जहां भगत सिंह ने पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोने की कोशिश की, वहीं पर आरएसएस ने हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के साथ मिलकर कि देश को धर्म के नाम पर दो टुकड़ों में बांटने का एक शानदार प्लेटफार्म तैयार किया । जहां भगत सिंह देश को सामाजिक व्यवस्था के आधार पर बराबरी का माहौल बनाना चाहते थे , वही आरएसएस ने धर्म और जाति के नाम पर लोगों में एक दूसरे से दूरियां पैदा की । जहां भगत सिंह समाजवाद के सिद्धांतों को लागू कर देश में खुशहाली और तरक्की लाना चाहते थे , वही आरएसएस धर्मवाद और जातिवाद को लागू कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने पर लगी थी। जहां भगत सिंह ने देश के लोगों में प्यार और अमन चैन बांटने की कोशिश की , वहीं आरएसएस ने लोगों के बीच में धार्मिक उन्माद कराकर नफरत और गुस्सा भर दिया।
सोशल मीडिया पर और अपने आस पास कई मित्रो को ये बहस करते सुना है कि भारतीय रुपये पर सिर्फ गांधी की फ़ोटो क्यों लगती है, सरदार भगत सिंह की फ़ोटो क्यों नही लगती। हालांकि मुझे भी ऐसा ही लगता है । लेकिन जब हम ये सोचते है तो हम क्यों भूल जाते है कि सरदार उन लोगो मे से नही थे जिनको ये जरूरत है । वैसे भी भारतीय रुपये पर महात्मा गांधी की फोटो लगाकर, उनके फ़ोटो की इज़्ज़त सिर्फ उस नोट तक सीमित रख कर हमने हो बेइज़्ज़ती गांधी जी के साथ किया , अब मुझे ये नही लगता है कि वैसा ही कुछ सरदार भगत सिंह के साथ करने की जरूरत है।
भगत सिंह के नाम पर हल्ला करने वालो में से किसी को भी रियल भगत सिंह का अनुसरण करते नही देखा। बहुत ही कम लोग मैने देखे जो सही वाले भगत सिंह को जानते है। ये वही लोग है जिनसे मैंने भगत सिंह को जानना शुरू किया।
देश मे भगत सिंह को हथियार , फांसी का फंदा, मौत, हिंसा, उन्माद और कठोरता का सिम्बल बना दिया गया है। जो आरएसएस आज भगत सिंह के नाम की दुहाई दे रही है वही आरएसएस ने कभी भी भगत सिंह का समर्थन नही किया। हिन्दु महासभा ने हरसंभव कोसिस करके भगत सिंह के विचारों के विपरीत हवा चलाई। भगत सिंह के नाम पर ढोंग करने वालो ने सच्चे भगत सिंह को कभी भी सामने नही आने दिया। और ये कोसिस आज तक जारी है।
ये सब देखने के बाद कई बार मन में ये प्रश्न उठता है -
क्या भगत सिंह की कहानी का अंत सिर्फ फांसी ही है ?
क्या भगत सिंह की डेस्टिनी बंदूक और गोलियों के साथ जुड़ी हुई है ?
क्या भगत सिंह आज की पीढ़ी के लिए हिंसा की पर्यायवाची है ?
क्या भगत सिंह की किस्मत में ही एक हिंसक व्यक्ति का तमगा दे दिया गया है ?
क्यों भगत सिंह को हर बार फांसी के फंदे, बंदूक या गोलियों या बम के साथ दिखाया जाता है ?
अगर भगत सिंह की कहानी का अंत फांसी ही है , तो फिर उन बयानों का क्या ? उन किताबों का क्या, जो भगत सिंह ने अखबारों में जेल में और कोर्ट में लिखे और दिए ?
क्या उन विचारों का हमारे लिए भगत सिंह से कोई लेना-देना नहीं है ?
क्या हम इतना भी नहीं सोच सकते कि भगत सिंह सिर्फ गोली बंदूक या फांसी के फंदे तक ही सीमित क्यों है ?
जबकि भगत सिंह एक जननायक बन चुके थे। पूरे देश में उनके लिए लोग धरना प्रदर्शन और दुआएं कर रहे थे । और आज भी देश में भगत सिंह को हर कोई अपना आदर्श मानता है । तो क्या लोगों के आदर्श को सिर्फ फांसी के फंदे और बंदूक की गोलियों तक ही सीमित रखना सही है ?
यह बात सही है कि भगत सिंह के जीवन का कुछ हिस्सा बंदूक की गोली और फांसी के फंदे के साथ रहा है। लेकिन वह पूरा जीवन नहीं रहा है । भगत सिंह का पूरा जीवन वैचारिक और तार्किक रहा है। वह किताबों और लेखों में ज्यादा विश्वास करने वाले व्यक्ति थे । और यकीन मानिए भगत सिंह ने जितना नुकसान अंग्रेजों का बंदूक से और पिस्तौल से नहीं किया , उससे कई हजार गुना ज्यादा नुकसान अपने विचारों और अपने लेखों से किया ।
देश मे वर्तमान स्थिति में दो भगत सिंह बने हुए है। एक वो भगत सिंह जो लोगो के टी शर्ट और टोपी पर नज़र आते है। जिस भगत सिंह को बिना हथियारों के कही भी नही दिखाया जाता है। जिस भगत सिंह को कुछ सोचने समझने , सुनने की बजाय मार काट और हिंसा में रुचि दिखाया गया है। जिस भगत सिंह को अपने मतलब के लिए गांधी जी का दुश्मन तक दिखाया जाता है। और दूसरे वाले भगत सिंह वो है जो देश मे लगभग सबसे अनजान है। वो भगत सिंह जो दूरदर्शी थे। जिन्होंने सिर्फ आज़ादी नही बल्कि आज़ादी के बाद के समाज की परिकल्पना किया। ठीक वैसे ही जैसे गांधी जी ने किया। वो भगत सिंह जिसको सिर्फ आज़ादी नही बल्कि देश की सामाजिक व्यवस्था की चिंता थी। जो धर्म और जाति की नाम पर होने वाले ढोंग भलीभांति समझते थे।
भगत सिंह को विचारहीन और तर्कहीन बनाबकर रखने की कोसिस आज़ादी से पहले से चल रही थी। और इसी लिए आज़ादी के 70 साल के बाद भी उनके पूरे लेख और किताबे बाहर नही आ पाई गई। जितने वैचारिक विरोध भगत सिंह के कांग्रेस से थे उससे कही ज्यादा वैचारिक और प्रायोगिक मतभेद उनके आरएसएस और हिन्दू महासभा से थे। और हिन्दू महासभा से सरदार भगत सिंह को इस कदर नफरत थी कि जब लाला लाजपत राय ने हिन्दू महासभा की सदस्यता लिया तो भगत सिंह ने लाला जी से यहां तक कहा कि "आज देश का बड़ा नेता खत्म हो गया' ।
और यही वजह रही कि आरएसएस और हिन्दू महासभा को भगत सिंह फूटी आंख नही सुहाए।
जहाँ वैचारिक मतभेद होने के बाद भी काँग्रेस के कई बड़े नेता जेल में जाकर भगत सिंह से मिले और उनके साथियो की स्थिति से पूरे देश को अवगत कराया वही आरएसएस का कोई भी नेता भगत सिंह को पूछने तक नही गया। उल्टा इन्होंने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर ,भगत सिंह के न होने का फायदा उठाया और देश को पुनः धर्मवाद की आग में झोंक दिया । जिसका नतीजा पूरी दुनिया ने 1947 के बटवारे के रूप में देखा।
जहा आरएसएस , मुस्लिम लीग के साथ मिलकर देश मे धार्मिक कट्टरता और विभाजन की राजनीति कर रही थी वही सरदार भगत सिंह देश को समाजवाद की बगिया से हरा भरा करना चाहते थे। वो देश को पूरी तरह से समाजवाद में ढाल कर एक ऐसी व्यवस्था का छत्र तैयार करना चाहते थे जो सभी के लिए , सभी के साथ , सबका काम करे। जिसके लिये सब बराबर हो और जो सबके लिए बराबर हो , ठीक वैसे ही जैसे समाजवाद की मुख्यधारा के उद्देश्य है।
कांग्रेस , नेहरू , गांधी को भगत सिंह के खिलाफ दिखा दिखा कर अपनी राजनीतिक भूमिका बनाने वाले आरएसएस के लोग ये भूल जाते है कि भगत सिंह ने अपने कई लेखों में इनको सीधे सीधे इनकी औकात दिखाई। "किरती" पत्रिका में "विद्रोही" नाम से लेख लिखने वाले सरदार भगत सिंह ने धर्म के नाम देश मे अस्थिरिता फैलाने की वजह से कई बार हिन्दु महासभा को बेनकाब किया। ये बात आरएसएस ,हिन्दू महसभा और कांग्रेस तीनो अच्छे से जानते थे कि अगर भगत सिंह इसी तरह लोगो की सोच बनते चले जायेंगे तो हिंदुस्तान की राजनीति उनके लिए न के बराबर की बचती।
उस समय के तत्कालिक राजीनीति परिवेश को देखे तो जहाँ कांग्रेस आज़ादी की लड़ाई एक ऐसे ढर्रे के साथ लड़ रही थी जो शायद हमें आज का वर्तमान नही दे पाता। तो ,आरएसएस और हिन्दु महासभा इससे उलट धर्म , जात पात और विभाजन की राजनीति कर अपना जमीन बनाने के कोसिस कर रही थी। वही इन सब से अलग सरदार भगत सिंह देश को एक पूर्ण सामाजिक , आर्थिक रूप से रचनात्मक समाज वाली आज़ादी का तोहफा देने का सपना संजोये बैठे थे।
जहा हमने 1937 में हिन्दुमहासभा के अहमदाबाद अधिवेशन के अध्यक्ष और अभी की बीजेपी और प्रधानमंत्री की पूज्यनीय , अंग्रेजो से 22 माफीनामे लिखने वे परम "वीर" सावरकर को ये कहते पाया कि " 'फ़िलहाल भारत में दो प्रतिद्वंदी राष्ट्र अगल-बगल रह रहे हैं। कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मान कर गंभीर ग़लती कर बैठते हैं कि हिन्दुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रूप ढल गया है या केवल हमारी इच्छा होने से इस रूप में ढल जाएगा। इस प्रकार के हमारे नेक नीयत वाले पर कच्ची सोच वाले दोस्त मात्र सपनों को सच्चाई में बदलना चाहते हैं। इसलिए वे सांप्रदायिक उलझनों से अधीर हो उठते हैं और इसके लिए सांप्रदायिक संगठनों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। लेकिन ठोस तथ्य यह है कि तथाकथित सांप्रदायिक प्रश्न और कुछ नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता के नतीजे में हम तक पहुंचे हैं। हमें अप्रिय इन तथ्यों का हिम्मत के साथ सामना करना चाहिए. आज यह क़तई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एकता में पिरोया हुआ राष्ट्र है, इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्यतः दो राष्ट्र हैं, हिंदू और मुसलमान।’ सावरकर आरएसएस के वह विचारक है जो हिन्दू और मुसलमान के दो अलग अलग राष्ट्र को बनाने का पूरा प्रयास करता है "।
वही भगत सिंह को नौजवान भारत सभा के अधिवेशन में ये कहते हुए पाया कि " "जो चीज आजाद विचारों को बर्दाश्त नहीं कर सकती उसे समाप्त हो जाना चाहिए, दुनिया के नौजवान क्या-क्या नहीं कर रहे हैं। और हम भारतवासी .... हम क्या कर रहे हैं ? पीपल की एक डाल टूटते ही हिंदुओं की धार्मिक भावनाएं चोटिल हो उठते हैं , बुतों को तोड़ने वाले मुसलमानों के ताजिए नाम के कागज के बूत के पन्ने का एक कोना फटते ही अल्लाह का प्रकोप जाग उठता है। और फिर वह नापाक हिंदुओं के खून से कम किसी और चीज से संतुष्ट नहीं होता । मनुष्य को पशुओं से अधिक महत्व देना जाना चाहिए । लेकिन यहां भारत में लोग पवित्र पशुओं के नाम पर एक दूसरे का सिर फोड़ते हैं।"
सरदार भगत सिंह शायद वक़्त से पहले ही जिन्ना और सावरकर के एक जैसे विचारो को पूरी तरह भांप गए थे। इसी लिए वो लिखते है कि " धर्मों ने इस देश का बेड़ा गर्क कर रखा है। पता नहीं इस देश को धर्म के इस जंजाल से कब मुक्ति मिलेगी ? इस समय देश के सांप्रदायिक दंगों में सिर्फ दो लोगों का हाथ है, एक हैं नेता और दूसरे हैं अखबार। इस समय देश के नेताओं ने ऐसी लीद की हुई है कि चुप ही भली । सेेभी नेता धार्मिक और सांप्रदायिक कट्टरता की अंघंत में बह चले हैं । और दूसरे सज्जन है जो सांप्रदायिक दंगो को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं। वह हैं हमारे अखबार। पत्रकारिता का व्यवसाय जो किसी समय में बहुत ही ऊंचा समझा जाता था , वह आज बहुत ही गंदा हो चुका है । यही कारण है कि भारत की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं । और दिल में सवाल उठता है कि हमारे इस भारत का आखिर में बनेगा क्या ? "
सरदार भगत सिंह ने बिना डरे पूर्ण रूप से मुखर होकर हिन्दु महासभा के विचारों का खुलेआम विरोध किया। वैसे भी सरदार भगत सिंह जब हिन्दू महासभा के आकाओ से नही डरे तो चेलो से डरने की कोई बात ही नही है। और आज उसी भगत सिंह के नाम पर युवा वोट को अपनी तरफ लेने की एक नाकाम कोसिस बीजेपी कर रही है। जबकि सच्चाई उससे बहुत परे ही।
1929 से 1931 के बीच तमाम सुर्खियों का केंद्र शहीद भगत सिंह ही रहे। महात्मा गांधी से लेकर जवाहर लाल नेहरू तक हर राष्ट्रीय नेता ने भगत सिंह के मुकदमे के बारे में बयान जारी किए और मुकदमे की सुनवाई के दौरान टिप्पणियां की। लेकिन उस दौर का एक भी आरएसएस नेता सामने नहीं आया जिसने भगत सिंह की फांसी के खिलाफ एक भी शब्द बोला हो। गोलवलकर और सावरकर दोनों की इस मामले में चुप्पी शक पैदा करती है। ये दोनों भी स्वंयभू क्रांतिकारी थे, लेकिन इन्होंने भगत सिंह की फांसी का विरोध नहीं किया।
यहां तक कि शोधकर्ताओँ को पेरियार का भी एक बयान मिलता है जिसमें उन्होंने भगत सिंह को फांसी दिए जाने की निंदा की थी, लेकिन संघ से जुड़े किसी व्यक्ति का कोई भी बयान या टिप्पणी तलाशने पर भी नहीं मिलती। ये विडंबना नहीं तो क्या है कि इन्हीं भगत सिंह को आरएसएस आज अपना आदर्श बनाने और उनकी विरासत को अपनाने बनाने की कोशिश कर रही है। भगत सिंह दो साल तक जेल में रहे और इस दौरान उन्होंने समाचारपत्रों और अपने साथियों को लंबे लंबे बेशुमार पत्र लिखे। जब भगत सिंह और उनके साथियों ने असेंबली में बम फेंके थे तो टाइम्स ऑफ इंडिया की हेडलाइन थी, “रेड्स स्टॉर्म दि असेंबली”।
और ये भी तथ्य है कि भगत सिंह द्वारा दिया गया नारा, “इंकिलाब जिंदाबाद” बेहद लोकप्रिय हुआ था। इसलिए इस बात में कोई शक नहीं रह जाता कि भगत सिंह अपने विचारों से एक कम्यूनिस्ट थे और उनके लेखन में समाजवादी विचार ही झलकते थे। मॉडर्न रिव्यू, ट्रिब्यून, आनंदबाजार पत्रिका, हिंदुस्तान टाइम्स और उस दौर के सभी दूसरे प्रमुख अखबारों में भगत सिंह के लेख प्रमुखता से प्रकाशित भी होते थे। यहां तक कि असेंबली में उन्होंने जो पर्चे फेंके थे, वे भी लाल रंग के ही थे। ये भी ध्यान देने की बात है कि देस के अलग-अलग कोनों से प्रकाशित होने वाले सभी अखबार भगत सिंह के संदेशों को मान्यता देने और उन्हें प्रमुखता से छापने में एक थे।
जहाँ तब आरएसएस ने सरदार भगत सिंह और उनके साथियों की कोई मदद नही किया न ही किसी तरह का कोई समर्थन दिया वही 2007 में पहली बार संघ के हिंदी मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ में भगत सिंह पर विशेष अंक निकाला गया। जबकि आज़ादी और विभाजन से पहले के सभी लेखों में क्रांतिकारियों के समर्थन में आरएसएस के किसी भी नेता का कोई कोई लेख नही मिलता। जबकि संघ की किताबों में ऐसी कई कहानियां हैं जो ये दिखाती है कि संघ सरदार भगत सिंह और उनके साथियों को लेकर किस तरह की सोच रखता था। और वो भगत सिंह को क्या समझता था।
मधुकर दत्तात्रेय देवरस, संघ के तीसरे प्रमुख, जिन्हें बालासाहब देवरस के नाम से भी जाना जाता है, ने तो एक ऐसी घटना का जिक्र भी किया है, जहां हेडगेवार ने उन्हें और उनके अन्य साथियों को भगत सिंह और उनके कामरेड साथियों के रास्ते पर चलने से बचाया था। यहां भी दिलचस्प बात यह है कि संघ ने खुद ही इस घटना को प्रकाशित किया था।
उन्होंने लिखा कि ‘कॉलेज की पढ़ाई के समय हम सामान्यत: भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के आदर्शों से प्रभावित थे। कई बार मन में आता कि भगत सिंह का अनुकरण करते हुए हमें भी कोई न कोई बहादुरी का काम करना चाहिए। हम आरएसएस की तरफ कम ही आकर्षित थे क्योंकि वर्तमान राजनीति, क्रांति जैसी जो बातें युवाओं को आकर्षित करती हैं, पर संघ में कम ही चर्चा की जाती है । जब भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी गई थी, तब हम कुछ दोस्त इतने उत्साहित थे कि हमने साथ में कसम ली थी कि हम भी कुछ खतरनाक करेंगे और ऐसा करने के लिए घर से भागने का फैसला भी ले लिया था। पर ऐसे डॉक्टर जी (हेडगेवार) को बताए बिना घर से भागना हमें ठीक नहीं लग रहा था तो हमने डॉक्टर जी को अपने निर्णय से अवगत कराने की सोची और उन्हें यह बताने की जिम्मेदारी दोस्तों ने मुझे सौंपी।
हम साथ में डॉक्टर जी के पास पहुंचे और बहुत साहस के साथ मैंने अपने विचार उनके सामने रखने शुरू किए। ये जानने के बाद इस योजना को रद्द करने और हमें संघ के काम की श्रेष्ठता बताने के लिए डॉक्टर जी ने हमारे साथ एक मीटिंग की। ये मीटिंग सात दिनों तक हुई और ये रात में भी दस बजे से तीन बजे तक हुआ करती थी। डॉक्टर जी के शानदार विचारों और बहुमूल्य नेतृत्व ने हमारे विचारों और जीवन के आदर्शों में आधारभूत परिवर्तन किया। उस दिन से हमने ऐसे बिना सोचे-समझे योजनाएं बनाना बंद कर दीं। हमारे जीवन को नई दिशा मिली थी और हमने अपना दिमाग संघ के कामों में लगा दिया।"
आरएसएस के ही दस्तावेजों में ही कई प्रमाण हैं जो बताते हैं कि आरएसएस भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और उनके क्रांतिकारी साथियों के आंदोलनों की आलोचना किया करता था। ‘बंच ऑफ थॉट्स', जिसे संघ में पवित्र ग्रंथ माना जाता है । इसके कई अंश हैं जहां उन्होंने सभी क्रांतिकारियों के त्याग और उनके शहादत के परंपरा की निंदा की है।
‘इस बात में तो कोई संदेह नहीं है कि ऐसे व्यक्ति जो शहादत को गले लगाते हैं, महान नायक हैं पर उनकी विचारधारा कुछ ज्यादा ही दिलेर है। वे औसतव्यक्तियों, जो खुद को किस्मत के भरोसे छोड़ देते हैं और डर कर बैठे रहते हैं, कुछ नहीं करते, से कहीं ऊपर हैं। पर फिर भी ऐसे लोगों को समाज के आदर्शों के रूप में नहीं रखा जा सकता. हम उनकी शहादत को महानता के उस चरम बिंदु के रूप में नहीं देख सकते, जिससे लोगों को प्रेरित होना चाहिए। क्योंकि वे अपने आदर्शों को पाने में विफल रहे और इस विफलता में उनका बड़ा दोष है। (बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बंगलुरु, 1996, पेज- 283)
गोलवलकर आरएसएस कैडर को यह बताते हैं कि केवल उन व्यक्तियों का सम्मान होना चाहिए जो अपने जीवन में सफल रहे हैं। वो लिखते है कि ‘यह तो स्पष्ट है कि जो लोग अपने जीवन में विफल रहे हैं, उनमें कोई गंभीर खोट होगा। तो कोई ऐसा जो खुद हारा हुआ है, दूसरों को रास्ता दिखाते हुए सफलता के रास्ते पर कैसे ले जा सकता है?’ (बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बंगलुरु, 1996, पेज- 282)।
अगर आज बीजेपी और आरएसएस के लोग भगत सिंह के नाम पर राजनीति करना ही चाहते हैं तो यह बात भी सामने लानी ही होगी कि सरदार भगत सिंह की फांसी की सजा जिस गवाह शोभा सिंह के गवाही के आधार पर दी गई थी । उस गवाह का बेटा खुशवंत सिंह , के वर्षों तक आरएसएस की की मुख्य पत्रिका "पाञ्चजन्य" का कई वर्षों तक संपादक बना रहा । और उसने अपने पूरे जीवन भर अपने गद्दार बाप को आरएसएस के प्लेटफार्म से देशभक्त और ईमानदार साबित करने की कोशिश किया। और आरएसएस ने उसे ऐसा करने दिया , क्योकि इन दोनों की सोच मिलती जुलती थी।
आप लोगों की जानकारी के लिए भी बता दूं कि खुशवंत सिंह का ट्रस्ट हर साल शोभा सिंह मेमोरियल लेक्चर का भी आयोजन करता है , जिसमें बड़े-बड़े लोग बिना शोभा सिंह की असलियत जाने या जानबूझकर उसकी तस्वीर पर माला चढ़ाते हैं । और आज कल जो संघ शहीदे आज़म की शहीदी पे अपनी चुनावी रोटियाँ सेक रहा है , इसी ने भगत सिंह जी के हत्यारों के वंसजो को आश्रय दिया जिन्होंने शहीदेआजम का अपमान करने का भरसक प्रयास किया ।
जहां भगत सिंह ने पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोने की कोशिश की, वहीं पर आरएसएस ने हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के साथ मिलकर कि देश को धर्म के नाम पर दो टुकड़ों में बांटने का एक शानदार प्लेटफार्म तैयार किया । जहां भगत सिंह देश को सामाजिक व्यवस्था के आधार पर बराबरी का माहौल बनाना चाहते थे , वही आरएसएस ने धर्म और जाति के नाम पर लोगों में एक दूसरे से दूरियां पैदा की । जहां भगत सिंह समाजवाद के सिद्धांतों को लागू कर देश में खुशहाली और तरक्की लाना चाहते थे , वही आरएसएस धर्मवाद और जातिवाद को लागू कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने पर लगी थी। जहां भगत सिंह ने देश के लोगों में प्यार और अमन चैन बांटने की कोशिश की , वहीं आरएसएस ने लोगों के बीच में धार्मिक उन्माद कराकर नफरत और गुस्सा भर दिया।
इसके बाद इन लोगो ने मिलकर अपनीसुविधा अनुसार एक ऐसे भगत सिंह की रचना कर दी, जो इनके मतलब से इनकी विरोधी पार्टियों के लिए जनता के मन में नफरत भरदे। उन्होंने उस भगत सिंह को ऐसा बनाया जो असली वाले भगत सिंह से कोसों दूर था। उदाहरण के तौर पर इनका वाला भगत सिंह बहुत गुस्से वाला, किसी की ना सुनने वाला , तर्क हीन , और सिर्फ हिंसा में विश्वास रखने वाला था। जबकि सही वाले भगत सिंह बेहद हंसी मजाक , तर्क वितर्क करने वाले, शांत स्वभाव के ऐसे युवा थे जो हंसी मजाक के साथ साथ अपनी जिंदगी के सारे पहलुओं को छूते हुए चले आये। जिन्होंने से असेंबली में बम फोड़ने से पहले रसगुल्ले खाये। जिन्होंने जेल में सिगरेट खत्म होने पर चिट्ठी लिख कर सिगरेट का पैकेट मंगवाया।
आरएसएस , हिन्दू महासभा ,और भारतीय जनता पार्टी ने हर वो एक काम किया और हर उस एक विचारधारा को जन्म दिया , जिस काम और जिस विचारधारा के खिलाफ भगत सिंह ने आवाज उठाई। अगर हम यह सोचते हैं कि भगतसिंह सिर्फ अंग्रेजो के खिलाफ थे, तो हम बेहद गलत जा रहे हैं । भगत सिंह सिर्फ अंग्रेजो के खिलाफ नहीं थे । बल्कि वह इस तरह के " भूरे" लोगों के भी खिलाफ थे। उन्होंने जो बात कही कि "काले साहब चले जाएंगे और भूरे साहब आ जाएंगे" , ऐसे ही लोगों के लिए कही थी । क्योंकि उन्होंने उसी समय आरएसएस और हिंदू महासभा की विचारधारा की नस को समझ लिया था।
और वो ये जानते थे कि यह लोग आगे जाकर देश में किस तरह का माहौल बना सकते हैं। और देश को कितना गंदा कर सकते हैं । भगत सिंह को इनकी विचारधारा का सबसे सटीक उपचार अगर कुछ मिला तो वह था , समाजवाद । इसीलिए भगत सिंह ने अपने सारे लेख समाजवाद पर लिखने शुरू किए । उन्होंने अपना सारा ध्यान और अपनी सारी वैचारिक शक्तियां समाजवाद को समझने और उसे लागू करने में लगा दिया।
सरदार भगत सिंह ने समाजवाद को भारत के लोगो से परिचित कराया, हालांकि कांग्रेस भी उस समय समाजवाद सिद्धांत पर चल रही थी, लेकिन हम ये कह सकते है का कांग्रेस समाजवाद एक सीमित सीमा तक ही था, या वो अपने समाजवाद को प्रभावी ढंग से पेश नही किया । हो सकता है कि कांग्रेस की अपनी वजहें रही हो। लेकिन सरदार भगत सिंह व शख्स थे जिन्होंने अपने जेल अवधि के तीन साल के अंदर समाजवाद को बेहद प्रभावी तरीके से और बेहद आक्रमक तरीक़े से रखा। उन्होने ये बात लोगो के सामने साफ कही की यदि समाजवाद और इंकलाब लाना है तो साम्रज्यवाद को पूरी तरह से खत्म करना होगा।
अपनी जेल की अवधि के दौरान समाजवाद सिद्धांत को अच्छी तरह जानने एवं समझने के बाद खुद सरदार भगत सिंह जी इस चीज को स्वीकार किए कि उन्होंने स्काट को मार कर के गलती की, क्योंकि क्रांति कभी गोली से नहीं आती । क्रांति हमेशा विचारों से आती है । और अपने जीवन के अंतिम समय में सरदार भगत सिंह ने यही करने की कोशिश की । जिसमें वह पूरी तरह सफल हुए। उन्होंने अपने विचारों से पूरे देश में ऐसी अलख जगाई की लोग कांग्रेस और महात्मा गांधी को भूलकर सिर्फ भगत सिंह के पीछे जाने लगे।
दरअसल भगत सिंह के साथ साथ यह करिश्मा उस सिद्धांत का भी था जिसे भगत सिंह ने अपनाया था। समाजवाद का सिद्धांत भगत सिंह के रग रग में बस चुका था। समाजवाद के ऊपर कितने लेख न जाने कितने लेख और एक दो किताबें भी लिख चुके भगत सिंह को आज हम सही मायने में समाजवाद को परिभाषित करते हुए देख सकते हैं।
सरदार भगत सिंह ये बात भलीभांति समझ चुके थे कि , जिस वैचारिक जहर को आरएसएस हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग ने मिलकर देश के लोगों में एक नासूर की तरह भर दिया है। उस जहर का इलाज , उस नासूर का इलाज सिर्फ और सिर्फ समाजवाद है। जो लोगों को एक दूसरे से नफरत नहीं एक दूसरे से प्यार करना सिखाता है। और भगतसिंह भी तो यही चाहते थे कि, आजादी के बाद देश सिर्फ "आजाद" ना हो । बल्कि देश "समाजवाद की संपूर्ण संरचना के साथ आजाद' हो ।
जय हिंद
जय समाजवाद
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