समाजवादी संबिधान में पूंजीवाद
"भारत में कौन राज करेगा ये तीन चीजों से तय होता है. उंची जाति, धन और ज्ञान. जिनके पास इनमे से कोई दो चीजें होती हैं वह शासन कर सकता है।" प्रखर समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया के ये शब्द आज पूरी तरह से सार्थक सिद्ध हो रहे है। बस फर्क इतना है की लोहिया जी ने कहा था कि जिनके पास दो शक्तियां होंगी वह शासन कर सकता है, लेकिन अब के शासकों के पास तीनों शक्तियां हैं । उनकी ऊंची जाति है, धन है, और उनके पास तानाशाही का ज्ञान भी है।
ऊंची जात उन्हें पैदाइशी मिलती है, तानाशाही का ज्ञान उन्हें आरएसएस की शाखाओं से मिल जाता है , और धन के लिए वह धनकुबेरों के पास जाते हैं । बदले में वह उनकी मदद करने का आश्वासन देते हैं , जिसके लिए वह उन पूंजीवादियों के अनुकूल देश में माहौल बनाते हैं। जिससे कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की शुरूआत हो सके । और देश की बागडोर पूरी तरह से कुछ धनकुबेरों के हाथ में जा सके।
भारत एक समाजवाद सिद्धांत को पालन करने वाला देश है भारत के संविधान पूरी तरह से समाजवाद पर समर्पित है । लेकिन इसी समाजवादी देश में अब धीरे-धीरे पूंजीवाद अपना पैर पसार रहा है । यहां तक कि समाजवादी संविधान में पूंजीवाद के नए नए नियम गढ़े जा रहे हैं । और नाम दिया जाता है " संविधान संशोधन " का ।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था वह व्यवस्था होती है जिसमें कोई एक धनकुबेर या धनकुबेरों का एक समूह देश के लोगों की भाग्य के फैसले करता है । और देश की बागडोर इन्हीं लोगों के हाथ में रहती है। इस चीज से इनका कोई वास्ता नहीं होता कि उन धनकुबेरों की नियत क्या है ? पूंजीवादी अर्थव्यवस्था चाहने वाले सिर्फ और सिर्फ पैसों के लालची होते हैं। जो किसी तरह से बस धन उगाही करके अपना पेट पालना चाहते हैं और अपने आकाओं का मुंह बंद रखना चाहते हैं।
अगर सीधे शब्दों में समझा जाए तो पूंजीवाद वह व्यवस्था है जो सिर्फ व्यक्ति विशेष को महत्वता दिलाता है, जो सिर्फ व्यक्ति विशेष को आगे बढ़ने की बात करता है , जो सिर्फ व्यक्ति विशेष के फायदे की बात करता है ।
और समाजवादी व्यवस्था वह होती है जो किसी व्यक्ति विशेष को ना देख कर पूरे समाज और पूरे क्षेत्र के लिए काम करती है । वह पूरे समाज को एक साथ आगे बढ़ाना चाहती है। पूरे समाज को एक साथ फायदा कर देना चाहती है। और पूरे समाज को एक साथ विशेष बनाना चाहती है ।
हम यह कह सकते हैं कि पूंजीवाद का विजन , स्कोप और परसेप्शन बेहद ही छोटा होता है। जो सिर्फ दो चार व्यक्तियों तक ही सीमित हो जाता है । यह सिर्फ उन्हीं दो चार व्यक्तियों के विकास की बात सोचता है , उन्हीं की भलाई की बातें सोचता है, उन्हीं के रखरखाव और शिक्षा की बातें सोचता है। भले ही इसके लिए समाज के अन्य लाखों-करोड़ों व्यक्तियों की खुशी, शिक्षा और अधिकारों की हत्या ही क्यों ना हो जाए।
लेकिन इसके उलट समाजवाद का विजन स्कोप और परसेप्शन बहुत ही विशाल होता है। जो दो चार व्यक्तियो , दो चार क्षेत्र में ना उलझ कर पूरे देश , पूरे विश्व और पूरे समुदाय के कल्याण की बात करता है । उनके विकास की, उनकी भलाई की , उनकी शिक्षा की , उनके रखरखाव की बातें करता है ।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था जनक है तानाशाही का अत्याचार का वह अत्याचार जो गरीबों पर मजदूरों पर किसानों पर होते है। आज मुझे यह लिखने की जरूरत इसलिए पड़ रही है क्योंकि कल से ही कुछ बातें चल रही हैं, कि देश की धरोहरों को निजी हाथों में सौंप कर देश की संस्कृति को मारने का काम किया जा रहा है। हमारे प्रधानमंत्री को इस बात का थोड़ा भी अंदाजा शायद नहीं है कि देश कि यह धरोहर अनमोल है। और देश के पास इतने पैसे हैं कि उन पैसो से इन धरोहरों की देखरेख की जा सके।
जब विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे चोर देश का लाखों हजार करोड़ रुपया लेकर भाग सकते हैं । तो क्या पांच से दस करोड रुपए सालाना भारत सरकार इन धरोहरों की रखरखाव पर खर्च नहीं कर सकती ?
दरअसल यह बात सिद्ध करने की जरूरत अब बची कि नहीं है यह एक " प्रक्रिया" की शुरुआत है । वह प्रक्रिया जिसमें देश के लोगों को पूंजीवादी ताकतों का गुलाम बनाया जाएगा। जिसमें देश का प्रधानमंत्री शायद हो ही ना , देश में राष्ट्रपति शायद हो ही ना । और अगर गलती से यह हो भी तो किसी अंबानी , अडानी, डालमिया या माल्या के पसंद का हो। वह जिसे चाहे उसे इन पदों पर आसीन कर दें। और कठपुतली की तरह अपने इशारे पर नचाए ।
खैर वह तो अभी भी नचा रहे हैं।
मौजूदा सरकार ने भारत को पूरी तरह से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में उलझा कर रख दिया है, शायद इसकी नियत में यही लिखा हो लेकिन भारत जैसे देश में, जहां 80% जनता गरीब हो, 70% आबादी रु. 20 पर प्रतिदिन जीती हो, जहां करोड़ों लोग मूलभूत सुविधाओं से वंचित हो, जहां देश की 78% सम्पत्ति करोड़पतियों के बटुये में बंद हो। वहां पूंजीवादी व्यवस्था मुफीद नहीं हो सकती क्योंकि दुनिया में कहीं भी पूंजीवाद और पूंजीपतियों ने कभी भी वंचितों के हित में काम नहीं किया है, हां इतना जरूर है कि गरीबों द्वारा अपने विरूद्ध दहकने वाले आक्रोश को कम करने के लिए समय–समय पर लोक कल्याणकारी योजनाओं के नाम से सुरक्षा कवच की व्यवस्था जरूर की है। हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था बहुत बुरी है। लेकिन हम यह भी नहीं कह सकते कि किसी व्यक्ति विशेष की नियत में क्या छुपा हुआ है । हमें यह कभी भी पता नहीं चल सकता कि व्यक्ति विशेष सोचता क्या है। और वह अपने हाथ में सत्ता आने पर, या तानाशाही आने पर किस तरह के फैसले लेगा, और किसको फायदा पहुंचाएगा ।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था व्यक्ति विशेष की प्रधानता को दिखाती है । अगर सरकारें इन ताकतों को अपने नियंत्रण में रख कर देश के या राज्य के हित में काम कराएं, और उसमें लोगों की सहभागिता रखें , तो लोगों को भी यह लगेगा कि देश के विकास में उनका भी योगदान है ।
लेकिन यहां तो उलटा सरकारें ही इन पूंजीवादी ताकतों के नियंत्रण में हैं। और लोगों को तो देश के फैसलों से दूर ही रखा जाता है। पूंजीवाद के लिए नया शिगूफा छोड़ा गया है कि इससे "विकास" होगा। हालांकि विकास तो पूंजी से ही होता है , लेकिन राजकीय पूंजी जहां समस्त नागरिकों का विकास करती है, वहीं व्यक्तिगत पूंजी सिर्फ उस व्यक्ति का, जिसकी वो होती है जिससे सम्पत्ति का केन्द्रीयकरण कुछ गैर राजकीय लोगों के हांथों में बंध के रह जाता है और बाकी लोंगों के हाथ में रह जाता है, सिर्फ तथाकथित विकास का अनुपयोगी थोथा झुनझुना।
देश में आज हर उस तरह का कानून, हर उस तरह का माहौल, और हर उस तरह की व्यवस्था बनाई जा रही है जो पूंजीवादियों को मुनाफा दे सके।
और पूंजीवाद का यही सबसे पहला और सबसे बड़ा लक्षण होता है , इसमें समाज के गरीब तबकों के बारे में कुछ नहीं होता, अगर होता है तो सिर्फ और सिर्फ मुनाफा उन धनकुबेरों का जिनके इशारे पर सत्ता चलती है।। वह सत्ता इनके लिए बड़े से बड़े मुनाफे का प्लेटफॉर्म मुहैया करवाती है ।
मुनाफ़े की अन्धी होड़ में पूँजीपति ज़्यादा से ज़्यादा बड़े पैमाने पर उत्पादन करता है । जबकि उसकी तुलना में मेहनतकश जनता की खरीदने की शक्ति घटती जाती है। पूंजीपति अधिक मुनाफे की तलाश में उत्पादन का विस्तार करने का हर सम्भव प्रयास करता है क्योंकि जितने बड़े पैमाने पर उत्पादन होगा, उतना ही अधिक अतिरिक्त मूल्य वह उगाह सकेगा। साथ ही, पूंजीपति के लिए अपनी तकनीकों में सुधार लाना और उत्पादन का पैमाना बढ़ाना इसलिए भी जरूरी होता है ताकि दूसरे पूंजीपति उसे धकिया कर होड़ से बाहर न कर दें।
उत्पादन के विस्तार के साथ-साथ उपभोग का स्तर भी बढ़ना चाहिए ताकि बढ़े हुए माल उत्पादन को बेचा जा सके और सामाजिक उत्पादन जारी रहे। लेकिन उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व के तहत पूंजीपति हमेशा मजदूरी को न्यूनतम संभव स्तर तक घटाने की कोशिश करता है। पूंजीवादी उत्पादन का विकास और नई तकनीकों का अपनाया जाना अपरिहार्यतः बड़ी संख्या में किसानों और दस्तकारों को दिवालिया बना देता है जिससे छोटी पूंजी बड़ी पूंजी द्वारा निगल ली जाती है।
इस तरह, एक ओर उत्पादन का जबर्दस्त विस्तार होता है, दूसरी ओर मेहनतकश आबादी की क्रयशक्ति सापेक्षिक रूप से घटती जाती है। नई मशीनें मज़दूरों को रोज़गार से बाहर कर देती हैं। पूँजीपतियों का मुनाफ़ा बढ़ जाता है लेकिन रोज़गार में लगे मज़दूरों की संख्या में गिरावट आ जाती है।
अगर हम भारत का संविधान देखें तो इसके पहले पेज पर ही इसकी प्रस्तावना में "समाजवादी" शब्द का जिक्र किया गया है। इसका मतलब है कि भारतीय संविधान सभा का उद्देश्य भारत में पूंजीवाद नहीं रहा होगा या फिर पूंजीवाद के चमत्कारिक आकर्षण से गरीबी का स्वतः उन्मूलन नही हो जाने की सम्भावना प्रबलता से रही होगी। क्योंकि उस समय भी हमारे देश में गरीबी बहुत बड़े स्तर पर थी। देश का हर तबका, हर वर्ग ,हर क्षेत्र, गरीबी से त्रस्त था । लोगों के पास रोजगार, शिक्षा और सुरक्षा का कोई प्रबंध नहीं था ।
भारत को जब गरीबों, मजदूरों, अशिक्षितों, दस्तकारों, बेरोजगारों इत्यादि के आन्दोलन ने अवसरवादी नेतृत्व से आजादी दिलायी, तो उस समय भारत की जनता केवल 10-11% ही शिक्षित थी! ऐसे में समाज में समरसता, समानता, एवं समृद्धता का सारा दायित्व उन्ही पढ़े लिखे अभिजनों का था लेकिन उनके द्वारा संपूर्ण भारतीयों के हित को साधने के लिए (खास तौर से आर्थिक), कोई ठोस, बाध्यकारी और लिखित उपाय किया ही नहीं गया ।
इस देश में सरकार चाहे जिस भी पार्टी की रही हो , लेकिन कोई भी पार्टी समाजवाद की स्थापना या आर्थिक समानता एवं आर्थिक सम्पन्नता, जैसे सबको रोटी ,कपड़ा और मकान की व्यवस्था तक नहीं कर पायीं। और अगर किसी ने इसकी शुरुआत भी करना चाहा, या शुरुआत किया , तो पूंजीवादी ताकतों ने अपने राजनीतिक जैक की मदद से उनको सरकार से बाहर ही कर दिया। और वहां पर बैठा दी अपने गुलामों की फौज को ।
आज़ादी की शुरुआत से ही केंद्र में उसी कांग्रेस पार्टी की सरकार रही, जिसकी एक प्रधानमंत्री ने संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ शामिल करवाया था । लेकिन तमाम आंकड़े ये साबित करतें हैं कि उनके कार्यकाल में ही उस सरकार का पूरा सरंक्षण कुछ विशेष औद्योगिक घरानों को था। 1970 से 1975 के कार्यकाल में भारत के औद्योगिक बुर्जुआ को अत्यधिक सह और समर्थन मिला और उस दौरान 20 औद्योगिक घरानों की सम्पत्ति में बेहिसाब वृद्धि दर्ज की गयी। 1961 में दर्ज कुल सम्पति में 1972 में 25.9%, 1973 में 38.9%, 1974 में 61.3%, और 1975 में 81.7% की वृद्धि दर्ज की गयी। लेकिन उस समय से लेकर 2014 तक एक खासियत थी कि हम अपनी बातों को उठा सकते थे। और हमारी बातों को लोकतांत्रिक तरीके से लिया भी जाता था। उनको माना जाए , या ना माना जाए यह अलग बात थी। लेकिन कम से कम विरोध को स्वीकारने की एक क्षमता थी। आलोचना को सुनने की और उसके हिसाब से सुधार करने की एक क्षमता थी। विरोधियों को समान अवसर और समान स्थान देने की एक परंपरा थी। विरोधियों के साथ हंस कर खुलकर मुद्दों पर चिंतन करने का एक कल्चर तो था।
वर्तमान NDA सरकार का भी उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट है कि वो भी औद्योगिक घरानों का ही हित साधेगी, लेकिन इतना खुलकर यह विश्वास नहीं होता। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि एक ऐसे व्यक्ति ने प्रधानमंत्री की शपथ ली जो पहली बार लोक सभा के लिए निर्वाचित हुआ हो और ये भी पहली बार हुआ कि कोई व्यक्ति सीधे एक राज्य के मुख्यमंत्री के पद से त्यागपत्र देकर प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने आया हो।
वर्तमान प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण के पहले और बाद की घटनाओं से कुछ ऐसे संकेत मिलने लगे जिससे आने वाले दिनों की आहट दिखने लगी है। मोदी जी जब प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के लिए गुजरात से दिल्ली के लिये आ रहे थे और जिस हवाई जहाज की सीढ़ियों पर खड़े होकर गुजरात की जनता का अभिवादन कर रहे थे, उस जहाज पर ‘अडानी’ लिखा था ।
क्या आप लोगों ने ये कभी नहीं सोचा कि जिस व्यक्ति का प्रधानमंत्री होना तय है, वह दिल्ली तक एक प्राइवेट व्यक्ति के जहाज में सफ़र क्यों कर रहा है.....?
इससे आशंका तो लाजिमी है और वो भी तब, जब गुजरात सरकार और भारत सरकार दोनों के जहाज उन्हें दिल्ली ले आने के लिए उपलब्ध हैं और बाध्य भी ।
दरअसल अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए यह किया जा रहा है। आज हर क्षेत्र में गुलाम बनाए गए हैं , चाहे वह मीडिया हाउस हो या, कॉर्पोरेट हाउस हो या, किसानों का मंच हो , या साधु संतों का धर्म की बातें हो। हर जगह पर इन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मदद से अपना आधिपत्य स्थापित किया गया है।
जब एक देश का प्रधानमंत्री और एक अपराधी गुरमीत राम रहीम एक ही जहाज से सफर करें तो समझ लीजिए कि कुछ तो गड़बड़ है।
बृजेश यदुवंशी
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ReplyDeleteBahut sunder.....
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