देश के पैसों पर व्यक्तिगत प्रचार

देश मे टैक्स से मुख्यतः तीन चीजे दुरुस्त की जाती है।
विकास , शिक्षा , और सुरक्षा।
विकास और शिक्षा का भंटाधार तो पहले ही हो गया था,
अब इन संघी ढोंगियों ने सेना को भी खोखला करना सुरु कर दिया है। पहले सेना को घटिया क्वालिटी का खाना दिया गया। अब उनको दी जाने वाली सुविधाओं में भी कटौती की जा रही है।  सेना की वर्दी तक कि सुविधा बंद कर दी गयी है।

सवाल यह उठता है कि इतने सारे टैक्स कलेक्शन के बाद आखिर पैसे जा कहां रहे हैं ?
पिछले मई महीने में ही 95 हजार करोड़ से ऊपर का जीएसटी कलेक्शन हुआ । लेकिन फिर भी पैसे जा कहां रहे हैं इसका कोई हिसाब नहीं है ।

अगर हिसाब लगाना है तो TV पर आ रहे सरकार के  विज्ञापन देख लीजिए।  और सिनेमा हॉल में फिल्म शुरू होने से पहले मोदी सरकार के बड़े बड़े विज्ञापन देख लीजिए।
आपको समझ में आ जाएगा कि टैक्स के सारे पैसे से विज्ञापन में खर्च किए जा रहे हैं असल कामों में नहीं ।

बीते चार वर्षों में विज्ञापन पर कुल 4343 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं।
एनडीटीवी इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक "केंद्र सरकार ने बीते चार वर्षों में विज्ञापन पर कुल 4343 करोड़ रुपये खर्च किए है।  इसका खुलासा एक आरटीआई के माध्यम से हुआ है। आरटीआई पर में दी गई जानकारी के अनुसार कहा गया है कि मोदी सरकार ने मई 2014 में सत्ता में आने के बाद से लेकर अब तक विज्ञापनों पर 4,343 करोड़ रूपए खर्च किए हैं। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तहत आने वाली एजेंसी ब्यूरो ऑफ आउटरिच कम्युनिकेशन ने मुंबई के आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली के आरटीआई आवेदन पर यह जानकारी दी।

एजेंसी ने बताया कि केंद्र सरकार ने यह राशि प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के अलावा आउटडोर प्रचार पर खर्च की। एजेंसी ने कहा कि सरकार ने अपने कार्यक्रमों के विभिन्न मीडिया मंचों पर विज्ञापन पर 4,343.26 करोड़ रूपये खर्च किए"।

जानकारी के अनुसार एक जून 2014 से सात दिसंबर 2017 के बीच प्रिंट मीडिया में विज्ञापनों पर 1732.15 करोड़ रूपए खर्च किए गए । जबकि इलेक्ट्रोनिक मीडिया में एक जून 2014 से 31 मार्च 2018 के बीच 2079.87 करोड़ रूपए खर्च हुए। जून 2014 से जनवरी 2018 के बीच आउटडोर विज्ञापनों पर 531.24 करोड़ रूपए खर्च किए गए। एजेंसी के वित्तीय सलाहकार तपन सूत्रधार ने खर्च का ब्यौरा दिया।

अनिल गलगली के आरटीआई आवेदन पर जवाब में कहा गया है कि प्रिंट मीडिया में समाचार पत्र, पत्रिकाएं आती हैं वहीं इलेक्ट्रोनिक मीडिया में टीवी, इंटरनेट, रेडियो, डिजिटल सिनेमा, एसएमएस आदि आते हैं।आउटडोर विज्ञापनों में पोस्टर, बैनर, होर्डिंग, रेलवे टिकट आदि आते हैं।

आज आलम यह हो गया है कि आप कही भी जाये, आपको सड़को के चौराहों पर, पेट्रोल पम्पो , पर सिनेमा हॉल में, टीवी पर , हर जगह आपको सरकार में काम दिखाए और गिनाये जाते है।  अफसोस की बात यह है कि यह काम सिर्फ इन्हीं बैनरों पोस्टरों पर ही दिखाई दिया जाता है , असल जिंदगी में अगर यह काम दिखाई दे तो शायद इन बैनर और पोस्टर से इतनी तकलीफ ना हो ।

कुछ समय पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने एक बेहद ही महत्वपूर्ण फैसला लेते हुए यह कहा था कि विज्ञापनों में( वह विज्ञापन जो सरकार के खर्चे पर बनते हैं) उनमें किसी व्यक्ति विशेष का चेहरा नहीं दिखाया जाएगा ,.जैसे कि मुख्यमन्त्री ।  लेकिन फिर न जाने क्यों कोर्ट ने इस कानून को बदला ? और फिर से सरकार के काम के नाम पर पार्टियां और उनके नेता व्यक्तिगत प्रमोशन और व्यक्तिगत एडवर्टाइजमेंट शुरू हो गया।

हमारे देश में विज्ञापनो पर जनता का पैसा लुटाने की प्रक्रिया राजग सरकार के समय से हो गई थी। उस समय सत्ता में बीजेपी ने शाइनिंग इंडिया के जरिए जमकर जनता के पैसे से अपनी छवि को चमकाया। आगे चलकर यूपीए भी उसी दिशा में बढ़ी।  इस दौरान तो जनता के पैसे से सतारूढ़ पार्टी और उसके नेताओं को फ्री में प्रचार पाने की होड़ लग गई... 2004, 2005 से 2014, 2015 के बीच यूपीए सरकार ने 6000 करोड़ रुपये अपनी छवि चमकाने में लगा दिए।

अपने चुनाव वर्ष के आखिरी 2 से 3 वर्ष में ही काग्रेस सरकार ने जनता के टैक्स के 2000 करोड़ रुपये अपनी छवि चमकाने में फूंक दिए जबकि हमारी वर्तमान सरकार ने अपने पहले वर्ष में ही विज्ञापनों पर 1000 करोड़ रुपये फूंक दिए। केंद्र सरकार की महत्वकांक्षी योजना स्वच्छ भारत के विज्ञापनों पर पहले पहले वर्ष ही 100 करोड़ खर्च कर दिए।

देश के अधिकतर जिलों में देखने से ही पता चल जाता है कि वहां के अधिकारी और जनता स्वच्छता के प्रति कितने गंभीर हैं। स्वच्छता के प्रति लोग जागरूक हुए हों या नहीं, अधिकरियों ने इससे पब्लिसिटी का जरिया जरूर बना लिया।

जिस देश में 19 करोड़ लोग कुपोषण का शिकार हों, जिन्हें दो वक्त की रोटी मिलना भी मुश्किल हो, वहां विज्ञापनों पर इस तरह जनता के पैसे को बहाना कहां तक उचित है ?

यह प्रवृत्ति केंद्र सरकार तक सीमित नहीं। राज्य सरकारें भी वही हथकंडे अपनाती हैं राज्य में। सतारूढ़ पार्टियों द्वारा चलाई जा रही योजनाएं जनता तक पहुंचे न पहुंचे, उनकी पार्टी और नेताओं को पब्लिसिटी जरूर मिलनी चाहिए।

मिसाल के तौर पर अति छोटे राज्य में शुमार दिल्ली का उदाहरण ले लीजिए।  यहां पर इमानदार के तौर पर अपने आप को प्रचारित कर रही आप की सरकार है जिसका जन्म एक आंदोलन के जरिए हुआ था। इसका मुख्य उददेश्य जनता के धन की बर्बादी रोकना था । परन्तु इस सरकार ने आते ही प्रचार का भारी भरकम 540 करोड़ रुपये बजट रखा जो किसी भी बड़े राज्य से अधिक है तथा यह बजट केन्द्र से आधा है।

हालांकि इतने भारी भरकम बजट का मुख्य उददेश्य जनता तक अपनी जन कल्याणकारी नीतियों को पहुंचाना होना चाहिए परन्तु उन्होंने इस पैसे का उपयोग अपनी पार्टी और अपने नेता के प्रचार में खर्च किया। उन्होंने भ्रष्टचार के मामले में पकड़े गए अधिकारियों और कर्मचारियों के बारे में भी बढ़ा चढ़ाकर जानकारी पेश की। जिस राज्य की सरकार के पास अपने कर्मचारी को सेलरी देने के लिए पैसे न हो वह विज्ञापनों पर जनता के धन की भारी बर्बादी कर रही हो तो इसे क्या कहेंगे।

इस काम में हरियाणा भी पीछे नहीं है. हरियाणा में हुड्डा सरकार के समय विज्ञापनों पर धन बर्बादी शुरू हो गई थी। हुड्डा सरकार ने अपने चुनावी वर्ष में चर्चित विज्ञापन हरियाणा नंबर वन पर ही 100 करोड़ फूंक दिए जबकि हरियाणा की वर्तमान सरकार ने मात्र दो सप्ताह 21 अक्टूबर से 5 नवंबर 2015 के बीच ही अपनी उपलब्धियां गिनवाने में 17 करोड़ खर्च कर दिए।

देश की संवैधानिक संस्थाओं ने विज्ञापनों पर हो रहे धन की बर्बादी रोकने की कोशिश की है। चुनाव आयोग ने सभी दलों की सर्वदलीय बैठक बुलाकर हल निकालने की कोशिश की। सर्वोच्च न्यायालय ने विज्ञापनों पर सरकारी धन के दुरुपयोग रोकने के लिए कमेटियां गठित कीं।

सबसे बडी अदालत ने सरकारी विज्ञापनों में प्रधानमत्री और राष्ट्रपति को छोड़कर तमाम राज्य के मुख्यमंत्री, केन्द्रीय और राज्य मत्रियों को विज्ञापन में अपना चेहरा दिखाने पर रोक लगाई। हालांकि इसके कुछ दिनों बाद यह आदेश वापस ले लिया गया।

चुनाव की तैयारियों के लिए चुनाव की तैयारियों के लिए सत्ता पक्ष विपक्ष दोनों ही जमकर पैसा बहाते हैं। बस फर्क यही होता है कि सत्ता पक्ष वही पैसे सरकारी खजाने से यानी हमारे और आपके दिए हुए पैसे से करता है । और विपक्ष उन लोगों द्वारा गठित किए हुए चंदे से करता है।

कुछ दिन पहले खबर आई थी कि भाजपा 10 शिखर के प्रचारकों में है,  और कर्नाटक चुनावों के कारण प्रचार में वृद्धि के चलते 28 अप्रैल – 4 मई 2018 वाले सप्ताह में यह विज्ञापनों की संख्या के लिहाज से दूसरे स्थान पर रही। इसकी पुष्टि इस तथ्य से भी हुई है कि आरटीआई के तहत मांगी गई एक सूचना में बताया गया है कि मोदी सरकार ने 2014 में सत्ता में आने से लेकर अब तक अपने कार्यक्रमों के प्रचार के लिए विभिन्न मीडिया मंचों का इस्तेमाल किया। और विज्ञापन पर 4,343.26 करोड़ रूपये खर्च किए।

इसमें प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के अलावा आउटडोर प्रचार पर किया गया खर्च शामिल है। इस तरह स्पष्ट है कि भाजपा नाम की पार्टी जो भ्रष्टाचार दूर करने के नाम पर सत्ता में आई थी । असल में एक राजनीतिक ब्रांड बन गई है और देश का विकास करने के अपने दावे की जगह विज्ञापन बजट बढ़ा रही है। और इसी का नतीजा है कि देर से ट्रेन चलाने का रिकार्ड बनाने वाला रेल मंत्रालय कभी अपने सोलर पैनल और कभी सुरक्षा उपायों के लिए चर्चा में होता है। और यात्रियों पर दबाव बनाने के लिए मांगी गई कीमत पर टिकट खरीदने के बावजूद यह लिखकर दबाव बनाता है कि, “आपके किराए का 43 प्रतिशत बोझ देश की आम जनता उठाती है।”

मैं इस दावे का आधार नहीं जानता। मोटे तौर पर मानता हूं कि रेलवे सरकारी है यानी जनता की है। उसका मकसद फायदा कमाना नहीं, जनता की सेवा सुविधा है। पर वह पैसे कमाने में लग गई है। सेवा भूलकर। दूसरी ओर, इस सरकार के सबसे बड़े प्रचारक एक बूसीबसिया हैं जो झूठ-और गलत जानकारी के आधार पर दावे तो करते ही रहे हैं अब धमकाने भी लगे हैं। पार्टी का एकमात्र मकसद चुनाव जीतना है और उसमें नियम-कानून, कायदों, नैतिकता की कहीं कोई परवाह नहीं की जाती।

उल्टे एक गरीब देश के चुनाव को बेहद खर्चीला बना दिया गया है। अभी तक यही माना जाता था कि चुनाव में जीतने वाला जनता की अदालत में जीतता है और लोकतंत्र में जनता की अदालत सर्वोपरि है। पर मीडिया को नियंत्रण में करके प्रचार आदि के बल पर चुनाव जीतना असल में जनता को धोखा देना है।
और इन्ही फाइनेंस, स्पोंसर्स और एडवर्टिजमेंट के बहाने सरकारी और सरकार के लोग बड़े-बड़े न्यूज़ चैनल और मीडिया हाउस को कंट्रोल कर रहे हैं।

यहां तक बात पहुंच गई है कि अगर कोई पत्रकार किसी से मनमुताबिक सवाल नहीं पूछता तो,  उस पत्रकार को उस चैनल से निकालने तक के लिए बोला जाता है । और ना निकालने पर उस चैनल से स्पॉन्सरशिप खींच लेने तक की धमकी दी जाती है। ऐसा सब कुछ स्वदेशी के नाम पर किया जाता है।

ग्रेटर नोएडा के आर.टी.आई. एक्टिविस्टे रामवीर तंवर ने 29 अगस्त 2016 को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से सूचना के अधिकार के जरिए पूछा था कि केंद्र में प्रधानमंत्री मोदी ने सरकार बनाने से लेकर अगस्ते 2016 तक विज्ञापन पर कितना सरकारी पैसा खर्च किया है। तीन माह बाद जब आर.टी.आई.के जरिए मिले इस जवाब को देखकर आप जरूर चौंक जाएंगे। इसमें बताया गया है कि पिछले ढाई साल में मोदी सरकार ने विज्ञापन पर ग्यारह अरब रुपए से भी ज्यादा खर्च कर चुकी है।
आर.टी.आई. के जरिए मंत्रालय से मिले विज्ञापन की जानकारी में बताया गया कि ब्रॉडकास्डह, कम्यु—निटी रेडियो, इंटरनेट, दूरदर्शन, डिजिटल सिनेमा, प्रोडक्शान, टेलीकास्ट, एसएमएस के अलावा अन्य खर्च शामिल हैं. इनमें पिछले तीन सालों में मोदी सरकार की ओर से करीब ग्यारह अरब से भी ज्यादा रुपया खर्च किया गया है।

2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार , प्रचार प्रसार के इन माध्यमों पर किया गया इतना खर्च।

एस एम एस
2014 – 9. 07 करोड़
2015 – 5.15 करोड़
अगस्त 2016 तक – 3. 86 करोड़

इंटरनेट –
2014 – 6. 61 करोड़
2015 – 14.13 करोड़
अगस्त 2016 तक – 1.99 करोड़

ब्राडकास्ट –
2014 – 64. 39 करोड़
2015 – 94.54 करोड़
अगस्त 2016 तक – 40.63 करोड़

कम्युनिटी रेडियो –
2014 – 88.40 लाख
2015 – 2.27 करोड
अगस्त 2016 तक – 81.45 लाख

डिजिटल सिनेमा
2014 -77 करोड़
2015 – 1.06 अरब
अगस्त 2016 तक – 6.23 करोड़

टेलीकास्ट –
2014 – 2.36 अरब
2015-2.45 अरब
अगस्त 2016 तक – 38.71 करोड़

प्रोडक्शन –
2014 – 8.20 करोड़
2015 – 13.90 करोड़
अगस्त 2016 तक -1.29 करोड़

तीन साल में हर साल इतना किया खर्च

2014 – एक जून 2014 से 31 मार्च 2015 तक करीब 4.48 अरब रुपए खर्च

2015 – 1 अप्रैल 2015 से 31 मार्च 2016 तक 5.42 अरब रुपए खर्च

2016 – 1 अप्रैल 2016 से 31 अगस्त 2016 तक 1.20 अरब रुपए खर्च

इस मामले पर आर.टी.आई. एक्टीविस्ट रामवीर तंवर ने कहा कि सुना करते थे कि मोदी चाय के पैसे भी खुद दिया करते थे. ऐसे में मन में विज्ञापन को लेकर सवाल उठने पर आर.टी.आई.लगाई थी। अंदाजा ये था मोदी के विज्ञापनों पर 5 से 10 करोड़ रुपए का खर्चा किया होगा। लेकिन, ढाई साल में 1100 करोड़ रुपए खर्च करने का पता लगने के बाद से निराशा महसूस हुई है।

उन्होंने कहा कि जब ढाई साल में 1100 सौ करोड़ का खर्च आया है केवल विज्ञापन पर तो पूरे पांच साल में मोदी जी के विज्ञापनों पर 3000 हजार करोड़ का खर्च आ सकता है। इसकी तुलना उन्होंने अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से भी की और कहा कि वहां सरकार के चुनाव प्रचार में 800 करोड़ रुपए खर्च किए हैं।

जबकि हमारे देश में एक केंद्र सरकार इतना पैसा खर्च कर दिया ये बहुत ही निंदनीय है।
अगर इस पैसों को जनता के काम में लगाया जाता तो, ज्यादा बेहतर होता। अगर इन पैसों से  देश की सेना की वर्दी ही आ जाती तो ज्यादा अच्छा होता ।  इन पैसों में सेना के खाने की स्थिति सुधारी जा सकती है।  उनके लिए बहुत सारे नए हथियार,  और बहुत सारी नई चीजें लाई जा सकती हैं। 

लेकिन सरकार या सरकार में बैठे लोगों को सेना या देश की भलाई से कोई मतलब नहीं है  उन्हें तो बस अपने प्रचार और अपने वोटो की चिंता है जिसके लिए वह इतने हजार करोड रुपए पानी की तरह बहा रहे है।

जय हिंद

बृजेश यदुवंशी

Comments

Post a Comment

Popular Posts