बाबा साहब ने जो आरक्षण संविधान में बनाया था वह सिर्फ सामाजिक आधार पर था । क्योंकि उस समय जाति विशेष और वर्ग विशेष के लोगों को टारगेट करके उन्हें पीछे धकेला जाता था। लेकिन अब प्रधानमंत्री ने आर्थिक आधार पर आरक्षण लाकर एक नई बहस को जन्म दे दिया है। आर्थिक आधार पर आरक्षण का मतलब यह होता है कि कोई जानबूझकर भी कमाई नहीं करेगा तो भी उसे आरक्षण के द्वारा मदद दी जाएगी । और कमाल की बात यह है कि ढाई लाख रुपए सालाना कमाने वाला टैक्स भरेगा और लगभग सत्तर हजार महीना कमाने वाला सामान्य जाति वाला व्यक्ति गरीब लाकर आरक्षण का लाभ उठाएगा। अगर सच में आरक्षण देना ही है तो "जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी" के सिद्धांत पर जातियों के हिसाब से आरक्षण उनके प्रतिशत में बांट दिया जाए।
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने सामान्य श्रेणी में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगों को नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 10 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया है। कैबिनेट ने भी इस पर मोहर लगा दी है। अब सरकार मंगलवार को इस संबंध में संसद में संविधान संशोधन विधेयक लाएगी। यह मौजूदा 50 प्रतिशत आरक्षण से अलग होगा। आरक्षण लागू हो जाने पर यह आंकड़ा बढकर 60 फीसदी हो जाएगा। फैसले को लागू करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन करना होगा।
इसका लाभ ईसाइयों व मुस्लिमों सहित 'अनारक्षित श्रेणी' के लोगों को नौकरियों व शिक्षा में मिलेगा। इस कोटा में किसी भी आरक्षण के प्रावधान के तहत नहीं आने वाले वर्गो जैसे ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर, जाट, गुज्जर, मुस्लिम व ईसाई शामिल होंगे।
इस विधेयक में प्रावधान किया जा सकता है कि जिनकी सालाना आय 8 लाख रुपए से कम और जिनके पास पांच एकड़ से कम कृषि भूमि है, वे आरक्षण का लाभ ले सकते हैं। ऐसे लोगों के पास नगर निकाय क्षेत्र में 1000 वर्ग फुट या इससे ज्यादा का फ्लैट नहीं होना चाहिए और गैर-अधिसूचित क्षेत्रों में 200 यार्ड से ज्यादा का फ्लैट नहीं होना चाहिए।
आरक्षण की बहस बहुत दिनों से चली आ रही है। और हमारे बहुत सारे सवर्ण मित्रों को यह कहते सुना गया है, कि वह इसीलिए पीछे हैं क्योंकि आरक्षण लागू है ।और आरक्षण उनको आगे नहीं बढ़ने दे रहा है। लेकिन मैं इस चीज को एक अलग नजरिए से देखना, और दिखाना चाहता हूं ।हमारे देश में सरकारी नौकरियां सिर्फ 2.7% ही हैं। और प्राइवेट सेक्टर की नौकरियां 97.3% है ।और यह जो आरक्षण का पूरा प्रपंच रचा जा रहा है, वह सिर्फ इन्हीं 2.7% की नौकरियों पर ही रचा जा रहा है ।बाकी के 97.3% नौकरियों पर अधिकतम जगहों पर सामान्य के लोग ही दिखाई देते हैं।
प्राइवेट सेक्टर में ऐसे लोगों की भरमार है। जहां पर कोई आरक्षण नहीं है। और वहां पर सिर्फ और सिर्फ किसी खास वर्ग के लोग ही दिखाई देते हैं। देश की 97% से अधिक नौकरियों पर कब्जा होने के बाद भी यह वर्ग उन्हीं 3% से भी कम नौकरी के लिए हो हल्ला मचाए थे। क्योंकि उनको यह भी मंजूर नहीं कि दलितों को और पिछड़ों को 3% में वरीयता मिले।हालांकि की प्राइवेट नौकरियों में सामान्य जाति के लोगों के वर्चस्व से मुझे कोई दिक्कत नहीं है ,ना ही मुझे इस पर कोई टिप्पणी करनी है ।
लेकिन मुझे बस अपने इन भाइयों से यह कहना है कि जिन लोगों को आपने पिछले 5000 सालों से दबाकर कुचल कर रखा । जिनको अपने मंदिरों में नहीं जाने दिया । जिनको कुएं से पानी नहीं निकालने दिया , जिन को छूने पर जी भर के मारा, जिनको चप्पल पहनने का , खाट पर बैठने का, कुर्सी पर बैठने का अधिकार नहीं दिया। क्या अब आप उनको नौकरी के सिर्फ 3% में भी वरीयता नहीं देना चाहते ? या आप फिर से देश में वही 5000 साल पुरानी वाली व्यवस्था लागू करना चाहते हैं ? जहां पर हर जगह सिर्फ और सिर्फ आप ही की वरीयता हो ?
मुझे लगता है कि दलितों के साथ और अन्य लोगों के साथ समाज के नाम पर जाति के नाम पर जो नाइंसाफी पिछले 5000 सालों में कुछ कथित बड़े लोगों ने या बड़ी जाति के लोगों ने किया उसके एवज में यह 3% की नौकरी में कुछ वरीयता देना बहुत कम है । बल्कि यह 30% के हिसाब में होनी चाहिए ।
आरक्षण का असली उद्देश्य किसी को नौकरी देना नहीं , बल्कि नौकरी देने के माध्यम से सामाजिक स्तर को एक बराबर ले आना था । उस समय संविधान के निर्माता बाबा साहब ने बड़ा ही सोच समझकर यह फैसले लिए । यह बात आज के मूर्खों को समझ में नहीं आएगी । साथ ही उस वक्त बाबा साहब ने यह भी लगाया था कि हर 10 साल पर आरक्षण का विवेचन किया जाएगा। लेकिन यह मूर्ख आज यह कहते हैं कि बाबा साहब ने आरक्षण से 10 साल के लिए लगाया था। बातों को घुमा कर अपने हिसाब से पेश करना इन लोगों की आदत हो चुकी है ।
अगर आरक्षण लगाना है तो फिर पूरी तरह से लगाइए । और सभी को दीजिए। आरक्षण का सिद्धांत सामाजिक या आर्थिक ना हो करके, "जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी" के सिद्धांत पर होनी चाहिए। मतलब देश में जिस जाति का जितना प्रतिशत हिस्सा है, उस जाति को आरक्षण का उतना प्रतिशत हिस्सा देना चाहिए। जैसे सवर्ण 10-15 प्रतिशत, ओबीसी 45-50 प्रतिशत, दलित 21-22 प्रतिशत और मुस्लिम 16-18 प्रतिशत है। सवर्णों में सबसे ज्यादा तादाद ब्राह्मणों की 8-9 प्रतिशत है। जबकि राजपूतों की 4-5 प्रतिशत और वैश्य की 3-4 प्रतिशत है। तो सवर्णो को 10 से 15 प्रतिशत, दलितों को 22 %, ओबीसी को 50% तक का आरक्षण देना चाहिए।
अगर सीधा हिसाब देखा जाए तो देश मे गैर स्वर्ण 85 प्रतिशत के आसपास आते है, जबकि सवर्ण 15 प्रतिशत ही है। फिर भी 3 प्रतिशत सरकारी नौकरियों के 51 प्रतिशत से भी ज्यादा हिस्सों पर सवर्ण है, और प्राइवेट नौकरियों में या कब्जा बढ़कर 75% के आस पास आ जाता है।
अगर भारत मे जातीय गणना के आंकड़ों को देखे तो हमे यह दिखता है कि भारत में 24.39 करोड़ परिवार में रहते है। उनमें से 17.91 करोड़ परिवार ग्रामीण इलाकों में रहते है। अनुसूचित जाति-जनजाति के 3.86 करोड़ परिवार, यानी 21.53 प्रतिशत ग्रामीण भारत में रहते है। 2.37 करोड़ (13.25 प्रतिशत) ग्रामीण एक कमरें मे रहते है और उनके घर के छप्पर और दीवारें पक्की नही हैं। 65.15 लाख ग्रामीण परिवारों में 18.59 वर्ष आयु वर्ग के पुरुष सदस्य नहीं हैं। 68.96 लाख परिवारों की प्रमुख महिलाएं हैं।
5.37 करोड़ (29.97 प्रतिशत परिवार भूमिहीन है व मजदूरी करके जीते है। 17.91 करोड़ परिवारों में से 3.3 करोड़ यानी 18.46 प्रतिशत परिवार अनुसूचित जातियों से हैं तो 1.9 करोड़ (10.97 प्रतिशत) अनुसूचित जनजातियों के। अनुसूचित जाति के 1.8 करोड़ (54.67 प्रतिशत) परिवार भूमिहीन हैं और आदिवासियों के 70 लाख यानी 35.62 प्रतिशत।
अनुसूचित जाति और जनजाति को शैक्षणिक संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण होते हुए भी 3.96 प्रतिशत अनुसूचित जाति और 4.38 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के लोग ही नौकरी में हैं। सार्वजनीक क्षेत्र की नौकरियों में अनुसूचित जाति यों की भागीदारी 0.93 प्रतिशत है जबकि अनुसूचित जनजाति की 0.58 प्रतिशत है। निजी क्षेत्र की नौकरियों में अनुसूचित जातियों की भागीदारी 2.42 प्रतिशत है तो अनुसूचित जनजाति का 1.48 प्रतिशत है।
तो ये सवाल उठता है कि किस हिसाब से हिसाब से 10% का कोटा दिया गया? और किस हिसाब से ₹800000 सालाना कमाने वाले को गरीब बताया गया ? यह अपने आप में एक बड़ा विरोधाभास भी बन जाता है, कि ढाई लाख कमाने वाला टैक्स पे करेगा और आठ लाख कमाने वाला गरीब बनकर आरक्षण लेगा । जैसा कि मैंने पहले भी कहा था कि आरक्षण का उद्देश्य किसी की आर्थिक क्षमता को बढ़ाना नहीं था। बल्कि आरक्षण का एकमात्र उद्देश्य सामाजिक स्तर को सुधारना था। दलितों का उत्थान करना था । और कुछ लोगों के घटिया सोच को दबाकर के सर्वधर्म समभाव और सर्व जातिसमान की भावना को लाना था। आरक्षण छुआछूत और हीन भावना को खत्म करने के लिए किया गया था।
ग़रीब सवर्ण’ को परिभाषित करने के क्रम में ‘सवर्ण’ की व्याख्या करना तो आसान है लेकिन ग़रीब कौन होगा? वह जो पीढ़ियों से ग़रीब है या जो हाल ही में ग़रीब हुआ है, वह जो पैदा ही ग़रीब हुआ था या जो बाप के बेदख़ल करने से ग़रीब हुआ? किसी अमीर की बेटी अगर ग़रीब से शादी कर लेती है तो क्या वह भी अब ग़रीब मानी जाएगी? कोई अगर अपना करोड़ों का व्यापार लुटाकर दिवालिया हो जाता है तो वह ग़रीब माना जाएगा या नहीं? और जिसका दिवाला अपनी जुआ खेलने की लत के कारण निकला हो, क्या उसे भी आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए?
ग़रीब को परिभाषित करने के लिए जो पैमाने बना रही है ,उसमें एक यह भी है कि उस व्यक्ति की सालाना आय आठ लाख या उससे कम हो. आठ लाख सालाना आय का मतलब हुआ महीने के क़रीब 67 हज़ार रुपये। भारत में प्रति व्यक्ति आय 1.13 लाख रुपये सालाना है। इस लिहाज़ से देखें तो देश में गरीबों की औसत आय से सात गुना ज़्यादा कमाने वाले लोग भी इस आरक्षण के लिहाज से ‘ग़रीब’ माने जाएंगे। यानी कि देश का एक बहुत बड़ा वर्ग इस आरक्षण के दायरे में आ जाएगा।
इससे संभवतः यह होगा कि सामान्य श्रेणी से ज़्यादा लोग ‘ग़रीब सवर्ण’ की श्रेणी में आवेदन करने लगेंगे। नतीजतन यहां भी मेरिट लगभग उतनी ही रहेगी जितनी सामान्य (जनरल) या अनारक्षित वर्ग में रहती है। यानी इस आरक्षण से न तो प्रतिस्पर्धा कम होने जा रही है और न ही ग़रीब सवर्णों को कोई अतिरिक्त लाभ मिलने जा रहा है। होगा सिर्फ़ इतना कि इस वर्ग में भी आवेदनकर्ता लगभग सामान्य वर्ग जितने ही अंक हासिल करके परीक्षा पास करेंगे लेकिन कहलाएंगे ‘आरक्षण के लाभार्थी’।
अति आशावादी होकर कहा जा सकता है कि इस आरक्षण से यह सुनिश्चित हो जाएगा कि अब हर जगह न्यूनतम दस प्रतिशत प्रतिनिधित्व ‘ग़रीब सवर्णों’ का होगा। लेकिन ये सवर्ण वास्तव में कितने गरीब होंगे यह हम ऊपर देख ही चुके हैं। नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में ऐसे ‘गरीब सवर्णों का प्रतिनिधित्व तो अभी भी 10 फीसदी से ज्यादा ही होगा।
यदि इस आरक्षण के दुष्परिणामों की बात करें तो इनकी फ़ेहरिस्त लंबी है। ऊपर लिखे तथ्यों और संभावनाओं के अलावा यह आरक्षण नये आरक्षणों की मांग को मजबूती देने का काम भी कर सकता है। तमाम विशेषज्ञ मानते हैं कि पिछड़े वर्गों को मिल रहा आरक्षण उनकी आबादी की तुलना में काफ़ी कम है। अब अगर सरकार 50 प्रतिशत की ‘लक्ष्मण रेखा’ लांघ जाती है तो उस पर जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी करने और पिछड़े वर्ग को उसकी आबादी के अनुपात में आरक्षण देने का दबाव बनेगा।अब तक तो सरकार के पास यह तर्क था कि वह सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से बाध्य है इसलिए 50 प्रतिशत से ज़्यादा आरक्षण नहीं दे सकती।
सरकार ने ऐसे नियम बनाए हैं कि 85-90% लोग गरीबों की श्रेणी में आ गए हैं। क्या यह मजाक नहीं है? 8 लाख कमाने वाला गरीब होता है? जैसा कि मोदी सरकार कह रही है कि यह बिल गरीबों के हित में लाया गया है, तो अगर सच में यह बिल गरीबों के हित में होता तो सालाना आमदनी की लिमिट 1-2 लाख तक ही होती जिससे ज़्यादा से ज़्यादा गरीब इसका लाभ उठा पाते।
लेकिन मोदी सरकार को यह आरक्षण गरीबों को देना ही नहीं था, बल्कि 85-90% लोगों को इसके जाल में फंसाकर वोट लेना था। अगर लिमिट 1-2 लाख होती तो कम लोगों का ही आकर्षण और वोट मिलता। इसलिए लिमिट 8 लाख रखी गई ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों का आकर्षण और वोट मोदी सरकार को मिल सके।
इसमें दिलचस्प बात यह है कि जो सवर्ण आरक्षण का विरोध करते हैं कि वे अमीर दलितों को मिल रहा है, वे अब अमीर सवर्णों को मिल रहे आरक्षण का जश्न मना रहा है। शायद उनके लिए 8 लाख तक कमाने वाले गरीब हैं।
अब ये आरक्षण का कानून पास होते ही सुप्रीम कोर्ट में चैलेन्ज हो गया और सुप्रीम कोर्ट इस असंवैधानिक बिल को निरस्त कर सकता है।
संविधान के आर्टिकल 16(4) में लिखा है कि सरकार पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान कर सकती है जिनका सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व कम है। संविधान के इस आर्टिकल से साफ़ है कि आरक्षण का उद्देश्य है कि समाज के हर तबके का बराबर प्रतिनिधित्व हो। तो क्या इन 85-90% सामान्य वर्ग के लोगों को जो 10% आरक्षण दिया जा रहा है उनका सरकारी नौकरियों में अभी तक 10% से कम प्रतिनिधित्व रहा है?
आखिर किस कमिटी की किस रिपोर्ट के आधार पर सरकार इस 10% के आंकड़े तक पहुंची? किस कमिटी ने ये सिफ़ारिश सरकार के सामने रखी कि सामान्य वर्ग के 85-90% लोगों का सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व 10% से भी कम है इसलिए उन्हें 10% आरक्षण देना चाहिए?
मोदी सरकार के 124वें संविधान संशोधन बिल को निरस्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के पास तमाम कारण हैं।
इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच ने अपने फ़ैसले में साफ़ कर दिया था कि सिर्फ़ आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता। इंदिरा साहनी केस में ही सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की कुल सीमा 50% तय की थी। यह बिल इस सीमा को भी लांघती है।
बहुत लोगों ने यह सवाल उठाया है कि क्या एक संविधान संशोधन बिल लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों से पास होने के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त किया जा सकता है। इसका जवाब है, हां। केसवनंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की बेंच ने फ़सला सुनाया था कि सरकार द्वारा किया गया ऐसा कोई भी संशोधन जो संविधान की मूल संरचना के खिलाफ हो, निरस्त किया जा सकता है। ऐसा पहले भी हुआ है। 2015 में 99वां संविधान संशोधन बिल (एनजेएसी बिल) लोकसभा और राज्यसभा से पास होने के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक करार दिया जा चुका है और भी कई मौकों पर संविधान संशोधन बिल और उनके कुछ प्रावधान कोर्ट द्वारा असंवैधानिक घोषित किए जा चुके हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की कुल सीमा 50% तय की थी ताकि बेलगाम आरक्षण सामान्य वर्ग के लोगों के संविधान के आर्टिकल 14 के तहत बराबरी के अधिकार पर हमला ना करे। गुजरात सरकार ने भी 2016 में आर्थिक आधार पर सामान्य वर्ग के लोगों को 10% आरक्षण दिया था, जिसे गुजरात हाई कोर्ट ने निरस्त कर दिया। मोदी सरकार के संविधान संशोधन बिल के तहत दिया गया आरक्षण कुल आरक्षण को 59.5% तक पहुंचा देगा। यह संविधान के आर्टिकल 14 का साफ़ उल्लंघन है और सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक करार दिया जा सकता है।
वैसे भी इस देश में लोग भेदभाव तो जाति के आधार पर करते हैं लेकिन जब बात फायदे की आती है तो आरक्षण उनको आर्थिक आधार पर चाहिए होता है मैं अपने उन सभी मित्रों से कुछ सवाल पूछना चाहता हूं।
क्या गरीब होने के कारण सवर्ण बेइज़्ज़त होते हैं?
क्या किसी सवर्ण दूल्हे को "गरीब होने के कारण" घोड़ी से उतारकर पीटने की घटना सुनी है ?
क्या "गरीब होने के कारण" ब्राह्मण ठाकुर बनिया को मन्दिर जाने से रोका गया ?
क्या कोई सवर्ण "गरीब होने के कारण" स्कूल कॉलेज में छुआछूत का शिकार हुआ ?
क्या किसी सवर्ण शिक्षक को "गरीब होने के कारण" स्कूल कॉलेज में *नियुक्ति प्रदान करने से रोका गया ?
क्या किसी सवर्ण को सार्वजनिक कुंएं से "गरीब होने के कारण" पानी पीने से रोका गया ?
क्या किसी सवर्ण ब्राह्मण ठाकुर बनिया को "गरीब होने के कारण" *शमशान में शव दफनाने से रोका गया हो ?
क्या किसी सवर्ण सरपंच-प्रधान को "गरीब होने के कारण" राष्ट्रीय पर्व पर *तिरंगा फहराने से रोका गया ?
क्या किसी सवर्ण मजदूर को "गरीब होने के कारण" मजदूरी के पैसे मांगने पर *मौत के घाट उतारा गया ?
क्या किसी सवर्ण को "गरीब होने के कारण" सामूहिक भोज में से *दावत खाने से रोका गया ?
क्या किसी सवर्ण महिला को "गरीब होने के कारण" नंगा करके गाँव में घुमाया गया ?
क्या किसी सवर्ण लड़के को "गरीब होने के कारण" अनुसूचित जाति, जनजाति, ओबीसी लड़की से प्रेम करने पर *मार डाला और सवर्णों की बस्तियां फूंकी गयी?
इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक सवर्ण जज ने अछूत जज के जाने के बाद कुर्सी को गंगाजल से धोया था, क्या यह गरीबी के कारण हुआ था ?
आप एक उदाहरण बता दें कि फलां ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया का केवल "गरीब होने के कारण" एस सी, एसटी, ओबीसी की तरह उत्पीड़न किया गया हो, अछूत की तरह *रौंदा* गया हो और *घिनौने* तरीके से जलील किया गया हो।
अगर आप भारतीय समाज के चरित्र से अच्छी तरह परिचित होंगे तो आपको मालूम होगा कि *कोई ऐसा गरीब ब्राह्मण ठाकुर बनिया नहीं मिलेगा जिसको केवल जाति के आधार पर बेइज्जत होना पड़ा हो , जबकि अछूतो-पिछड़ो के लिए आम बात है।तो आरक्षण का आधार गरीबी कैसे हो सकता हैं ?
आपको क्या लगता है अगर जाति के आधार पर आरक्षण नहीं होता तो क्या सरकारी दफ्तरों, कॉलेजो, स्कूलों में दलित-पिछड़े दिखतें ?
अरे उन्हें तो गेट से ही मारकर भगा दिया जाता ।
बाबा साहब ने जो आरक्षण संविधान में बनाया था वह सिर्फ सामाजिक आधार पर था । क्योंकि उस समय जाति विशेष और वर्ग विशेष के लोगों को टारगेट करके उन्हें पीछे धकेला जाता था । और इसी वजह से आरक्षण को लाना पड़ा था , कि ऐसे लोगों को सामने लाया जा सके । लेकिन अब प्रधानमंत्री ने आर्थिक आधार पर आरक्षण लाकर एक नई बहस को जन्म दे दिया है। आर्थिक आधार पर आरक्षण का मतलब यह होता है कि कोई जानबूझकर भी कमाई नहीं करेगा, तो भी उसे आरक्षण के द्वारा मदद दी जाएगी ।
कमाल की बात यह है कि ढाई लाख रुपए सालाना कमाने वाला टैक्स भरेगा, और लगभग ₹60000 महीना कमाने वाला , सामान्य जाति वाला व्यक्ति गरीब लाकर आरक्षण का लाभ उठाएगा। आरक्षण के नाम पर हमेशा से फोटो की गणित की जा रही है अगर सच में आरक्षण देना ही है तो जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी के सिद्धांत पर जातियों के हिसाब से आरक्षण उनके प्रतिशत में बांट दिया जाए
टाइम्स ऑफ़ इंडिया' में छपी एक ख़बर के मुताबिक़ देश में ऐसे 95% परिवार हैं जो 8 लाख रुपये प्रति वर्ष से कम कमाते हैं।जबकि 1000 वर्ग फ़ुट से कम के मकान के मालिकों का आँकड़ा तक़रीबन 90% है। यानी आबादी का 90% से ज़्यादा हिस्सा इन पैमानों पर ‘गरीब’ हो जाता है।
85% लोग ग़रीब सवर्ण आरक्षण के पात्र होंगे। यानी जो भी सवर्ण 'ग़रीब' 10 फ़ीसदी आरक्षण के लिए आवेदन करेगा, वह पहले की तरह जनरल कैटिगरी के लिए बाक़ी बचे 41 फ़ीसदी कोटे के लिए अयोग्य हो जाएगा।
यानी 'ग़रीब' सवर्ण जो पहले जनरल कैटिगरी की 51 फ़ीसदी सीटों के लिए कंपीट करता था, अगर वह आरक्षण का लाभ लेना चाहेगा तो सिर्फ़ 10 फ़ीसदी के लिए ही कंपीट कर पाएगा जबकि सामान्य कैटिगरी के बाक़ी बचे 15% 'अमीर' सवर्ण 41 फ़ीसदी के जनरल कोटे के लिए कंपीट करेंगे। यानी अमीर सवर्ण का काम अब पहले से ज़्यादा आसान हो जाएगा।
इस आरक्षण के बाद 'ग़रीब' सवर्णों की आरक्षित कैटिगरी में मेरिट लिस्ट काफ़ी ऊँची होगी क्योंकि 10% सीटों के लिए अब 85% लोग कंपीट करेंगे।
4-अब आप ही बताएँ कि कौन मज़े में रहा, अमीर सवर्ण या 'ग़रीब' सवर्ण? अब आप तय करें कि मोदी सरकार ने ग़रीब सवर्णों को फ़ायदा पहुँचाया या अमीर सवर्णों को? ग़रीब के लिए पहले भी नौकरियाँ नहीं थीं, अब वह जो भी थीं, उनसे भी बाहर हो गया। क्या यह दिनदहाड़े डकैती है कि नहीं?
अगर देश की 15 फीसदी आबादी(सवर्ण) को 10 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा तो इस हिसाब से 52-54 फीसदी ओबीसी को 27 नहीं 36 फीसदी आरक्षण बनेगा।अगर ऐसा नहीं किया जाता तो जबरदस्ती मानना पड़ेगा कि पिछड़ों की तुलना में सवर्ण ज्यादा गरीब है या पिछड़ी जाति के लोग सवर्णों से धनी हैं।इस 10 फीसदी के हिसाब से मानना पड़ेगा कि हर तीन सवर्ण में 2 सवर्ण आर्थिक तौर पर कमजोर है।
सवर्णों की 67 फीसदी आबादी गरीब है यानी 20 करोड़ सवर्ण में 15 करोड़ सवर्ण गरीब या आर्थिक तौर पर कमजोर हैं।पिछड़ों के 27 फीसदी आरक्षण के हिसाब से मानना पड़ेगा कि पिछड़ों की केवल 50 फीसदी आबादी गरीब है, जबकि सवर्णों की दो तिहाई आबादी यानी 67 फीसदी सवर्ण गरीब हैं।
यानी मौजूदा आरक्षण के हिसाब से पिछड़े इस देश में सबसे धनी है, उनसे गरीब सवर्ण है और सवर्ण से थोड़ा गरीब दलित/आदिवासी।8 लाख से कम आय वाला सवर्ण गरीब और 8 लाख से कम आय वाला ओबीसी पिछड़ा यानी गरीब माने जाने पर सवर्णो को ज्यादा आरक्षण और पिछड़ा होने पर कम आरक्षण ?
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