भीड़ का कानून

"जिस देश की भीड़ वहां के सही गलत का फैसला खुद ही करने लगे, तो यह समझ लेना चाहिए की  राजा निकम्मा, नकारा और तथ्यविहीन है । "

भले ही यह किसी धार्मिक ग्रंथ या शास्त्र में नहीं लिखा हो । भले ही इसे चाणक्य सरीखे विद्वान आदमी ने नहीं लिखा हो।  लेकिन यह वाक्य पूरी तरह से सत्य है।  हमारे शास्त्रों में और हमारे इतिहास के बड़े-बड़े विद्वानों को इस लाइन को जरूर लिखना चाहिए था ।  क्योंकि यह आज के परिस्थिति को दर्शाता है।  और हमारे विद्वान इतने ग्यानी तो थे ही कि वह आज की परिस्थिति को देख सकें ।
भीड़ एक ऐसा तत्व है जिसे राजनीति और सत्ता दोनों मिलकर पैदा करते है, ताकि वो इसके माध्यम से अपने अपने राजनीतिक हित साध सके । वो इस भीड़ को भावनाओ को भड़काते है, और लागतार भड़काते है।  और एक समय ऐसा आ जाता है जब यह भीड़ उनके पकड़ से भी परे चली जाती है । और फिर जो भीड़ करती है वह बड़ा ही बीभत्स और डरावना होता है। भीड़ हमेशा किसी एक टारगेट को देख कर चलती है, लेकिन उस भीड़ को उस टारगेट की वजह नही मालूम होती। और कई तो ऐसे होते है जिनका टारगेट और वजह से कोई मतलब नही होता, और कुछ का टारगेट के पीछे की वजह व्यक्तिगत होती है ।

पिछले 3 कि, 4 सालों में भीड़ ने अपना एक अलग ही रूप देश और विश्व पटल पर प्रदर्शित किया है ।यह भीड़ तमिलनाडु में पेरियार की मूर्ति तोड़ने से लेकर,  गुजरात में दंगों से लेकर ,त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति तोड़ने और तिरंगा झंडा जलाने से लेकर  , जम्मू कश्मीर में सेना के ऊपर पत्थर मारने तक हर जगह शामिल रहती है ।  यह भीड़ कहीं भी किसी तरह से नहीं बदलती है , अगर कुछ बदलता है तो बस इस भीड़ को कंट्रोल करने वाले नेता और सत्ता । भीड़ के अलग-अलग विचार और उद्देश्य हो सकते हैं ,  लेकिन भीड़ द्वारा किए गए काम का सिर्फ और सिर्फ एक ही रिजल्ट होता है हिंसा और मौत ।
हम यह कभी भी नहीं कह सकते कि भीड़ जो फैसले ले रही है,  वह सही है।  क्योंकि जब लोग भावनाओं में आते हैं तो ही भीड़ बनती है। और यह एक कटु सत्य है कि भावनाओं में कभी भी सही निर्णय या,  परिपक्व निर्णय नहीं लिया जा सकता ।
यह कभी विचारों की लड़ाई लड़ने वाले नायकों की मूर्तियां तोड़ देते हैं।  तो कभी किसी के बहकावे में आकर मांस का टुकड़ा रखने की अफवाह पर किसी को पीट-पीटकर मार देते हैं । या यह धर्म के नाम पर बलात्कारियों को बचाने की कोशिश करते हैं। 

भीड़ द्वारा किए गए काम को कभी भी उचित और परिपक्व निर्णय से भरा हुआ काम नहीं कहा जा सकता।  क्योंकि यह जज्बात,  जल्दबाजी, जोश , गुस्से , रोस , और मूर्खता में लिया हुआ फैसला होता है,  जो सिर्फ एक पहलू को देखता है ।

भीड़ को कंट्रोल करने वाला या , भीड़ को आगे के कार्य के लिए प्रेरित करने वाला जो पहलू और जो हिस्सा भीड़ को दिखाता है भीड़ उसे ही सच मानती है । और  फिर निकल पड़ती है अपने टारगेट का शिकार करने के लिए।
द वायर की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में भीड़ द्वारा किए गए  मुख्य कार्य कुछ इस तरह है।

- 29 सितंबर 2006 को महाराष्ट्र के भंडारा ज़िले के खैरलांजी में जमीन के विवाद में भैयालाल भूतमांगे के घर पर 50 लोगों ने आक्रमण किया. परिवार के चार सदस्यों को खींचा. उनकी पत्नी और बेटी को नग्न अवस्था में सड़क पर घुमाया. बलात्कार किया और निर्ममता से उनकी हत्या कर दी।

- जून 2017 में 16 साल का जुनैद ख़ान ट्रेन से सफर कर रहा था. बल्लभगढ़ में सीट को लेकर हुए विवाद के बाद अफवाह फैला दी गई उनके पास गोमांस है. इसके बाद भीड़ ने जुनैद की पीट पीट कर हत्या कर दी।

- झारखंड के चतरा ज़िले में मार्च 2016 में 32 साल के मज़लूम ख़ान और उनका 15 साल के बेटे इम्तियाज़ खान को ‘कथित गोरक्षकों’ ने मारकर लटका दिया. अफवाह थी कि वे गोवंश की तस्करी कर रहे हैं. हत्या के बाद पता चला कि वे अपने आठ बैलों को बेचने के लिए स्थानीय पशु बाज़ार जा रहे थे।
- दिल्ली में इसी साल एक ई-रिक्शा चालक रविन्द्र कुमार ने नशे में धुत दो युवाओं को खुले में पेशाब करने से रोका. शाम को इसके जवाब में 20 लोग आए और रविन्द्र को पत्थरों-ईंटों से मारा. रविन्द्र की मौत हो गई।
- मध्य प्रदेश में राजपूत परिवार के साथ रहने वाले कुत्ते ‘शेरू’ ने एक दलित महिला के हाथ से रोटी खा ली. इस पर कुत्ते को अछूत घोषित कर दिया गया, पंचायत बैठी और उस महिला पर 15 हज़ार रुपये का दंड लगता गया. जाति के नाम पर भीड़ ने मानवीय गरिमा को पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया।

- दिमापुर (नगालैंड) में 2015 में सात-आठ हज़ार लोगों की भीड़ ने केंद्रीय जेल पर आक्रमण किया. बलात्कार के प्रकरण में वहां बंद सैयद फरीद ख़ान नाम के व्यक्ति को बाहर निकला. उसे नंगा किया, पत्थर मारे, उठाकर पटका, करीब 7 किलोमीटर तक खींचा, मोटरसाइकिल से बांध कर घसीटा।।फिर उसके शव को वॉच टावर पर प्रदर्शित किया।

- महाराष्ट्र में वर्ष 2015 में गोमांस पर प्रतिबंध लगाया गया. इसके बाद से देश में मांसाहार और गो-हत्या के नाम पर हिंसा का माहौल बनाने का संदेश भी दे दिया गया।

इस मुद्दे को इतना उभारा गया कि देश के वास्तविक महत्वपूर्ण लोगों-संस्थाओं-सरकारों ने बेरोज़गारी, भुखमरी, सामाजिक-आर्थिक गैर-बराबरी, खेती के संकट को कारगार में डाल दिया। गाय बचाने के नाम पर कुछ गिरोहों से ‘सड़क पर न्याय और हत्या’ का काम ख़ुद हाथ में ले लिया। सरकारें चुप रहीं और ये गिरोह बढ़ते गए। इनकी ताकत बढ़ती गई. भीड़ 1 या 2 या 5 लोगों की हत्या करती है, किन्तु वह व्यापक समाज, युवाओं, बच्चों और प्रतिरोध करने वाले समूहों को संकेत दे देती है. किसी एक की हत्या लाखों ज़िंदा शरीर में मौजूद साहस की हत्या कर देती है ।

- दादरी में 28 सितंबर 2015 को मोहम्मद अख़लाक़ नाम के व्यक्ति की भीड़ ने हत्या कर दी. उन्हें शक था कि अख़लाक़ के यहां गोमांस रखा हुआ है. कोई क़ानून नहीं, कोई न्यायालय नहीं, बस भीड़ ने मृत्युदंड तय कर दिया।
- मार्च 2016 में झारखंड के लातेहार ज़िले में पशु बाज़ार में जा रहे दो मुस्लिम पशु व्यापारियों को भीड़ ने मारा-पीटा और उनकी हत्या कर दी।
- 22 जून 2017 को श्रीनगर में पुलिस उप-अधीक्षक अयूब पंडित की नौहट्टा जामा मस्जिद के बाहर हत्या कर दी गई. कई बातें कही गईं, पर हत्या तो भीड़ ने ही की थी।

अब ये भीड़ एक पक्ष विशेष , एक धर्म विशेष , एयर एक जाति विशेष के रूप में परिवर्तित हो हई है ।  ये इस तरह की भीड़ एक बहुत अच्छा रिजल्ट है उन नेताओ की मेहनत का जो दिन रात एक करके अथक प्रयास करके लोगो के बीच हिन्दू मुस्लिम , ऊँच नीच, का नीच बोते है। और इस बीच के फसल की सिंचाई ये फेक न्यूज़ और गोदी मीडिया से लगातार करवाते रहते है । ताकि फसल मजबूत और पौष्टिक बनी रहे , इतनी को धर्म से जाती के नाम पर मारने मरने पे उतारू हो जाये।

यह भी कहना गलत नही होगा की ये भीड़ किसी राज्य किसी क्षेत्र किसी भाषा या किसी धर्म तक ही सीमित नहीं रह गई है।   यह इन के हिसाब से अलग-अलग गुटों में बदलती रहती है । लेकिन हम यह जरूर कह सकते हैं कि इस भीड़ के इंसाफ का शिकार खास धर्म और खास जाति के लोग ही हुए हैं । जैसे मुसलमान , दलित और सेना ।
इसके अलावा देश में कहीं भी जिंदा लोग भीड़ के इस बर्बरता का शिकार नहीं हुए हैं । मूर्तियों को भी इस भीड़ ने नहीं बख्शा। जरा सोचिए यह मानसिकता वाले आज उन महापुरुषों और नायकों की मूर्तियों से इतना डर रहे हैं कि , उनकी मूर्ति को तोड़ दे रहे हैं।  तो ऐसी मानसिकता वाले उन नायकों के समय में क्या-क्या करते होंगे ? और उनसे पहले उन्होंने क्या-क्या किया होगा ?
बस एक कल्पना भर ही कर लीजिए ।

भीड़ के द्वारा गलत बातों पर समर्थन और लोगों की हत्या करना या हिंसा फैलाना का मनोविज्ञान यही कहता है की,  भीड़ में कभी भी हिंसा की भावना पहले से नहीं होती है।  जब लोग भीड़ में बदलते हैं विचारों का आदान-प्रदान करते हैं,  तो इनको कंट्रोल करने वाले उनके मन में हिंसा की भावना उत्पन्न करते हैं । और उसके लिए यह टारगेट वाले समुदाय के लिए नफरत पैदा करते हैं ।
भीड़ को जुटाने से पहले इसकी पूरी तैयारी की जाती है । पहले लोगों की भावनाओं को उनकी सम्वेदनाओं को खत्म कर दिया जाता है । उन्हें एक ऐसे व्यक्तित्व का गुलाम बनाया जाता है जिसकी सोच के आगे वह कुछ भी सोच नहीं सकते हैं । फिर उन लोगों को इकट्ठा करके उन्हें भीड़ का रुप दिया जाता है।  उसके बाद वह भीड़ को अपने तरीके से इस्तेमाल करते हैं। जबकि भीड़ में शामिल लोगों को इस बात का एहसास ही नहीं होता कि वह हत्या किस लिए कर रहे हैं,  या उनके हत्या करने का उद्देश्य क्या है। हिंसा फैलाने का उद्देश्य क्या है।

लोगों की भावनाएं और उनकी संवेदनाएं मरने के यही संकेत हैं कि,  जब वह अपने से दूसरे धर्म या दूसरी जाति या दूसरे क्षेत्र के लोगों के अलग रहन-सहन,  तौर- तरीकों, को अपनाने से या उनको देखने उसे भी मना कर दे ।या बराबरी का दर्जा देने तक से मना कर दे।
उनको दूसरे समुदाय के लोगों के खाने पीने पर एतराज हो।  दूसरे समुदाय की भाषा उनको देशद्रोही भाषा लगती हो । दाढ़ी और मूछों के आकार से उनको चिढ़ होने लगे।  सर पर रखे हुए टोपी या गमछे से उनको ऊंच-नीच की भावना आने लगे तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि अब लोगों की भावनाएं मर चुकी हैं। उनमें इतनी संवेदना भी नहीं बची की राह चलते किसी की मदद भी कर सकें।
अमूमन ये अपने कृत्यों को सही साबित करने के लिए धर्म या प्राचीन रूढ़ियों को ढाल बनाते हैं, ताकि किसी की हत्या करने के बाद अपने ख़ून से सने हाथों को पानी से धोकर खाना खा सकें और अपने बच्चों को प्यार कर सकें।

संभव है कि कोई वक़्त आएगा, जब वे अपने ही परिवार और बच्चों के ख़िलाफ़ हिंसा करने के लिए तत्पर रहेंगे, क्योंकि वे एहसास खो चुके होते हैं।

जिस तरह से प्रतिस्पर्धा बढ़ी है, उसने हिंसा को एक नई ज़रूरत के रूप में स्थापित किया है. हमारी आर्थिक नीतियां इस कदर अनैतिक रही हैं कि उनमें व्यवस्था जनता के प्रति और जनता का एक वर्ग व दूसरे वर्ग के प्रति बर्बर होने की हद तक व्यवहार करती है. दोनों को अपना विशेष वजूद साबित करना होता है।
लोग भूखे, कुपोषित, बेरोज़गार, आश्रयविहीन, असुरक्षित रखे जाते हैं, उन्हें अहिंसा और मानवता की शिक्षा से दूर रखा जाता है, उन्हें दर्द में इलाज़ से महरूम रखा जाता है, उनके मन में यह भर दिया जाता है कि यदि वे बलात्कार नहीं करेंगे तो उनके साथ बलात्कार होगा, उनकी हत्या हो सकती है, इसलिए उन्हें पहले ही दूसरे की हत्या कर देना चाहिए।

उन्हें यह समझने ही नई दिया जाता है कि समाज के संसाधन, ज़मीन, जंगल और पूंजी लूट ली जा रही है. लोग तैयार किए जाते हैं, भीड़ का हिस्सा बनाने के लिए.

लोगों का भीड़ में बदल जाना और भीड़ का कातिल हो जाना, यह किस विकास का मुकाम है? क्या हमारे विकास का यही मुकाम तय था?

वास्तव में सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यहीन आर्थिक विकास यह तय कर देता है कि किसी भी कीमत पर संसाधनों और सत्ता पर प्रभावशाली (ऊंची जाति, बहुसंख्यक प्रतिनिधि, पूंजी-तकनीक संपन्न और बाहुबल) का नियंत्रण हो।

द वायर के ही मुताबिक " 25 जुलाई 2017 को लोकसभा में गृह राज्य मंत्री हंसराज गंगाराम अहीर ने बताया कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) धर्म, जाति, जन्म स्थान आदि (आईपीसी की धारा 153 क और 153 ख) के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने वाले अपराधों के आंकड़े रखता है. बहरहाल गोरक्षा, गाय के व्यापार और दुर्व्यापार से संबंधित हिंसा के आंकड़े सरकार के पास नहीं है।

एनसीआरबी बताता है कि वर्ष 2014 से 2016 के बीच धारा 153 क और 154 ख से संबंधित मामलों में लगभग 41 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. ये मामले 336 से बढ़कर वर्ष 2016 में 475 हो गए हैं।
सबसे ज़्यादा वृद्धि धर्म, जाति, जन्मस्थान से संबंधित शत्रुता के कारण हुई हिंसा के मामलों में हुई है. ये मामले 323 से बढ़कर 444 हो गए।

वर्ष 2014 में इस तरह की सबसे ज़्यादा घटनाएं केरल (65), कर्नाटक (46), महाराष्ट्र (33), राजस्थान (39) में दर्ज हुई थीं।

वर्ष 2016 में ऐसे सबसे ज़्यादा मामले उत्तर प्रदेश (116), पश्चिम बंगाल (53), केरल (50), तमिलनाडु और तेलंगाना (33-33) दर्ज हुए।

मध्य प्रदेश में इन तीन सालों में ऐसे प्रकरण पांच से बढ़कर 26 हो गए. जबकि उत्तर प्रदेश में 26 से बढ़ कर 116, हरियाणा में तीन से बढ़कर 16 और महाराष्ट्र 33 से बढ़ कर 35 हुए।

राजस्थान में 39 से घट कर 22, केरल में 65 से घट कर 50, आंध्र प्रदेश में 21 से घट कर 14 दर्ज हुए ।"

सत्ता को यह बेहद ही अच्छे से मालूम है कि वह देश के बेसिक मुद्दे जैसे महंगाई , रोजगार , शिक्षा,  गरीबी,  रक्षा,  विकास आदि पर पूरी तरह से विफल रही है ।  और उन्हें इस बात का पूरी तरह से डर सताता है कि कहीं लोग वापस इस मुद्दे पर वापस आ जाएं , और सत्ता से उनके कार्यकाल का हिसाब मांगते हुए उन को बेदखल न कर दें।
इसलिए उनकी यह नीति रहती है की
समाज भूख, खेती, बेरोज़गारी, जंगल-पर्यावरण और गैर-बराबरी पर सत्ता से बहस करेगा, उसे चुनौती देगा, इसलिए ज़रूरी है कि समाज को ज़्यादा से ज़्यादा असुरक्षित बनाया जाए और उसकी भावुकता का आर्थिक-राजनीतिक लाभ उठाया जाए. माहौल ऐसा बनाया जाए, जिससे वह मूल मसलों पर एकजुट न हो पाए, अपने तर्क न गढ़ पाए।
इसी असुरक्षित माहौल की शुरुआत वहीं से होती है जहां पर समाज का एक वर्ग यह डिसाइड करता है कि दूसरा वर्ग क्या खाएगा क्या पहनेगा क्या बोलेगा या कैसे रहेगा
एक बेहतर समाज में नफरत और हिंसा को मिटाने के लिए उसके लोगों को सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक आज़ादी और व्यवस्था में समान ज़िम्मेदार भूमिका देना अनिवार्य होता है. हमने भारत में ऐसा नहीं किया।

समाज का एक तबका यह तय करना चाहता है कि दूसरा तबका क्या खाएगा,  और क्या नहीं
वे क्या पहनेंगे और क्या नहीं ।  वे यह भी तय कर रहे हैं कि बच्चों को तार्किकता, संस्कृति और वास्तविक इतिहास के बजाय भेदभाव और अंधविश्वास बढ़ाने वाली शिक्षा दी जानी चाहिए।

ऐसे समय में हमें अपने बुद्धि विवेक से पूरी तरह काम लेना चाहिए । और जब हमारा यह बुद्धि विवेक भी काम ना करें तो  , कम से कम हमें अपने देश के संविधान पर भरोसा रखते हुए उसका अनुसरण करना चाहिए। ताकि कुछ अमानवीय और असवेंदनशील न हो ।  और अगर  हमारी भावनाएं,  संवेदनाएं,  दिल और दिमाग पूरी तरह से जागृत हैं , तो फिर सत्ता की हनक को रोकने के लिए एक उस एकमात्र बचे हुए रास्ते पर चलना चाहिए , जो हमें अहिंसात्मक आंदोलन की तरफ ले जाती है।  जो हमें संघर्षशील बनाती है
जो हमारे अंदर भगत सिंह और गांधी के आदर्शों को जिंदा रखती है।  और जो हमें व्यक्ति परिवर्तन नहीं विचार परिवर्तन में विश्वास कराती है ।

जयहिंद

बृजेश यदुवंशी

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