जब दर्जी पैंट बनाने के लिए कपड़ा काटता है और गलती से ज्यादा कट जाने पर ग्राहक को कच्छे के फायदे बताने लगता है। नोटबन्दी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। आतंकवाद, जालीनोट, और कालाधन पर लगाम के दावे को फेल होता देख, बात को कैशलेस के फायदे तक मोड़ा गया। फिर वह से ध्यान भटकाने के लिए जीएसटी का तोता उड़ा दिया।
ट्विटर और फेसबुक पर कुछ बेहद ही ख़ालिहर और फालतू टाइप के लोगों को हम अक्सर सरकार के कामों की तारीफ करते हुए देख लेते हैं। और इन कामों में सबसे ज्यादा दांत चियार चियार कर जो तारीफ की जाती है, वह नोटबंदी और जीएसटी की की जाती है। यह ख़ालिहर लोग दिन-रात यूट्यूब, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम हर जगह सरकार की इन चीजों को देश के लोगों के फायदे में बढ़ा चढ़ाकर बताते रहते हैं।
जीएसटी से पहले जिस घटना को सरकार अब और उसके चेले सबसे बड़ी उपलब्धि मानते आए हैं, वह नोटबंदी । हालांकि अब की नोटबंदी से होने वाले फायदे और नुकसान की पूरी डिटेल आ चुकी है । रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने अपनी फाइनल रिपोर्ट में बता दिया है कि नोटों की गिनती पूरी हो चुकी है।
नोटबंदी लागू होने के बाद बंद किए गए 500 और 1,000 रुपये के नोटों का 99.3 प्रतिशत बैंको के पास वापस आ गया है। रिजर्व बैंक की वार्षिक रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है।नोटबंदी के समय मूल्य के हिसाब से 500 और 1,000 रुपये के 15.41 लाख करोड़ रुपये के नोट चलन में थे। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में कहा गया है कि इनमें से 15.31 लाख करोड़ रुपये के नोट बैंकों के पास वापस आ चुके हैं।
नोटबंदी की वजह से नये नोटों की छपाई पर 7965 करोड़ रुपये खर्च हुए थे । रिजर्व बैंक ने 500 और 2,000 रुपये के नए नोट और अन्य मूल्य के नोटों की छपाई पर 7,965 करोड़ रुपये खर्च किए, जो इससे पिछले साल खर्च की गई 3,421 करोड़ रुपये की राशि के दोगुने से भी अधिक है।2017-18 के दौरान केंद्रीय बैंक ने नोटों की छपाई पर 4,912 करोड़ रुपये और खर्च किए।
नोटबंदी को कालेधन, भ्रष्टाचार पर अंकुश और जाली नोटों पर लगाम लगाने के कदम के रूप में देखा जा रहा था।लेकिन रिजर्व बैंक का कहना है कि एसबीएन में 500 और 1,000 के पकड़े गए जाली नोटों की संख्या क्रमश: 59.7 और 59.6 प्रतिशत कम हुई है।
वायुसेना ने नोटों की ढुलाई का बिल 29.41 करोड़ भेजा था। नए करेंसी नोटों लायक एटीएम मशीनों के रिकैलिब्रेशन में भी 100 करोड़ खर्च हुए थे। कुल खर्च 8194.41 करोड़ रु याद रखिए। बैंक कर्मियों को जो ओवरटाइम के लिए भुगतान किया गया,अभी उसके आंकड़े नही मिले हैं।
मोदी जी ने नोटबंदी की घोषणा करते हुए गरीबों के हितों और उनकी भलाई की बड़ी बड़ी बातें की थी मगर उनके इस फैसले से अगर कोई सबसे ज़्यादा और बुरी तरह प्रभावित हुआ था तो वो देश का यही गरीब और मध्यमवर्गीय तबका था जिसने तपती दोपहरी में बैंको की कतारों में खड़े होकर उनके इस यज्ञ में सबसे ज़्यादा आहुति दी थी।
यूँ तो व्यवस्था द्वारा देश की जनता को कतारों में खड़ा करने का चलन बड़ा पुराना है लेकिन आंखों में बेबसी के आंसू और एक अजीब सा डर लिये पूरे देश को एक साथ कतार में खड़ा कर देना कोई मामूली बात नहीं थी और कतारें भी ऐसी की शायद ही देश ने इससे पहले कभी इतनी लंबी कतारें देखी हों।
जैसे जैसे दिन बीतते गए वैसे वैसे कतारें और लंबी होती चली गई, बेबसी के आंसू आँखों से छलककर पलकों से बरसने लगे। नोटबंदी के सदमे और बैंकों की कतारों में दम तोड़ती उम्मीदें अब जानलेवा होने लग गई थी। देश के अलग अलग हिस्सों से नोटबंदी की वजह से मौतों की खबरें आनी शुरू हो गई। किसी ने नोट ना बदल पाने की बेबसी में खुदखुशी कर ली तो कोई पुराने नोटों से इलाज ना मिल पाने की वजह से मौत के मुंह में समा गया तो कोई कतारों में खड़े खड़े हृदयाघात का शिकार हो गया।
नोटबंदी के पहले ही हफ़्ते में ये आकड़ा दो दर्जन के पार पहुँच चुका था और नवंबर बीतते बीतते ये संख्या लगभग इससे दुगनी से भी ज़्यादा हो चुकी थी।नोटबंदी की घोषणा करते वक़्त प्रधानमंत्री के भाषण और नोटबंदी लागू होने के बाद बार बार बदलते नियमों के बीच विरोधाभास उतपन्न होने लगा था। प्रधानमंत्री सहित सत्ताधारी दल के मंत्रियों और नेताओं के बयानों और दावों से उलट आम जनता में नोटबंदी को लेकर अफ़रा-तफ़री और आक्रोष साफ़ साफ़ नज़र आ रहा था बार बार बदलते नियम सरकार की आधी अधूरी तैयारियों की पोल खोल रहे थे।
मोदी जी के दावों पर लोगों का संदेह अब यकीन में बदलने लगा था। लोगों को समझ आने लगा था की नोटबंदी कोई कारगर प्रक्रिया नहीं बल्कि नोटबदली जैसी कोरी बकवास और सनक भर थी जिसमें पूरे देश को झोंकने का दुस्साहस किया गया।
2016 में जनवरी से सितंबर के बीच की तीन तिमाहियों में अर्थव्यवस्था की विकास दर क्रमश: 7.9, 7.9 और 7.5 फीसदी थी। सरकार को तब उम्मीद थी कि आने वाली तिमाहियों में विकास की दर और तेज होगी। इस बीच नवंबर में नोटबंदी की घोषणा हो गई। इसके बाद की तीन तिमाहियों में विकास दर केवल 7.0, 6.1 और 5.7 फीसदी रही है।
कई जानकार इन आंकड़ों की तुलना करते हुए ही सरकार पर निशाना साध रहे हैं। उनका कहना है कि नोटबंदी के पहले की तीन तिमाहियों की विकास दर का औसत 7.8 फीसदी था, जबकि बाद में यह घटकर केवल 6.3 फीसदी रह गया।आलोचकों का कहना है कि विकास दर यदि पहले जितनी भी होती तो यह 1.5 फीसदी ज्यादा होती। बहरहाल आलोचकों के इस मॉडल के लिहाज से अभी के 170 लाख करोड़ रुपये के जीडीपी आकार के लिहाज से इस साल अर्थव्यवस्था में 2.55 लाख करोड़ रु की कम वृद्धि हो सकती है।
सरकार ने नोटबंदी के जिन नुकसानों की चर्चा नहीं की थी उनमें दूसरा सबसे अहम रोजगार रहा है।महाजनों का कोष खत्म हो जाने और बैंकों की खस्ता हालत के चलते इसका सबसे ज्यादा प्रभाव असंगठित क्षेत्र पड़ा। इसमें छोटी विनिर्माण इकाइयां और सेवा क्षेत्र के व्यवसाय सबसे ज्यादा प्रभावित हुए। ग्रामीण अर्थव्यवस्था जो मूलत: खेती पर आश्रित होती है, पर भी इसका खासा असर देखने को मिला।
छोटे और मध्यम आकार के उद्योग भी इसकी चपेट में आए। बड़े और संगठित क्षेत्रों में रियल एस्टेट सेक्टर पर इसका सबसे ज्यादा नुकसान देखा गया। इन क्षेत्रों में ज्यादातर काम नगदी के दम पर होता है, लिहाजा पूंजी न मिलने से बड़ी संख्या में कारोबार बंद हो गए। एक अनुमान के अनुसार इससे करीब 15 लाख रोजगार खत्म हो गए. जानकारों का मानना है कि अभी सब कुछ सामान्य होने में कई और महीने लग सकते हैं।
नोटबंदी से सरकार को कई स्रोतों से मिलने वाले राजस्व पर भी असर पड़ने का अनुमान है।हालांकि आरबीआई ने 2016-17 की अपनी वार्षिक रिपोर्ट में बताया कि नोटबंदी के बाद सरकार को 16 हजार करोड़ रुपये का लाभ हुआ। लेकिन उसी रिपोर्ट में केंद्रीय बैंक का यह भी कहना था कि पिछले साल सरकार को दिए जाने वाले लाभांश में 35 हजार करोड़ रु की कमी हुई और वह घटकर केवल 30 हजार करोड़ रह गया।
इसका प्रमुख कारण नए नोटों की छपाई और नोटबंदी के फैसले को अमल में लाना रहा। वहीं सभी बैंकों को अपने एटीएम को पुनर्व्यवस्थित करने, कर्मचारियों के ओवरटाइम के चलते दिए जाने वाले वेतन-भत्तों आदि पर भी खासा खर्च करना पड़ा।
दूसरी ओर सरकार का दावा है कि पिछले एक साल में उसके कर राजस्व में जो बढ़ोतरी हुई है, उसकी मुख्य वजह नोटबंदी है। कई जानकार इसे आधा सच मानते हैं। इनके अनुसार सरकार नोटबंदी नहीं भी करती तो भी विकास दर तेज रहने से सरकार के खजाने में ज्यादा कर राशि आती। उनके अनुसार जीडीपी में 2.55 लाख करोड़ रु की अनुमानित कमी हुई जबकि मौजूदा वित्त वर्ष में कर और जीडीपी का संभावित अनुपात 11.3 फीसदी है। यानी पिछले एक साल में सरकार को लगभग 29 हजार करोड़ रुपये का ज्यादा राजस्व वैसे भी मिल जाता।
वैसे सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि 2012-13 से 2015-16 के बीच के चार सालों में कर राजस्व में हर साल औसतन 13.41 फीसदी की वृद्धि हुई है। 2015-16 में तो यह वृद्धि 16.96 फीसदी की रही। दूसरी ओर नोटबंदी के बाद सरकार का कर राजस्व पिछले साल 17.53 फीसदी बढ़ा। वहीं मौजूदा वित्त वर्ष में इसके करीब 12 फीसदी बढ़ने का अनुमान है यानी पिछले साल और इस साल कर राजस्व की तेज वृद्धि का अकेला कारण नोटबंदी नहीं अर्थव्यवस्था की बुनियाद का सुधरना है।
बैंक किसी भी अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं। सरकार ने शुरू में तो नहीं बल्कि बाद में कहा कि नोटबंदी से बैंकों की सेहत सुधरेगी। लेकिन पिछले एक साल का अनुभव बताता है कि बैंकों की दशा नोटबंदी से और खराब ही हुई। नोटबंदी के पहले ही फंसे हुए कर्ज की मात्रा करीब 10 फीसदी तक पहुंच जाने से बैंक खुलकर कर्ज बांटने से बच रहे थे। वहीं ब्याज दर ज्यादा रहने और नोटबंदी के बाद मांग सुस्त हो जाने से कारोबारी भी कर्ज लेने को लेकर इच्छुक नहीं रहे।
नोटबंदी के दौरान जमा हुई राशि पर बैंकों को ग्राहकों को ब्याज देना पड़ा।अभी देश के सभी बैंकों में करीब 18 लाख करोड़ रुपये जमा हैं। दूसरी ओर नोटबंदी को लागू करने में भी बैंकों को खासा खर्च करना पड़ा। इस दौरान वे अपना सामान्य बैंकिंग कारोबार नहीं कर सके। इससे भी उन्हें नुकसान हुआ। जानकारों के अनुसार इससे बैंकों की दशा सुधरने के बजाय और पस्त ही हुई।
यही वजह है कि सभी बैंक अपना नुकसान पूरा करने के लिए ग्राहकों से सेवा और रखरखाव शुल्क के नाम पर कई तरह का चार्ज वसूलने लगे हैं।जानकारों के अनुसार बैंकों की दशा सुधरने में अभी एक से डेढ़ साल का वक्त और लगेगा।
केंद्र सरकार का दावा है कि नोटबंदी से महंगाई में कमी हुई जिससे ब्याज में कटौती हुई। लेकिन यह सच नहीं है।पिछले साल नवंबर में खुदरा महंगाई दर 3.63 फीसदी थी जो इस साल सितंबर में 0.35 फीसदी घटकर 3.28 रह गई है।इस बीच पिछले एक साल में आरबीआई ने ब्याज दरों में केवल चौथाई फीसदी की कमी की है। जानकार इन दोनों बदलावों को बहुत बड़ा नहीं मानते।
इसके उलट नोटबंदी के बाद किसानों की पस्त हालत के बाद हुए आंदोलन के चलते कर्जमाफी के कई राज्यों के फैसले से महंगाई बढ़ने का खतरा है। राज्यों के राजकोषीय घाटे में वृद्धि होने से भी महंगाई के चढ़ने के अंदेशा है। आरबीआई इसी चलते ब्याज दरों में और कटौती से बच रहा है।
बड़े नोटों को रद्द करने का फ़ैसला भ्रष्टाचार पर चोट करने के इरादे से लिया गया है।इसके साथ ही सरकार को लगता है कि इस फ़ैसले से अरबों डॉलर की बेहिसाब रकम को अर्थव्यवस्था से खींचा जा सकता है। भारत के कुल करेंसी प्रसार में इन दो नोटों की मौज़ूदगी 80 प्रतिशत से ज़्यादा है।
ऐसे में इस बदलाव से भारत की कैश संचालित अर्थव्यवस्था पर भारी ख़तरा मंडरा रहा है।
भारत में गुड्स एंड सर्विस टैक्स (जीएसटी) कुछ कुछ अर्थव्यवस्था के लिए ठीक था, लेकिन विमुद्रीकरण ठीक नहीं है। भारत की अर्थव्यवस्था काफ़ी जटिल है और इससे फायदे के मुक़ाबले व्यापक नुक़सान उठाना पड़ेगा।
एक बार में सबकुछ करने के बावजूद ब्लैक मनी के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि अब इसकी मौज़ूदगी संभव नहीं है।कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इस कदम का सीमित असर होगा। लोग नई करेंसी के आते ही तत्काल ब्लैक मनी ज़मा करना शुरू कर देंगे।इनका कहना है कि इसकी क़ीमत चुकानी होती है।
सैकड़ों हज़ारों आम लोगों को पास नकदी है लेकिन यहां से ब्लैक मनी बाहर नहीं आएगी। इन्हें प्रताड़ित होने का डर है। इन्हें लगता है कि वे सामने आएंगे तो इन्हें फंसा दिया जाएगा। इन्हें नहीं पता है कि कैसे निपटना है। इसलिए यह संभव है कि कुल मनी सप्लाई में अचानक कटौती हो जाए लेकिन इसका असर अर्थव्यवस्था पर साफ दिखता है।
आमतौर पर इस स्थिति में पूंजावादी व्यवस्था में नए बिज़नेस की ओपनिंग होती है ताकि पुरानी करेंसी को नई करेंसी में तब्दील किया जा सके। इस हालत में लोग सामने आकर प्रस्ताव देंगे कि आप मुझे 1000 का नोट दीजिए और आपको इसके बदले 800 या 700 रुपये दिए जाएंगे।
इसके परिणामस्वरूप ब्लैक मनी पर काबू पाने के बजाय काले धंधों का प्रसार बढ़ता है।
भारतीय अर्थव्यवस्था का संचालन मॉनेटरी पॉलिसी के तहत हो रहा है। इसे हम इन्फ्लेशन लक्षित संचालन के रूप में जानते हैं। यदि प्रचलन की करेंसी का एक हिस्सा और डिमांड डिपॉज़िट नष्ट हो जाते हैं तो रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया इसकी पूर्ति कर सकता है। इसे अर्थशास्त्र की भाषा में ओपन मार्केट ऑपरेशन कहा जाता है। इसे इस रूप में समझ सकते हैं- मान लीजिए कि किसी व्यक्ति के स्वामित्व वाले नकदी गोदाम में आग लग जाती है और पैसे का प्रसार थम जाता है तो ऐसी स्थिति में सेंट्रल बैंक के अर्थशास्त्री पैसे का प्रसार बढ़ाने के लिए कहते हैं।
इसी तरह किसी का बेहिसाब अवैध पैसा नष्ट होता है उसे नई करेंसी नहीं दी जाती। यह एक तात्कालिक उपाय होता है जिसमें पुराने नोटों के बदले नया नोट दिया जाता है। इसका ग्रोथ, इन्फ्लेशन और अन्य कारकों पर मीडियम और लॉन्ग टर्म का प्रभाव नहीं पड़ता। काले धन पर एक बार टैक्स से संभव है कि वह भविष्य में काले धन पर चोट करे क्योंकि आने वाले वक्त में भी विमुद्रीकरण की आशंका बनी रहती है।
देश की पूरी जीडीपी को 2 से 2.5 प्रतिशत तक नीचे गिरा देने के बाद भी मोदी जी को चैन नहीं पड़ा, और उन्होंने इसका प्रचार और प्रसार भी पेट भर भर के किया। पहले इसको ब्लैक मनी आतंकवाद और जाली नोट से जोड़ा। फिर इसको उन्होंने कैशलेस से जोड़ दिया। बिल्कुल उसी तरह जब कोई दर्जी पैंट बनाने के लिए कपड़ा काटता है और गलती से ज्यादा कट जाने पर ग्राहक को कच्चे के फायदे बताने लगता है।
अभी भी इसी तरह के सवाल नोटबंदी को लेकर मोदी जी के सामने और सरकार के सामने हैं।
अगर बड़े नोटों को मार्केट से बिना बताए ही बंद कर दिया जाता है , और इससे काले धन पर रोक लगती है तो फिर तुरंत 2000कानोट क्यों जारी किया गया?
क्या इससे काला धन वालों को पैसा रखने और लाने ले जाने में सुविधा नहीं होगी?
अगर बड़े नोट जारी करने ही थे तो उनको बंद करने का और वापस करने का क्या मतलब रह गया?
सभी नोट नए डिजाइन और नए सेट में आए हैं तो यह इस बात की गारंटी है क्या कि अब काला धन नहीं रहेगा और यह नोट काले पैसों से बदलने नहीं जाएंगे ?
अगर सभी जगहों पर पैसा पहुंचाने की व्यवस्था नहीं थी और पर्याप्त मात्रा में पैसे छापे नहीं गए थे तो यह फैसला लागू करने की इतनी जल्दबाजी क्या थी?
देश के लोगों को प्रतिदिन कितनी करेंसी चाहिए, और खपत कितनी है क्या इस बात का अंदाजा सरकार को था या नहीं ?
क्या सरकार ने यह बात भी सोची की घोषणा करते समय कोई शादी कर रहा होगा, कोई बीमार होगा, कोई यात्रा कर रहा होगा,। कोई मर रहा होगा, तो उनको क्या व्यवस्था दी जाएगी ?क्या सरकार ने उनके बारे में सोचा?
अगर सरकार काले धन के मुद्दे पर इतनी ही सीरियस और ईमानदार है तो स्विस बैंक द्वारा आए हुए खाताधारकों के नाम जो मुख्य लोग हैं वह सार्वजनिक क्यों नहीं कर रही है ?
मोदी जी के मुताबिक आतंकवाद और नक्सलवाद की कमर तोड़ने के लिए नोटबंदी की गई, तो क्या सरकार बताने का कष्ट करेंगी कि नोटबंदी से आतंकवाद और नक्सलवाद पर कितना प्रतिशत का लगाम लगा?
साथ में सरकार यह भी बताएं कि हमारी अर्थव्यवस्था का कितना प्रतिशत पैसा आतंकवादी और नक्सलवादी इस्तेमाल करते हैं?
भारत में 90% लोग कैश लेनदेन करते हैं तो सरकार ने फैसला कैसे ले लिया कि अचानक से 85% करेंसी बंद कर दी जाए?
क्या सरकार को इस बात का अंदाजा नहीं था कि बैंकिंग व्यवस्था ठप हो जाने पर देश के लोग कहां जाएंगे ?
और कैशलेस का इतना ही जोर था तो , सरकार को क्या इस बात का अंदाजा नहीं कि इस देश में केवल 30 करोड लोग ही इंटरनेट की सेवाओं को अच्छी तरह से उपयोग करना जानते हैं । तो देश की आबादी 130 करोड़ होने के बाद 30 करोड लोगों के लिए फैसला क्यों ले लिया गया?
500 और 1,000 रुपये के नोटों का 99.3 प्रतिशत बैंको के पास वापस आ गया है। नोटबंदी के समय मूल्य के हिसाब से 500 और 1,000 रुपये के 15.41 लाख करोड़ रुपये के नोट चलन में थे। इनमें से 15.31 लाख करोड़ रुपये के नोट बैंकों के पास वापस आ चुके हैं।इसका मतलब है कि बंद नोटों में सिर्फ 10,720 करोड़ रुपये ही बैंकों के पास वापस नहीं आए हैं।
और इसी के लिए मोदी जी ने नोटों की छपाई से लेकर के ATM के अंग रेशन और नोटो के लाने ले जाने पर 9000 करोड़ तक खर्च कर डाले। औऱ जब बैंको के कर्मचारियों का ओवरटाइम का हिसाब किताब सामने आएगा तब शायद यह आंकड़ा 10000 करोड़ के आसपास हो जाएगा।
तो क्या हम यह मान लें कि देश के लोगों का 50 दिनों तक लाइन में लगे रहना, दिन रात मेहनत करना , और 150 से भी ज्यादा लोगों का मरना, सरकार की नजर में कुछ भी नहीं ? क्या इन लोगों की मेहनत और इन लोगों की जान की कीमत सरकार के लिए जीरो है ?क्योंकि रिकवरी और खर्च का हिसाब किताब करने के बाद यह बिल्कुल जीरो ही आता है। तो हम यह मान लेते हैं कि सरकार की नजर में देश के लोग और उनकी जान की कीमत कुछ भी नहीं है। सिर्फ अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए, और अपना तुगलकी फरमान पूरा करने के लिए सरकार किसी की भी जान के साथ खिलवाड़ कर सकती है ।
बृजेश यदुवंशी
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