देशभक्ति और ईश्वरश्रद्धा , बलिदानी और शांतिपूर्ण होती है। दंगाई और उपद्रवी नही। लफंगों, लम्पटों और लफंटरो ने आज देशभक्ति और ईश्वर भक्ति का ठेका ले रखा है। जिन्हें धर्म और देश से कोई लेना देना नही वो आज धर्म का ठप्पा और देशभक्ति की सर्टिफिकेट बांट रहे है। धर्म और राष्ट्रवाद को राजनीति को अड्डा बना दिया गया है। या यूं कहें कि राजनीति की अखाड़े में मुद्दों पर पिट चुके पहलवान अब धर्म और राष्ट्रवाद के मुर्गे राजनीति के अखाड़े में लड़ा रहे है । जो भगत सिंह , सरदार पटेल , सुभाष बोस के सपनो वाले भारत की परिभाषा से कोसो दूर और बिल्कुल उसकी विपरीत है।
धर्म और राष्ट्रवाद का चोला ओढ़े कुछ घाघ आज सत्ता के शिखर पर बैठे देश के लोगो मे सिर्फ धार्मिक उन्माद और आततायिता का एक ऐसा जहर भर रहे है जो आने वाले पीढियो और नश्लो कि रीढ़ की हड्डियां तोड़ देगा। इस जहर का परिणाम इतना घातक है कि इसके शिकार पीढ़िया रीढ़ बिहीन गिरिगिट की तरह रहेंगी। उन नश्लो का न तो कोई विचार होगा न कोई सिद्धांत। न कोई आदर्श होगा न कोई राह। ये सिर्फ एक मशीन के भीड़ के रूप में काम करेंगे। एक ऐसी मशीन जो दंगाई और हत्यारी होगी। जो सिर्फ एक आवाज या एक झूठी सूचना पर उग्र धर्मवाद या उग्र राष्ट्रवाद के नाम पर शहर के शहर को श्मशानों और कब्रिस्तानों में बदल देगी।
इस विचार के प्रभाव के शुरुआत अभी से हो चुकी है। दिन रात टीवी पर अखबारों में फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद और फ़र्ज़ी धर्म के नाम जहर परोसा जा रहा है। कुछ कथित धर्मभक्त और राष्ट्रभक्त देश के नाम पर भगवान के नाम शहीदों के नाम पर सेना के नाम पर दिन रात लोगो के मन मे नफरत और असहिष्णुता का चरस बो रहे है। और इस चरस को देश के लोगों में दिन रात अखबारों और टीवी के माध्यम से लोगों को खिलाया पिलाया जा रहा है । धर्म को बचाने की एक अंधी रेस शुरू कर दी गई है । जिसमें लोग बिना देखे कभी भगवान को बचाने तो कभी मंदिर बनाने के लिए दौड़ रहे हैं । और एक दूसरे का गला काट रहे हैं।
और ऐसा करवाने वाले नेता किसी ना किसी तरह अपने वोट के जुगाड़ में लगे हुए हैं। कभी अपने कार्यकर्ताओं द्वारा दी गई जान की कीमत वोट के बदले वसूल लेते हैं। तो कभी देश के वीर सैनिकों द्वारा की गई बहादुरी के नाम पर अपने आप को वोट मांग कर सर्वश्रेठ साबित करते हैं। तो कभी खुद को सेना से भी ऊपर बताते हुए यह कहते हैं कि देश हमारे हाथ में सुरक्षित है।
देश के सेना के पराक्रम को " फलाने की सेना" बताने वाले देश को चीन जैसी व्यवस्था में बदलना चाहते है। अपनी विचारधारा को सर्वश्रेष्ठ बता कर दूसरे की विचारधारा को "राष्ट्रविरोधी" और "धर्मविरोधी" बता रहे है। लेकिन कभी भी अपने पूर्वजो की आज़ादी के पहले की करतूतों को झांक कर नाइ देखा। हाल ही में "मार्गदर्शक मंडल" के एक महत्वपूर्ण सदस्य को इसी बात का ज्ञान अपने संगठन को देते हुए सुना गया।
हालांकि मार्गदर्शक मंडल ये महानुभाव आज वही फसल काट रहे हैं जो जहर भरी फसल उन्होंने शुरआत से बोई। इस जहर वाली फसल का परिणाम ही रहा की भगवान के नाम पर कुछ लोगो को उकसा और भड़का कर इन्होंने कानून व्यवस्था को तोड़ने और सामाजिक ढांचे को विध्वंश करने को भेज दिया। इरादा सर्फ एक था कि लोगो की भावनाओ और गोलीकांड में मारे गए लोगो के नाम पर वोट लेकर संगठन को मजबूत करें। और हुआ भी यही। भगवान और धर्म के नाम पर राजनीति करके ये संगठन 2 सीट से 280 सीट पर पहुच गए।
लेकिन कोई अब इनके दिल से पूछे कि 2 से 280 पर पहुँचाने वाले संगठन में अब इनकी पूछ कितनी है ? जिस संगठन को मजबूत करने के लिए इन्होंने देश मे इतनी मेहनत से धार्मिक उन्माद फैलाया, जितना मेहनत से लोगो के मन मे नफरत डाली, आज उसी तरह उनको बाहर भी कर दिया गया है। ये उनके कर्मों का एक फल ही हो सकता है। या ये भी कह सकते है कि जिस नफरत और घृणा का बीज उन्होंने बोया आज वो उसी के शिकार हो गए। वैसे उनके साथ जो कुछ भी हुआ गलत हुआ। एक बुजुर्ग के साथ जितना बुरा सुलूक उनके खुद के खड़े कोई गए संगठन में हुआ उतना किसी के साथ न हुआ।
ये वही नफरत की भावना ही थी । जिससे प्रेरित होकर साहेब ने खुद को ही महान और सर्वशक्तिमान समझ लिया और संगठन के संस्थापक को पहले किनारे और फिर बाहर कर दिया।
ये वही नफरत की भावना है जिसमे दूसरो के विचार को धर्मविरोधी और देशविरोधी बना देती है। जबकि विचारो , जातियों, और तरीको का संगम ही देश की असली आत्मा है। विविधता और वैचारिक, संस्कृति असमानता ही आपस मे मिल कर भारत बनाते है। कदम कदम पर धरती का रंग बदलना, भाषाओ का बदलना, तौर तरीकों को बदलना, रहने के तरीकों का बदलना, खाने पीने के तरीकों का बदलना ही असली भारत है। इसी असमानता में भारत की आत्मा बसती है।
वैसे भी लोगो को ये बात अब समझनी ही होगी कि देशभक्ति और ईश्वरश्रद्धा , बलिदानी और शांतिपूर्ण होती है। दंगाई और उपद्रवी नही। लफंगों, लम्पटों और लफंटरो ने आज देशभक्ति और ईश्वर भक्ति का ठेका ले रखा है। जिन्हें धर्म और देश से कोई लेना देना नही वो आज धर्म का ठप्पा और देशभक्ति की सर्टिफिकेट बांट रहे है। ये देश का दुर्भाग्य ही है कि ऐसे लफंगों की बात को देश के पढ़े लिखे लोगो का एक बड़ा तबका फॉलो भी करता है। और देश मे उपद्रव और बहशीपन की एक नई परिभाषा गढ़ने की कोसिस की जा रही है। जो भगत सिंह , सरदार पटेल , सुभाष बोस के सपनो वाले भारत की परिभाषा से कोसो दूर और बिल्कुल उसकी विपरीत है।
अगर अगल विचारो और अलग तरीको से जिनको इतनी ही समस्या है तो उनको पंडित भीमसेन जोशी महाराज का गाना "मिले सुर मेरा तुम्हारा " सुनना चाहिए। और साथ मे देखना भी चाहिए। न जाने कितने भाषाओ और न जाने संस्कृति का मिश्रण को दिखाता है या गाना। और इन्ही विभिन्नताओं ने देश को इतना खूबसूरत बनाया है। एक ऐसा खूबसूरत देश जिसमे धर्म की बंदिशो का कलंक नही है। जिसमे फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद नही होता। जिसमे कोई एक दूसरे से धार्मिक या देश प्रेमी होने का सबूत नही मांगता।
धर्म और राष्ट्रवाद को राजनीति को अड्डा बना दिया गया है। या यूं कहें कि राजनीति की अखाड़े में मुद्दों पर पिट चुके पहलवान अब धर्म और राष्ट्रवाद के मुर्गे राजनीति के अखाड़े में लड़ा रहे है । जैसे ही राजनीति में धर्म आता है तो आपस में नफरत, द्वेष, भड़काना, डराना सब कुछ चालू हो जाता है। क्योंकि राजनीति में चुनाव जीतने के लिए वोट चाहिए, वोट के लिए लोगों को कुछ न कुछ तो उनके दिमाग मे चढ़ाना ही पड़ता है। इसलिए सुनियोजित दंगे फसाद चालू हो जाते है। और दोनों तरफ भड़काने वाले लोग होते हैं। जो आग में घी डालते है, ताकि उनको और ज्यादा फायदा हो ।
यही फार्मूला अभी हमारे देश में भाजपा और आर एस एस ने लगा रखा है। इसीलिए जिन राज्यों में भाजपा की सरकारे है। वहॉ पर ज्यादा दंगे फ़साद हो रहे है और नये राज्यों में जहॉ भी भाजपा अपना जन आधार बढ़ाने की योजना बनाते हैं। उसमे सबसे पहला काम हिंदू, मुसलमान में विवाद कराना होता है । किसी भी तरह से हिन्दू मुस्लिम दंगे हो, उनको पता है कि मुस्लिम वोटर कम है और हिन्दू वोटर ज्यादा है, जितना आपसी में मार काट होगा, उतने ज्यादा हमारे वोट पक्के होगे । इसी सोच को लागू कर पूरे देश में चुनाव जीत रहे है।
इसके पीछे देश को लूटने का खेल पूँजीपति कर रहे है, यही पूँजीपति इन पार्टियों, संगठनों को धन मुहैया कराते है, ताकि आम जनता इन झगड़ो में लगी रहे और हम देश के संसाधनों, सम्पति, पैसा लूट सके ।
जब भी धर्म के नाम पर ज़हर फैलाया जाता है, भावनाओ को खुरेदा जाता है, सौगंधे खिलाई जाती है, आम आदमी के दिमाग को शून्य कर दिया जाता है, जिसके बाद उसका उपयोग किया जाता है, इस समय वह रोजी रोटी, घर परिवार, पैसा आमदनी, सब भूल जाता है, केवल दूसरे धर्म के लोग केवल दुश्मन दिखते है। समझ लीजिए आप और आम आदमी इनके असल जाल में फस गया है । ऐसे में वो वोट तो छोड़िए जान भी देने को तैयार रहता है, इसी प्रकार की मानसिकता बनाकर ये बाबा बैरागी, बच्चियो महिलाओं का शारीरिक शोषण करते है ।और कुछ अंधभक्त गौरवान्वित महसूस करते हैं कि हमें फल मिल गया, यही धार्मिक मानसिक गुलामी है, जिसको धर्म के नाम पर पैदा किया जाता है ।
1970 के दशक से पहले गैर-कांग्रेसी दलों ने जाति और धर्म के नाम पर मोर्चे बनाने शुरू किए। वो याद करते हैं कि 1970 के दशक में जब बीजेपी के पूर्ववर्ती जनसंघ ने जाति आधारित मोर्चे बनाने शुरू किए, तो पार्टी के भीतर ही इसका विरोध हुआ। लेकिन आज जनसंघ की वारिस बीजेपी ने स्थायी तौर पर पार्टी के भीतर जाति और धर्म के आधार पर तमाम मोर्चे बना लिए हैं। जनसंघ के इस कदम के जवाब में कांग्रेस ने भी एससी/एसटी और अल्पसंख्यक मोर्चे बनाए।
भारत के लोकतंत्र ने भले ही अपने सफर के सात दशक पूरे कर लिए हों, मगर आज भी जाति और पेशे के बीच नाता नहीं टूटा है। ये हकीकत है कि तमाम सियासी दल ऐसे सामाजिक बंटवारे का फायदा उठाकर सत्ता हासिल करते रहेंगे। खुद को 'पार्टी विद डिफरेंस' कहने वाली बीजेपी आज खुलकर जाति और धर्म की राजनीति करती है।दलितों और ऊंची जातियों को एकजुट करने की बीजेपी की कोशिश, असल में उसकी हिंदुओं को मुसलमानों के खिलाफ एकजुट करने की मुहिम है।
जाति और राजनीति के इस घालमेल को बीजेपी ने कांग्रेस से सीखा है।अब कांग्रेस इस खेल को दोबारा बीजेपी से ही सीखने की कोशिश कर रही है।भारत में जाति-धर्म की ऐसी राजनीति अभी आने वाले लंबे वक्त तक चलने वाली है। भारतीय लोकतंत्र में आम नागरिक का निजी व्यक्तित्व हार चुका है।भारतीयों की अगली पीढ़ी, 21वीं सदी में पैदा हुए और पहली बार वोट डालने वाले मतदाता हार चुके हैं । जिन युवाओं के पास रोजगार नहीं हैं, वो आज सियासी दलों के हाथों के मोहरे बन गए हैं।
बात साफ है यदि धर्म निरपेक्ष है तो किसी भी धर्म का पक्ष लेना गलत है, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, सिख या ईसाई। उनकी नजर में सभी धर्म और उनकी मान्यताएं समान होनी चाहिए। ऐसे में योग को किसी धर्म के तुष्टीकरण के चश्मे से देखना निहायत निंदनीय है। अब कांग्रेस सहित कथित अन्य धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल यही कर रहे हैं। वह सही बात को सही तरीके से लेने के बजाय धार्मिक तुष्टीकरण की राजनीति के जरिए अपना आधार बनाना चाहते हैं जो निहायत गलत और निंदनीय है।
हमारा देश करीब 800 साल तक मुस्लिम शासकों के अधीन रहा मगर तब भी हिंदू, सिख, ईसाई और बौद्ध धर्म फला-फूला।कुछ मुस्लिम शासकों ने क्रूर व्यवाहर किया तो वह भी नष्ट हुए और उनका राज्य भी। इतने कठोर और क्रूर मुस्लिम शासकों के समय भी धर्म को हानि नही हुई। और आज जब कि देश स्वतंत्र है तब लोगो को धर्म को खतरे में दिखा कर वोट मांगते हुए देखा जा सकता है। ये ठीक वैसा ही है जैसे कि एक इन्सुरेंस एजेंट मौत का खौफ दिखाकर पालिसी बेचकर अपना टारगेट पूरा कर लेता है। और अगर मौत हो भी गयी तो क्लेम करने वालो को ठेंगा दिखा कर दाँत चियार दिया जाता है।
हिन्दू देवी देवताओं और भगवान राम की रक्षा की ठेका लेने वाली पार्टी आज अपना वजूद भी उन्ही भगवान राम के नाम पर बना पाई है। भारतीय जनता पार्टी ने भगवान राम और उनके मंदिर बनवाने के नाम पर खूब वोट और धन बटोरा अपने चुनावो घोषणा पत्रो में 8 बार राम मंदिर बनाने का वादा करने वाली बीजेपी इस बार फिर से इसी वादे को लेकर उतरी है। भाजपा ने हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में हुई पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पहली बार अयोध्या में राम मंदिर के आंदोलन को समर्थन देने का फ़ैसला किया था।
राम मंदिर आंदोलन से भाजपा को राजनीतिक फ़ायदा हुआ इस पर कोई विवाद नहीं हो सकता पर मस्जिद गिरने का उसे राजनीतिक फ़ायदा हुआ, यह विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता।भाजपा से राजनीतिक छुआ-छूत ख़त्म हुई 1998 में, जब उसने अपने चुनाव घोषणापत्र से राम मंदिर, समान नागरिक संहिता और अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दे हटा दिए।केंद्र में छह साल उसकी सरकार रही पर पार्टी को राम और अयोध्या की याद आना तो दूर, उसने कुछ ऐसा किया कि विहिप और अशोक सिंघल की इस मुद्दे पर विश्वसनीयता ही ख़त्म हो गई।
जिस राम मंदिर मुद्दे ने भाजपा को दो लोकसभा सीटों से केंद्र की सत्ता तक पहुंचाया उस पर पार्टी ही नहीं पूरे संघ परिवार की विश्वसनीयता ख़त्म हो चुकी है । जिन अशोक सिंघल के नाम पर देश भर से लाखों लोग जुटते थे, उनके जीवित रहते ही उनकी अपील का असर ख़त्म हो गया था ।मंदिर समर्थकों को यक़ीन हो गया कि भाजपा के लिए राम मंदिर आस्था का नहीं महज़ वोट बटोरने का साधन है
यही कारण है कि 2002 में उत्तर प्रदेश में भाजपा पहले नंबर से तीसरे नंबर की पार्टी बन गई। 2004 के लोकसभा चुनाव में कभी 62 लोकसभा सीट तक जीतने वाली पार्टी नौ सीट पर सिमट गई।
ऐसा इसलिए मुमकिन हो सका क्योकि शायद हमसे पहले वाली पीढ़ी हमारे मुकाबले ज्यादा समझदार और संवेदनशील थी। उनकी धर्म और इंसानियत का सही मतलब मालूम था। वो बहके नही। क्योकि उस समय बहकाने वाले पत्रकार और न्यूज़ चैंनल नही थे। ऐसे नेता थे जो कोसिस कर रहे थे लेकिन लोग उन्हें कामयाब नही होने दिए।
खुद अयोध्या की स्थानीय जनता ने भी 1984 से लेकर अब तक राममंदिर के नाम पर बहुत कुछ देखा है। 1984-85 में सीखचों में कैद राम को मुक्त कराने के लिए निकाली गयी विश्व हिन्दू परिषद की रथयात्रा, तथा 1986 में अदालती आदेश से ताला खुलने के बाद रामजानकी विजय यात्रा से लेकर 1989 में शिलान्यास, 1990 में कारसेवा और 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस जैसी घटनाओं को अपनी आंखों के सामने देखने वाली अयोध्या की जनता अब बीजेपी के इन वादों को महज ड्रामा मान रही है। वह चाहती तो है कि राममंदिर का निर्माण हो जाये लेकिन अब इस प्रकार के नाटकों के लिए वह अपने को तैयार नहीं कर पा रही है। 1992 के बाद अयोध्या ने राहत की सांस भी ली थी कि रोज होने वाले हंगामें से कमसेकम मुक्ति मिलेगी। जब सारे मुद्दे हवा- हवाई हो गये तब फिर से अयोध्या की याद भारतीय जनता पार्टी को आयी है।
क्यो ? क्योकि पिछले 5 सालों में मोदी जी ने नेहरू को कोसने , और विदेश जाकर बिरयानी खाने के अलावा और कोई काम कायदे का किया नही है। अब ऐसे में उनको कुछ तो ऐसा चाहिए ही जिसको लेकर वो जनता के बीच मे जा सके। जिसको लेकर वो विरोधियो पर हमला कर सके। जिसको लेकर वो मुद्दों और उनके सवालो से बच सके। जिसको लेकर वो जनता को पुनः मूर्ख बना कर फिर से सत्ता हासिल कर सके। और इसके लिए उन्होंने भाजपा के सबसे पुराने और अब तक कारगर हथियार को निकाला और वो है " राम मंदिर निर्माण"।
राम मंदिर वह मुद्दा है, जो किसी भी सड़ी गली, मैली कुचैली , घटिया से भी घटिया पार्टी को सत्ता को शिखर पर पहुँचा देता है। दरअसल ये कमाल भगवान राम का है, जो मरी हुई पार्टी को भी जिंदा कर देते है। भगवान राम के लिए जो काम हनुमान जी ने संजीवनी लाकर किया था, वही काम राजीव गांधी ने राम मंदिर का मुद्दा बीजेपी को देकर किया।अगर हम इसे समझने की कोसिस करेंगे तो पाएंगे की राम मंदिर वो मुद्दा है, जिसे बीजेपी धरातल पर आने नही देगी। यानी मन्दिर बनने नही देगी। ऐसा इसलिए कि कोई भी समझदार सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को एक ही बार मे काट कर सारे अंडे नही निकलेगा। ठीक वैसे ही राम मंदिर बीजेपी के लिए सोने के अंडे वाली मुर्गी है। जिसे वो मंदिर बनवा कर मरना नही चाहते।
बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा से लेकर उत्तरप्रदेश के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने बयान दिया था कि अगर कोई विकल्प नहीं बचेगा तो केंद्र सरकार संसद में कानून लाएगी।हालांकि बाद में मौर्य ने कहा हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहे हैं। लोकसभा में हमारे पास बहुमत है, लेकिन हमारे पास बिल पास करने के लिए राज्यसभा में बहुमत नहीं है। इसलिए विकल्प चुनने का समय नहीं है।
बीजेपी राम मंदिर के नाम पर 30 सालों से वोट मांग रही है। 2014 में भी बीजेपी ने राम मंदिर के निर्माण का वादा किया था। हालांकि उस चुनाव में नरेंद्र मोदी ने विकास का नारा देकर भारी बहुमत हासिल किया था।लेकिन अब 2019 के चुनावी समर में उतरने से पहले राम फिर याद आने लगे हैं।अबतक का इतिहास रहा है कि बीजेपी जब भी ग्राउण्ड ज़ीरो पर फंसती दिखी है, उसने राम मंदिर का सहारा लिया है। ऐसे में बीजेपी के लिये गुजरात में राम मंदिर का मुद्दा डूबते को तिनके का सहारा जैसा है।
देश मे पिछले के समय से इसके लिए प्लेटफार्म तैयार किया जा रहा है। कट्टरत भरे भाषण देना, उकसाऊ हरकते करना। भगवान राम की शोभा यात्रा में सरेआम तलवारे और बंदूके लहराना। जय श्री राम के नारे को धमकी भरे लहजे में लगाना।हिंदुत्व के नाम पर हत्या करना, भगवान के नाम पर बलिदान मांगना , जबरजस्ती नारे लगवाना ये सब राम मंदिर के मुद्दे को उछाल कर लोगो की धार्मिक भावना के रास्ते दिल्ली की सत्ता तक पहुचने का पूरा प्लान सेट है। जबकि ये सच है कि इन लोगो का भगवान राम के मंदिर से वोट के सिवा और कुछ लेना देना नही है। और ये खुद ही राम मंदिर नही बनने देना चाहते। सिर्फ हर चुनाव में नाम इस्तेमाल करके कुर्सी कब्जियाने की आदत हो चुकी है इन लोगो की।
आप 1989 से लेकर 1998 तक के लोकसभा चुनावों में उसके घोषणापत्रों को देख लीजिए। सबमें प्रथम पृष्ठ का आरंभ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की व्याख्या से होता और विवादित स्थान पर राम मंदिर का निर्माण उसमें शामिल होता था। हालांकि 2009 और 2014 के चुनावों में यह अंतिम पृष्ठ पर चला गया।मंदिर के नाम और 20 हज़ार करोड़ से भी ज्यादा रकम चंदे के रूप में अर्जित की गई। खुद भाजपा ने 700 करोड़ की हाई टेक आफिस बना लिया। जो किसी सेवन स्टार होटल से कम नही है। भाजपा में नेता और राम मंदिर के नाम पर राजनीति करने वाले साररे नेताजी लोगो की दिन दूनी रात चौगुनी धनिक बृद्धि हुई है। खुद महलो में रह रहे है। लेकिन ट्रिपल तलाक , और एस सी ,एस टी एक्ट की तर्ज़ पर एक अध्यादेश लाकर मंदिर बनाने का कानूनी राश्ता साफ नही कर रहे हैं।
करेंगे भी कैसे, सोने की अंडा देने वाली मुर्गी को एक बार मे हलाल करना बेवकूफी होती है। और बीजेपी के लिए भगवान राम का मंदिर सोने के अंडे देने वाला मुर्गी है। ये बात देश के सभी सभी वर्ग के लोगो को अब समझनी होगी। खास कर नौजवानों को। नौजवानों पर धार्मिक कट्टरता का जाल फेका गया है। उनको इस जाल से बाहर निकलना होगा। धर्म को राजनीति से अलग करना होगा। धर्म को निजि विषय मानना होगा, राजनीति से अपने जीवन के सवाल करो, बेरोजगारी , शिक्षा स्वास्थ्य, किसानों की फसलों के दाम, बजट में जन कल्याण के काम, परमानेन्ट नौकरी, सरकारी भर्ती, फुटकर व्यापार में विदेशी कंपनियों के लिए क्यों खोला गया, जैसे सवाल उठाना होगा, इन्ही सवालो पर वोट करना होगा।केवल तभी देश आने वाली बर्बादी से बाख पायेगा। वरना आने वाली पीढ़ियों गुलाम बन जाएंगी।
इसी तरह गाय को भी हिंदू धर्म में माता का दर्जा स्वीकार्य है ।और इसी का फायदा उठा कर के भारतीय जनता पार्टी और उनके सहयोगी दलों ने लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया । गाय के नाम पर देश में ना जाने कितनी हत्याएं हो गई । प्रधानमंत्री ने "गुलाबी क्रांति" का जिक्र कर इसे खत्म करने का वादा किया था । लेकिन प्रधानमंत्री के आने के बाद भारत में गुलाबी क्रांति दोगुनी हो चुकी है । और देश से "गुलाबी वस्तुओं " का एक्सपोर्ट दोगुना हो चुका है । कहीं पर बीफ को बैन करने का वादा करते हैं । तो किसी राज्य में बीफ को दोगुना बढ़ाने का वादा कर रहे हैं । इसी तरह धर्म और आस्था के नाम पर जज्बातों से खिलवाड़ कर भोले भाले हिंदुओं को अपने कुपोषित और जड़ित मानसिकता का गुलाम बना रहे हैं।
धर्म को सदियों से मनुष्य को दिमागी रूप से गुलाम बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया, आज फिर इसी तरह का प्रयोग चल रहा है। नेता और कुछ धर्म के कथित ठेकेदार देश वाशियो को मानसिक गुलाम बनाने पर तत्त्पर है। देश कट्टरता भरे धर्मवाद और अपनो पर संदेह करते फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद के एक अंधे और गहरे कुए में जा रहा है। जहाँ से निकले में देश की नश्लो को नश्ले खत्म हो जाएंगी। कट्टरता का एक ऐसा उन्माद आएगा कि पालक झपकते ही सारी खुशियां , मौत के खौफनाक मंजर में बदल देगा। क्योकि ये राजनीति से प्रेरित ये धर्मिक कट्टरता हमे जिस राह पर ले जाने की कोसिस कर रही है उसकी मंजिल सिर्फ नफरत , घृणा और मौत है। उसकी मंजिल भाई के सामने तलवार लिए खड़ा हुआ भी है। उसकी मंजिल चारो तरफ चीख पुकार है। उसकी मंजिल हर तरफ बिखरी हुई लाशें है।
इस विचार के प्रभाव के शुरुआत अभी से हो चुकी है। दिन रात टीवी पर अखबारों में फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद और फ़र्ज़ी धर्म के नाम जहर परोसा जा रहा है। कुछ कथित धर्मभक्त और राष्ट्रभक्त देश के नाम पर भगवान के नाम शहीदों के नाम पर सेना के नाम पर दिन रात लोगो के मन मे नफरत और असहिष्णुता का चरस बो रहे है। और इस चरस को देश के लोगों में दिन रात अखबारों और टीवी के माध्यम से लोगों को खिलाया पिलाया जा रहा है । धर्म को बचाने की एक अंधी रेस शुरू कर दी गई है । जिसमें लोग बिना देखे कभी भगवान को बचाने तो कभी मंदिर बनाने के लिए दौड़ रहे हैं । और एक दूसरे का गला काट रहे हैं।
और ऐसा करवाने वाले नेता किसी ना किसी तरह अपने वोट के जुगाड़ में लगे हुए हैं। कभी अपने कार्यकर्ताओं द्वारा दी गई जान की कीमत वोट के बदले वसूल लेते हैं। तो कभी देश के वीर सैनिकों द्वारा की गई बहादुरी के नाम पर अपने आप को वोट मांग कर सर्वश्रेठ साबित करते हैं। तो कभी खुद को सेना से भी ऊपर बताते हुए यह कहते हैं कि देश हमारे हाथ में सुरक्षित है।
देश के सेना के पराक्रम को " फलाने की सेना" बताने वाले देश को चीन जैसी व्यवस्था में बदलना चाहते है। अपनी विचारधारा को सर्वश्रेष्ठ बता कर दूसरे की विचारधारा को "राष्ट्रविरोधी" और "धर्मविरोधी" बता रहे है। लेकिन कभी भी अपने पूर्वजो की आज़ादी के पहले की करतूतों को झांक कर नाइ देखा। हाल ही में "मार्गदर्शक मंडल" के एक महत्वपूर्ण सदस्य को इसी बात का ज्ञान अपने संगठन को देते हुए सुना गया।
हालांकि मार्गदर्शक मंडल ये महानुभाव आज वही फसल काट रहे हैं जो जहर भरी फसल उन्होंने शुरआत से बोई। इस जहर वाली फसल का परिणाम ही रहा की भगवान के नाम पर कुछ लोगो को उकसा और भड़का कर इन्होंने कानून व्यवस्था को तोड़ने और सामाजिक ढांचे को विध्वंश करने को भेज दिया। इरादा सर्फ एक था कि लोगो की भावनाओ और गोलीकांड में मारे गए लोगो के नाम पर वोट लेकर संगठन को मजबूत करें। और हुआ भी यही। भगवान और धर्म के नाम पर राजनीति करके ये संगठन 2 सीट से 280 सीट पर पहुच गए।
लेकिन कोई अब इनके दिल से पूछे कि 2 से 280 पर पहुँचाने वाले संगठन में अब इनकी पूछ कितनी है ? जिस संगठन को मजबूत करने के लिए इन्होंने देश मे इतनी मेहनत से धार्मिक उन्माद फैलाया, जितना मेहनत से लोगो के मन मे नफरत डाली, आज उसी तरह उनको बाहर भी कर दिया गया है। ये उनके कर्मों का एक फल ही हो सकता है। या ये भी कह सकते है कि जिस नफरत और घृणा का बीज उन्होंने बोया आज वो उसी के शिकार हो गए। वैसे उनके साथ जो कुछ भी हुआ गलत हुआ। एक बुजुर्ग के साथ जितना बुरा सुलूक उनके खुद के खड़े कोई गए संगठन में हुआ उतना किसी के साथ न हुआ।
ये वही नफरत की भावना ही थी । जिससे प्रेरित होकर साहेब ने खुद को ही महान और सर्वशक्तिमान समझ लिया और संगठन के संस्थापक को पहले किनारे और फिर बाहर कर दिया।
ये वही नफरत की भावना है जिसमे दूसरो के विचार को धर्मविरोधी और देशविरोधी बना देती है। जबकि विचारो , जातियों, और तरीको का संगम ही देश की असली आत्मा है। विविधता और वैचारिक, संस्कृति असमानता ही आपस मे मिल कर भारत बनाते है। कदम कदम पर धरती का रंग बदलना, भाषाओ का बदलना, तौर तरीकों को बदलना, रहने के तरीकों का बदलना, खाने पीने के तरीकों का बदलना ही असली भारत है। इसी असमानता में भारत की आत्मा बसती है।
वैसे भी लोगो को ये बात अब समझनी ही होगी कि देशभक्ति और ईश्वरश्रद्धा , बलिदानी और शांतिपूर्ण होती है। दंगाई और उपद्रवी नही। लफंगों, लम्पटों और लफंटरो ने आज देशभक्ति और ईश्वर भक्ति का ठेका ले रखा है। जिन्हें धर्म और देश से कोई लेना देना नही वो आज धर्म का ठप्पा और देशभक्ति की सर्टिफिकेट बांट रहे है। ये देश का दुर्भाग्य ही है कि ऐसे लफंगों की बात को देश के पढ़े लिखे लोगो का एक बड़ा तबका फॉलो भी करता है। और देश मे उपद्रव और बहशीपन की एक नई परिभाषा गढ़ने की कोसिस की जा रही है। जो भगत सिंह , सरदार पटेल , सुभाष बोस के सपनो वाले भारत की परिभाषा से कोसो दूर और बिल्कुल उसकी विपरीत है।
अगर अगल विचारो और अलग तरीको से जिनको इतनी ही समस्या है तो उनको पंडित भीमसेन जोशी महाराज का गाना "मिले सुर मेरा तुम्हारा " सुनना चाहिए। और साथ मे देखना भी चाहिए। न जाने कितने भाषाओ और न जाने संस्कृति का मिश्रण को दिखाता है या गाना। और इन्ही विभिन्नताओं ने देश को इतना खूबसूरत बनाया है। एक ऐसा खूबसूरत देश जिसमे धर्म की बंदिशो का कलंक नही है। जिसमे फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद नही होता। जिसमे कोई एक दूसरे से धार्मिक या देश प्रेमी होने का सबूत नही मांगता।
धर्म और राष्ट्रवाद को राजनीति को अड्डा बना दिया गया है। या यूं कहें कि राजनीति की अखाड़े में मुद्दों पर पिट चुके पहलवान अब धर्म और राष्ट्रवाद के मुर्गे राजनीति के अखाड़े में लड़ा रहे है । जैसे ही राजनीति में धर्म आता है तो आपस में नफरत, द्वेष, भड़काना, डराना सब कुछ चालू हो जाता है। क्योंकि राजनीति में चुनाव जीतने के लिए वोट चाहिए, वोट के लिए लोगों को कुछ न कुछ तो उनके दिमाग मे चढ़ाना ही पड़ता है। इसलिए सुनियोजित दंगे फसाद चालू हो जाते है। और दोनों तरफ भड़काने वाले लोग होते हैं। जो आग में घी डालते है, ताकि उनको और ज्यादा फायदा हो ।
यही फार्मूला अभी हमारे देश में भाजपा और आर एस एस ने लगा रखा है। इसीलिए जिन राज्यों में भाजपा की सरकारे है। वहॉ पर ज्यादा दंगे फ़साद हो रहे है और नये राज्यों में जहॉ भी भाजपा अपना जन आधार बढ़ाने की योजना बनाते हैं। उसमे सबसे पहला काम हिंदू, मुसलमान में विवाद कराना होता है । किसी भी तरह से हिन्दू मुस्लिम दंगे हो, उनको पता है कि मुस्लिम वोटर कम है और हिन्दू वोटर ज्यादा है, जितना आपसी में मार काट होगा, उतने ज्यादा हमारे वोट पक्के होगे । इसी सोच को लागू कर पूरे देश में चुनाव जीत रहे है।
इसके पीछे देश को लूटने का खेल पूँजीपति कर रहे है, यही पूँजीपति इन पार्टियों, संगठनों को धन मुहैया कराते है, ताकि आम जनता इन झगड़ो में लगी रहे और हम देश के संसाधनों, सम्पति, पैसा लूट सके ।
जब भी धर्म के नाम पर ज़हर फैलाया जाता है, भावनाओ को खुरेदा जाता है, सौगंधे खिलाई जाती है, आम आदमी के दिमाग को शून्य कर दिया जाता है, जिसके बाद उसका उपयोग किया जाता है, इस समय वह रोजी रोटी, घर परिवार, पैसा आमदनी, सब भूल जाता है, केवल दूसरे धर्म के लोग केवल दुश्मन दिखते है। समझ लीजिए आप और आम आदमी इनके असल जाल में फस गया है । ऐसे में वो वोट तो छोड़िए जान भी देने को तैयार रहता है, इसी प्रकार की मानसिकता बनाकर ये बाबा बैरागी, बच्चियो महिलाओं का शारीरिक शोषण करते है ।और कुछ अंधभक्त गौरवान्वित महसूस करते हैं कि हमें फल मिल गया, यही धार्मिक मानसिक गुलामी है, जिसको धर्म के नाम पर पैदा किया जाता है ।
1970 के दशक से पहले गैर-कांग्रेसी दलों ने जाति और धर्म के नाम पर मोर्चे बनाने शुरू किए। वो याद करते हैं कि 1970 के दशक में जब बीजेपी के पूर्ववर्ती जनसंघ ने जाति आधारित मोर्चे बनाने शुरू किए, तो पार्टी के भीतर ही इसका विरोध हुआ। लेकिन आज जनसंघ की वारिस बीजेपी ने स्थायी तौर पर पार्टी के भीतर जाति और धर्म के आधार पर तमाम मोर्चे बना लिए हैं। जनसंघ के इस कदम के जवाब में कांग्रेस ने भी एससी/एसटी और अल्पसंख्यक मोर्चे बनाए।
भारत के लोकतंत्र ने भले ही अपने सफर के सात दशक पूरे कर लिए हों, मगर आज भी जाति और पेशे के बीच नाता नहीं टूटा है। ये हकीकत है कि तमाम सियासी दल ऐसे सामाजिक बंटवारे का फायदा उठाकर सत्ता हासिल करते रहेंगे। खुद को 'पार्टी विद डिफरेंस' कहने वाली बीजेपी आज खुलकर जाति और धर्म की राजनीति करती है।दलितों और ऊंची जातियों को एकजुट करने की बीजेपी की कोशिश, असल में उसकी हिंदुओं को मुसलमानों के खिलाफ एकजुट करने की मुहिम है।
जाति और राजनीति के इस घालमेल को बीजेपी ने कांग्रेस से सीखा है।अब कांग्रेस इस खेल को दोबारा बीजेपी से ही सीखने की कोशिश कर रही है।भारत में जाति-धर्म की ऐसी राजनीति अभी आने वाले लंबे वक्त तक चलने वाली है। भारतीय लोकतंत्र में आम नागरिक का निजी व्यक्तित्व हार चुका है।भारतीयों की अगली पीढ़ी, 21वीं सदी में पैदा हुए और पहली बार वोट डालने वाले मतदाता हार चुके हैं । जिन युवाओं के पास रोजगार नहीं हैं, वो आज सियासी दलों के हाथों के मोहरे बन गए हैं।
बात साफ है यदि धर्म निरपेक्ष है तो किसी भी धर्म का पक्ष लेना गलत है, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, सिख या ईसाई। उनकी नजर में सभी धर्म और उनकी मान्यताएं समान होनी चाहिए। ऐसे में योग को किसी धर्म के तुष्टीकरण के चश्मे से देखना निहायत निंदनीय है। अब कांग्रेस सहित कथित अन्य धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल यही कर रहे हैं। वह सही बात को सही तरीके से लेने के बजाय धार्मिक तुष्टीकरण की राजनीति के जरिए अपना आधार बनाना चाहते हैं जो निहायत गलत और निंदनीय है।
हमारा देश करीब 800 साल तक मुस्लिम शासकों के अधीन रहा मगर तब भी हिंदू, सिख, ईसाई और बौद्ध धर्म फला-फूला।कुछ मुस्लिम शासकों ने क्रूर व्यवाहर किया तो वह भी नष्ट हुए और उनका राज्य भी। इतने कठोर और क्रूर मुस्लिम शासकों के समय भी धर्म को हानि नही हुई। और आज जब कि देश स्वतंत्र है तब लोगो को धर्म को खतरे में दिखा कर वोट मांगते हुए देखा जा सकता है। ये ठीक वैसा ही है जैसे कि एक इन्सुरेंस एजेंट मौत का खौफ दिखाकर पालिसी बेचकर अपना टारगेट पूरा कर लेता है। और अगर मौत हो भी गयी तो क्लेम करने वालो को ठेंगा दिखा कर दाँत चियार दिया जाता है।
हिन्दू देवी देवताओं और भगवान राम की रक्षा की ठेका लेने वाली पार्टी आज अपना वजूद भी उन्ही भगवान राम के नाम पर बना पाई है। भारतीय जनता पार्टी ने भगवान राम और उनके मंदिर बनवाने के नाम पर खूब वोट और धन बटोरा अपने चुनावो घोषणा पत्रो में 8 बार राम मंदिर बनाने का वादा करने वाली बीजेपी इस बार फिर से इसी वादे को लेकर उतरी है। भाजपा ने हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में हुई पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पहली बार अयोध्या में राम मंदिर के आंदोलन को समर्थन देने का फ़ैसला किया था।
राम मंदिर आंदोलन से भाजपा को राजनीतिक फ़ायदा हुआ इस पर कोई विवाद नहीं हो सकता पर मस्जिद गिरने का उसे राजनीतिक फ़ायदा हुआ, यह विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता।भाजपा से राजनीतिक छुआ-छूत ख़त्म हुई 1998 में, जब उसने अपने चुनाव घोषणापत्र से राम मंदिर, समान नागरिक संहिता और अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दे हटा दिए।केंद्र में छह साल उसकी सरकार रही पर पार्टी को राम और अयोध्या की याद आना तो दूर, उसने कुछ ऐसा किया कि विहिप और अशोक सिंघल की इस मुद्दे पर विश्वसनीयता ही ख़त्म हो गई।
जिस राम मंदिर मुद्दे ने भाजपा को दो लोकसभा सीटों से केंद्र की सत्ता तक पहुंचाया उस पर पार्टी ही नहीं पूरे संघ परिवार की विश्वसनीयता ख़त्म हो चुकी है । जिन अशोक सिंघल के नाम पर देश भर से लाखों लोग जुटते थे, उनके जीवित रहते ही उनकी अपील का असर ख़त्म हो गया था ।मंदिर समर्थकों को यक़ीन हो गया कि भाजपा के लिए राम मंदिर आस्था का नहीं महज़ वोट बटोरने का साधन है
यही कारण है कि 2002 में उत्तर प्रदेश में भाजपा पहले नंबर से तीसरे नंबर की पार्टी बन गई। 2004 के लोकसभा चुनाव में कभी 62 लोकसभा सीट तक जीतने वाली पार्टी नौ सीट पर सिमट गई।
ऐसा इसलिए मुमकिन हो सका क्योकि शायद हमसे पहले वाली पीढ़ी हमारे मुकाबले ज्यादा समझदार और संवेदनशील थी। उनकी धर्म और इंसानियत का सही मतलब मालूम था। वो बहके नही। क्योकि उस समय बहकाने वाले पत्रकार और न्यूज़ चैंनल नही थे। ऐसे नेता थे जो कोसिस कर रहे थे लेकिन लोग उन्हें कामयाब नही होने दिए।
खुद अयोध्या की स्थानीय जनता ने भी 1984 से लेकर अब तक राममंदिर के नाम पर बहुत कुछ देखा है। 1984-85 में सीखचों में कैद राम को मुक्त कराने के लिए निकाली गयी विश्व हिन्दू परिषद की रथयात्रा, तथा 1986 में अदालती आदेश से ताला खुलने के बाद रामजानकी विजय यात्रा से लेकर 1989 में शिलान्यास, 1990 में कारसेवा और 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस जैसी घटनाओं को अपनी आंखों के सामने देखने वाली अयोध्या की जनता अब बीजेपी के इन वादों को महज ड्रामा मान रही है। वह चाहती तो है कि राममंदिर का निर्माण हो जाये लेकिन अब इस प्रकार के नाटकों के लिए वह अपने को तैयार नहीं कर पा रही है। 1992 के बाद अयोध्या ने राहत की सांस भी ली थी कि रोज होने वाले हंगामें से कमसेकम मुक्ति मिलेगी। जब सारे मुद्दे हवा- हवाई हो गये तब फिर से अयोध्या की याद भारतीय जनता पार्टी को आयी है।
क्यो ? क्योकि पिछले 5 सालों में मोदी जी ने नेहरू को कोसने , और विदेश जाकर बिरयानी खाने के अलावा और कोई काम कायदे का किया नही है। अब ऐसे में उनको कुछ तो ऐसा चाहिए ही जिसको लेकर वो जनता के बीच मे जा सके। जिसको लेकर वो विरोधियो पर हमला कर सके। जिसको लेकर वो मुद्दों और उनके सवालो से बच सके। जिसको लेकर वो जनता को पुनः मूर्ख बना कर फिर से सत्ता हासिल कर सके। और इसके लिए उन्होंने भाजपा के सबसे पुराने और अब तक कारगर हथियार को निकाला और वो है " राम मंदिर निर्माण"।
राम मंदिर वह मुद्दा है, जो किसी भी सड़ी गली, मैली कुचैली , घटिया से भी घटिया पार्टी को सत्ता को शिखर पर पहुँचा देता है। दरअसल ये कमाल भगवान राम का है, जो मरी हुई पार्टी को भी जिंदा कर देते है। भगवान राम के लिए जो काम हनुमान जी ने संजीवनी लाकर किया था, वही काम राजीव गांधी ने राम मंदिर का मुद्दा बीजेपी को देकर किया।अगर हम इसे समझने की कोसिस करेंगे तो पाएंगे की राम मंदिर वो मुद्दा है, जिसे बीजेपी धरातल पर आने नही देगी। यानी मन्दिर बनने नही देगी। ऐसा इसलिए कि कोई भी समझदार सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को एक ही बार मे काट कर सारे अंडे नही निकलेगा। ठीक वैसे ही राम मंदिर बीजेपी के लिए सोने के अंडे वाली मुर्गी है। जिसे वो मंदिर बनवा कर मरना नही चाहते।
बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा से लेकर उत्तरप्रदेश के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने बयान दिया था कि अगर कोई विकल्प नहीं बचेगा तो केंद्र सरकार संसद में कानून लाएगी।हालांकि बाद में मौर्य ने कहा हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहे हैं। लोकसभा में हमारे पास बहुमत है, लेकिन हमारे पास बिल पास करने के लिए राज्यसभा में बहुमत नहीं है। इसलिए विकल्प चुनने का समय नहीं है।
बीजेपी राम मंदिर के नाम पर 30 सालों से वोट मांग रही है। 2014 में भी बीजेपी ने राम मंदिर के निर्माण का वादा किया था। हालांकि उस चुनाव में नरेंद्र मोदी ने विकास का नारा देकर भारी बहुमत हासिल किया था।लेकिन अब 2019 के चुनावी समर में उतरने से पहले राम फिर याद आने लगे हैं।अबतक का इतिहास रहा है कि बीजेपी जब भी ग्राउण्ड ज़ीरो पर फंसती दिखी है, उसने राम मंदिर का सहारा लिया है। ऐसे में बीजेपी के लिये गुजरात में राम मंदिर का मुद्दा डूबते को तिनके का सहारा जैसा है।
देश मे पिछले के समय से इसके लिए प्लेटफार्म तैयार किया जा रहा है। कट्टरत भरे भाषण देना, उकसाऊ हरकते करना। भगवान राम की शोभा यात्रा में सरेआम तलवारे और बंदूके लहराना। जय श्री राम के नारे को धमकी भरे लहजे में लगाना।हिंदुत्व के नाम पर हत्या करना, भगवान के नाम पर बलिदान मांगना , जबरजस्ती नारे लगवाना ये सब राम मंदिर के मुद्दे को उछाल कर लोगो की धार्मिक भावना के रास्ते दिल्ली की सत्ता तक पहुचने का पूरा प्लान सेट है। जबकि ये सच है कि इन लोगो का भगवान राम के मंदिर से वोट के सिवा और कुछ लेना देना नही है। और ये खुद ही राम मंदिर नही बनने देना चाहते। सिर्फ हर चुनाव में नाम इस्तेमाल करके कुर्सी कब्जियाने की आदत हो चुकी है इन लोगो की।
आप 1989 से लेकर 1998 तक के लोकसभा चुनावों में उसके घोषणापत्रों को देख लीजिए। सबमें प्रथम पृष्ठ का आरंभ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की व्याख्या से होता और विवादित स्थान पर राम मंदिर का निर्माण उसमें शामिल होता था। हालांकि 2009 और 2014 के चुनावों में यह अंतिम पृष्ठ पर चला गया।मंदिर के नाम और 20 हज़ार करोड़ से भी ज्यादा रकम चंदे के रूप में अर्जित की गई। खुद भाजपा ने 700 करोड़ की हाई टेक आफिस बना लिया। जो किसी सेवन स्टार होटल से कम नही है। भाजपा में नेता और राम मंदिर के नाम पर राजनीति करने वाले साररे नेताजी लोगो की दिन दूनी रात चौगुनी धनिक बृद्धि हुई है। खुद महलो में रह रहे है। लेकिन ट्रिपल तलाक , और एस सी ,एस टी एक्ट की तर्ज़ पर एक अध्यादेश लाकर मंदिर बनाने का कानूनी राश्ता साफ नही कर रहे हैं।
करेंगे भी कैसे, सोने की अंडा देने वाली मुर्गी को एक बार मे हलाल करना बेवकूफी होती है। और बीजेपी के लिए भगवान राम का मंदिर सोने के अंडे देने वाला मुर्गी है। ये बात देश के सभी सभी वर्ग के लोगो को अब समझनी होगी। खास कर नौजवानों को। नौजवानों पर धार्मिक कट्टरता का जाल फेका गया है। उनको इस जाल से बाहर निकलना होगा। धर्म को राजनीति से अलग करना होगा। धर्म को निजि विषय मानना होगा, राजनीति से अपने जीवन के सवाल करो, बेरोजगारी , शिक्षा स्वास्थ्य, किसानों की फसलों के दाम, बजट में जन कल्याण के काम, परमानेन्ट नौकरी, सरकारी भर्ती, फुटकर व्यापार में विदेशी कंपनियों के लिए क्यों खोला गया, जैसे सवाल उठाना होगा, इन्ही सवालो पर वोट करना होगा।केवल तभी देश आने वाली बर्बादी से बाख पायेगा। वरना आने वाली पीढ़ियों गुलाम बन जाएंगी।
इसी तरह गाय को भी हिंदू धर्म में माता का दर्जा स्वीकार्य है ।और इसी का फायदा उठा कर के भारतीय जनता पार्टी और उनके सहयोगी दलों ने लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया । गाय के नाम पर देश में ना जाने कितनी हत्याएं हो गई । प्रधानमंत्री ने "गुलाबी क्रांति" का जिक्र कर इसे खत्म करने का वादा किया था । लेकिन प्रधानमंत्री के आने के बाद भारत में गुलाबी क्रांति दोगुनी हो चुकी है । और देश से "गुलाबी वस्तुओं " का एक्सपोर्ट दोगुना हो चुका है । कहीं पर बीफ को बैन करने का वादा करते हैं । तो किसी राज्य में बीफ को दोगुना बढ़ाने का वादा कर रहे हैं । इसी तरह धर्म और आस्था के नाम पर जज्बातों से खिलवाड़ कर भोले भाले हिंदुओं को अपने कुपोषित और जड़ित मानसिकता का गुलाम बना रहे हैं।
धर्म को सदियों से मनुष्य को दिमागी रूप से गुलाम बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया, आज फिर इसी तरह का प्रयोग चल रहा है। नेता और कुछ धर्म के कथित ठेकेदार देश वाशियो को मानसिक गुलाम बनाने पर तत्त्पर है। देश कट्टरता भरे धर्मवाद और अपनो पर संदेह करते फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद के एक अंधे और गहरे कुए में जा रहा है। जहाँ से निकले में देश की नश्लो को नश्ले खत्म हो जाएंगी। कट्टरता का एक ऐसा उन्माद आएगा कि पालक झपकते ही सारी खुशियां , मौत के खौफनाक मंजर में बदल देगा। क्योकि ये राजनीति से प्रेरित ये धर्मिक कट्टरता हमे जिस राह पर ले जाने की कोसिस कर रही है उसकी मंजिल सिर्फ नफरत , घृणा और मौत है। उसकी मंजिल भाई के सामने तलवार लिए खड़ा हुआ भी है। उसकी मंजिल चारो तरफ चीख पुकार है। उसकी मंजिल हर तरफ बिखरी हुई लाशें है।
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