विनायक सावरकर "वीर"


''अगर ब्रिटिश सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है , तो मैं यकीन दिलाता हु की मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूँगा और अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादार रहूँगा ''


ये शब्द उस पत्र का हिस्सा है जो आज़ादी के पहले आरएसएस और बीजेपी के कथित वीर विनायक दामोदर सावरकर ने अंग्रेजी हुकूमत को अपने जेल के दौरान लिखा था, और इसी तरह के उन्होंने कुल २२ पत्र अंग्रेजी सरकार को लिखा ।


ये वही थे जिन्होंने हिन्दू धर्म से अलग राजनैतिक हिन्दुत्वा की स्थापना किया। केंद्र और कई राज्यों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी उसी सावरकर को अपना आदर्श मानती आयी है । आज ऐसा समय है जब उग्र हिन्दू विचारधारा वाली पार्टी सत्ता में है। तब सावरकर के विचार और उनके किये गए कार्यो को लोगो के सामने लाना बेहद जरूरी है । आज़ादी की लड़ाई में उनका योगदान क्या और कितना था ? उनकी भूमिका क्या थी ?ऐसा उन्होंने क्या किया जो आरएसएस और बीजेपी के लोगो ने उनको "वीर" की उपाधि दे दिया ?


यह बात तब से सुरु हुई जब भारत में स्वतत्रता आंदोलन जोरो पर था और लोग एक दुसरे की जात पात धर्म छोड़ कर एक साथ आज़ादी के लिए लड़ रहे थे । इस दौरान हिन्दू राष्ट्रवाद का विचार बनाया गया । हम ये भी कह सकते है की सावरकर उस हिन्दू विचाधारा के जन्मदाता है जिसने देश की सर्वधर्म समभाव को ख़तम करने का काम किया ।


मुस्लिम लीग जो दो राष्ट्र वाले सिद्धांत पे चल रहे थी , सावरकर भी उसी नक़्शे कदम पे आगे बढे , हुए अंग्रेजो की फुट डालो और शासन करो की निति को भरपूर सहयोग प्रदान किया।


मुस्लिम राष्ट्रवादियों ने मुस्लिम लीग के बैनर के तले और हिन्दूराष्ट्रवादियो ने हिन्दू महासभा , आरएसएस के बैनर के तले स्वतंत्रता संग्राम का यह कहकर विरोध किया , की हिन्दू और मुस्लिम दो अलग राष्ट्र है । आज़ादी की लड़ाई को पूरी तरह से नाकाम करने के लिए इन दोनों कथित राष्ट्रवादियों ने अंग्रेजो से हाथ मिला लिया , ताकि वे दोनों अपनी पसंद के धार्मिक राष्ट्र हथिया सके। अगर इस पूरे वाकिये को आज की नज़र से देखा जाए तो जिन्नाह और सावरकर में कोई फर्क नहीं है ।


मुस्लिम लीग और राजनैतिक हिन्दुत्वा दोनों ही द्विराष्ट्र सिद्धांत पे काम कर थे, इसी तरह वि डी सावरकर और आरएसएस की द्विराष्ट्र का उद्देश्य भी सफ़ साफ़ समझाजा सकता है , थोड़ा और गहराई में जाए तो यह मिलता है की १९४० में मुस्लिम लीग के तरफ से जिन्न्हा नेअलग मुस्लिम राष्ट्र की मांग किया था , लेकिन उससेकाफी पहले १९३७ में ही अहमदाबाद में हिन्दू महासभा के १९वे महाधिवेशन में सावरकर ने हिन्दू और मुसलमानो के लिए अलग राष्ट्र की मांग कर लिया था , उस समय वो हिन्दू महासभा के अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए ये कहा था की ''फ़िलहाल भारत में दो प्रतिद्वंदी राष्ट्र अगल-बगल रह रहे हैं. कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मान कर गंभीर ग़लती कर बैठते हैं कि हिन्दुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रूप ढल गया है या केवल हमारी इच्छा होने से इस रूप में ढल जाएगा. इस प्रकार के हमारे नेक नीयत वाले पर कच्ची सोच वाले दोस्त मात्र सपनों को सच्चाई में बदलना चाहते हैं. इसलिए वे सांप्रदायिक उलझनों से अधीर हो उठते हैं और इसके लिए सांप्रदायिक संगठनों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. लेकिन ठोस तथ्य यह है कि तथाकथित सांप्रदायिक प्रश्न और कुछ नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता के नतीजे में हम तक पहुंचे हैं. हमें अप्रिय इन तथ्यों का हिम्मत के साथ सामना करना चाहिए. आज यह क़तई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एकता में पिरोया हुआ राष्ट्र है, इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्यतः दो राष्ट्र हैं, हिंदू और मुसलमान.’ सावरकर आरएसएस के वह विचारक है जो हिन्दू और मुसलमान के दो अलग अलग राष्ट्र को बनाने का पूरा प्रयास करता है "


इसके उल्टा संघ आज गाँधी नेहरू को विभाजन के लिए जिम्मेदार बताता रहा है, और आज भी इन्होने ऐसा वातावरण बना दिया है की सारा देश ही गाँधी जी और नेहरू जी को देश के विभाजन के लिए मंटा है, किसी नेभी इतिहास के पन्ने उलट कर देखने की जहमत नहीं उठायी।


जैसा कि प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि वे ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ हैं,यदि ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ होना गर्व की बात है तो गर्व एक समस्या खड़ी करता है. इसी तरह मुस्लिम राष्ट्रवादी, सिखराष्ट्रवादी, इसाई राष्ट्रवादी होंगे. इतने सारे राष्ट्रवादी ज़ाहिर है कि भारतीय राष्ट्रवाद के मुक़ाबले कई टुकड़ियों में एक ख़तरे के रूप में खड़े होंगे. इस हिंदू राष्ट्रवाद में गर्व करने जैसा क्या है, जो भारत जैसे विविधता वाले राष्ट्र को एक ही ढर्रे पर ले जाने की वकालत करता है. इन हिन्दू राजनीज्ञो ने आज़ादी की लड़ाई में सेनानियों का साथ देनेकी वजाय अंग्रेजो का साथ देनेकी वजाय अंग्रेजो का साथ दिया जिसके बदले में उन्होंने संघियो को अभयदान दिया।


जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस जी ने अन्य देशो की सहायता से युद्ध के माध्यम से देश को आज़ाद कराने का प्रयास किया तब इन्ही कथित वीरो ने अंग्रेजी सेना की सहायता किया ।


उस समय ''वीर'' सावरकर ने ये वक्तव्य कहा ''‘जहां तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारतसरकार के युद्ध संबंधी प्रयासों में सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब तक यह हिंदू हितों के फ़ायदे में हो. हिंदुओं को बड़ी संख्या में थलसेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनानेवाले कारख़ानों वगै़रह में प्रवेश करना चाहिए। ग़ौरतलब है कि युद्ध में जापान के कूदने कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के हमलों के सीधे निशाने पर आ गए हैं. इसलिए हम चाहें या न चाहें, हमें युद्ध के क़हर से अपने परिवार और घर को बचाना है और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताक़त पहुंचा कर ही किया जा सकता है. इसलिए हिंदू महासभाइयों को ख़ासकर बंगाल और असम के प्रांतों में, जितना असरदार तरीक़े से संभव हो, हिंदुओं को अविलंब सेनाओं में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए."


जस्टिस काटजू कहते हैं, ‘दरअसल, सावरकर केवल 1910 तक राष्ट्रवादी रहे. ये वो समय था जब वे गिरफ्तार किए गए थे और उन्हें उम्र कैद की सज़ा हुई. जेल में करीब दस साल गुजारने के बाद, ब्रिटिश अधिकारियों ने उनके सामने सहयोगी बन जाने का प्रस्ताव रखा जिसे सावरकर ने स्वीकार कर लिया. जेल से बाहर आने के बाद सावरकर हिंदू सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने का काम करने लगे और एक ब्रिटिश एजेंट बन गए. वह ब्रिटिश नीति ‘बांटो और राजकरो’ को आगे बढ़ाने का काम करते थे।


यह एक बेहद हैरान कर देने वाली बात होती है की१९४८ में महात्मा गाँधी के हत्या के आरोप में नाथूराम गोडसे सहित कुल ८ आरोपी थे जिनमे से कथित वीर सावरकर भी एक थे , हलाकि उनके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं होने के कारन वो बरी हो गए ।


1910-11 तक वे क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल थे. वे पकड़े गए और 1911 में उन्हें अंडमान की कुख्यात जेल में डाल दिया गया. उन्हें 50 वर्षों की सज़ा हुई थी, लेकिन सज़ा शुरू होने के कुछ महीनों में ही उन्होंने अंग्रेज़ सरकार के समक्ष याचिका डाली कि उन्हें रिहा कर दिया जाए. इसके बाद उन्होंने कई याचिकाएं लगाईं. अपनी याचिका में उन्होंने अंग्रेज़ों से यह वादा किया कि "यदि मुझे छोड़ दिया जाए तो मैं भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेख़ुद को अलग कर लूंगा और ब्रिट्रिश सरकार के प्रतिअपनी वफ़ादारी निभाउंगा." अंडमान जेल से छूटने केबाद उन्होंने यह वादा निभाया भी और कभी किसीक्रांतिकारी गतिविधि में न शामिल हुए, न पकड़े गए. वीडी सावरकर ने 1913 में एक याचिका दाख़िल कीजिसमें उन्होंने अपने साथ हो रहे तमाम सलूक का ज़िक्र किया और अंत में लिखा, ‘हुजूर, मैं आपको फिर से याद दिलाना चाहता हूं कि आप दयालुता दिखाते हुए सज़ा माफ़ी की मेरी 1911 में भेजी गई याचिका पर पुनर्विचार करें और इसे भारत सरकार को फॉरवर्ड करने कीअनुशंसा करें. भारतीय राजनीति के ताज़ा घटनाक्रमोंऔर सबको साथ लेकर चलने की सरकार की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते को एक बार फिर खोल दिया है.अब भारत और मानवता की भलाई चाहने वाला कोई भी व्यक्ति, अंधा होकर उन कांटों से भरी राहों पर नहींचलेगा, जैसा कि 1906-07 की नाउम्मीदी और उत्तेजना से भरे वातावरण ने हमें शांति और तरक्की के रास्ते से भटका दिया था.।


अपनी याचिका में सावरकर लिखते हैं, ‘अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगाऔर अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा, जो कि विकास की सबसे पहली शर्त है. जबतक हम जेल में हैं, तब तक महामहिम के सैकड़ों-हजारें वफ़ादार प्रजा के घरों में असली हर्ष और सुख नहीं आ सकता, क्योंकि ख़ून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता. अगर हमें रिहा कर दिया जाता है, तो लोग ख़ुशी और कृतज्ञता के साथ सरकार के पक्ष में, जो सज़ा देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना जानती है, नारे लगाएंगे.’


आगे लिखते हुए उन्होंने कहा की '' इससे भी बढ़कर संविधानवादी रास्ते में मेरा धर्म-परिवर्तन भारत और भारत से बाहर रह रहे उन सभी भटके हुए नौजवानों को सही रास्ते पर लाएगा, जो कभी मुझे अपने पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखते थे. मैं भारत सरकार जैसा चाहे, उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह से मेरा भविष्य का व्यवहार भी होगा. मुझे जेल में रखने से आपको होने वाला फ़ायदा मुझे जेल से रिहा करने से होने वाले होने वाला फ़ायदे की तुलना में कुछ भी नहीं है. जो ताक़तवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार पुत्र सरकार के दरवाज़े के अलावा और कहां लौट सकता है. आशा है, हुजूर मेरी याचनाओं पर दयालुता से विचार करेंगे.’।


इन्ही के साथ बीजेपी और आरएसएस के और सिद्धांत श्यामा प्रसाद मुखर्जी का भी जिक्र करना जरूरी है , १९४० के बाद इन्होने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर बंगाल में एक अंतरिम सरकार बनाया , जिसमे ये गृहसचिव थे , १९४२ में भारत छोडो आंदोलन के दौरान इन्होने अंग्रेजी हुकूमत को एक पत्र लिखते हुए यह आश्वासन दिया की '' वो बंगाल में भारत छोडो आंदोलनको सफल नहीं होने देंगे और पूरी ताकत से वो इसे ख़तम करेंगे '', और उन्होंने ऐसा किया भी ।





अगर पूरे वाकये को देखा जाए और समझा जाए तो कहीभी एक भी बात नहीं दिखती जिससे इनके नाम के आगे लगा वीर परिभाषित शब्द परिभाषित हो सके ।


फिर ये जिम्मेदारी आरएसएस और बीजेपी की बनती हैकी वो बताये की विनायक दामोदर सावरकर ने ऐसा क्या किया आज़ादी के आंदोलन में की उनको वीर की उपाधि मिल गयी ? या अंग्रेजो से 22 पत्र लिखते हुए रोने वाले को, देश को हिन्दू मुस्लिम के नाम पर को, देश कीजनता को साम्प्रदाइकता की आग में झोकने वाले को''वीर'' कहा जाता है ? अगर 'हां' तो फिर सरदार भगतसिंह , राम प्रसाद बिस्मिल, असफाक उल्लहा खाना , रोशनलाल , चंद्र शेखर आज़ाद , सुखदेव ,राजगुरु , सुभाष चंद्र बोस को हम क्या कहेंगे ? क्योकि ये लोग विनायक दामोदर सावरकर की विचारधारा और उनकेकृत्य के बिलकुल विपरीत थे , जैसा कि हम ऊपर तस्वीर के भगत सिंह जी के और सावरकर के विचार से साफ देख सकते है


बृजेश यदुवंशी

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