भगत सिंह के विचार

शाम को बाहर मार्केट में निकलने के बाद मार्केट में मुझे एक आदमी दिखा जिसके आगे टी-शर्ट पर भगत सिंह जी की फोटो बनी हुई थी।
यह देख कर  मेरे अंदर उस आदमी से बात करने की और उसके भगत सिंह के बारे में विचार जानने की एक इच्छा हुई ।  मैं उस आदमी से बात करने के लिए आगे बढ़ा।  थोड़ा नजदीक जाने पर पता चला कि यह हमारे इंटरमीडिएट के हिंदी के टीचर श्री एस एस दिवेदी सर थे । जिनका पढ़ाने का और चीजों को समझाने का तरीका एकदम अलग और अनोखा था। जो मुझे काफी अच्छा लगता था और समझ में आता था ।

वहाँ जाकर सर से आशीर्वाद लिया । और उनके हालचाल पूछे । मैंने अपने मन से उनसे भगत सिंह के बारे में बात करने का विचार निकाल दिया । हाल-चाल के बाद जब मैं जाने लगा , तो सर पीछे की तरफ मुड़े । यकीन मानिए मुझे जितनी खुशी सर को भगत सिंह का टीशर्ट पहने हुए देखकर हुई थी,  मुझे उतना ही दुख टी-शर्ट कि पिछले हिस्से को देखकर हुआ।

क्योंकि टी-शर्ट के पिछले हिस्से पर फांसी के फंदे का एक प्रिंट था।  मुझे यह देख कर दुख हुआ । और मेरे मन में एक साथ कई सवाल जागने लगे । मैं मजबूर हो गया कि मैं गाड़ी रोककर पहले इसके बारे में सोचू।  मेरे मन में कई विचार आए।
क्या भगत सिंह की कहानी का अंत सिर्फ फांसी ही है ?
क्या भगत सिंह की डेस्टिनी बंदूक और गोलियों के साथ जुड़ी हुई है ?
क्या भगत सिंह आज की पीढ़ी के लिए हिंसा की पर्यायवाची है ?
क्या भगत सिंह की किस्मत में ही एक हिंसक व्यक्ति का तमगा दे दिया गया है ?
क्यों भगत सिंह को हर बार फांसी के फंदे,  बंदूक या गोलियों या बम के साथ दिखाया जाता है ?

अगर भगत सिंह की कहानी का अंत फांसी ही है , तो फिर उन बयानों का क्या ? उन किताबों का क्या,  जो भगत सिंह ने अखबारों में जेल में और कोर्ट में लिखे और दिए ? 

क्या उन विचारों का हमारे लिए भगत सिंह से कोई लेना-देना नहीं है ?
क्या हम इतना भी नहीं सोच सकते कि भगत सिंह सिर्फ गोली बंदूक या फांसी के फंदे तक ही सीमित क्यों है ?
जबकि भगत सिंह एक जननायक बन चुके थे। पूरे देश में उनके लिए लोग धरना प्रदर्शन और दुआएं कर रहे थे । और आज भी देश में भगत सिंह को हर कोई अपना आदर्श मानता है । तो क्या लोगों के आदर्श को सिर्फ फांसी के फंदे और बंदूक की गोलियों तक ही सीमित रखना सही है ?

यह बात सही है कि भगत सिंह के जीवन का कुछ हिस्सा बंदूक की गोली और फांसी के फंदे के साथ रहा है।  लेकिन वह पूरा जीवन नहीं रहा है । भगत सिंह का पूरा जीवन वैचारिक और तार्किक रहा है।  वह किताबों और लेखों में ज्यादा विश्वास करने वाले व्यक्ति थे । और यकीन मानिए भगत सिंह ने जितना नुकसान अंग्रेजों का बंदूक से और पिस्तौल से नहीं किया , उससे कई हजार गुना ज्यादा नुकसान  अपने विचारों और अपने लेखों से किया ।

मेरा इस लेख से आप लोगों से एक ही निवेदन है कि आप लोग नेताओं और कथित देशभक्तों के द्वारा बताए गए भगत सिंह पर ही भरोसा ना करें । आप अपने दिमाग लगाएं और भगत सिंह को खुद से जानने की कोशिश करें। और आप लोगों की इस कार्य में मदद खुद भगत। सिंह ही करेंगे , क्योंकि भगत सिंह ने अपने जीवन में एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया , उन्होंने ज्यादा से ज्यादा अपने लेखों को अपने स्टेटमेंट को और अपने भाषणों को लिखित रुप में भी रखने की,  और रिकॉर्ड कराने की पूरी कोशिश की।शायद उन्हें इस बात का एहसास था कि भविष्य में लोग उनके विचारों का गलत इस्तेमाल करके अपना उल्लू सीधा करेंगे ।

जब भी भगत सिंह की बात होती है तो हम एक भावनात्मक दुनिया में चले जाते हैं।  और तरह-तरह की कल्पनाएं करने लगते हैं।  जब की कल्पनाओं से , भावनाओं से और ईश्वर में आस्था से भगत सिंह जी का दूर-दूर तक कहीं कोई लेना-देना नहीं था।

जतिन दास की 63 दिनों की भूख हड़ताल के बाद जब उनकी शहादत हुई,  तब भगत सिंह जी ने सुखदेव जी को एक पत्र लिखा । और उसमें उन्होंने एक जो विशेष बात कही।  वह यह थी कि "" एक बात जिस पर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं कि , हम लोग ईश्वर , पुनर्जन्म , नरक , स्वर्ग , दंड एवं पारितोषिक अर्थात भगवान द्वारा किए जाने वाले जीवन के हिसाब आदमी कोई विश्वास नहीं रखते ।अतः हमें जीवन एवं मृत्यु के विषय में भी नितांत भौतिकवादी रीति से सोचना चाहिए ।

सोचिए !  जरा कल्पना कीजिए , अगर यही बात भगत सिंह के द्वारा ना कह कर , कोई आज के समय में कहता । तो  उसे धर्म विरोधी या राष्ट्र विरोधी तक बता दिया जाता।  और ऐसा वही लोग करते,  जो भगत सिंह की जयंती पर या पुण्यतिथि पर उनकी मूर्तियों पर मालाएं चढ़ाते हैं । और उनके शहादत को सलाम करते हुए  ट्वीट करते हैं ।

ये ऐसे ही लोग है जो यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में छात्रसंघ के चुनाव पर रोक लगा देते हैं । और तर्क यह देते हैं कि " विद्यार्थी जीवन में राजनीति का क्या काम" ?  जबकि यह जिस को आदर्श मानते हैं,  यानी "सरदार भगत सिंह" उन्होंने ही छात्र जीवन से ही  राजनीति को बढ़ावा देने का कार्य किया । अपने विद्यार्थी जीवन में ही वह छात्र राजनीति से जुड़े रहे।  और जेल के समय में भी उन्होंने इस बात का पुरजोर समर्थन किया,  कि " छात्रों को पढ़ाई के साथ-साथ राजनीति में भी आना चाहिए"।

जेल में भी जब भगत सिंह ने भूख हड़ताल की तब , उन्होंने 24 फरवरी 1930 को अपने साथी जयदेव के नाम एक पत्र लिखा । उस पत्र में वह लिखते हैं  "" मुझे उम्मीद है कि तुम ने 16 दिन के बाद हमारी भूख हड़ताल छोड़ने की बात सुन ली होगी ? और तुम अंदाजा लगा सकते हो कि इस समय तुम्हारी मदद की हमें कितनी जरूरत है । हमें कल कुछ संतरे मिले लेकिन कोई मुलाकात नहीं हुई ।  हमारी मुलाकात 2 सप्ताह के लिए स्थगित कर दी गयी है । इसलिए एक टिन घी और एक "क्रेवन " सिगरेट कटिंग भेजने की कृपा करो।

कुछ रसगुल्लों के साथ कुछ संतरों का भी स्वागत है।  सिगरेट के बिना दल की हालत खराब है।  आप हमारी जरूरतों की अनिवार्यता समझ सकते हो ।
आपका
भगत सिंह ""

जरा सोचिए अगर आज किसी फिल्म के किसी सीन में भगत सिंह को सिगरेट के साथ या शराब की गिलास के साथ दिखा दिया जाए तो कितना बवाल होगा ?  लोग तरह-तरह के धरना प्रदर्शन करेंगे । और यहां तक आरोप लगाएंगे कि भगत सिंह की इमेज खराब की जा रही है।

हम यह क्यों भूल जाते हैं कि भगत सिंह भी एक इंसान थे ?  और उनकी भी कुछ जरूरत एक इंसान की तरह ही रही होंगी ?

और हम भगत सिंह से उनके मौलिक अधिकार क्यों छीन रहे हैं  ?
हमने अपनी एक धारणा बना रखी है की क्रांतिकारी है तो नशा नहीं करता होगा। उसके कोई शौक नही रहे होंगे। 
अरे भाई क्यों नहीं करेगा नशा ?  उसकी मर्जी उस सिगरेट पीने की आदत से क्रांति का क्या लेना देना ?  भगत सिंह कितने खुशमिजाज और कितने जिंदादिल इंसान थे,  यह इनके पत्र के इस हिस्से से समझ में आ सकता है।  कि जो वह रसगुल्ले और संतरे खाने की मांग कर रहे हैं । यह भगत सिंह की जिंदादिली ही थी ।

भगत सिंह एक ऐसे इंसान रहे जिन्होंने अपनी मौत को अपने हिसाब से डिजाइन किया ।उनको पता था की उनको कब कैसे और कहां अपनी मौत का रंगरोपन करना है।  उन्होंने उस मरने के तरीके को ऐसा क्रांति वादी और हृदय व्यापी बना दिया,  जो भगत सिंह को गांधी और नेहरू से भी ऊपर ले गया।  उनका कद आज भी गांधी जी और नेहरू जी के ऊपर ही माना जाता है ।

जब भगत सिंह ने अपनी दया याचिका की अपील पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया ।  तब उसके बाद,  उनके पिताजी ने अदालत में भगत सिंह की एक मर्सी पिटीशन दाखिल की।
यह सुनकर भगत सिंह बेहद नाराज हुए और उन्होंने 4 अक्टूबर 1930 को अपने पिताजी को एक चिट्ठी लिखी। उन्होंने लिखा

"मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि आप मेरे बचाव पक्ष के लिए स्पेशल ट्रिब्यूनल को एक आवेदन भेजें हैं । यह खबर इतनी दर्दनाक थी कि मैं इससे खामोशी से बर्दाश्त नहीं कर सका। इस खबर ने मेरे भीतर की शांति भंग कर दी,  और उथल-पुथल मचा दी है।  मैं यह नहीं समझ सकता कि वर्तमान स्थितियों में और इस मामले पर आप किस तरह का आवेदन दे सकते हैं।  आपका पुत्र होने के नाते मैं आपकी पैतृक भावनाओं और इच्छाओं का पूरा सम्मान करता हूं । लेकिन इसके बावजूद मैं समझता हूं कि आपको मेरे साथ सलाह मशवरा किए बिना ऐसे आवेदन देने का अधिकार नहीं है।  आप जानते हैं कि राजनीतिक क्षेत्र में मेरे विचार आप से बहुत अलग हैं । मैं आप की सहमति या असहमति का ख्याल किए बिना सदा स्वतंत्रता से ही काम करता रहा हूं। "

इसके आगे सरदार भगत सिंह लिखते हैं
"पिता जी मैं बहुत दुख का अनुभव कर रहा हूं ।मुझे आप पर दोषारोपण करते हुए,  या इससे बढ़कर आपके इस काम की निंदा करते हुए , मैं कहीं सभ्यता की सीमाएं न लग जाऊं।  और मेरे शब्द ज्यादा सख्त ना हो जाए । लेकिन मैं स्पष्ट शब्दों में अपनी बात अवश्य कहूंगा,  यदि कोई अन्य व्यक्ति मुझसे ऐसा व्यवहार करता है तो मैं इसे गद्दारी से कम नहीं मानता।  लेकिन आप के संदर्भ में इतना ही कहूंगा कि यह कमजोरी है। - निचले स्तर की कमजोरी -

सोचिए उस 23 साल के नौजवान,  जिसको हम सिर्फ फांसी के फंदे या बंदूकों के साथ दिखाते हैं।  उसके मन में क्या क्या बातें चल रही थी।  और वह किस स्तर का दार्शनिक बन चुका था । जो अपनी दया याचिका दिए जाने पर अपने पिताजी से भी झगड़ा कर ले।

ऐसा नहीं है कि भगत सिंह सिर्फ मौत में विश्वास करते थे।  उन्हें अपने फांसी की सजा पर जितनी खुशी हुई थी , उससे कहीं ज्यादा उन्हें इस बात की खुशी थी कि उनके मित्र बटुकेश्वर दत्त को सिर्फ उम्र कैद हुई है।  वह इसलिए क्योंकि वह जानते थे कि उनकी विचारों की क्रांति को बटुकेश्वर दत्त ही अच्छे से समझ सकते हैं।  और अच्छे से लोगों को समझा सकते हैं ।
30 अक्टूबर 1930 को ही लाहौर सेंट्रल जेल से भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त को एक चिट्ठी लिखी । जिसमें उन्होंने लिखा-

"मुझे फांसी की सजा मिली है, और तुम्हें उम्र कैद । तुम जिंदा रहोगे और जिंदा रहकर तुम्हें दुनिया को दिखा देना है कि , क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए  सिर्फ मर ही नहीं सकते हैं।  मौत सांसारिक मुसीबतों से छुटकारा पाने का साधन नहीं बननी चाहिए । बल्कि जो क्रांतिकारी संयोगवश फांसी के फंदे से बच गए हैं , उन्हें जिंदा रह कर दुनिया को यह दिखा देना चाहिए कि,  वह ना सिर्फ अपने आदर्शों के लिए फांसी पर चढ़ सकते हैं , बल्कि जेलों की अंधेरी कोठरी में घुट घुट कर हद दर्जे के अत्याचारों को भी सहन कर सकते हैं ।""

भगत सिंह उनमें से नही थे जो समस्या को देखकर सिर्फ समस्या को खत्म करने  की सोचे,  बल्कि वह उनमें से थे जो उस समस्या को जड़ को खत्म करने के तरीके निकालें ।

बटुकेश्वर दत्त को लिखे हुए पत्र से यह साफ समझ में आता है , कि भगत सिंह विचारों को और क्रांति को जिंदगी या मौत से कहीं ऊपर मानते थे । उनके लिए मौत या जिंदगी कोई बड़ी बात नहीं थी ।  जितनी बड़ी बात उनके विचार उनके आदर्श और उनका समाजवाद था।

भगत सिंह के दो और पत्रों का जिक्र करना चाहूंगा ।  जिसमें से पहला पत्र उन्होंने 3 मार्च 1931 को फांसी से 20 दिन पहले लिखी ।उन्होंने यह पत्र कुलतार सिंह को लिखा और उसमें उन्होंने एक शायरी लिखी-
"उसे यह फ़िक्र है ,हरदम नया तर्जे जफ़ा क्या है
हमें यह शौक है देखें सितम की इंतहा क्या है दहर से क्यों ख़फ़ा रहें , चर्ख का क्यों गिला करें जहां सारा अदू सही , आओ मुकाबला करें कोई दम का मेहमान हूं , ऐ अहले महफिल
चरागे सहर हूं , बुझा.,  चाहता हूं
मेरी हवा में रहेगी ख्याल की बिजली
ये मुश्त-ए-ख़ाक है,  फानी रहे रहे ना रहे।"

एक और जो दूसरा पत्र था , वह पत्र भगत सिंह ने अपने सभी साथियों को 22 मार्च 1931 को लिखा था, यानि कि फांसी से ठीक 1 दिन पहले। एक आम इंसान की मनोदशा क्या हो सकती है, और उस समय भगत सिंह की मनोदशा क्या हौशला क्या था देखिये।

अपनी मौत से भगत सिंह कितने खुश थे यह उनके पत्र के पढ़ने से समझ में आता है । इसलिए इस पत्र को मैं पूरा यहां पर लिखना चाह रहा हूं -
"साथियों स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझ में भी होनी चाहिए।  मैं इसे छुपाना नहीं चाहता । लेकिन मैं एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूं,  कि मैं कैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता।  मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है । और क्रांतिकारी दल के आदर्श और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है।  इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊंचा में हरगिज़ नहीं हो सकता। आज मेरी कमजोरियां जनता के सामने नहीं है।  अगर मैं फांसी से बच गया तो जगजाहिर हो जाएंगी । और क्रांति का प्रतीक चिन्ह मध्यम पड़ जाएगा ,या संभवता मिट भी जाए ।

लेकिन दिलेराना ढंग से हंसते-हंसते मेरे फांसी चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरजू किया करेंगे । और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी की,  क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।

हाँ,  एक विचार आज भी मेरे मन में आता है ।कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरत मेरे दिल में थी , उनका हजारवां भाग भी पूरा नहीं कर सका । अगर स्वतंत्र , जिंदा रह सकता,  तब शायद इन्हें पूरा करने का अवसर मिलता।  और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता । इसके सिवाय मेरे मन में कोई लालच फांसी से बचे रहने का नहीं है । मुझे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा।  आजकल मुझे स्वयं पर बड़ा गर्व है । अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है । कामना है कि और नजदीक हो जाए।""

भगत सिंह के पत्र के इस अंतिम भाग को शायद ईश्वर ने भी सुन लिया । और स्वीकार भी कर लिया।  इसीलिए भगत सिंह की फांसी तय समय से 11 घंटे पहले दे दी गई ।  हमारे सामने आज जो भगत सिंह प्रस्तुत किया जाता है । या नेताओं ने जिस भगत सिंह को अपने भाषणों में अपने ट्वीट और अपने पोस्टरों में शामिल कर रखा है,  वह यह भगत सिंह तो हरगिज़ नहीं है । वह एक ऐसा भगत सिंह है जो नेताओं के सुविधा अनुसार पैदा होता रहता है।  यह वह भगतसिंह नहीं है।

भगत सिंह तो वह थे जो अपनी मौत को भी देश की आजादी के काम में ले आए । और जिंदा रहने का भी शर्त यही कि बस जब स्वतंत्र होंगे,  तभी जिंदा रहेंगे।  वरना यह जिंदगी जिंदगी नहीं है।  अपने एक लेख में भगत सिंह ने क्रांति का मतलब भी समझाया है । उन्होंने लिखा है -
" क्रांति से हमारा क्या अर्थ है।  यह स्पष्ट है शताब्दी में इसका सिर्फ एक ही अर्थ हो सकता है,  जनता के लिए , जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना है।  वास्तव में यही है क्रांति।  बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी संघार को ही अपने आगे बढ़ाते हैं । किसी भी हद तक लोगों से या उनके उद्देश्यों से जताई हमदर्दी जनता से वास्तविकता नहीं छुपा सकती।  लोग छल को पहचानते हैं । भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते।  भारतीय श्रमिकों को भारत में साम्राज्यवादियों और उनके मददगार हटाकर,  जोकि उसी आर्थिक व्यवस्था के पैरोकार हैं जिनकी गणेश शोषण पर आधारित है , आगे जाना है । हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते।  बुराइयां एक स्वार्थ समूह की तरह एक दूसरे का स्थान लेने के लिए तैयार हैं।""
भगत सिंह के नाम के साथ एक और विचारधारा जो  आती है वो है  " समाजवादी विचारधारा" ।
भगत सिंह के जीवन में उनका एक आदर्श था,
" सरदार करतार सिंह सराभा "।
इसके साथ ही सरदार भगत सिंह ब्लादिमीर लेनिन के बहुत बड़े दीवाने थे । सरदार भगत सिंह ने  लेनिन को हर तरह से जाना । और हर तरह से समझा ।
हाल फिलहाल जब लेनिन की मूर्ति तोड़े जाने का एक प्रचलन शुरू हुआ।  तब भगत सिंह द्वारा उनके लिए कहे गए कुछ बातें और कुछ विचार याद आते हैं।
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु पर मुक़दमा चल रहा था कि कि ‘लेनिन दिवस’ आ गया (21 जनवरी यानी लेनिन की पुण्यतिथि)। भगत सिंह और उनके साथियों ने तीसरे इंटरनेशन (कम्यनिस्टों की अंतरराष्ट्रीय संस्था) के लिए एक तार तैयार किया और सुनवाई के दौरान अदालत में पढ़ा। अख़बारों में इसकी रिपोर्ट यूँ लिखी गई थी-

21 जनवरी, 1930 को लाहौर षड़यंत्र केस के सभी अभियुक्त अदालत में लाल रुमाल बांध कर उपस्थित हुए। जैसे ही मजिस्ट्रेट ने अपना आसन ग्रहण किया उन्होंने “समाजवादी क्रान्ति जिन्दाबाद,” “कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जिन्दाबाद,” “जनता जिन्दाबाद,” “लेनिन का नाम अमर रहेगा,” और “साम्राज्यवाद का नाश हो” के नारे लगाये। इसके बाद भगत सिंह ने अदालत में तार का मजमून पढ़ा और मजिस्ट्रेट से इसे तीसरे इंटरनेशनल को भिजवाने का आग्रह किया।

तार का मजमून—

लेनिन दिवस के अवसर पर हम उन सभी को हार्दिक अभिनन्दन भेजते हैं जो महान लेनिन के आदर्शों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ भी कर रहे हैं। हम रूस द्वारा किये जा रहे महान प्रयोग की सफलता की कमाना करते हैं। सर्वहारा विजयी होगा। पूँजीवाद पराजित होगा। साम्राज्यवाद की मौत हो।

भगतसिंह (1931)

उस वक़्त भगत सिंह का नाम बच्चे-बच्चे की ज़बान पर था। अंग्रेज़ सरकार की दस्तावेज़ों में दर्ज हुआ कि भगत सिंह की शोहरत गाँधी जी से ज़्यादा हो गई है। अंग्रेज़ सरकार सबसे ज़्यादा भगत सिंह से ख़ौफ़ खाती थी क्योंकि वे साफ़ तौर पर ख़ुद को ‘बोल्शेविक’ कहते थे और मार्क्सवादी सिद्धांतों के आधार पर समाज के निर्माण को अपना मक़सद बताते थे। जेल में रहने के दौरान साम्यवाद को लेकर उनका अध्ययन लगातार जारी था। ब्रिटिश ही नहीं, पूरी दुनिया के पूँजीवादी देश लेनिन के नेतृत्व में हुई रूसी क्रांति और उसके वैश्विक प्रभाव से आतंकित थे।

23 मार्च को भगत सिंह को फांसी दिए जाने से दो घंटे पहले उनके वकील प्राण नाथ मेहता उनसे मिले थे। उन्होंने बाद में लिखा कि भगत सिंह अपनी छोटी सी कोठरी में पिंजड़े में बंद शेर की तरह चक्कर लगा रहे थे ।

"भगत सिंह ने मुस्करा कर मेरा स्वागत किया और पूछा कि आप मेरी किताब ‘रिवॉल्युशनरी लेनिन’ लाए या नहीं ? जब मैंने उन्हे किताब दी तो वो उसे उसी समय पढ़ने लगे मानो उनके पास अब ज़्यादा समय न बचा हो।"

मैंने उनसे पूछा कि क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे? भगत सिंह ने किताब से अपना मुंह हटाए बग़ैर कहा, “सिर्फ़ दो संदेश… साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और ‘इन्क़लाब ज़िदाबाद !”

इसके बाद भगत सिंह ने मेहता से कहा कि वो पंडित नेहरू और सुभाष बोस को उनका धन्यवाद पहुंचा दें, जिन्होंने उनके केस में गहरी रुचि ली ।

मेहता के जाने के थोड़ी देर बाद जेल अफ़सरों ने तीनों क्रांतिकारियों को बता दिया कि उनको वक़्त से 12 घंटे पहले ही फांसी दी जा रही है। अगले दिन सुबह छह बजे की बजाय उन्हें उसी शाम सात बजे फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा।

जब यह ख़बर भगत सिंह को दी गई तो वे मेहता द्वारा दी गई किताब के कुछ पन्ने ही पढ़ पाए थे. उनके मुंह से निकला, ” क्या मुझे लेनिन की किताब का एक अध्याय भी ख़त्म नहीं करने देंगे ? ज़रा एक क्रांतिकारी की दूसरे क्रांतिकारी से मुलाक़ात तो ख़त्म होने दो।”

लेनिन का भारत के स्वतंत्रता संग्राम से गहरा नाता था। अफ़गानिस्तान में गठित भारत की पहली निर्वासित सरकार के राष्ट्रपति राजा महेंद्रप्रताप सिंह भी लेनिन से काफ़ी प्रभावित थे। 1 दिसंबर 1915 को हुई इस सरकार की घोषणा को स्वर्ण पट्टिका में अंकित करके रूस भेजा गया था। अंग्रेज़ बोल्शविकों और महेंद्र प्रताप की निकटता से आतंकित थे। क्रांति के बाद लेनिन ने उन्हें रूस आमंत्रित भी किया था।

लेनिन ने ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो’ के नारे से आंदोलित धरती पर रूसी क्रांति के ज़रिए मज़दूरों के राज का असंभव लगने वाला सपना सच कर दिखाया था। कॉरोपेरेट पोषित ‘राष्ट्रवादी’ राजनीति अगर मज़दूरों के इस नायक से घृणा करती है तो आश्चर्य कैसा।

भगत सिंह के इन चिट्ठियों और इन वक्तव्यों को बताने के पीछे मेरा सिर्फ और सिर्फ यही उद्देश्य है , कि आप भगत सिंह को बंदूक और फांसी में ही सीमित ना रखकर,  उनको पूरी तरह से पढ़ें । उनकी किताबें ""समाजवाद के सिद्धांत" "मैं नास्तिक क्यों हूं " जैसी मार्केट में आज भी उपलब्ध हैं।  आप जाएं और उन्हें पढ़कर भगत सिंह को पूरी तरह जाने की कोशिश करें । फिर आपके भी मन में यही विचार आएगा कि,  भगत सिंह के साथ फांसी की फोटो क्यों ? भगत सिंह का पर्यायवाची हिंसा क्यों बना ? और लोग भगत सिंह के नाम पर हमारी भावनाओं से कहां कहां तक खेल रहे हैं ?

मेरी आशा और उम्मीद है कि इन किताबों को पढ़ने के बाद आपको यह सब बातें समझ में आ जाएंगी ।  और आप उस भगत सिंह को भूल जाएंगे , जो भगत सिंह सिर्फ फांसी के फंदे और बंदूक तक सीमित रह गया । आप एक नए भगत सिंह को पाएंगे जो एक विचारवादी क्रांतिकारी था । जिसने जब बंदूक की जरूरत पड़ी तो बंदूक चलाई ।
जब बम की जरूरत पड़ी तो बम चलाया। 
जब आत्मसमर्पण करने की जरूरत पड़ी तो आत्मसमर्पण किया ।
जब जेल से बैठकर विचारों की लड़ाई लड़ने की जरूरत पड़ी तो उसने वह भी किया।
और जब अपने विचारों को लोगों तक पहुंचान पड़ा,  जो कि सबसे बड़ा काम था,  उसने वह भी किया ।

लेकिन जननायक भगत सिंह की किताबों को पढ़ने के बाद आपका दृष्टिकोण और नजरिया भगत सिंह के बारे में बिल्कुल ही बदल जाएगा। और जितना सम्मान आज आपके मन में भगत सिंह के लिए है , उससे कहीं ज्यादा सम्मान आपके मन में नए वाले भगत सिंह के लिए आ जाएगा।  क्योंकि जिस भगत सिंह को आप अभी तक जानते आए हैं,  जो बंदूकों और फांसी के फंदे के साथ दिखता है।  इसकी कहानी का अंत आप लोगों के नजर में सिर्फ एक फांसी का फंदा ही है।  वह भगत सिंह सिर्फ एक क्रांतिकारी है।

लेकिन जो भगत सिंह ने अपने आप को किताबों के माध्यम से अपने लेखों और अपने बयानों के माध्यम से बताया , वह भगत सिंह सिर्फ एक क्रांतिकारी ना होकर एक जननायक था।

और यह बात बिल्कुल सही है कि ब्रिटिश सरकार से लेकर उस समय तक के बहुत सारे हुक्मरान,  भगत सिंह की गोली से कहीं-कहीं बहुत ज्यादा भगत सिंह की कलम से डरते थे।
और यह डर इतना ज्यादा बढ़ गया कि भगत सिंह को 1 मिनट भी जिंदा रखना , उन्हें अपने लिए अपनी ताबूत में कील ठोकने के बराबर लगने लगा । इसी वजह से भगत सिंह को 11 घंटे फांसी पहले दे दी गई ।

मेरी आशा है आप जननायक भगत सिंह को जानने की और उनको पढ़ने की पूरी कोशिश करेंगे ।
जय हिंद
जय समाजवाद
इंकलाब जिंदाबाद

बृजेश यदुवंशी

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