फेक न्यूज़ का मायाजाल
11 नवंबर 2016 नोटबंदी के बाद 2000 का नए नोट आया था , नोट के बारे में लोगों ने तमाम अटकले लगानी शुरू कर दिया था । लेकिन इन अटकलों को पंख तब लगने शुरू हो गए , जब कुछ चैनल और उनके पत्रकार नोट की DNA एनालिसिस करते हुए इसमें एक नैनो जीपीएस चिप लगे होने की बात कहने लगे । कईयों ने तो इस नोट के चिप का पूरा नाम और उसे बनाने वाली कंपनी का भी नाम बता दिया। TV पर घंटे घंटे बहस और डिबेट चलने लगी, और एनिमेशन के माध्यम से यह पत्रकार यह बताने लगे कि यह नोट काम कैसे करता है ।
खैर 2 दिन बाद वित्त मंत्रालय ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके मामले का स्पष्टीकरण दिया , और साथ ही यह बताया कि 2000 के नोट में कहीं किसी तरह का कोई चिप नहीं है, क्योंकि कागज के नोट में चिप होना लगभग एक नामुमकिन काम है। इससे मीडिया की खूब छिछा लेदर हुई । लेकिन उन पत्रकारों को जरा भी शर्म नहीं आई । उन्होंने देश से इसके लिए माफी भी नहीं मांगी , जिसके चलते उन पत्रकारों के फ़ॉलोअर्स और कथित भक्त आज तक यही मांगते हैं कि , 2000 के नोट में चिप लगा हुआ है।
यही हाल है इस देश में फेक न्यूज़ का यह अपनी सुविधा ग गढ़े जाते हैं , ना सिर्फ बनाए जाते हैं बल्कि इनको अपनी सुविधा के अनुसार मॉडिफाई भी किया जाता है। फेक न्यूज डेटा लीक की अगली कड़ी है अगर आपको यह समझ में नहीं आया , तो मैं एक कोशिश करता हूं समझाने की । दरअसल यह काम कैसे करता है यह देखने वाली बात होगी । बड़ी-बड़ी पार्टियां इंटरनेशनल कंपनी को डाटा कलेक्शन का काम देती हैं । जैसे कि अभी हाल में " कैंब्रिज एनालिटिका " वाला काम दिया गया । अब यह काम किसने दिया , और उस काम से किसने क्या फायदा उठाया , यह एक अलग बहस का मुद्दा है । लेकिन यह होता कैसे यह समझिए ।
दरअसल यह कंपनियां फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया के मदद से आपका डाटा लेती हैं । फिर यह सब उसी डाटा से आपकी सारी बातें पता करती हैं। जैसे कि आपकी हॉबीज , फेवरेट सिंगर , आप का इतिहास से किस भाग में ज्यादा इंटरेस्ट है, किस विचारधारा को आप पसंद करते हैं, आप हिंदू मुस्लिम करने के कितने करीब हैं , किस राजनीतिक पार्टी को सपोर्ट करते हैं, किस व्यक्ति विशेष के पक्षधर हैं , इत्यादि इत्यादि । इन सूचनाओं के आधार पर आपका एक डेटाबेस बनाया जाता है। और इन्हीं डेटाबेस के माध्यम से व्यक्ति विशेष को सोशल मीडिया पर प्रभावित करने का काम किया जाता है।
टीवी , रेडियो के माध्यम से सभी लोगों को एक विज्ञापन से संतुष्ट नहीं किया जा सकता । लेकिन जब बात आती है सोशल मीडिया की तो , यहां हर एक व्यक्ति की प्रोफाइल अलग होती है। और हर एक व्यक्ति का एक अलग दुनिया होती है। उस समय इन कंपनियों द्वारा दिए गए डेटाबेस के आधार पर राजनीतिक पार्टियां अपनी बातों को लोगों तक अलग-अलग उनकी रुचि के अनुसार पहुंचाती हैं। अपनी बातों को साबित करने के लिए पार्टियां कई बार फेक न्यूज या मनगढ़ंत बातों का सहारा लेते हैं ताकि वह लोगों का ब्रेनवाश करके हिंदू-मुस्लिम करा सके । यह लोग ऐसी खबरों का गठन करते हैं जिनका इतिहास या सच्चाई से दूर दूर तक कोई सरोकार नहीं होता है । और यहीं से जन्म होता है फेक न्यूज़ का।
कई बार आप की विचारधारा को प्रभावित करने के लिए धार्मिक या राजनीतिक नफरत से भरे हुए पोस्ट भी भेजे जाते हैं । अंत में हम इन पार्टियों के इस फेक न्यूज के भ्रम जाल में फंस जाते हैं , और हिंदू मुस्लिम करने पर उतारू हो जाते हैं। यह लोग किस तरह से फेंक न्यूज़ का सारा मायाजाल गढ़ते हैं , इसका कुछ नमूने यहां पर हैं।
जैसे कि एक उदाहरण भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु का ले सकते हैं।
कई फेक न्यूज में यह बताया जाता है कि नेहरू जी के दादाजी का नाम गयासुद्दीन गाजी था जो मुगलों के कोतवाल थे । जिन्होंने अपना नाम बदलकर गंगाधर नेहरु रख लिया । या नेहरू के पिताजी का नाम मोहम्मद गाजी बताते हैं, जो नाम बदलकर मोतीलाल नेहरु कर लिए या नेहरु जी की मौत एड्स से हुई थी, या जवाहर एक अरबी शब्द है , या कांग्रेस की स्थापना 1901 में अफगानिस्तान में की गई ।
जबकि सत्य इन सब से बेहद परे है। जैसे कि नेहरू जी के पिताजी का नाम मोतीलाल नेहरु ही था । और उनके पिताजी का नाम गंगाधर नेहरु ही था । और गंगाधर नेहरू जी के पिताजी का नाम लक्ष्मी नारायण नेहरू था । अब कोई हिंदू अपने बेटे का नाम गयासुद्दीन गाजी या मोहम्मद गाजी क्यों रखेगा ? यह सोचने वाली बात हो सकती थी । लेकिन हुई नहीं । जैसे कि कांग्रेस की स्थापना ए ओ ह्यूम , दादाभाई नौरोजी और दिनशॉ वाचा ने किया था। अरबी नाम के बारे में फिर से वही कहना चाहूंगा कि कोई ब्राह्मण अपने बेटे का नाम अरबी शब्द में क्यों रखेगा ?
नेहरु जी की विकिपीडीया भी कई बार बदलने की कोशिश की गई। एक दो बार तो यह सिफारिश भारत सरकार की तरफ से भी किया गया।
एक उदाहरण हम और ले सकते हैं। आपको याद होगा जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस जी की जोड़ी कुछ फाइलें सार्वजनिक किया था । हालांकि उन फाइलों से कोई निष्कर्ष नहीं निकला । लेकिन इसके बाद एक पत्र जरूर वायरल होने लगा। यह पत्र नेहरु जी का बताया जा रहा था । कहा जाने लगा की ये पत्र उन्होंने अंग्रेजी सरकार को लिखा था । और उस में उन्होने नेताजी को युद्ध दोषी बताया गया था। और एक खास बात थी, उस पत्र में नेहरू जी का कहीं कोई हस्ताक्षर नहीं था । अब कोई इतना बड़ा नेता बिना हस्ताक्षर के लेटर क्यों लिखेगा ? और अगर लिखेगा भी तो उस लेटर का महत्व क्या रहेगा ? बड़े-बड़े न्यूज़ चैनलों ने भी इस पत्र को चलाया । और बाद में यह खबर झूठी निकली । भारत के पहले प्रधानमंत्री जो अब जिंदा भी नही है , उनको इस तरह से बदनाम करके किसका फायदा होगा, यह बात आराम से समझी जा सकती है ।
ऐसा नहीं है कि फेक न्यूज के शिकार सिर्फ आम लोग ही हुए हैं। कई बार यह बड़े-बड़े राजनीतिक व्यक्तित्व और मीडिया हाउस को भी शिकार बना लेते है। जैसे कि गांधीजी की एक फोटो लगातार वायरल की गई, जिसमें गांधी जी एक ब्रिटिश लड़की के साथ डांस करते हुए दिखाई दे रहे थे।
उस फोटो में यह बताया गया कि यह गांधीजी की उस टाइम की फोटो है, जब वह वाइसराय के यहां पार्टी में गए थे। लेकिन जब सच सामने आया तो वह कुछ और ही था । दरअसल वह फोटो ना तो भारत की थी, और ना ही वायसराय भवन की थी। वह फोटो थी ऑस्ट्रेलिया की। जहां पर एक ऑस्ट्रेलियन कलाकार गांधीजी के भेष लिए हुए था, और किसी पार्टी में एक महिला के साथ नाच रहा था । जिन चैनलों ने इस फोटो को गांधी जी का फोटो बता कर चलाया था उन्होंने बाद में इसकी माफी भी मांगी । लेकिन यह माफी इतनी दूर तक नहीं पहुंच सकी , जितनी कि वह वायरल फोटो की मनगढ़ंत कहानी पहुंची ।
फेक न्यूज कोई 10 या 20 साल पुरानी नहीं है। यह सदियों से चली आ रही है। पुराने समय मे राजा महाराजाओं के समय में, राजा खुद अपनी वीरता क्या व्याख्यान करने और इतिहास में उसे अच्छा रूप देने के लिए लेखक रखते थे । जो राजाओं की वीरता को बढ़-चढ़कर पेश करते थे। और ऐसे लिखते थे कि नामुमकिन भी मुमकिन लगता था । उन्हीं के कुछ शब्द बाद में मुहावरों में तब्दील हो गए । जैसे कि "खून की नदियां बह गई ", "आसमान हिल गया" , "धरती कांप गई " , "सौ हाथियों के बराबर का बल " ।
वैसे देखा जाए तो यह सब बातें इंसानी जीवन में बिल्कुल नामुमकिन है। उस समय लेखकों की इसी प्रजाति को भाट कहा गया। जिनका आधुनिक नाम "गोदी मीडिया" भी कहा जा सकता है। यही "भाट " गोदी मीडिया के जनक भी कहे जा सकते हैं। पहले राजा इतिहासकार रखते थे , अब सरकारे पत्रकार रखती हैं । ताकि वह अपनी सुविधा अनुसार बातों को जनता तक पहुंचा सके, या छुपा सके बातें । सही हो या गलत इससे उनका कोई वास्ता नहीं होता है।
हम सब को फेंक न्यूज से सावधान रहने की जरूरत है। यह कितना खतरनाक साबित हो सकता है , यह सोचने वाली बात जरूर है । लेकिन हमें हिंदू मुस्लिम से फुर्सत मिले तो हम शायद इन बातों पर भी ध्यान दे सके। फेक न्यूज की कई शाखाएं होती हैं, जैसे कि फर्जी खबरें, फर्जी इतिहास, फर्जी वीडियो, फर्जी ऑडियो, और फर्जी फोटो । इन सब की झलक पार्टियों और उनके नेताओं के ट्वीट से लेकर सरकार की रिपोर्ट तक दिखाई दी जाती है । जैसे भारत के गृह मंत्रालय की 2016-17 की एक सालाना रिपोर्ट आई । जिसमें पेज नंबर 40 पर ये जानकारी दी गई की "अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर 2040 किलोमीटर तक तेज रोशनी की व्यवस्था करने की मंजूरी मिल गई है ।और अभी सिर्फ 100 किलोमीटर का काम ही बाकी रह गया है । इसी के साथ एक फोटो को भी दिखाया गया । वह फोटो अभी भी गूगल पर मौजूद है। हैरानी की बात हुई कि 2040 किलोमीटर का काम इतनी जल्दी कैसे हो गया कि सिर्फ 100 किलोमीटर का काम ही बाकी रहा ? वाह क्या स्पीड थी। साथ में लगाए हुए फोटो को भारत पाकिस्तान, और भारत बांग्लादेश की सीमा का दिखाया गया। जहां रात में सीमा पीली रोशनी में नहा रही थी ।
लेकिन फिर खबरों की पर्दाफाश करने वाली संस्था altnews.in ने इस तस्वीर को फेक बताया और इसकी सच्चाई लोगों के सामने लाई । यह बताया गया कि यह तस्वीर स्पेन मोरक्को सीमा की है । और इसे साबित किया। तब गृह मंत्री और प्रधानमंत्री के चेहरे देखने लायक रहे होंगे। यह बात समझ से परे है कि गूगल की फोटो गृह मंत्रालय की रिपोर्ट में कैसे पहुंची ? क्या गृह मंत्रालय की रिपोर्ट गूगल से डाउनलोड करके बनाई जा रही थी ? इस पर गृह मंत्रालय सामने आया, और उसने सारा दोष BSF पर मढ़ते हुए कहा कि यह तस्वीर BSF की तरफ से दी गई है। जिस पर BSF की आज तक कोई सफाई नहीं आई ।
171 साल पुरानी संस्था सन क्रॉनिकल की एसोसिएट प्रेस भी फेक न्यूज़ का शिकार हो चुकी है । पूरी दुनिया से इसमें 1700 अखबार और 5000 टीवी ब्रॉडकास्ट की स्टोरी छापी जाती है। इसके 120 देश में 243 न्यूज़ ब्यूरो हैं । फिर भी यह फेक न्यूज़ का शिकार हो जाती है। इसी से परेशान होकर एसोसिएट प्रेस ने "नॉट रियल न्यूज़ " नाम का एक नया प्रोग्राम शुरू किया। सोचिए दूसरे देश के लोग कहां-कहां से किन किन बातों पर शोध कर रहे हैं , और हम आज भी बिल्ली के रास्ता काट जाने पर वापस लौट जाते हैं । बीजेपी के सांसद परेश रावल ने भी अरुंधति राय के एक से एक इंटरव्यू को ट्वीट के माध्यम से चलाया । लेकिन 24 मई को "द वायर" ने जब इसका पता किया तो रिजल्ट हैरान करने वाला था। यह परेश रावल तक पहुंचा कैसे, यह देखिए। सबसे पहले रेडियो पाकिस्तान ने इसे प्रसारित किया । जिसे टाइम्स ऑफ इस्लामाबाद ने छापा। वहां से postcard.news अपने पोर्टल पर पब्लिश किया । फिर इसे the nationalist.in नेे शेयर किया । जहां से बीजेपी के सांसद परेश रावल ने अपने ट्विटर हैंडल पर ट्वीट किया । अब यह बात देखिए फेक खबरों का मायाजाल कहां से चलकर कहां तक पहुंचा ? जब यह खुद पाकिस्तान से चली हुई खबर को भारत में सपोर्ट कर रहे हैं, इसमें मंसूबे किसके कामयाब हो रहे हैं ? फिर इन्ही लोगो के पास देशभक्ति वाला सर्टिफिकेट और स्टाम्प है। फेक न्यूज के लिए भारत और पाकिस्तान की वेबसाइट और नेता भी एक दूसरे की मदद कर रहे हैं। इस खेल के जरिए ईमानदार लोगों को डराया जा रहा है, और आम लोगों को फिक्स किया जा रहा है ।
रवीश कुमार ने अपने शो प्राइम टाइम में फेंक न्यूज़ की सच्चाई का पर्दाफाश करने वाले ऑल्ट न्यूज़ इन के चीफ एडिटर प्रतीक सिन्हा का इंटरव्यू लिया । जहा उन्होंने बताया कि Google ने एक डेडिकेटेड टीम लगा रखी है , जिसमें वह एक नए फीचर पर काम कर रहे हैं इसमें एक वेबसाइट के माध्यम से फेक न्यूज के क्लेम और उनकी सच्चाई के बारे में पता लगाया जाता है। इसके US की कई वेबसाइट ने गूगल न्यूज़ के साथ पार्टनरशिप किया है। गूगल ने इस बात को बहुत ही सीरियस लिया है । क्योंकि इससे उनके बिजनेस पर भी असर हो रहा है , लोग फेक न्यूज़ में ही लगे रहते हैं, Google के माध्यम से रियल न्यूज़ पर उनका फोकस नहीं रहता है।
प्रतीक सिन्हा ने आगे बताया कि थाईलैंड और सिंगापुर के फेक न्यूज पकड़ने की टेक्नोलॉजी में हम बहुत ही पीछे हैं ।
और सबसे बड़ी बात यह है कि हम उन पोर्टल से जिनका नाम देश या धर्म के नाम पर होता है छापी गई खबरों को स्वच्छ एवं सत्यार्थ मानते हैं। और किसी और के द्वारा सच बताए जाने पर भी यह विश्वास नहीं करते हैं। फेक न्यूज़ का सबसे बड़ा माध्यम WhatsApp और Facebook यूनिवर्सिटी बन चुकी है। और इन को वरीयता भी वही लोग देते हैं, जो नागिन के प्रकट होकर खबर को 6 लोगों को शेयर करने पर फायदा , और ना शेयर करने पर मौत वाले पोस्ट शेयर करते हैं । लोगों का दिमाग सच्चाई और हकीकत को छोड़कर हमेशा कुछ खुराफाती और इललॉजिकल बातों को खोजता रहता है। और पॉलिटिकल पार्टियां इसी बात का फायदा उठाते हुए तरह-तरह के प्रोपेगैंडा, गोदी मीडिया और गुलामी का एनालिसिस करने वाले पत्रकारों , और देश जानना चाहता है के नाम पर चिल्लाने वाले पत्रकारों के माध्यम से सार्वजनिक रूप से हम तक पहुंचाने का काम करती हैं । और फेक न्यूज़ पूरी जानकारी के साथ इन्हीं फर्जी पत्रकारों के नाम पर बनाए गए पेज से लोगों तक पहुंचा दी जाती हैं।
Facebook पर एक पेज है आई सपोर्ट इंडियन आर्मी । अब जहां इंडियन आर्मी की बात हो तब हम सब की देशभक्ति कुछ ज्यादा ही जग जाती है, होनी भी चाहिए । हम देश के वासी हैं और हमें सेना पर गर्व है । लेकिन हमें यह भी ध्यान देना चाहिए कि कोई हमारी इस बात का फायदा नहीं उठा पाए । इसी बात का फायदा उठाया जाता है , उस पर धार्मिक कट्टरता के कई पोस्ट आते हैं । कई बार नेताओं की तारीफों के कसीदे भी पढ़े जाते हैं ।और हर पोस्ट के अंत में यह जरूर लिखा जाता है कि "बिकाऊ मीडिया शेयर नहीं करेगा " ।
इस तरह से सही खबर दिखाने वाले चैनलों और उनके लोगों को देश की नजर में बिकाऊ घोषित कर दिया जाता है । और जो सच में बिकाऊ होते हैं वह इस खबर को पेश करने के लिए टाई पहनकर आकर " एनालिसिस " करने लगते हैं। जिससे कि यह देश की जनता के सामने ईमानदार दिखाई दे । इस तरह कई मीडिया हाउस के मालिक तो चाटुकारिता करके संसद तक भी पहुंच गए । और कुछ जेल जा चुके पत्रकार सत्ता की जी हजूरी करके , फेक न्यूज़ को फैलाकर अपने ऊपर दर्ज तमाम अपराधिक मुक़दमे हटवाने में कामयाब हो जाते हैं।
फेक न्यूज़ चलाने के बाद कई बार पकड़े जाने पर लोग माफी मांग लेते हैं , लेकिन यह माफी उस नुकसान कि 10% भरपाई भी नहीं कर पाती है जो फेक न्यूज़ चलाने से होता है। जैसे कि मैंने पहले भी बताया लोग हमेशा कुछ खुराफाती खोजते रहते हैं , उनको इस बात से कोई मतलब नहीं रहता है कि वह सच है या गलत। इसी चक्कर में फेक न्यूज से प्राप्त जानकारी को बाद में जब सही किया जाता है, तो भी उनके दिमाग में वही पुरानी फेक न्यूज़ चलती रहती है। और उसी को सच मानते हैं । गलती हमारी ही है। और इसी का फायदा कुछ कथित देशभक्त मीडिया चैनल उठा रहे हैं। जो कभी गौरैया के घोसले दिखाते हैं, तो कभी किसी नेता की दिनचर्या को दिखाते हैं , इन्होंने नेताओं को फिल्म के अभिनेताओं की तरह प्रजेंट कर दिया है। जिससे कि लोग इनके फैन बन सके।
यह वही मीडिया हाउस है, जो साल में दो बार अमिताभ बच्चन को बीमारी की वजह से मरा हुआ घोषित कर देती है , तो कभी स्वामी रामदेव के एक्सीडेंट दिखाती है, हर हफ्ते तीसरे विश्व युद्ध की घोषणा भी कर देते हैं, या नॉर्थ कोरिया और अमेरिका के बीच लड़ाई की भविष्यवाणी कर देते हैं, तो कभी किम जोंग उन का कुत्ता प्रेम दिखाते हैं , तो कभी डोनाल्ड ट्रंप के डांस के वीडियो दिखाते हैं। और बगदादी को तो यह रोज ही मारते हैं
एक स्वस्थ समाचार को सुनने की आदत डालिए और दिमाग और आंखें अपनी खोल कर चीजों को आगे बढ़ाइए।
जय हिंद
बृजेश यदुवंशी
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