रहा। जरा सोचिए कि क्या कारण है कि एक किसान मंडी में टमाटर पचास पैसे प्रति किलो बेचने जाता है, लेकिन खरीदार पच्चीस पैसे प्रति किलो देने को कहता है और वह किसान एक ट्रैक्टर टमाटर को जमीन पर रौंद कर चला जाता है?
इसी रिपोर्ट का हवाला दें तो सबसे ज्यादा आत्महत्याएं कर्ज में डूबने के कारण ही हुई हैं। गौरतलब है कि ये कर्ज सरकारी बैंकों के हैं, न कि साहूकारों के। रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2014 की 1,163 आत्महत्याओं के मुकाबले 2015 में 3097 किसानों की आत्महत्या का कारण ऋणग्रस्तता रही है। यानी एक ही साल में इस संख्या में तीन गुना वृद्धि हुई। फसल की बर्बादी के कारण होने वाली आत्महत्या के आंकड़े भी चौंकाने वाले हैं। फसलों के चौपट होने से जहां 2014 में 969 किसानों ने आत्महत्या की, वहीं वर्ष 2015 में 1562 किसानों ने।
ये आंकड़े चौंकाने वाले इसलिए हैं कि मौजूदा केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना और किसानों की आय दोगुनी करने की घोषणा ही नहीं की बल्कि यह दावा भी किया कि इसका फायदा किसानों को मिल रहा है। लेकिन आत्महत्या की प्रवृत्ति में वृद्धि ने इस दावे को धता बता दिया है। इतना ही नहीं, फडणवीस सरकार ने तो महाराष्ट्र के किसानों की आय दो गुनी होने के आंकड़े भी जारी कर दिए थे, जबकि एनसीआरबी ने सबसे ज्यादा किसानों की आत्महत्या की घटनाएं महाराष्ट्र से ही दर्ज की हैं। यह कुल आत्महत्या का 37.8 फीसद है।
आमतौर पर किसान एक जुझारू कौम मानी जाती है। किसान जैसा मेहनती और लगनशील व्यक्ति दूसरा कोई नहीं मिलता लेकिन इतना जीवट होने के बाद भी किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हो गया, दरअस्ल इसकी शुरुआत हमारे देश में नब्बे के दशक में उदारीकरण की शुरुआत के साथ ही हो गई थी। एक आंकड़े के अनुसार 1995 से 2015 तक करीब बीस साल में तीन लाख से भी ज़्यादा किसानों ने आत्महत्या की है।
एनसीआरबी के मुताबिक किसानों और खेतों में काम करने वाले मज़दूरों की आत्महत्या का कारण कर्ज़, कंगाली और खेती से जुड़ी दिक्कतें हैं। लगातार यह बात भी सामने आ रही है कि खुदकुशी करने वाले ज़्यादातर किसान साहूकार या महाजन के कर्ज़ से परेशान नहीं थे, बल्कि बैंकों के कर्ज़ से परेशान होकर उन्होंने अपना जीवन ख़त्म करने जैसा कदम उठाया। एनसीआरबी के मुताबिक आत्महत्या करने वाले किसानों में 80 फीसद किसान ऐसे थे जिन्होंने बैंकों के कर्ज़ की वजह से जान दी।
इसके अलावा उदारीकरण के इन 20-25 वर्षों में लाखों किसान खेती भी छोड़ चुके हैं। यानी खेती-किसानी आज घाटे का सौदा बन गई है। इससे साफ है कि हमारा किसान न कायर है और न किसी कमज़ोरी या आवेश में वह खुदकुशी का रास्ता चुनता है, बल्कि दोष हमारी नीतियों का है, जो एक किसान और उसके परिवार के लिए बेहतर भविष्य की बजाय सिर्फ़ फांसी का फंदा ही तैयार कर रही हैं।
किसानों द्वारा नियमित आत्महत्याओं की सूचना सबसे पहले अंग्रेजी अखबार द हिंदू के ग्रामीण मामलों के संवाददाता पी. साईंनाथ ने १९९० ई. में छापी। आरंभ में ये खबरें महाराष्ट्र से आईं ।शुरुआत में लगा की अधिकांश आत्महत्याएं महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के कपास उत्पादक किसानों ने की है ।लेकिन महाराष्ट्र के राज्य अपराध लेखा कार्ययालय से प्राप्त आंकड़ों को देखने से स्पष्ट हो गया कि पूरे महाराष्ट्र में कपास सहित अन्य नकदी फसलों के किसानों की आत्महत्याओं की दर बहुत अधिक रही है । आत्महत्या करने वाले केवल छोटी जोत वाले किसान नहीं थे बल्कि मध्यम और बड़े जोतों वाले किसानों भी थे ।
राज्य सरकारों ने इस समस्या पर विचार करने के लिए कई जाँच समितियाँ बनाईं । भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विदर्भ के किसानों की सहायता के लिए राज्य सरकार को ११० अरब रूपए के अनुदान की घोषणा की ।लेकिन यह समस्या महाराष्ट्र तक ही नहीं रुकी ।बाद के वर्षों में कृषि संकट के कारण कर्नाटक, केरल, आंध्रप्रदेश, पंजाब, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी किसानों ने आत्महत्याएं की ।इस दृष्टि से २००९ अब तक का सबसे खराब वर्ष था जब भारत के राष्ट्रीय अपराध लेखा कार्यालय ने सर्वाधिक १७,३६८ किसानों के आत्महत्या की रपटें दर्ज की। सबसे ज़्यादा आत्महत्याएं महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुई थी ।
भारत में सरकार काफ़ी पैसा कृषि से संबंधति सरकारी केन्द्रों के संचालन में लगाती हैं। इन केन्द्रों के अफ़सर, किसानो की समस्या का कोई समाधान नही देते हैं। ऐसे अफ़सर उलटे उन किसानो से फर्जी तरीके से धन प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। ये सरकारी अफ़सर हम और आप में से ही लोग होते हैं हमें इतना सोचना चाहिए कि कोई किसान हमारी इक गलत निर्णय से आत्महत्या न कर ले।सरकार को जागरूक करने के साथ-साथ हमें खुद को भी जागरूक करना होंगा।
भारत में अधिकत्तर किसान आज भी अशिक्षित हैं जिसके कारण वो अपने आस-पास के साहूकारों से कर्ज उधार लेते हैं जो कि 70% से 120% तक का इंटरेस्ट (सूद) लेते हैं जबकि यही बैंको से लेने पर 12% से 17% तक देना होता हैं। सरकार को इन समस्याओ पर कड़ा क़दम उठाना चाहिए। बैंको के लेन-देन की प्रक्रिया को आसान बनाने की कोशिश करे और किसानो को बैंक सम्बंधित कार्यो की जानकारी देनी चाहिए।बैंको से लोन या कर्ज लेने पर किसानो को बैंक मेनेजर को भी पैसे देने पड़ते हैं।
सरकार को भारत में किसानों की आत्महत्याओं के मुद्दे पर नियंत्रण करने के लिए कदम उठाने चाहिए जैसे कि सरकार को विशेष कृषि क्षेत्रों की स्थापना करनी होगी जहां केवल कृषि गतिविधियों की अनुमति दी जानी चाहिए।किसानों को कृषि उत्पादकता बढ़ाने में मदद करने के लिए आधुनिक कृषि तकनीकों को सिखाने के लिए पहल की जानी चाहिए।सिंचाई सुविधाओं में सुधार होना चाहिए।ख़राब मौसम की स्थितियों के बारे में किसानों को चेतावनी देने के लिए राष्ट्रीय मौसम जोखिम प्रबंधन प्रणाली की शुरुआत की जानी चाहिए।
भारत में किसानों की सबसे महत्वपूर्ण समस्याओं में से एक बाजार है। भारत में कानून व्यवस्था पुरानी हैं और बार-बार एक किसान के पास उसके उत्पाद को विनियमित बाजारों में बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, जहाँ मध्यस्थ लोगों को अधिक लाभ प्राप्त होता हैं। कभी-कभी, वे 75% तक लाभ कमा लेते हैं अगर बिचौलियों का सफाया किया जाए तो किसान अपने उत्पादों को बेहतर दरों पर बेच सकते हैं।
दूसरी ओर, किसानों को न्यूनतम मात्रा में संतुष्ट रहना चाहिए। चीनी कारखानों में स्थिति विशेष रूप से भयानक होती है, जहाँ तराजू तक पहुँचने में उन्हें कष्ट का सामना करना पड़ता हैं और किसानों के लिए लाइन तोड़ने के अलावा अभी भी महत्वपूर्ण समय लगता है। कुछ परिस्थितियों में किसानों को साहूकारों को अपने उत्पाद मुफ्त देने की भी जरूरत पड़ जाती है। यह एक बहुत ही सामान्य घटना है कि छोटे गांवों में बिक्री बहुत कठिनाई से होती है। ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण में सही ढंग से कहा गया है कि बिक्री के समय, स्थान या शर्तों के संदर्भ में किसानों के लिए कुछ भी अनुकूल नहीं है।
भारत में किसानों को अक्सर खराब गुणवत्ता वाले बीज को बोना पड़ जाता है। इस खेदजनक स्थिति के लिए कई कारण- किसानों की अनभिज्ञनता, अधिकारियों के भ्रष्टाचार, अप्रभावी और बलपूर्वक कानून और उसी के अनुचित प्रवर्तन शामिल हैं। वे खराब गुणवत्ता वाले उर्वरक और कीटनाशकों का उपयोग करते हैं। इन सभी कारकों में अक्सर फसलें पूरी तरह से नष्ट हो जाती है। अक्सर ऐसा होता है कि बेहतर गुणवत्ता वाले बीज इतने महँगे होते हैं कि छोटे और मध्यम किसान उन्हें खरीद नहीं पाते हैं।
जहाँ तक खाद का सवाल है, सबसे छोटे किसानों को गोबर का उपयोग करना पड़ता है, जो कि करागर है। हालाँकि, उनके आगे समस्या यह है कि इस गोबर का वह ईंधन के रूप में भी प्रयोग करते है, जिसका अर्थ है कि सभी के पास पर्याप्त गाय का गोबर उपलब्ध नहीं हो पाता है। गरीब किसानों के लिए ज्यादातर रासायनिक उर्वरकों को खेतों में प्रयोग करना भी असंभव हैं, यह भी कहा गया है कि भूमि को स्वस्थ रखने के लिए जैविक खाद अत्यन्त आवश्यक है। हालाँकि, यह भी पाया गया है कि इनके अत्यधिक उपयोग से भूमि अनुपयोगी हो जाती है और फसलों की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है।
सही प्रकार की फसल बीमा पॉलिसी शुरू की जानी चाहिए।किसानों को आय के वैकल्पिक स्रोतों के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सरकार को उन्हें नए कौशल हासिल करने में मदद करनी चाहिए।यह सही समय है जब भारत सरकार को किसानों की आत्महत्याओं के मुद्दे को गंभीरता से लेना शुरू कर देना चाहिए। अब तक की गई कार्यवाही इन मामलों को सुलझाने में सक्षम नहीं है। इसका मतलब यह है कि पालन किये जा रहे रणनीतियों का पुनः मूल्यांकन और उन्हें कार्यान्वित करने की जरुरत है।उनको खेती के विभिन्न पहलुओं के बारे में शिक्षित करने की आवश्यकता है।
उनकी मदद करने के लिए उत्कृष्टता केंद्र स्थापित करने की आवश्यकता है।कृषि विश्वविद्यालयों को नए विज्ञान पर आधारित प्रथाओं और तकनीकों को खोजने की आवश्यकता है।बीमा की आवश्यकता है।उन्हें ऋण में बेहतर पहुँच और नियम एवं शर्तों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।भूमि धारण (जुताई) संगठित होनी चाहिए।कार्बनिक खाद का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।मशीनीकरण की आवश्यकता है।बाजारों को विनियमित किया जाना चाहिए।सरकार द्वारा किसानों को पूँजी का प्रत्यक्ष प्रावधान।एकीकृत, अनुबंध और सहकारी कृषि को प्रोत्साहित करना।जल गैराजों का विकास करना।
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