भगवान और धर्म से परे "भगत सिंह"
इतने सारे राजनीतिक पोस्ट और टिप्पणियों के बाद आज फेसबुक प्रोफाइल देखा तो यह समझ आया कि इतने सारे पोस्ट से राजनीतिक सफलता तो मिली है, बृजेश यदुवंशी का खुद का व्यक्तित्व कहीं खो गया है।
लेकिन मुझे इस बात की खुशी है, क्योंकि मैं जिस समाजवादी विचारधारा को अनुसरित करने की कोशिश कर रहा हूं, उस विचारधारा पर ऐसे लाखों-करोड़ों बृजेश कुर्बान है।
यह विचारधारा शहीद भगत सिंह से शुरू होकर लोहिया जी के माध्यम से हम सबके बीच पहुंची है। इस बात की खुशी है कि मैं इस विचारधारा का एक बहुत ही छोटा भाग बन सका।
इसके चलते कई बार मेरे कुछ पुराने दोस्त राजनीतिक बातों के जवाब में व्यक्तिगत टिप्पणी करके दोस्ती खत्म कर देते हैं । हालांकि यह मुझे बहुत बड़ा नुकसान है , लेकिन समाजवाद के लिए, इस विचारधारा के लिए , भगत सिंह के लिए , लोहिया के लिए , अगर यही कुर्बानी है तो मैं तैयार हूं।
बस अपने दोस्तों से एक अपील करना चाहता हूं कि मैं व्यक्तिगत नहीं है राजनीतिक पोस्ट करता हूं और मेरे दोस्तों कभी इसे व्यक्तिगत रूप से नहीं लेना नही है ।
और मैं अपने आप में एक परिवर्तन खुद ही देख रहा हूं कि धीरे-धीरे मैं समाजवाद के साथ साथ भगतवाद के साथ भी उसी मजबूती के साथ जुड़ता जा रहा हूं।
भगत सिंह को जितना पढ़ रहा हूं उतना ही ज्यादा उनको जानने की इच्छा हो रही है। और उतना ही ज्यादा तुमको और पढ़ने की तलब जाग रही है यह एक नशा और एक आदत बन चुकी है।
समाजवाद, क्रांति, भारत की आजादी, मजदूर वर्ग आंदोलन, धर्म, ईश्वर आदि विषयों पर भगत सिंह के विचारों से हम सुपरिचित हैं। भगत सिंह का जीवन और कार्य, मुख्यत: इन्हीं विषयों पर केन्द्रित रहे हैं। जाति और वर्णव्यवस्था पर उनके विचार ज्यादा नहीं जाने जाते हैं क्योंकि इस विषय पर उन्होंने ज्यादा नहीं लिखा है। इस विषय पर ज्यादा नहीं लिखे जाने का एक कारण यह भी हो सकता है कि वे सिख थे, जहां जाति और वर्णव्यवस्था वैसी मजबूत नहीं है, जैसी हिन्दुओं में है।
तथापि उनका लेख ‘अछूत समस्या’ इस मायने में महत्वपूर्ण है कि इससे जाति और वर्ण-समस्या पर भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों की झलक मिलती है। आज की तारीख में भी प्रासंगिक यह लेख दलित समस्या पर भगत सिंह की प्रतिनिधि रचना मानी जा सकती है। आज जबकि जाति के सवाल ने विचारधारात्मक एवं राजनीतिक क्षितिज पर महत्वपूर्ण स्थान पा लिया है, उस पर महान क्रांतिकारी भगत सिंह के विचारों को जानने, समझने का खास महत्व है।
25 दिसंबर, 1927 को बाबा साहब आंबेडकर अपने अनुयायियों के साथ मिलकर मनुस्मृति का दहन करने जैसा महान युगांतकारी कार्य को अंजाम दे चुके थे। आंबेडकर और उनके दलित अनुयायी दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग अंग्रेजों से कर रहे थे। 1927 में अमेरिकी लेखिका कैथरीन मेयो की पुस्तक ‘मदर इंडिया’ का प्रकाशन हो चुका था। ‘मदर इंडिया’ के प्रकाशन ने एक भूचाल पैदा किया था। इस पुस्तक ने भारतीय समाज खासकर हिन्दू समाज की बुराइयों को अत्यंत विश्वसनीय तथा निर्मम तरीके से उजागर किया है। कैथरीन मेयो ने इस पुस्तक में राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्वकारी तबके सहित भारत की प्रभुत्वशाली जातियों के ढोंग, पाखंड एवं सामाजिक सवालों पर पर्दा डालने की कोशिशों का खूब पदार्फाश किया है।
‘मदर इंडिया’ लेख में भगत सिंह ने नूर मोहम्मद के जिस भाषण को उद्घृत किया है वह ‘मदर इंडिया’ से लिया गया मालूम पड़ता है, क्योंकि यही भाषण ‘मदर इंडिया’ में भी उद्घृत है। भगत सिंह पुन: मेयो के शब्दों को उद्घृत करते हैं:“स्वतंत्रता के लिए स्वाधीनता चाहने वालों को यत्न करना चाहिए। इस प्रकार उस समय की तीन महत्वपूर्ण घटनाओं – मनुस्मति का दहन, दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग तथा ‘मदर इंडिया’ के प्रकाशन ने राष्ट्रीय आंदोलन के मोर्चे पर सामाजिक सवालों को प्रमुखता से ला खड़ा किया था।
भगत सिंह ने अछूतों (आज के संदर्भ में जिन्हें दलित कहना ज्यादा उपयुक्त होगा) के लिए पृथक निर्वाचन की मांग का समर्थन किया है। इस बिंदु पर भी वे आंबेडकरके साथ खड़े नजर आते हैं। 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह अपने साथियों के साथ फांसी पर चढ़ा दिये गए। भगत सिंह यदि जीवित होते तो 1932 में ‘पूना पैक्ट’ के पहले अम्बेडकर-गांधी द्वंद में आंबेडकर का समर्थन किये होते। भगत सिंह ने स्पष्ट लिखा है, ‘”हम तो समझते हैं कि उनका स्वयं को अलग संगठनबद्ध करना तथा मुस्लिमों के बराबर गिनती में होने के कारण उनके बराबर अधिकारों की मांग करना बहुत आशाजनक संकेत हैं। या तो साम्प्रदायिक भेद का झंझट ही खत्म करो, नहीं तो उनके अलग अधिकार उन्हें दे दो।
कौंसिलों और असेम्बलियों का कर्तव्य है कि वे स्कूल-कॉलेज, कुएं तथा सड़क के उपयोग की पूरी स्वतंत्रता उन्हें दिलायें। जुबानी तौर पर ही नहीं, वरन साथ ले जाकर उन्हें कुओं पर चढ़ायें। उनके बच्चों को स्कूलों में प्रवेश दिलाये। लेकिन जिस लेजिस्लेटिव में बाल-विवाह के विरूद्ध पेश किये बिल पर मजहब के बहाने हाय-तौबा मचायी जाती है, वहां वे अछूतों को अपने साथ शामिल करने का साहस कैसे कर सकते हैं? इसलिए हम मानते हैं कि उनके अपने जन-प्रतिनिधि हों। वे अपने लिए अधिक अधिकार मांगे।”
दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग का समर्थन कर भगत सिंह सामाजिक साम्राज्यवादियों के खिलाफ दलितों के पक्ष में खड़े होते हैं और दलितों का स्थायी विश्वास हासिल करते हैं। छुआछूत का विरोध तो गांधीजी भी करते थे, किन्तु दलितों की स्वतंत्र राजनीतिक भागीदारी के वे बिल्कुल विरोधी थे। दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग का समर्थन करना दलितों के असली दोस्त होने का मापदंड था, जिस पर भगत सिंह खरे उतरे थे।
आजादी के बाद से दलितों में से जो नेता उभरकर आये हैं, वे प्राय: दलाल प्रकृति के ही हुए हैं, इसका सबसे बड़ा कारण पूना पैक्ट है, क्योंकि पूना पैक्ट ने संसदीय जनतंत्र में दलित नेताओं में दलितों को सवर्णों एवं अन्य जातियों पर निर्भर बना दिया। यही कारण है कि ‘पूना पैक्ट’ को रद्द करने का सवाल अभी भी जिंदा है और इसलिए भगत सिंह आज भी दलित राजनीति के लिए प्रासंगिक हैं।
भगत सिंह अचानक तीखे हो जाते हैं और कह उठते हैं, “लातों के भूत बातों से नहीं मानते। अर्थात संगठनबद्ध हो, अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दो। तब देखना, कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से इंकार करने की जुर्रत नहीं कर सकेगा। तुम दूसरों की खुराक मत बनो। दूसरों के मुंह की ओर न ताको।” इसके पहले भगत सिंह निम्न पंक्तियों के द्वारा दलितों में आत्मगौरव जगाते हैं, “अछूत कहलाने वाले असली जनसेवकों तथा भाइयों उठो! अपना इतिहास देखो।
गुरू गोविन्द सिंह की फ़ौज की असली शक्ति तुम्हीं थे! शिवाजी तुम्हारे भरोसे पर ही सब कुछ कर सके, जिस कारण उनका नाम आज भी जिंदा है। तुम्हारी कुर्बानियां स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई है।” इसके बाद मेयो को उद्घृत करके भगत सिंह दलितों को ललकारते हैं, ‘तुम पर इतना जुल्म हो रहा है कि मिस मेयो मनुष्यों से भी कहती हैं-उठो, अपनी शक्ति पहचानो। संगठनबद्ध हो जाओ। असल में स्वयं कोशिशें किये बिना कुछ भी न मिल सकेगा।’ स्वतंत्रता के लिए स्वाधीनता चाहने वालों को यत्न करना चाहिए।’
अगर हम भारत का संविधान देखें तो इसके पहले पेज पर ही इसकी प्रस्तावना में "समाजवादी" शब्द का जिक्र किया गया है। इसका मतलब है कि भारतीय संविधान सभा का उद्देश्य भारत में पूंजीवाद नहीं रहा होगा या फिर पूंजीवाद के चमत्कारिक आकर्षण से गरीबी का स्वतः उन्मूलन नही हो जाने की सम्भावना प्रबलता से रही होगी। क्योंकि उस समय भी हमारे देश में गरीबी बहुत बड़े स्तर पर थी। देश का हर तबका, हर वर्ग ,हर क्षेत्र, गरीबी से त्रस्त था । लोगों के पास रोजगार, शिक्षा और सुरक्षा का कोई प्रबंध नहीं था ।
भारत को जब गरीबों, मजदूरों, अशिक्षितों, दस्तकारों, बेरोजगारों इत्यादि के आन्दोलन ने अवसरवादी नेतृत्व से आजादी दिलायी, तो उस समय भारत की जनता केवल 10-11% ही शिक्षित थी! ऐसे में समाज में समरसता, समानता, एवं समृद्धता का सारा दायित्व उन्ही पढ़े लिखे अभिजनों का था लेकिन उनके द्वारा संपूर्ण भारतीयों के हित को साधने के लिए (खास तौर से आर्थिक), कोई ठोस, बाध्यकारी और लिखित उपाय किया ही नहीं गया ।
इस देश में सरकार चाहे जिस भी पार्टी की रही हो , लेकिन कोई भी पार्टी समाजवाद की स्थापना या आर्थिक समानता एवं आर्थिक सम्पन्नता, जैसे सबको रोटी ,कपड़ा और मकान की व्यवस्था तक नहीं कर पायीं। और अगर किसी ने इसकी शुरुआत भी करना चाहा, या शुरुआत किया , तो पूंजीवादी ताकतों ने अपने राजनीतिक जैक की मदद से उनको सरकार से बाहर ही कर दिया। और वहां पर बैठा दी अपने गुलामों की फौज को ।
दलित और ब्राह्मणवादी अफसरशाही इस लेख में भगत सिंह की एक अत्यंत विशिष्ट स्थापना है जो आज की दलित-बहुजन राजनीति के लिए एक महान शिक्षा है। उन्होंने दलितों को नौकरशाही से सावधान रहने के लिए कहा है, “नौकरशाही के झांसे में मत फंसना। यह तुमहारी कोई सहायता नहीं करना चाहती, बल्कि तुम्हें अपना मोहरा बनाना चाहती है। यही पूंजीवादी नौकरशाही तुम्हारी गुलामी और गरीबी का असली कारण है। इसलिए तुम उसके साथ कभी न मिलना। उसकी चालों से बचना। तब सब कुछ ठीक हो जाएगा।”
भगत सिंह के ये शब्द मानों किसी भविष्यवक्ता के शब्द हैं, क्योंकि आज की दलित-बहुजन राजनीति का सबसे बड़ा रोग यही है कि यह नौकरशाही पर अधिकाधिक निर्भर करती है। दलित बहुजनों के स्थायी हित में नौकरशाही एवं प्रशासनिक व्यवस्था में रेडिकल परिवर्तन करना दलित-बहुजनों की राजनीति करने वाली पार्टियों के एजेंडा में कहीं नहीं है। इसके उलट ये पार्टियां यही शिकायत करती हैं कि नौकरशाही में दलित-बहुजनों की पर्यापत संख्या नहीं होने के कारण वे दलित बहुजनों के उत्थान वास्ते ज्यादा कुछ नहीं कर पाते।
ये पार्टियां उस दिन का इंतजार कर रही हैं जब नौकरशाही में दलित-बहुजनों की बहुतायत होगी और वे दलित-बहुजनों के उत्थान वास्ते कार्यक्रमों को लागू करेगी।
उन्होंने अंगेजी साम्राज्यवाद को ललकारा । मात्र 23 साल की उम्र में उन्होनें शहादत पाईए लेकिन शहादत के वक्त भी वे आजादी के आंदोलन की उस धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थेए जो हमारे देश की राजनैतिक आजादी को आर्थिक आजादी में बदलने के लक्ष्य को लेकर लड़ रहे थेए जो चाहते थे कि आजादी के बाद देश के तमाम नागरिको को जातिए भाषाए संप्रदाय के परे एक सुंदर जीवन जीने का और इस हेतु रोजी.रोटी का अधिकार मिले ।
निश्चित ही यह लक्ष्य अमीर और गरीब के बीच असमानता को खत्म किये बिना और समाज का समतामूलक आधार पर पुनर्गठन किये बिना पूरा नही हो सकता था । इसी कारण वे वैज्ञानिक समाजवाद की ओर आकर्षित हुएण् उन्होने मार्क्सवाद का अध्ययन कियाए सोवियत संघ की मजदूर क्रांति का स्वागत किया और अपने विषद अध्ययन के क्रम में उनका रूपांतरण एक आतंकवादी से एक क्रांतिकारी में और फिर एक कम्युनिस्ट के रूप में हुआ ।
अपनी फांसी के चंद मिनट पहले वे ष् लेनिन की जीवनी ष् को पढ़ रहे थे और उनके ही शब्दों में एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा था । उल्लेखनीय है कि लेनिन ही वह क्रांतिकारी थेए जिन्होने रूस में वहां के राजा जार का तख्ता पलट कर दुनियां में पहली बार किसी देश में मजदूर . किसान राज की स्थापना की थीए सोवियत संघ का गठन किया था और मार्क्सवादी प्रस्थापनाओं के आधार पर शोषणविहीन समाज के गठन की ओर कदम बढ़ाया था ।
लेनिन के नेतृत्व में यह कार्य वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने ही किया था । इसलिए वैज्ञानिक समाजवाद के दर्शन को मार्क्सवाद.लेनिनवाद के नाम से ही पूरी दुनिया में जाना जाता है । स्पष्ट है कि भगतसिंह भी इस देश से अंग्रेजी साम्राज्यवाद को भगाकर मार्क्सवादी.लेनिनवादी प्रस्थापनाओं के आधार पर ही ऐसे समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहते थे एजहां मनुष्यए मनुष्य का शोषण न कर सके । अपने वैज्ञानिक अध्ययन और क्रांतिकारी अनुभवों के आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि यह काम कोई बुर्जुआ .पूंजीवादी दल नही कर सकताए बल्कि केवल और केवल कम्युनिस्ट पार्टी ही समाज का ऐसा रूपान्तरण कर सकती है ।
इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी और उसके क्रांतिकारी जनसंगठनों का गठनए ऐसी पार्टी और जनसंगठनों के नेतृत्व में आम जनता के तमाम तबको की उनकी ज्वलंत मांगो और समस्याओं के इर्द.गिर्द जबरदस्त लामबंदी और क्रांतिकारी राजनैतिक कार्यवाहियों का आयोजन बहुंत जरूरी है । व्यापक जनसंघर्षों के आयोजन के बिना और इन संघर्षों से प्राप्त अनुभवों से समाज की राजनैतिक चेतना को बदले बिना किसी बदलाव की उम्मीद नही की जानी चाहिये । श्नौजवान राजनैतिक कार्यकर्ताओं के नामश् पत्र में भगत सिंह ने अपने इन विचारों का विस्तार से खुलासा किया है ।
इस प्रकार भगतसिंह हमारे देश की आजादी के आंदोलन के क्रांतिकारी.वैचारिक प्रतिनिधि बनकर उभरते हैं, जिन्होनें हमारे देश की आजादी की लड़ाई को केवल अंग्रेजी साम्राज्यवाद से मुक्ति तक सीमित नही रखा बल्कि उसे वर्गीय शोषण के खिलाफ लड़ाई से भी जोड़ा और पूंजीवादी.भूस्वामी सत्ता तथा पूंजीवादी.सामंती विचारों से मुक्ति की अवधारणा से भी जोड़ा । मानव समाज के लिए ऐसी मुक्ति तभी संभव हैए जब उन्हें धार्मिक आधार पर बांटने वाली सांप्रदायिक ताकतों और विचारों को जड़ मूल से उखाड़ फेंका जाये ए जातिवाद का समूल नाश होए धर्म को पूरी तरह से निजी विश्वासों तक सीमित कर दिया जाय और आर्थिक न्याय को सामाजिक न्याय के साथ कड़ाई से जोड़ा जाय ।
ऐसा सामाजिक न्याय जो जातिप्रथा उन्मूलन की ओर बढ़े और जो स्त्री.पुरूष असमानता को खत्म करें ए व्यापक भूमि सुधारों के बल पर सांमती विचारों की सभी अभिव्यक्तियों व प्रतीकों के खिलाफ लड़कर ही हासिल किया जा सकता है । भारतीय समाज बहुरंगी हैए कई धर्म हैंए कई भाषाएं हैंए सांस्कृतिक रूप से धनी इस देश में सदियों से कई संस्कृतियां आकर घुलती.मिलती रही है । लोगों के पहनावे एखान.पान तथा आचार.व्यवहार भी अलग.अलग है । इसलिए भारतीय संस्कृति बहुलतावादी संस्कृति हैए हमारी विविधता में एकता यही है कि इतनी भिन्नताओं के बावजूद हमारी मानवीय समस्याएंए सुख.दुखए आशा.आकाक्षाएं एक है ।
हमारे देश की एकता और अखण्डता की रक्षा तभी की जा सकती हैए जब हम इस विविधता का सम्मान करना सीखें और इसके बहुरंगीपन को खत्म कर एक रंगत्व में ढालनें की कोशिशों को मात दी जाय । इसी विविधता में हमारा सामूहिक अस्तित्व और संप्रभुता सुरक्षित है । भगतसिंह का संघर्ष भारत की एकता के लिए इसी विविधता की रक्षा करने का संघर्ष था । इस संघर्ष के क्रम में वे सांप्रदायिक.जातिवादी संगठनों व उसके नेताओं की तीखी आलोचना भी करते है। भगतसिंह गांधीजी और और कांगेस की आलोचना भी इसी प्ररिप्रेक्ष्य में करते हैं कि उनकी नीतियां अंग्रेजी साम्राज्यवाद से समझौता करके गोरे शोषकों की जगह काले शोषकों को तो बैठा सकती हैए लेकिन एक समतामूलक समाज की स्थापना नही कर सकती ।
इस प्रकार भगतसिंह देश की आजादी की लड़ाई को साम्राज्यवाद से मुक्तिए सांप्रदायिकता और जातिवाद से मुक्तिए वर्गीय शोषण से मुक्ति तथा देश की एकता.अखंडता की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्षता व विविधता की रक्षा के लिये संघर्ष से जोड़ते है और इसमें कमजोरी दिखाने के लिए आजादी के तत्कालीन नेतृत्व की आलोचना करते हैं । भगतसिंह की मार्क्सवादी दृष्टि कितनी सटीक थीए आज हम यह देख रहे हैं । अंग्रेजी साम्राज्यवाद चला गयाए लेकिन वर्गीय शोषण बदस्तूर जारी है ।
हमने राजनैतिक आजादी तो हासिल कर लीए किन्तु गांधीजी के ही श्अंतिम व्यक्तिश् के आंसू पोंछने का काम ठप्प पड़ा हुआ है क्योंकि इस राजनैतिक आजादी को अपने साथ आर्थिक आजादी तो लाना ही नहीं था । इस आर्थिक आजादी के बिना सामाजिक न्याय की लड़ाई भी आगे बढ़ नही सकती और हमारे राष्ट्रीय जीवन में सामाजिक अन्याय के विभिन्न रूपों का बोलबाला हो चुका है । आर्थिक.सामाजिक न्याय के अभाव में हमारे देश की विविधता भी खतरे में पड़ गई है और सांप्रदायिक.फांसीवादी विचारधारा फल.फूल रही है। जिससे देश की एकता.अखंडता.संप्रभुता ही खतरे में पड़ती जा रही है ।
स्पष्ट है कि कांग्रेस और गांधीजी के नेतृत्व में जो राजनैतिक आजादी हासिल की गईए उसने हमारे देश.समाज की समस्याओं को हल नहीं किया । इसे हल करने के लिए तो हमें भगतसिंह की मार्क्सवादी दृष्टि से ही जुड़ना होगा और इसी दृष्टि पर आधारित वैकल्पिक नीतियों के इर्द.गिर्द जनलामबंदी व संघर्षों को तेज करना होगा और पूंजीवादी.सांमती सत्ता को ही उखाड़ फेंकने की लड़ाई लड़ना होगा ।
दरअसल भगत सिंह का मानना यह था कि समाज और देश में जितने भी कुरीतियां और ऊंच नीच की भावना है वह सिर्फ धर्म और भगवान में विश्वास करने की वजह से ही है और इसीलिए भगत सिंह एक पूर्ण रूप से नास्तिक व्यक्तित्व में ढल चुके थे । और उन्होंने अपने आप को नास्तिक घोषित कर दिया । साथ ही उन्होंने " मैं नास्तिक क्यों हूं" नाम का एक लेख लिखा । यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था। और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार “ द पीपल “ में प्रकाशित हुआ । इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं। और इस संसार के निर्माण , मनुष्य के जन्म , मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता , उसके शोषण , दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है । यह भगत सिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है।
इस लेख में भगत सिंह लिखते हैं कि-
"यदि आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर है, जिसने विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बतायें कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और संतापों से पूर्ण दुनिया – असंख्य दुखों के शाश्वत अनन्त गठबन्धनों से ग्रसित! एक भी व्यक्ति तो पूरी तरह संतृष्ट नही है। कृपया यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है।
वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है। कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका मनोरंजन है। नीरो ने बस एक रोम जलाया था। उसने बहुत थोड़ी संख्या में लोगो की हत्या की थी। उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने पूर्ण मनोरंजन के लिये। और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाये जाते हैं। पन्ने उसकी निन्दा के वाक्यों से काले पुते हैं, भत्र्सना करते हैं – नीरो एक हृदयहीन, निर्दयी, दुष्ट।
एक चंगेज खाँ ने अपने आनन्द के लिये कुछ हजार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं। तब किस प्रकार तुम अपने ईश्वर को न्यायोचित ठहराते हो? उस शाश्वत नीरो को, जो हर दिन, हर घण्टे ओर हर मिनट असंख्य दुख देता रहा, और अभी भी दे रहा है। फिर तुम कैसे उसके दुष्कर्मों का पक्ष लेने की सोचते हो, जो चंगेज खाँ से प्रत्येक क्षण अधिक है? क्या यह सब बाद में इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और गलती करने वालों को दण्ड देने के लिये हो रहा है? ठीक है, ठीक है। तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे, जो हमारे शरीर पर घाव करने का साहस इसलिये करता है कि बाद में मुलायम और आरामदायक मलहम लगायेगा?
ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापक कहाँ तक उचित करते थे कि एक भूखे ख़ूंख़्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि, यदि वह उससे जान बचा लेता है, तो उसकी खूब देखभाल की जायेगी? इसलिये मैं पूछता हूँ कि उस चेतन परम आत्मा ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों की रचना क्यों की? आनन्द लूटने के लिये? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?
तुम मुसलमानो और ईसाइयो! तुम तो पूर्वजन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने शब्द द्वारा विश्व के उत्पत्ति के लिये छः दिन तक क्यों परिश्रम किया? और प्रत्येक दिन वह क्यों कहता है कि सब ठीक है? बुलाओ उसे आज। उसे पिछला इतिहास दिखाओ। उसे आज की परिस्थितियों का अध्ययन करने दो। हम देखेंगे कि क्या वह कहने का साहस करता है कि सब ठीक है।
कारावास की काल-कोठरियों से लेकर झोपड़ियों की बस्तियों तक भूख से तड़पते लाखों इन्सानों से लेकर उन शोषित मज़दूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक निरुत्साह से देख रहे हैं तथा उस मानवशक्ति की बर्बादी देख रहे हैं, जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा, और अधिक उत्पादन को ज़रूरतमन्द लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देना बेहतर समझने से लेकर राजाओ के उन महलों तक जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है- उसको यह सब देखने दो और फिर कहे – सब कुछ ठीक है! क्यों और कहाँ से? यही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो। ठीक है, तो मैं आगे चलता हूँ।
और तुम हिन्दुओ, तुम कहते हो कि आज जो कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं और आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनन्द लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धान्त गढ़े, जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफ़ी ताकत है। न्यायशास्त्र के अनुसार दण्ड को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर केवल तीन कारणों से उचित ठहराया जा सकता है।
वे हैं – प्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धान्त की निन्दा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धान्त का भी अन्त वहीं है। सुधार करने का सिद्धान्त ही केवल आवश्यक है और मानवता की प्रगति के लिये अनिवार्य है। इसका ध्येय अपराधी को योग्य और शान्तिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। किन्तु यदि हम मनुष्यों को अपराधी मान भी लें, तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिये गये दण्ड की क्या प्रकृति है? तुम कहते हो वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है।
तुम ऐसे 84 लाख दण्डों को गिनाते हो। मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर इनका सुधारक के रूप में क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो, जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गधा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण न दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। और फिर क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है। गरीबी एक अभिशाप है। यह एक दण्ड है।
मैं पूछता हूँ कि दण्ड प्रक्रिया की कहाँ तक प्रशंसा करें, जो अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था या उसको भी ये सारी बातें मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो, किसी गरीब या अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का क्या भाग्य होगा? चूँकि वह गरीब है, इसलिये पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने साथियों से तिरस्कृत एवं परित्यक्त रहता है, जो ऊँची जाति में पैदा होने के कारण अपने को ऊँचा समझते हैं। उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं।
यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोेगेगा? ईष्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी? और उन लोगों के दण्ड के बारे में क्या होगा, जिन्हें दम्भी ब्राह्मणों ने जानबूझ कर अज्ञानी बनाये रखा तथा जिनको तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों – वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा सहन करने की सजा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं, तो उसके लिये कौन ज़िम्मेदार होगा? और उनका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तों!
ये सिद्धान्त विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। अपटान सिंक्लेयर ने लिखा था कि मनुष्य को बस अमरत्व में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी सम्पत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाये इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबन्धन से ही जेल, फाँसी, कोड़े और ये सिद्धान्त उपजते हैं।
मैं पूछता हूँ तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को क्यों नहीं उस समय रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लड़ने की उग्रता को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे बचाया? उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव समाज को पूँजीवादी बेड़ियों से मुक्त करें?
आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह लागू करे। जहाँ तक सामान्य भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं। वे इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं। परमात्मा को आने दो और वह चीज को सही तरीके से कर दे। अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिये नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिये कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं।
वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं, बल्कि बन्दूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे। यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निन्दनीय अपराध – एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण – सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहाँ है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? एक नीरो, एक चंगेज, उसका नाश हो!
क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति तथा मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बताता हूँ। चाल्र्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसे पढ़ो। यह एक प्रकृति की घटना है। विभिन्न पदार्थों के, नीहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी। कब? इतिहास देखो।
इसी प्रकार की घटना से जन्तु पैदा हुए और एक लम्बे दौर में मानव। डार्विन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो। और तदुपरान्त सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति के लगातार विरोध और उस पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा से हुआ। यह इस घटना की सम्भवतः सबसे सूक्ष्म व्याख्या है।
इसी लेख के अंत में भगत सिंह लिखते हैं-
"हमें देखना है कि मैं कैसे निभा पाता हूँ। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे नास्तिक होने की बात बतायी तो उसने कहा, ‘'अपने अन्तिम दिनों में तुम विश्वास करने लगोगे।'’ मैंने कहा, ‘'नहीं, प्यारे दोस्त, ऐसा नहीं होगा। मैं इसे अपने लिये अपमानजनक तथा भ्रष्ट होने की बात समझाता हूँ। स्वार्थी कारणों से मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।'’ पाठकों और दोस्तों, क्या यह अहंकार है? अगर है तो मैं स्वीकार करता हूँ।"
जिस तरह आज धर्म के इतने सारे ठेकेदार देश में घूम रहे हैं, ऐसी ही कुछ ऐसी थी उस समय भी रही होगी । जब धर्म के बहुत सारे ठेकेदार घूम रहे थे । एक जगह सोशल मीडिया पर एक कार्टून मेरे सामने आया था । मैं यह कह नहीं सकता वह सही है या गलत । लेकिन अगर वह सही है तो बेहद ही शर्मनाक बात है ।'
कार्टून में जो , RSS के मुखपत्र में छपने की बात कही गई थी । उस कार्टून में सावरकर को राम और श्याम प्रसाद मुखर्जी को लक्ष्मण बताया गया था। गांधी जी को रावण और सरदार पटेल सुभाष चंद्र बोस नेहरू इत्यादि को उनके 10 सिरों में दिखाया गया था। तो जब यह लोग उस समय सरदार पटेल और सुभाष चंद्र बोस का विरोध कर रहे थे तो , भगत सिंह के धर्मों के पाखंड पर इतने करारी चोट के बाद यह लोग भगत सिंह का विरोध कैसे नहीं किए ?
होंगे कैसे यह चुप बैठे होंगे जब भगत सिंह ने इनकी दुकान पर करारा वार किया ?
इनकी दुकान को बंद करने की नौबत तक ला दिया।
आज उन्ही कथित कार्टून " राम और लक्ष्मण" के वंशज भगत सिंह का नाम लेकर अपनी राजनीति चमका रहे हैं। और कुछ तो भगत सिंह और नेहरू के बारे में झूठा बोलकर प्रोपगेंडा फैलाकर, इतिहास को गलत बता कर वोट की अपील तक कर आते हैं । और ऐसे लोग देश के संवैधानिक पदों पर सर्वोच्च में बैठे हुए हैं।
बृजेश यदुवंशी
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