शिक्षा और रोजगार की कब्र बनता भारत
देश में शिक्षा और रोजगार का स्तर दिन पर दिन गिरता जा रहा है ।लेकिन देश के युवाओं को इस बात से कोई खास मतलब है । क्योंकि देश के युवा अपनी बर्बादी की कब्र खुद ही खोद रहे हैं ।जिस टीवी को खुद ही टीबी हो चुका है, वह दिन-रात उस टीवी पर चलने वाले हिंदू मुस्लिम डिबेट को देखकर दंगाई बनते जा रहे हैं। और मां-बाप को भी इस बात की चिंता नहीं है, कि उनके घर में धीरे-धीरे एक दंगाई पनप रहा है । जिस बच्चे को बहुत ही सीधा साधा और भोला-भाला समझ रहे हैं वह एक दंगाई बनता जा रहा है ।धार्मिक कट्टरता के नाम पर दूसरे धर्म के लोगों को बर्दाश्त ना करना उसकी जिनमें भरता जा रहा है।
धर्म के नाम पर अपना दुकान चलाने वाली कुछ पार्टियों ने इन युवाओं के लिए अपने मतलब का सिलेबस फिक्स कर रखा है। जहां पर मंदिर ,मस्जिद, हिंदू, मुस्लिम ,तलाक , नमाज ,ताजमहल ,कश्मीर ,नेहरू ,सरदार पटेल ,राष्ट्रवाद, सेना का सम्मान, इंदिरा गांधी, कब और कहां राष्ट्रगान कितनी बार गाना चाहिए। यह सब सत्ताधारी पार्टी द्वारा देश के युवाओं को एक अवैतनिक रोजगार के रूप में थमा दिया गया है।
इन लड़कों के मां बाप को भी इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका बच्चा क्या पढ़ रहा है, और क्या सीख रहा है ,वह बस कॉलेज की फीस देकर और टुएशन की फीस दे करके अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते हैं । और स्कूल कॉलेजों की भी हाल भगवान भरोसे ही चल रहा है ।हरियाणा के स्कूलों में लगभग तीस हजार शिक्षकों की कमी है , जबकि NDTV एक इंटरव्यू में हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ ने बताया कि वहां पर लगभग 52000 से ज्यादा शिक्षकों की जरूरत है ।
बिहार के दो दो विश्वविद्यालयों मे बी ए की 3 साल से परीक्षा नहीं हो रही थी। वहां के दो लाख से भी ज्यादा छात्र पिछले 5 साल से बीए कर रहे हैं । जब यह खबर हाइलाइट की गई तो सारे छात्रों के परीक्षा सिर्फ 2 महीने में ही ले लिए गए। अब आप ही सोचिए कि किस स्तर के क्वेश्चन पेपर तैयार किए गए होंगे, किस स्तर की परीक्षा की गई होगी , और किस स्तर की उत्तर पुस्तिका जांच की गई होगी।
द टाइम्स विश्व यूनिवर्सिटीज़ रैंकिंग (2013) के अनुसार अमरीका का केलिफ़ोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी चोटी पर है जबकि भारत के पंजाब विश्वविद्यालय का स्थान विश्व में 226 वाँ है।
स्कूल की पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से एक ही कॉलेज पहुँच पाता है। भारत में उच्च शिक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम यानी सिर्फ़ 11 फ़ीसदी है।अमरीका में ये अनुपात 83 फ़ीसदी है।इस अनुपात को 15 फ़ीसदी तक ले जाने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत को 2,26,410 करोड़ रुपए का निवेश करना होगा । जबकि 11वीं योजना में इसके लिए सिर्फ़ 77,933 करोड़ रुपए का ही प्रावधान किया गया था।
हाल ही में नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के अनुसार मानविकी में 10 में से एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं। (पर्सपेक्टिव 2020) भारत के पास दुनिया की सबसे बड़े तकनीकी और वैज्ञानिक मानव शक्ति का ज़ख़ीरा है इस दावे की यहीं हवा निकल जाती है।राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद का शोध बताता है कि भारत के 90 फ़ीसदी कॉलेजों और 70 फ़ीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत कमज़ोर है।
भारतीय शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की कमी का आलम ये है कि आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी 15 से 25 फ़ीसदी शिक्षकों की कमी है।भारतीय विश्वविद्यालय औसतन हर पांचवें से दसवें वर्ष में अपना पाठ्यक्रम बदलते हैं लेकिन तब भी ये मूल उद्देश्य को पूरा करने में विफल रहते हैं।आज़ादी के पहले 50 सालों में सिर्फ़ 44 निजी संस्थाओं को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा मिला. पिछले 16 वर्षों में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गई।
अच्छे शिक्षण संस्थानों की कमी की वजह से अच्छे कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए कट ऑफ़ प्रतिशत असामान्य हद तक बढ़ जाता है। इस साल श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कामर्स के बी कॉम ऑनर्स कोर्स में दाखिला लेने के लिए कट ऑफ़ 99 फ़ीसदी था।अध्ययन बताता है कि सेकेंड्री स्कूल में अच्छे अंक लाने के दबाव से छात्रों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ रही है।भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए हर साल सात अरब डॉलर यानी करीब 43 हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च करते हैं क्योंकि भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का स्तर घटिया है।
भारत के पूरी तरह से डिजिटल होने और दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने का जो सपना है, और उस सपने का जो ढांचा है , वह शिक्षा प्रबंधन है । वह खुद ही चमारता हुआ दिख रहा है। पिछले कुछ वर्षों में देश में मैनेजमेंट शिक्षा के संस्थानों की भरमार हो गई है । लेकिन एजुकेशन क्वालिटी और बेसिक फैसिलिटीज की कमी के चलते लोगों की फीस के हजारों लाखों रुपए और उनकी जिंदगी के वह साल बस बर्बाद हुए जा रहे हैं।
अभी एसोचैम का ताजा सर्वे बता रहा है कि देश के शीर्ष 20 प्रबंधन संस्थानों को छोड़ कर अन्य हजारों संस्थानों से निकले केवल 7 फीसदी छात्र ही नौकरी देने के काबिल होते हैं। यह आंकड़ा चिंता बढ़ानेवाला इसलिए भी है, क्योंकि स्थिति साल-दर-साल सुधरने की बजाय लगातार खराब ही होती जा रही है। 2007 में किये गये ऐसे सर्वे में 25 फीसदी, जबकि 2012 में 21 फीसदी एमबीए डिग्रीधारियों को नौकरी देने के काबिल माना गया था।
इससे पहले जनवरी, 2016 में आयी एस्पाइरिंग माइंड्स की नेशनल इम्प्लायबिलिटी रिपोर्ट में बताया गया था कि देश के 20 फीसदी इंजीनियरिंग स्नातक ही नौकरी देने के काबिल हैं।जाहिर है, एमबीए और बीटेक जैसे प्रोफेशनल कोर्स भी अब बीए और बीएससी पास कोर्स की तरह अपनी अहमियत खो रहे हैं।आखिर क्यों लगातार बदतर हो रही है स्थिति और क्या हो सकता है इसका समाधान ?
07 प्रतिशत एमबीए डिग्रीधारी युवा, जिन्होंने देश के शीर्ष 20 प्रबंधन स्कूलों को छोड़ कर अन्य संस्थानों से पढ़ाई की है, ही नौकरी के काबिल हैं।
25 प्रतिशत एमबीए डिग्रीधारियों को 2007 में, जबकि 21 फीसदी एमबीए डिग्रीधारियों को 2012 में नौकरी देने के काबिल माना गया था एसोचैम के सर्वे में।5500 के करीब बिजनेस स्कूल हैं देश में इस समय, जिनमें से आइआइएम सहित थोड़े से संस्थान से निकले युवाओं को ही नौकरी मिल पा रही है।
देश में इंजीनियरिंग और प्रबंधन कॉलेज भले बढ़ रहे हों, उनकी गुणवत्ता नहीं बढ़ रही, न ही इंडस्ट्री की बदलती जरूरतों के मुताबिक उनका पाठ्यक्रम अपग्रेड हो रहा है।जिस हिसाब से नये कॉलेज खुल रहे हैं, उनके लिए योग्य टीचर तक नहीं मिल रहे हैं. ज्यादातर निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों में बीटेक पास युवा ही नौकरी नहीं मिलने की वजह से पढ़ाने लगते हैं।
विकसित देशों में कम संस्थानों में बेहतर सुविधाएं मुहैया कराने पर ध्यान दिया जाता है और एक ही संस्थान में हजारों विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते हैं। जबकि भारत में जरूरी बुनियादी सुविधाओं के बिना भी हजारों कॉलेज चल रहे हैं, जहां सिर्फ कुछ सौ या हजार विद्यार्थियों को पढ़ाने की व्यवस्था है।निजी कॉलेजों में प्रोफेशनल कोर्सेज की फीस आम भारतीय परिवारों की पहुंच से बाहर है। अकसर पैसेवाले परिवारों के बच्चे मेरिट के बिना भी इन कॉलेजों की शोभा बढ़ाते हैं। गरीब परिवारों के मेधावी बच्चों की पहचान कर उन्हें स्कॉलरशिप देकर अच्छे कॉलेजों में भेजने की कोई व्यवस्था नहीं है।
एमबीए डिग्रीधारकों की नौकरी करने की काबिलियत को लेकर एसोचैम के सर्वे में जो कुछ भी सामने आया है,वह उम्मीद के मुताबिक ही था। जिस दर से देश भर में एमबीए के कॉलेज खुले, या जिस दर से लोगों ने एमबीए के कॉलेज सिर्फ इसलिए खोले कि इससे उनको कमाई हो सके, उसकी तो ऐसी रिपोर्ट ही आनी थी।जब ऐसे कॉलेजों का उद्देश्य बस इतना हो कि किसी तरह से छात्रों को संस्थान से जोड़े रखा जाये- जबकि इनमें न अच्छे स्टाफ हैं, न सुविधाएं हैं, न अनुभव है- तो जाहिर है कि वहां ऐसे ही परिणाम की कल्पना की जा सकती है।
जब तक इन कॉलेजों का नियमन-नियंत्रण ठीक से नहीं होगा, इनकी नियामक संस्थाएं (रेगुलेटरी बॉडीज) अपनी जिम्मेवारी नहीं समझेंगी, तब तक यह हालत नहीं सुधरेगी। शैक्षणिक संस्थानों की गुणवत्ता में वृद्धि के लिए यह पहली जरूरत है कि नियामक संस्थाएं अपना काम बेहतर ढंग से करें. नि:संदेह निजी दुकान चलाने वाले ही अपने ग्राहक का सम्मान करते हैं। क्योंकि उनकी आमदनी का घट-बढ़ ग्राहकों पर ही निर्भर करता है।
शिक्षा क्षेत्र में काम करने वाली दिल्ली की वैचारिक संस्था सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी शिक्षा में अभिभावकों के मनोनुकूल क्रांतिकारी सुधार के लिए शिक्षा क्षेत्र में रोजगार का मार्ग खोलने की बात करती है। यही नहीं वह अपने राष्ट्रव्यापी स्कूल चयन अभियान में सीधे विद्यार्थियों या अभिभावकों के हाथ में पैसा देकर उसे अपने हिसाब से श्रेष्ठ विद्यालय चुनने के लिए सशक्त करने का प्रयास भी करती है।
यहाँ यह भी समझने की जरूरत है कि बेरोजगारी की मार झेलते इस देश में शिक्षा खुद रोजगार का एक बड़ा जरिया है। आस-पास के विद्यार्थी संसार में चल रही गतिविधियों पर ध्यान दीजिए, तो दिमाग का फ्यूज बल्ब यकायक जल उठेगा। गाँव हो या शहर, टयूशन पढ़ाकर अपनी जीविका, जेब खर्च अथवा पढ़ाई का खर्चा निकालने वाले प्राइवेट गुरु हर जगह देखे जा सकते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि सरकारी स्कूल-कॉलेज में पढ़ाई हो या न हो, ये टयूशन पढ़ाने वाले गुरुजी बड़े जतन से पढ़ाते हैं और अभिभावक तथा उनके बच्चों को भी इन प्राइवेट गुरुओं पर पूरा भरोसा है।
क्यों न शिक्षा व्यवस्था में इन प्राइवेट गुरुओं को पर्याप्त जगह दी जाए एवं उन पर भरोसा करते हुए उनकी भूमिका को और भी बढ़ाया जाए? ये प्राइवेट गुरुजी जहाँ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देते हैं, वहीं बजट पर कोई बोझ भी नहीं बढ़ाते। साथ ही शिक्षा को जर्जर एवं बदहाल सरकारी विद्यालयों की चारदिवारी से बाहर निकालकर गाँव-गाँव, गली-गली एवं एक-एक घर में ले जाने में भी इन प्राइवेट गुरुओं की बड़ी भूमिका है।
द वायर की एक रिपोर्ट के अनुसार "उत्तर प्रदेश के परेशान परीक्षार्थियों के लगातार त्राहिमाम संदेश आए जा रहे हैं। सरसरी तौर पर देख कर लग रहा है कि छात्रों की बातों में दम है।यूपी लोक सेवा आयोग की मुख्य परीक्षा 18 जून से 7 जुलाई के बीच होगी।पहले कहा गया था कि जुलाई में होगी।जून में कर देने से छात्र मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और अन्य राज्यों की लोक सेवा आयोगों की परीक्षा नहीं दे पाएंगे।दौड़ते भागते रहेंगे तो पढ़ेंगे कब?
छात्रों का कहना है कि 25 दिन के अंतर पर 8 पेपर की तैयारी कोई कैसे कर पाएगा। जबकि यह आयोग ख़ुद कोई भी परीक्षा तीन साल से पहले पूरी नहीं करा पाता है। सितंबर 2017 में प्रीलिम्स की परीक्षा हुई थी जिसका रिजल्ट जनवरी में आया है। मेंस की परीक्षा की तारीख 4 मई को होनी थी। फिर किन्हीं कारणों से रद्द हो गई।प्रीलिम्स के प्रश्नों को लेकर कुछ छात्र कोर्ट चले गए। हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट होता रहा।
हाईकोर्ट ने कहा कि प्रश्न पत्रों में जो गड़बड़ी है, उसकी जांच करके दोबारा से रिजल्ट निकले। मगर ऐसा नहीं हुआ। एक छात्रा ने बताया कि लोक सेवा आयोग 2016 की मेंस परीक्षा भी इसी तरह करा ली गई जिसका आज तक रिज़ल्ट नहीं निकला है। अगर ये बात सही है तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को कुछ तो एक्शन लेना चाहिए।
क्या तमाशा है ? नेताओं को भी समझना चाहिए कि इन आयोगों की काहिली के कारण नुकसान उन्हें उठाना पड़ता है। छात्रों का तो नुकसान होता ही है। फिलहाल योगी जी छात्रों की इस समस्या की समीक्षा करें और रास्ता निकालें।
छात्रों की इस बात में दम है कि वे दूसरे राज्यों के आयोगों की परीक्षा की भी तैयारी कर रहे थे जिनकी तारीख पहले आ चुकी थी। अगर इतनी अकल नहीं है आयोग में तो क्या कहा जा सकता है।
आयोगों ने नौजवानों की ज़िंदगी बर्बाद कर दी है। शायद ही किसी राज्य में परीक्षा का कैलेंडर होगा। परीक्षा भी इस तरह से आयोजित होती है कि कोई न कोई विवाद हो जाता है। कई राज्यों के आयोगों की हरकत देखकर लगता है कि इनका कोई पैटर्न है। प्रश्न पत्रों में गड़बड़ी डाल दो ताकि विवाद हो, कोई कोर्ट चला जाए और फिर परीक्षा होने के नाम पर होती ही रहे। इनका काम नौकरी देना नहीं बल्कि नौकरी देने के नाम पर नौजवानों को तैयारी में व्यस्त रखना है।
वैसे नौजवानों बात इस परीक्षा की नही है, मुमकिन इस परीक्षा के मामले में समाधान हो जाए, जाकर देखिए कैसे 12,460 शिक्षकों की नियुक्ति का भरोसा देकर योगी जी ने 4,000 को ही नियुक्ति पत्र दिया और बाकी 8 हज़ार शिक्षक फिर से सड़क पर आंदोलन कर रहे हैं। मुख्यमंत्री ही अपना वादा पूरा नहीं कर पा रहे हैं।ये हालत हो गई है।"
देश की यह स्थिति हो गई है कि अब लोगों को शिक्षा और रोजगार की जगह , हिंदू, मुस्लिम और एक दूसरे की दाढ़ी देखने में ज्यादा इंटरेस्ट आ रहा है । सत्ता ने देश के जवानों को बर्बाद कर दिया है। उनको निरंकुशता के एक घनघोर अंधेरे में भेज दिया है ।कहीं पर शिक्षामित्र जान दे रहे हैं। कहीं पर दिन रात आंदोलन कर रहे हैं। तो कहीं विरोध में सर के बाल मुंडवा रहे हैं ।लेकिन इससे आम लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है ।वह बस दिनभर जिन्नाह ,जिन्नाह, जिन्नाह चिल्ला रहे हैं ।
नेताओं ने कई तरीकों से जवानों को बर्बाद करने का इंतजाम कर रखा है ।छोटे-छोटे गांव से लेकर बड़े-बड़े शहरों के कॉलेजों को रद्दी बनाकर आपके बच्चो के भविष्य को कूड़ेदान में डाल दिया गया है । कोई अपनी मेहनत और लगन से उस कूड़ेदान से निकल भी आता है तो, आयोगों के बनाए हुए लेट्रिंग वाले टंकी में जाने से नहीं बच पाता । नौजवानों को सिर्फ धार्मिक उन्माद फैलाने के लिए घरों से निकलने की तैयारी की जा रही है ।इससे बेहतर यह है कि उन्मादी बनकर निकलने की जगह अपनी नौकरी अपनी शिक्षा को खोजते हुए घरों से बाहर निकलो। वरना यह नेता आपको एसपी या डीएसपी बनने की जगह है दंगाई और उन्मादी बना देंगे।
देशभर में घूम रहे पढ़े लिखे बेरोजगार बेरोजगारों को देखकर लोग अक्सर यही कह देते हैं कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो रोजगार दिला सके। जो रोजगार पूरक हो । उनके कहने का यह मतलब भी हो सकता है कि सिर्फ उन्हीं क्षेत्रो की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाए जिन क्षेत्रों में रोजगार की अधिक और मजबूत संभावना हो।
देश के अधिकतर विद्यालयों में साहित्य इतिहास राजनीति समाजशास्त्र विज्ञान आदि विषय पढ़ाए जाते हैं , जिनका रोजगार और असल के जीवन से कोई सरोकार नहीं होता । यह सर सिर्फ इसलिए किया जाता है , ताकि आप यह जान ही नहीं सके कि , आप की मुख्य जरूरतें क्या है ? आपको किन चीजों की जरूरत है ?और किन चीजों से आपको दूर रहना चाहिए ? क्योंकि जिस दिन आपको यह पता चल जाएगा उस दिन सत्ताधारी पार्टी की दुकान भी बंद हो जाएगी।
बृजेश यदुवंशी
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