यह भीड़ भी रजनीकांत की फिल्म रोबोट के उस चिट्टी रोबोट की तरह होती है, जिसमें रेड चिप लगा हुआ था । फर्क बस यही है कि उस रोबोट से रेड चिप निकाला जा सकता था,  लेकिन इस भीड़ के अंदर नफरत,  धार्मिक कट्टरता, और एक दूसरे की खुशी बर्दाश्त न करने वाला जो रेड चिप लगा हुआ है, वह निकाला नहीं जा सकता।और यकीन मानिए यह भीड़ उस रेडचिप वाले चिट्टी रोबोट से कई सौ गुना ज्यादा खतरनाक है म और देश को कई सौ गुना ज्यादा नुकसान पहुंचा रही है।  यह भीड़ बिल्कुल भेड़ चाल में चलने वाले उन भेड़ो की तरह होती है,  जिनको सिर्फ अपने हांकने वालों के सारे समझ में आते हैं।  इनको सही गलत से कोई मतलब नहीं होता है। फर्क ये है कि  भेड़ो को हाँकवारें हांकते है  । और इस भीड़ को आज के ढोंगी चौकीदार, नकली चाणक्य और एकाध फ़र्ज़ी बाबा हांक रहे है।

एक सीधी सी बात हम सबके समझ में आ सकती है।  और आने भी चाहिए कि जिस भी देश में भीड़ तंत्र काम करने लगे तो उसके दो ही मतलब होते हैं । या तो उस देश में शासन चलाने का कोई प्रावधान नहीं है । या फिर उस देश का प्रशासनिक मैकेनिज्म फेल हो चुका है । उस देश के शासक निरंकुशता और और कमजोरी के शिकार हो चुके हैं । उस देश के शासकों में इतनी भी कुवत नहीं बची है कि वह लिखित रूप से मौजूद संविधान को पालित करवा सके।  वह करवाएंगे भी कहां से जब खुद उनके ऊपर हत्या और दंगों के मुकदमे दर्ज हैं।

अपराधी चाहे जो भी हो , उसका अपराध चाहे जो भी हो , उसके आरोप चाहे जो भी हो। अपराध की सज़ा चाहे जो भी हो। लेकिन भीड़ के द्वारा किया गया इंसाफ के नाम पर क्रिया को कभी भी सही नहीं ठहराया जा सकता।  क्योंकि भीड़ के कथित इंसाफ की सिर्फ एक ही सीमा होती है , वह है "मौत"।  और जब की देश के शासक इस भीड़ का इस्तेमाल अपने राजनीतिक विद्रोहियों को खत्म करने के लिए कर रहे हैं,  तो वह यह बात को समझना पड़ेगा  हैं कि ये भीड़ खुद एक भष्मासुर है। इस भीड़ के जनक भीड़ या ट्रॉल्स को विरोधियों के खिलाफ अमर्यादित रूप से इस्तेमाल करने वाले या भीड़ के लोगो को फॉलो करने वाले खुद इस बात से अनभिज्ञ है की ये भष्मासुर आज नहीं तो कल इन लोगो को भी भस्म कर देगा। 

देश में एक बार फिर से भीड़ ने वही किया जिसके लिए उस फिल्म को पिछले 4 सालों से पाला पोसा और बढ़ाया जा रहा है भीड़ को सांप्रदायिकता दंगा अराजकता कट्टरता तानाशाही के अलग-अलग दूध से फला और चलाया जा रहा है सत्ता में बैठे हुए भीड़ के नेतृत्व वाले नेता या बाबा लोग भीड़ के माध्यम से अपने राजनीतिक और व्यक्तिगत दुश्मनी निकाल रहे हैं

भीड़ की हिंसा का जो दौर चला है , वह एक दो दिन या एक दो महीने महीने नही, बल्कि सालो से पली आ रही धार्मिक नफरत और असहनशीलता का परिणाम है। अगर आपको किसी से दुश्मनी है , और आपको उससे वह दुश्मनी निकालनी है , तो आपको कुछ नहीं करना होगा , बस आपको कुछ मूर्खों की जमात में जा कर यह कहना होगा कि फलां व्यक्ति मुसलमान है , और गाय की तस्करी करके लेकर जा रहा है।

 फिर आप देखिए यह भीड़ और मूर्खों की और जमात किस तरह से आपकी दुश्मनी को पूरा करती है । और आपके दुश्मन को पीट-पीटकर खत्म कर देती है।  पहलू खान,  अखलाक से लेकर रकबर खान तक, और अब इंस्पेक्टर सुबोध।  देश में एक जानवर के बदले या उन जानवर के नाम पर इंसान को मारने की एक नया ट्रेंड चल चुका  है । और प्रदेश का मुख्यमंत्री भी सिर्फ गौ हत्या के आरोपियों को सज़ा देने की बाग करते है,  यानी कि हम ये समझ सकते है की खुद मुख्यमंत्री बाबा के लिए क्या जरूरी है। और हमारी पोलिस की बाबा के नजर मे औकात एक जानवर से भी बदतर है।

" जिस देश की भीड़ वहां के सही गलत का फैसला खुद ही करने लगे, तो यह समझ लेना चाहिए की  राजा निकम्मा, नकारा और तथ्यविहीन है । "

भले ही यह किसी धार्मिक ग्रंथ या शास्त्र में नहीं लिखा हो । भले ही इसे चाणक्य सरीखे विद्वान आदमी ने नहीं लिखा हो।  लेकिन यह वाक्य पूरी तरह से सत्य है।  हमारे शास्त्रों में और हमारे इतिहास के बड़े-बड़े विद्वानों को इस लाइन को जरूर लिखना चाहिए था ।  क्योंकि यह आज के परिस्थिति को दर्शाता है।  और हमारे विद्वान इतने ग्यानी तो थे ही कि वह आज की परिस्थिति को देख सकें । या फिर आज की इतिहासकारो को ये बात अब से मरे विचार लिखकर मेरे नाम से लिख देनी चाहिए। ये बिल्कुल सत्यार्थ और सार्वभौमिक सत्य है, की जहाँ भीड़ ने प्रशासनिक  जिम्मा अपने हाथ मे किया वहाँ कानून तोड़ा जाता है। मानवता शर्मशार हो जाती है।

भीड़ एक ऐसा तत्व है जिसे राजनीति और सत्ता दोनों मिलकर पैदा करते है, ताकि वो इसके माध्यम से अपने अपने राजनीतिक हित साध सके । वो इस भीड़ को भावनाओ को भड़काते है, और लागतार भड़काते है।  और एक समय ऐसा आ जाता है जब यह भीड़ उनके पकड़ से भी परे चली जाती है । और फिर जो भीड़ करती है वह बड़ा ही बीभत्स और डरावना होता है। भीड़ हमेशा किसी एक टारगेट को देख कर चलती है, लेकिन उस भीड़ को उस टारगेट की वजह नही मालूम होती। और कई तो ऐसे होते है जिनका टारगेट और वजह से कोई मतलब नही होता, और कुछ का टारगेट के पीछे की वजह व्यक्तिगत होती है ।

एक तरफ देश का सुप्रीम कोर्ट भीड़तंत्र को खत्म करने की बात कर रहा था,  और दूसरी तरफ उसी समय मूर्खों की वह जमात अपने काम पर लगी हुई थी ।  इन जमात में अपनी ड्यूटी निभाते हुए एक इस्पेक्टर को साजिश पूर्वक मारा क्योंकि वह इस्पेक्टर इन आतंकवादियों के काम में लगातार रोड़ा अटका रहा था इन आतंकवादियों को अब तकिया एहसास हो चुका था , की इस्पेक्टर सुबोध के रहते हुए इन सफेदपोश आतंकवादियों के मंसूबे कामयाब नहीं होंगे।

इंस्पेक्टर सुबोध वही है जिसने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि अखलाक के घर पर रखा मांस बीफ नही थी। तभी से वो इन आतंकियों के निशाने पर थे। उनकी हत्या एक वेल प्लांड तरीके से की गई है। हत्या के आरोपी बजरंग दल, बीजेपी युवा मोर्चा और विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता है। हिंसा में योगेश राज और सतेंद्र राजपूत को मुख्य आरोपी बनाया गया है। योगेश बजरंग दल का जिला संयोजक बताया जा रहा है। सभी आरोपी स्याना इलाके के ही रहने वाले हैं। एक आरोपी शिखर अग्रवाल भाजपा युवा मोर्चा का नगर अध्यक्ष और उपेंद्र राघव को विश्व हिंदू परिषद का कार्यकर्ता बताया जा रहा है। फिलहाल चमन और देवेंद्र नाम के आरोपी को हिरासत में लिया गया है।

बुलंदशहर के स्याना में पुलिस बूथ से 500 मीटर की दूरी पर एक टाटा सुमो गाड़ी के टूटे हुए शीशे चकनाचूर हो चुके थे।  और नजदीक जाने पर गाड़ी से लटकता हुआ एक शव दिखाई दिया,  जो एक पुलिस वाले का लग रहा था।  और वह शव शहीद इंस्पेक्टर सुबोध का था।  यह वीडियो वायरल हुई तो लोगों को समझ आया कि आखिर में हुआ क्या था।  कुछ गौरक्षा के नाम का ढोंग करने वाले कथित आतंकवादी पुलिस थाने पहुंच गए और उन्होंने यह बताया कि गांव के खेत में गाय के मांस रखी गई है।  और यह कहते हुए ट्रॉली में लाए हुए शव को रखकर बुलंदशहर जाने वाले हाईवे को जाम कर दिए ।

इस्पेक्टर सुबोध भी अपने तीन चार कर्मियों के साथ पहुंचे । इस्पेक्टर सुबोध निडरता से इस उत्तेजित भीड़ के बीच घुसे , और म उनसे इस बात की गुजारिश की कि सड़क खोलकर परिवहन को आया जाने दिया जाए।  उन्होंने लोगों को भी समझाया और लगभग लगभग सब को मना लिया । जैसे कि एक वीडियो में दिख रही है कि योगेश राज नाम का आतंकवादी लगातार उनसे बहस किए जा रहा था । और धीरे-धीरे उसने अपने लोगों को उकसा कर  गुस्सा  दिलवा कर शाज़िसन  पत्थरबाजी करवानी शुरू कर दी।

पुलिसकर्मी के मुताबिक एसएचओ और उनकी साथियों को उग्र भीड़ ने घेर लिया था। लोगों को तितर-बितर करने के लिए हवाई फायरिंग की गई। पुलिस ने भीड़ से बचने के लिए कार खेतों में उतार दी। सुबोध गाड़ी में थे और जख्मी थे। बाद में पुष्टि हो गई सुबोध का घाव गोली लगने की वजह से था। इसके अलावा पत्थरबाजी में अन्य कर्मी भी जख्मी हुए। राम आसरे जो उस वक्त पुलिस वाहन चला रहे थे, बताया, हमें अपनी जिंदगी बचाने के लिए भागना पड़ा क्योंकि पत्थरबाज हमारे पीछे आ रहे थे। हमने सुबोध सर का शव ले जाने की कोशिश की लेकिन बढ़ती अशांति के कारण अपना इरादा बदलना पड़ा। हालांकि पुलिस प्रशासन ने इस बात से साफ इनकार किया है कि पुलिस बल में कमी के कारण सुबोध की मौत हुई।

रामाश्रय ने बताया कि पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार बाउंड्री के बाहर घायल होकर गिर गए थे। उनको किसी तरह लाकर गाड़ी में रख गया था, लेकिन उनको लेकर चलने के साथ ही चारों तरफ से भीड़ आ गई और उन्‍हें घेर लिया। बकौल रामाश्रय, हिंसक भीड़ से आवाजें आने लगीं कि ‘पकड़ लो’, ‘मारो-मारो’। उन्‍होंने बताया कि हुजूम में शामिल लोग उन्‍हें गालियां देने लगा था। इंस्‍पेक्‍टर सुबोध के ड्राइवर ने कहा, ‘जब सब भागने लगे तो मैं भी कूद कर भाग गया। मैंने पास में ही स्थित गन्‍ने के खेत में छुपकर किसी तरह अपनी जान बचाई।’ रामाश्रय के मुताबिक, सुबोध कुमार को पहले से ही चोट लगी थी और वह दीवार के पास गिर हुए थे। रामाश्रय और उनके साथी उन्हें उठा कर लाए। उन्‍हें गाड़ी में डालकर जैसे ही अस्पताल ले जाने की कोशिश की, उग्र भीड़ ने दोबारा से उन पर हमला कर दिया।

रामाश्रय ने आगे बताया कि उस वक्त गन्ने की खेत की ओर से गोलियां चलाई जा रही थीं। उन्होंने बताया कि कुछ लोग घायल इंस्‍पेक्‍टर सुबोध को गाड़ी में बैठाने में मदद भी कर रहे थे। लेकिन, उसी वक्‍त कुछ लोगों ने मारो-मारो कह कर पुलिसवालों पर हमला करने लगे। रामाश्रय की मानें तो पेड़ की आड़ से भी पत्थर बरसाए जा रहे थे, लेकिन सुबोध को पहले ही चोट लग चुकी थी। उन्‍होंने बताया कि उस वक्‍त उनके साथ दो और पुलिस वाले थे।

यह सब इंस्पेक्टर सुबोध को मारने में कामयाब हो गए । लेकिन असली पर्दे के पीछे का खेल शायद पिछले कई महीनों से चल रहा था।  जो कई तरह के पत्र और सिफारिश से सर्वजनिक हुई।  जिसे पता चला की घटना से तीन महीने पहले ही एक स्थानीय कथित हिंदू नेता ने वहां के जिला अधिकारी को पत्र लिखकर इंस्पेक्टर सुबोध की शिकायत किया था , कि सुबोध धार्मिक कार्यों में बाधा डालने का काम करते हैं । उसने आगे अभी लिखा इंस्पेक्टर सुबोध और कुछ और दूसरे पुलिसवालों को यहां से तत्काल ट्रांसफर कर देना चाहिए। उनके खिलाफ विभागीय जांच कराई जाए।' इस पत्र के अंत में यह भी लिखा गया था कि यह मांग बीजेपी के सभी स्थानीय नेताओं की है।

बीजेपी बुलंदशहर के महासचिव संजय श्रोतिया ने कहा, 'बुलंदशहर में हम लोगों और इंस्पेक्टर सुबोध के बीच कई बार मतभेद हुए। हम लोगों ने इंस्पेक्टर सुबोध से कहा था कि जो लोग शहर में बिना हेल्मेट के चलते हैं उनका फाइन न किया जाए, सिर्फ हाइवे पर बिना हेल्मेट के चलने वालों का फाइन किया जाए लेकिन उन्होंने हमारी नहीं सुनी।'उन्होंने कहा, 'कई बार इंस्पेक्टर सुबोध हिंदुओं के कार्यक्रम में खलल डालते थे। उनके खिलाफ हिंदू समाज में गुस्सा था। लोग उनके ट्रांसफर की मांग कर रहे थे इसलिए हम लोगों ने स्थानीय सांसद के नाम 1 सितंबर को पत्र लिखा था और इंस्पेक्टर सुबोध के ट्रांसफर की मांग की थी।'

इस पत्र में कई स्थानीय नेताओं ने हस्ताक्षर किए थे। बीजेपी के पूर्व पार्षद मनोज त्यागी के भी इस पत्र में हस्ताक्षर थे। उन्होंने कहा कि इंस्पेक्टर सुबोध का रवैया बहुत खराब था। हम सभी पार्टी के नेताओं ने सांसद को एक सार्वजनिक पत्र लिखा था। इस तरह ये लोग शहीद सुबोध की हत्या और उनके हत्यारे आतंकवादियों को बचाने की भरपूर कोसिस कर रहे है।

इंस्पेक्टर सुबोध की इस तरह से की गई हत्या से आहत होकर एक पुलिस अधिकारी ने फेसबुक पर अपना दर्द कुछ इस तरह से बयां किया-
"संविधान की आत्मा ऐसे ही नही मरेगी उसके लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है! और उसके लिए जरूरी है कि एक ऐसी ही भीड़, ऐसा ही उन्माद और ऐसे ही सोच के बीज बो दिया जाए जो धीरे धीरे संविधान की हत्या स्वयं कर देगी और इसी कड़ी में सुबोध सिंह के हत्या को देेेखा जाना चाहिए, खैर सुबोध सिंह कोई एक्टिविस्ट कोई राजनेता कोई कलाकार,पत्रकार या उद्यमी नही थे जिनके लिए कोई हाय तौबा मचे। वह इंसान एक पुलिसकर्मी था और मैं जानता हूं कि सभी बड़े-महान लोगो की नज़र में पुलिस वाला चोर,बेईमान,राजनेताओं के तलुवे चाटने वाला ही होता है खैर पुलिस की नियति ही यही है। पुलिसकर्मी अपनी कमजोरी के साथ साथ दूसरे विभाग की नाकामियों के बोझ को भी अपने कंधे पर ढोती है। पुलिस सभी के आशाओं को कंधा देती है और इसीलिए अपने कंधे तुड़वा बैठती है। आजकल पुलिस के इक़बाल की बातें बहुत हो रही हैं।मैं भी मानता हूं कि पुलिस का इक़बाल कम हुआ है लेकिन मुझे ये भी बता दीजिए कि इतने कम संसाधनों और राजनीतिक दबाव के बीच किस संस्था का इक़बाल इस देश मे मजबूत हुआ है, चाहे शिक्षण संस्थान हो पत्रकारिता, मेडिकल, विधायिका हो या अन्य कोई भी संस्थान सभी अपने उद्देश्य को पूरा करने मे असफल ही साबित हो रहे हैं। लेकिन जो महत्वपूर्ण बात है वो यह है कि पुलिस को जहां डील करना होता है उस कार्य की प्रकृति कुछ ज्यादा ही गंभीर होती है,जिसकी परिणति सुबोध सिंह के रूप में भी होती है। अन्य कौन सा विभाग है जहां के प्रोफेशनल को इस तरह अपनी जान गंवाना पड़ता है। सुबोध सिंह को मारने के पीछे जो भी योजना रही हो लेकिन इस तरह की घटनाएं हमारे समय का इतिहास लिख रही है जो आगे चलकर हमारे देश के भूगोल को बदलने का माद्दा रखती है जो गंभीर नही हैं वह देश के आंतरिक विभाजन को गौर से देख ले कि कौन कहां किसके साथ और क्यों रह रहा है, खैर हम पुलिसवाले हैं जो वर्दी पहन लेने के बाद ठुल्ला, चोर-बेईमान, और तलवे चाटने वाले हो जाते हैं। लेकिन हम हमेशा ऐसे ही नही रहेंगे उसके लिए सामान्य मानस को आगे आना होगा,उसके लिए मंदिर-मस्जिद निर्माण से ज्यादा पुलिस सुधार की बाते करनी होगी। पुलिस ही नही हमारे तथाकथित आकाओं (कुछ लोगों के हिसाब से) से प्रश्न करना होगा कि पुलिस रिफॉर्म को क्यों नही आगे बढ़ाया जा रहा! मैं सलाम करता हूं अभिषेक को जो अपने पिता के मरने के बाद भी हिंसा व नफरत की भाषा को नही फैला रहा।सच कहूं तो तस्वीर में भी उससे नज़र नही मिला पा रहा! पुलिस एक परिवार है और अभिषेक जैसे सभी हमारे अपने हैं। खैर बुलंदशहर की भयावहता को मैं केवल थोड़ी बहुत ही कल्पना में उतार पा रहा हूं क्योंकि इस तरह की एक घटना मेरे क्षेत्र में भी घटित हुई थी,जब एक गाय को काट कर फेंक दिया गया था! उस समय भीड़ की मानसिकता क्या होती है इसका अंश भर अंदाजा हमें है, लेकिन यह भी सच है कि जिस भीड़ का सामना मैंने किया उसमे नफरत का स्पेस इतना नही था! लेकिन नफ़रत की खेती जब लगातार होगी तो बीज वृक्ष बनेगा ही तब कोई एक सुबोध सिंह नही रहेगा हम सभी 'सुबोध' हो जाएंगे! हो सकता है कि कोई गोली हमारी भी इन्तज़ार कर रही हो ।"

हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे समाज में सांप्रदायिकता का फैलता जहर एक सच्चाई है। और वह किसी अनियोजित भीड़ के तात्कालिक उकसावे का कारण हो सकती है। भीड़ को एक अवसर चाहिए, बहाना चाहिए। संभव है कि जिसने अपने जीवन में एक मच्छर या चींटी भी न मारा हो, वह भी भीड़ का हिस्सा बनकर खूंखार हो जाए और मानवहत्या जैसे जघन्य कार्य को अंजाम दे दे।

सांप्रदायिकता, अंधविश्वास, पूर्वाग्रह, ज़ेनोफोबिया, आत्महीनता, ऐतिहासिक पीड़ाबोध की मिथ्या चेतना, किसी भी प्रकार की कट्टरता, निजी जीवन की विफलताएं इत्यादि कुछ मौलिक कारण होते हैं, जो कमोबेश हर जाति और संप्रदाय के लोगों में पाए जाते है। लेकिन जिन समाजों ने मानवीय मूल्यों से भरी शिक्षा, सामाजिक प्रबोधन, आर्थिक अवसरों और राजनीतिक परिपक्वता को जितना अधिक हासिल किया है, वहां भीड़-हिंसा की प्रवृत्ति कम देखी जाती है। हालांकि व्यक्तिगत स्तर पर हिंसा उनके लिए भी एक आध्यात्मिक चुनौती बनी ही हुई है। राज्य-व्यवस्थाओं द्वारा संगठित हिंसा के रूप में युद्ध अभी भी इन समाजों ने जारी ही रखा हुआ है।

व्यक्ति विशेष को भीड़ में कन्वर्ट करने का प्रोसेस थोड़ा लंबा जरूर है,  लेकिन एकदम सटीक बैठता है।  सबसे पहले इंसान की सम्वेदनाओं को खत्म किया जाता है। और सम्वेदनाओं को खत्म करने के लिए दूसरे धर्म दूसरी जाति या दूसरे संप्रदाय के लोगों की रहन सहन, पहनने के तरीके , खाने पीने के तरीके, बोल भाषा के प्रति नफरत पैदा कर की जाती है।

अगर आपको भी किसी मनुष्य की पहनने-ओढ़ने चलने-फिरने भाषा बोल खाने-पीने रहन-सहन के तरीकों से समस्या हो रही है , तो समझिए कि आप की संवेदना धीरे-धीरे खत्म हो रही है । और अगर आप दूसरे की तरीकों को बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं, तो समझे कि आप की संवेदना खत्म हो चुकी है ।

और जैसे ही आपकी संवेदना खत्म होती है इंसान की भावनाओं को उग्र रुप दिया जाता है। उनकी भावनाओं को बढ़ा चढ़ाकर बनाया जाता है । फिर उसी भावना की सांचे में उस आदमी को कुछ इस तरह फिट किया जाता है , कि वह सही गलत ऊंच-नीच , सच्चा झूठा हिंसा - अहिंसा सब के बारे में सोचना छोड़ देता है।  या यूं कहें कि उस आदमी का दिमाग उस सांचे से बाहर कुछ भी नहीं सोच पाता है । इतना सब कुछ होने के बाद जब संवेदना मर गई हो ,  भावनाएं उग्र रुप ले चुकी हो , दिमाग कुछ सोचने समझने की क्षमता खो चुका हो , और दिमाग केवल एक ही लाइन से मिल रहे दिशा-निर्देशों को पालन करना बाध्यकारी मानता हो । तो वह व्यक्ति एक परफेक्ट मशीनी हत्यारे के रूप में बदल दिया जाता है ।

और इसी तरह ढेर सारे व्यक्तियों को मशीनी हत्यारे के रूप में बदलकर एक भीड़ का रुप दिया जाता है अनियंत्रित होती है।  वह भीड़ जिसकी संवेदनाएं मर चुकी हैं।  वह भीड़ जो उग्र होती है। वह भीड़ जो किसी दूसरे के निशान दिशा निर्देश पर बिना कुछ सोचे समझे मरने मारने को उतारू हो जाती है।

हम अपनी सभ्यता पर चाहे जितना गर्व कर लें, अपनी उपलब्धियों पर चाहे जितना इठला लें, यह एक कठोर सत्य है कि हम और हमारा समाज बेहद हिंसक और बर्बर हैं। कहीं गाय के नाम पर, कहीं धर्म के नाम पर, कहीं बेईमानी और शको-सुबहा से ग्रस्त भीड़ हत्या पर उतारू होने लगी है।

यह सिलसिला कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक जारी है। इससे भी खतरनाक वह रवैया है, जो इन हत्याओं को किंतु-परंतु-लेकिन लगाकर सही ठहराता है। इस तरह की घटनाओं पर तभी अंकुश लगाया जा सकता है, जब हम इन्हें मूल-अधिकारों के उल्लंघन के तौर पर देखेंगे और कानून दोषियों को सज़ा देगा। आज अनुच्छेद 21 का दायरा काफी व्यापक हो गया है। अतः ज़रूरी है न्यापालिका भी सक्रियता दिखाए।

दरअसल, इस हत्यारी मानसिकता को जो शह मिल रही है, उसके पीछे एक दकियानूसी और घृणा पर आधारित राजनीतिक सोच है। यह हमारी प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्था के चरमराने का संकेत है। नृशंस हत्याओं के बावजूद हत्यारों और उनके समर्थकों में पछतावा का कोई भाव नहीं है।

होगा भी कैसे जब सरेआम लोगों को गाली देने वाले लोगों को मारने की धमकी देने वालों को हमारे देश का प्रधानमंत्री खुद ट्विटर पर फॉलो करता है तो ऐसे लोगों की संख्या तो बढ़ेगी ही भीड़ की हिंसा के लिए जिम्मेदार लोगों को केंद्रीय मंत्री जाकर माला पहना था है तो ऐसे लोगों की हिम्मत भी जरूर बढ़ेगी
केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा हत्या के आरोपियों को माला पहना कर स्वागत कर चुके है, और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह भीड़ के हिंसा के अपराधियो से जेल में मिल के आये है।
तो क्या अब हम ये मान ले कि इस तरह की हत्यारी भीड़ और इस तरह के गुंडों का सरक्षण भारतीय जनता पार्टी और उसके नेता कर रहे है ?

अब ये भीड़ एक पक्ष विशेष , एक धर्म विशेष , एयर एक जाति विशेष के रूप में परिवर्तित हो हई है ।  ये इस तरह की भीड़ एक बहुत अच्छा रिजल्ट है उन नेताओ की मेहनत का जो दिन रात एक करके अथक प्रयास करके लोगो के बीच हिन्दू मुस्लिम , ऊँच नीच, का नीच बोते है। और इस बीच के फसल की सिंचाई ये फेक न्यूज़ और गोदी मीडिया से लगातार करवाते रहते है । ताकि फसल मजबूत और पौष्टिक बनी रहे , इतनी को धर्म से जाती के नाम पर मारने मरने पे उतारू हो जाये।

यह भी कहना गलत नही होगा की ये भीड़ किसी राज्य किसी क्षेत्र किसी भाषा या किसी धर्म तक ही सीमित नहीं रह गई है।   यह इन के हिसाब से अलग-अलग गुटों में बदलती रहती है । लेकिन हम यह जरूर कह सकते हैं कि इस भीड़ के इंसाफ का शिकार खास धर्म और खास जाति के लोग ही हुए हैं । जैसे मुसलमान , दलित और सेना ।
इसके अलावा देश में कहीं भी जिंदा लोग भीड़ के इस बर्बरता का शिकार नहीं हुए हैं । मूर्तियों को भी इस भीड़ ने नहीं बख्शा। जरा सोचिए यह मानसिकता वाले आज उन महापुरुषों और नायकों की मूर्तियों से इतना डर रहे हैं कि , उनकी मूर्ति को तोड़ दे रहे हैं।  तो ऐसी मानसिकता वाले उन नायकों के समय में क्या-क्या करते होंगे ? और उनसे पहले उन्होंने क्या-क्या किया होगा ?
बस एक कल्पना भर ही कर लीजिए ।

भीड़ के द्वारा गलत बातों पर समर्थन और लोगों की हत्या करना या हिंसा फैलाना का मनोविज्ञान यही कहता है की,  भीड़ में कभी भी हिंसा की भावना पहले से नहीं होती है।  जब लोग भीड़ में बदलते हैं विचारों का आदान-प्रदान करते हैं,  तो इनको कंट्रोल करने वाले उनके मन में हिंसा की भावना उत्पन्न करते हैं । और उसके लिए यह टारगेट वाले समुदाय के लिए नफरत पैदा करते हैं ।
भीड़ को जुटाने से पहले इसकी पूरी तैयारी की जाती है । पहले लोगों की भावनाओं को उनकी सम्वेदनाओं को खत्म कर दिया जाता है । उन्हें एक ऐसे व्यक्तित्व का गुलाम बनाया जाता है जिसकी सोच के आगे वह कुछ भी सोच नहीं सकते हैं । फिर उन लोगों को इकट्ठा करके उन्हें भीड़ का रुप दिया जाता है।  उसके बाद वह भीड़ को अपने तरीके से इस्तेमाल करते हैं। जबकि भीड़ में शामिल लोगों को इस बात का एहसास ही नहीं होता कि वह हत्या किस लिए कर रहे हैं,  या उनके हत्या करने का उद्देश्य क्या है। हिंसा फैलाने का उद्देश्य क्या है।

लोगों की भावनाएं और उनकी संवेदनाएं मरने के यही संकेत हैं कि,  जब वह अपने से दूसरे धर्म या दूसरी जाति या दूसरे क्षेत्र के लोगों के अलग रहन-सहन,  तौर- तरीकों, को अपनाने से या उनको देखने उसे भी मना कर दे ।या बराबरी का दर्जा देने तक से मना कर दे।

उनको दूसरे समुदाय के लोगों के खाने पीने पर एतराज हो।  दूसरे समुदाय की भाषा उनको देशद्रोही भाषा लगती हो । दाढ़ी और मूछों के आकार से उनको चिढ़ होने लगे।  सर पर रखे हुए टोपी या गमछे से उनको ऊंच-नीच की भावना आने लगे तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि अब लोगों की भावनाएं मर चुकी हैं। उनमें इतनी संवेदना भी नहीं बची की राह चलते किसी की मदद भी कर सकें।

अगर ऐसे ही चलता रहा तो , हर फैसले बंदूक और तलवार की नोक पे होंगे। फिर न तो पुलिस की जरूरत होएगी, न प्रधानमंत्री की न मुख्यमंत्री की। फिर जिसके पास जितने गुर्गे होंगें वो उतना बड़ा सत्यवादी साबित होगा।

कोर्ट, कानून, विधायक, मंत्री, अधिकारी, पुलिस , संसद , लोकतंत्र , व्यवस्था,  फिर किसी की कोई जरूरत नही रहेगी। सब माफियाराज से डिसाइड होगा। फिर ये देश व नही बन पाएगा, जिसका सपना सरदार भगत सिंह ने देखा  था।
यह देश वही बन गया है , जो उन्होंने चेताया था की " गोरे साहब चले जायेंगे और भूरे साहब आ जाएंगे।

अगर हम भी सारे फैसले एकतरफा सुनवाई मनमानी कानून  दकियानूसी विचार सत्ता का घमंड  तानाशाही की भावना और भीड़ की भड़काऊ भावना के आधार पर करने लगे , अपनी सोच दूसरो पर थोपने लगे तो फिर क्या फर्क रह गया है हममे और तालिबान में ?

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