आरएसएस का "देशभक्ति" वाला इतिहास

इस आर्टिकल के साथ मे दिया गए फोटो को जरा ध्यान से देखिए यह फोटो RSS की मराठी पत्र का "अग्रणी" में 1945 में छपी थी । इस फोटो में सावरकर को "भगवान राम" की जगह और श्याम प्रसाद मुखर्जी को "भगवान लक्ष्मण" की जगह दिखाया गया है । साथ में महात्मा गांधी को "रावण" दिखाया गया है।  रावण के 10 सिरों के रूप में सरदार वल्लभ भाई पटेल,  नेताजी सुभाष चंद्र बोस , मौलाना आजाद , राजगोपालचारी , आचार्य कृपलानी , जवाहरलाल नेहरू और पंडित गोविंद बल्लभ पंत जैसे लोगों को दिखाया गया है।  साथ ही यह दिखाया जा रहा है कि सावरकर राम बने हुए धनुष से रावण का रुप दिए हुए इन महापुरुषों का वध कर रहे हैं ।

18 जुलाई 1948 को भारत के गृहमंत्री "सरदार वल्लभ भाई पटेल" ने श्याम प्रसाद मुखर्जी को लिखा , जिसमे उन्होंने लिखा -

"आरएसएस के भाषण सांप्रदायिक उत्तेजना से भरे हुए होते है। देश को इस ज़हर का अंतिम नतीजा महात्मा गांधी की बेशक़ीमती ज़िंदगी की शहादत के तौर पर भुगतना पड़ा है। इस देश की सरकार और यहां के लोगों के मन में आरएसएस के प्रति रत्ती भर भी सहानुभूति नहीं बची है।हक़ीक़त यह है कि उसका विरोध बढ़ता गया। जब आरएसएस के लोगों ने गांधी जी की हत्या पर ख़ुशी का इज़हार किया और मिठाइयां बाटीं, तो यह विरोध और तेज़ हो गया। इन परिस्थितियों में सरकार के पास आरएसएस पर कार्रवाई करने के अलावा और कोई चारा नहीं था।’’

यह वही सरदार वल्लभभाई पटेल हैं जिनके नाम पर आज भारतीय जनता पार्टी और उसका जन्मस्रोत संगठन आरएसएस जमकर राजनीति करती है । और तरह-तरह के डायलॉगबाजी करती है , "कि पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री होते तो देश में यह होता,  और वह होता"।

दरअसल देश में 2014 के बाद से लोगों को देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांटने का ठेका भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों ने ले रखा है।  तो इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि खुद भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस की देशभक्ति वाली सर्टिफिकेट है या नहीं ?
और अगर है भी तो उसमें उसको कितने प्रतिशत मिले हैं ?
और अगर नहीं है तो क्यों नहीं है ?

इसके लिए हमें 1925 से लेकर अब तक का पूरा आरएसएस का सफर देखना पड़ेगा।  1925 वही वर्ष है जिस समय इनके एक कथित "वीर" ने एक संगठन बनाया था ।

विद्यार्थियों से लेकर बॉलीवुड , पत्रकारों,  लेखकों , सभी को देशभक्ति और देशद्रोही होने का सर्टिफिकेट अब तक बांटती आ रही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कि खुद की काली स्याही का इतिहास है । आरएसएस से कुछ बातें जरूर पूछने योग्य हैं ।
जैसे कि सावरकर को वीर क्यों कहा जाता है ?

आजीवन काला पानी की सजा होने के बाद भी सावरकर मात्र 10 साल में कैसे छूट गए ?
उन 22 चिट्ठियों का क्या जो सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगती हुई लिखी थी ?
या 1942 के बाद बंगाल में अंतरिम सरकार हिंदू महासभा के श्याम प्रसाद मुखर्जी ने किस दल  के सहयोग से बनाई थी ?
उस चिट्ठी का क्या जो श्याम प्रसाद मुखर्जी ने अंग्रेजों को लिखा था , और उसमें वादा किया गया था कि "वह भारत छोड़ो आंदोलन को कुचल देंगे " ?

सिर्फ भारत छोड़ो आंदोलन ही नहीं आजादी के उस समय हुए सारे आंदोलनों का आरएसएस और उनके लोगों ने विरोध किया नमक सत्याग्रह यानी दांडी मार्च भी उसी का एक उदाहरण है।

‘स्वतंत्रता सेनानी’ हेडगेवार आरएएस की स्थापना से पहले कांग्रेस के सदस्य हुआ करते थे। ख़िलाफ़त आंदोलन (1919-24) में उनकी भूमिका के कारण उन्हें गिरफ़्तार किया गया और उन्हें एक साल क़ैद की सज़ा सुनाई गई थी। आज़ादी की लड़ाई में यह उनकी आख़िरी भागीदारी थी। रिहा होने के ठीक बाद, सावरकर के हिंदुत्व के विचार से प्रभावित होकर हेडगेवार ने सितंबर, 1925 में आरएसएस की स्थापना की। अपनी स्थापना के बाद ब्रिटिश शासन के पूरे दौर में यह संगठन न सिर्फ़ उपनिवेशी ताक़तों का आज्ञाकारी बना रहा, बल्कि इसने भारत की आज़ादी के वास्ते किए जाने वाले जन-संघर्षों का हर दौर में विरोध किया।

आरएसएस द्वारा प्रकाशित की गई हेडगेवार की जीवनी के मुताबिक " जब गांधी ने 1930 में अपना नमक सत्याग्रह शुरू किया, तब उन्होंने (हेडगेवार ने) हर जगह यह सूचना भेजी कि "संघ इस सत्याग्रह में शामिल नहीं होगा।  हालांकि जो व्यक्तिगत तौर पर इसमें शामिल होना चाहते हैं,  उनको हम नहीं रोकेंगे "। इसका सीधा सीधा मतलब यह था कि संघ का कोई भी जिम्मेदार कार्यकर्ता इस आंदोलन में शामिल नहीं हो सकता था।

जब नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने देश के लोगो को आज़ाद हिंद फौज में शामिल करने का आवाहन किया तब ''वीर'' सावरकर ने ये वक्तव्य कहा ''‘जहां तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारत सरकार के युद्ध संबंधी प्रयासों में सहानुभूति पूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब तक यह हिंदू हितों के फ़ायदे में हो। हिंदुओं को बड़ी संख्या में थलसेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनाने वाले कारख़ानों वगै़रह में प्रवेश करना चाहिए। ग़ौरतलब है कि युद्ध में जापान के कूदने कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के हमलों के सीधे निशाने पर आ गए हैं।इसलिए हम चाहें या न चाहें, हमें युद्ध के क़हर से अपने परिवार और घर को बचाना है और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताक़त पहुंचा कर ही किया जा सकता है।इसलिए हिंदू महासभाइयों को ख़ासकर बंगाल और असम के प्रांतों में, जितना असरदार तरीक़े से संभव हो, हिंदुओं को अविलंब सेनाओं में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए।"

दरअसल, सावरकर भी हेडगेवार की तरह केवल जेल जाने तक राष्ट्रवादी रहे। ये वो समय था जब वे गिरफ्तार किए गए थे और उन्हें उम्र कैद की सज़ा हुई। जेल में करीब दस साल गुजारने के बाद, ब्रिटिश अधिकारियों ने उनके सामने सहयोगी बन जाने का प्रस्ताव रखा जिसे सावरकर ने स्वीकार कर लिया। जेल से बाहर आने के बाद सावरकर हिंदू सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने का काम करने लगे और एक ब्रिटिश एजेंट बन गए। वह ब्रिटिश नीति ‘बांटो और राजकरो’ को आगे बढ़ाने का काम करते थे।

यह एक बेहद हैरान कर देने वाली बात होती है की१९४८ में महात्मा गाँधी के हत्या के आरोप में नाथूराम गोडसे सहित कुल ८ आरोपी थे जिनमे से कथित वीर सावरकर भी एक थे , हलाकि उनके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं होने के कारन वो बरी हो गए ।

1910-11 तक वे क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल थे. वे पकड़े गए और 1911 में उन्हें अंडमान की कुख्यात जेल में डाल दिया गया। उन्हें 50 वर्षों की सज़ा हुई थी, लेकिन सज़ा शुरू होने के कुछ महीनों में ही उन्होंने अंग्रेज़ सरकार के समक्ष याचिका डाली कि उन्हें रिहा कर दिया जाए।इसके बाद उन्होंने कई याचिकाएं लगाईं।अपनी याचिका में उन्होंने अंग्रेज़ों से यह वादा किया कि -

"यदि मुझे छोड़ दिया जाए तो मैं भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेख़ुद को अलग कर लूंगा और ब्रिट्रिश सरकार के प्रतिअपनी वफ़ादारी निभाउंगा।" अंडमान जेल से छूटने के बाद उन्होंने यह वादा निभाया भी , और कभी किसी क्रांतिकारी गतिविधि में न शामिल हुए, न पकड़े गए।  वीडी सावरकर ने 1913 में एक याचिका दाख़िल कीजिस में उन्होंने अपने साथ हो रहे तमाम सलूक का ज़िक्र किया और अंत में लिखा-

"हुजूर, मैं आपको फिर से याद दिलाना चाहता हूं कि आप दयालुता दिखाते हुए सज़ा माफ़ी की मेरी 1911 में भेजी गई याचिका पर पुनर्विचार करें और इसे भारत सरकार को फॉरवर्ड करने कीअनुशंसा करें।भारतीय राजनीति के ताज़ा घटनाक्रमोंऔर सबको साथ लेकर चलने की सरकार की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते को एक बार फिर खोल दिया है।अब भारत और मानवता की भलाई चाहने वाला कोई भी व्यक्ति, अंधा होकर उन कांटों से भरी राहों पर नहींचलेगा, जैसा कि 1906-07 की नाउम्मीदी और उत्तेजना से भरे वातावरण ने हमें शांति और तरक्की के रास्ते से भटका दिया था।

हेडगेवार के बाद संघ की बागडोर संभालने वाले  गोलवलकर  जी ने एक घटना का उल्लेख किया जो आरएसएस नेतृत्व की भूमिका के बारे में काफी कुछ बताता है।

‘1930-31 में एक आंदोलन हुआ था। उस समय कई लोग डॉक्टरजी (हेडगेवार) के पास गए थे।इस प्रतिनिधिमंडल ने डॉक्टरजी से अनुरोध किया था कि यह आंदोलन देश को आजादी दिलाने वाला है, इसलिए संघ को इसमें पीछे नहीं रहना चाहिए। उस समय एक भद्र व्यक्ति ने डॉक्टरजी से कहा था कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं।इस पर डॉक्टरजी का जवाब था " ज़रूर जाइए, मगर आपके परिवार का तब ख़्याल कौन रखेगा?’।


उस भद्र व्यक्ति ने जवाब दिया: ‘मैंने न सिर्फ़ दो वर्षों तक परिवार चलाने के लिए ज़रूरी संसाधन जुटा लिए हैं, बल्कि मैंने इतना पैसा भी जमा कर लिया है कि ज़रूरत पड़ने पर ज़ुर्माना भरा जा सके’।

इस पर डॉक्टरजी ने उस व्यक्ति से कहा: ‘अगर तुमने संसाधन जुटा लिए हैं तो आओ संघ के लिए दो वर्षों तक काम करो’।घर लौट कर आने पर वह भद्र व्यक्ति न तो जेल गया, न ही वह संघ के लिए काम करने के लिए ही आया।"

ऐसा नहीं है कि हेडगेवार जी जेल नहीं गए,  लेकिन आजादी के आंदोलन में वह एक बार जेल गए ।लेकिन उनका जेल जाने का मकसद , सच्चे स्वतंत्रता सेनानियों के जेल जाने के मकसद से बेहद अलग था । यह बात खुद आरएसएस द्वारा प्रकाशित उनकी जीवनी ही बताती है , उसमें लिखा है "कि वह इस विश्वास के साथ जेल गए कि,  आजादी से मोहब्बत करने वाले अपनी कुर्बानी देने को तैयार प्रतिष्ठित लोगों के साथ रहते हुए , उनके साथ संघ के बारे में विचार-विमर्श करेंगे , और उन्हें संघ के लिए काम करने के लिए तैयार करेंगे।

भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होने के डेढ़ साल बाद, ब्रिटिश राज की बॉम्बे सरकार ने एक मेमो में बेहद संतुष्टि के साथ नोट किया कि ‘संघ ने पूरी ईमानदारी के साथ ख़ुद को क़ानून के दायरे में रखा है. ख़ासतौर पर अगस्त, 1942 में भड़की अशांति में यह शामिल नहीं हुआ है।"

लेकिन दांडी मार्च की ही तरह आरएसएस के कार्यकर्ता आंदोलन में शामिल होने से रोकने की अपने नेताओं की कोशिशों से काफ़ी हताश थे।
‘1942 में भी’ ।जैसा कि गोलवलकर ने लिखा “कार्यकताओं के दिलों में आंदोलन के प्रति गहरा जज़्बा था… न सिर्फ़ बाहरी लोग, बल्कि हमारे कई स्वयंसेवकों ने भी ऐसी बातें शुरू कर दी थीं कि संघ निकम्मे लोगों का संगठन है, उनकी बातें किसी काम की नहीं हैं। वे काफ़ी हताश भी हो गए थे।”

आरएसएस के लोगों का यही हाल आजादी के बाद भी चलता रहा । भारत की आजादी के उपलक्ष में आरएसएस के मुख्य पत्र "द ऑर्गनाइज़र" में एक संपादक में संघ ने भारत के झंडे का विरोध किया , और यह भी घोषणा की कि " हिंदू इस झंडे को कभी नहीं अपनाएंगे , और ना ही इसका सम्मान करेंगे "। और यही वजह है कि आजादी के बाद 52 सालों तक आरएसएस ने अपने मुख्यालय पर तिरंगा झंडा नहीं फहराया ।

देश के राष्ट्रपिता और आजादी के शीर्ष नायकों के सम्माननीय महात्मा गांधी की हत्या के बाद भी आरएसएस ने देश भर में जश्न मनाने का फैसला किया था । सरदार पटेल आरएसएस के नियत को भली-भांति जानते थे । और उन्होंने इसी वजह से संघ को प्रतिबंधित कर दिया । इसके साथ ही 4 फरवरी 1948 को एक सरकारी पत्राचार में उन्होंने स्पष्टीकरण दिया-

‘‘देश में सक्रिय नफ़रत और हिंसा की शक्तियों को, जो देश की आज़ादी को ख़तरे में डालने का काम कर रही हैं, जड़ से उखाड़ने के लिये भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ग़ैरक़ानूनी घोषित करने का फ़ैसला किया है। देश के कई हिस्सों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कई व्यक्ति हिंसा, आगजनी, लूटपाट, डकैती, हत्या आदि की घटनाओं में शामिल रहे हैं और उन्होंने अवैध हथियार तथा गोला-बारूद जमा कर रखा है।वे ऐसे पर्चे बांटते पकड़े गए हैं, जिनमें लोगों को आतंकी तरीक़े से बंदूक आदि जमा करने को कहा जा रहा है।

संघ की गतिविधियों से प्रभावित और प्रायोजित होनेवाले हिंसक पंथ ने कई लोगों को अपना शिकार बनाया है।उन्होंने गांधी जी, जिनका जीवन हमारे लिए अमूल्य था, को अपना सबसे नया शिकार बनाया है। इन परिस्थितियों में सरकार इस ज़िम्मेदारी से बंध गई है कि वह हिंसा को फिर से इतने ज़हरीले रूप में प्रकट होने से रोके।इस दिशा में पहले क़दम के तौर पर सरकार ने संघ को एक ग़ैरक़ानूनी संगठन घोषित करने का फ़ैसला किया है।’

नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे (जिसे गांधी की हत्या के लिए नाथूराम गोडसे के साथ ही सह-षड्यंत्रकारी के तौर पर गिरफ़्तार किया गया था और जिसे जेल की सज़ा हुई थी) ने जेल से छूटने के 30 वर्षों के बाद फ्रंटलाइन पत्रिका को दिए गए एक इंटरव्यू में कहा था कि नाथूराम गोडसे ने कभी भी आरएसएस नहीं छोड़ा था और इस संबंध में उसने अदालत के सामने झूठ बोला था। उसने कहा, ‘‘हम सभी भाई आरएसएस में थे। नाथूराम, दत्तात्रेय, मैं और गोविंद। आप ये कह सकते हैं कि हमारी परवरिश घर पर न होकर आरएसएस में हुई। यह हमारे लिए परिवार की तरह था। नाथूराम ने अपने बयान में कहा है कि उसने आरएसएस छोड़ दिया था। उसने ऐसा इसलिए कहा था क्योंकि गांधी की हत्या के बाद गोलवलकर और आरएसएस बड़े संकट में थे। लेकिन सच्चाई यही है कि उसने आरएसएस नहीं छोड़ा था।’ उसके परिवार के एक सदस्य द्वारा हाल ही में इकोनॉमिक्स टाइम्स को दिए हुए इंटरव्यू से भी इस बात की पुष्टि होती है।

इस बात के भी कई जगह सबूत मिले हैं कि इंदिरा गांधी के हत्या के बाद सिक्खों के खिलाफ जो दंगा भड़का था,  उसमें संघ के लोगों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया । राजीव गांधी बेहद ही सरल स्वभाव के थे,  और उसने ही हम्बल भी थे।
इसी बात का फायदा उठाते हुए संघ के लोगों ने अपना काम करना शुरू किया । हिंदू भावनाओं का प्रयोग करके उन्होंने राम जन्मभूमि विवाद को हवा दे दी ,और आंदोलन चला दिया । जिसमें पहले अटल बिहारी वाजपेई जी को आगे किया गया । और यह बात खुद गोविंदाचार्य जी ने अटल बिहारी वाजपेई को मुखोटा कह कर साबित किया । जिसकी वजह से उन्हें संघ से बाहर कर दिया गया , और आज तक वह संघ से बाहर ही हैं ।

दूसरी तरफ लालकृष्ण आडवाणी जी भी लोगों को हिंदू मुस्लिम के नाम पर उत्तेजित करते रहे ।उनके साथ मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती भी लगे हुए थे । और इन तीनों को आज उनके किए हुए कुकर्म की ही सजा मिल रही है , जो वह अपने ही बनाए हुए दल में दरकिनार कर दिए गए हैं । कल आडवाणी जी का माइक पकड़ने वाले लोग आज उनके नमस्ते का जवाब भी नही देते। और अगली बार शायद उनका टिकट भी काट दिया जाए।

हालांकि उस समय राजीव गांधी के पास इतनी ताकत थी,  कि वह संघ को कुचल सकते थे ।
और वह अगर ऐसा कर देते तो,  देश में आज हिंदू मुस्लिम की कोई समस्या नहीं रहती ।
हिंदू-मुस्लिम करने के सहारे ही भाजपा 2 सीट से 88 सीट सीट जीत गई और बी पी सिंह की सरकार ने समर्थन दिया । और उसी के बाद संघ के जगमोहन को कश्मीर में भेज दिया गया।  और उसके बाद का कश्मीर का हाल सबको मालूम है।
कि 1990 के बाद कश्मीर में जो हुआ वह आज तक चल रहा है।

  2004 के बाद यह सत्ता से बाहर हुए तो देश में इनका उत्पाद कुछ कम हुआ लेकिन 2014 के बाद जैसे ही यह सत्ता में आए और इनको सफलता मिली इन्होंने अपना पुराना धंधा फिर शुरू कर दिया । 2014 के बाद से देश में धार्मिक उन्माद धार्मिक ,मॉब लिंचिंग और भीड़ तंत्र पूरी तरह हावी है।  कहीं पर किसी को दलित होने के नाते पीट-पीट कर मार दिया जाता है , तो कहीं पर किसी को मुसलमान होने के नाते पीट-पीट कर मार दिया जाता है।

आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी अपने इसी एजेंडे पर काम करते हुए अभी तक देश के लोगों को मूर्ख बनाकर सत्ता हथियाई हुए है। तत्कालीन प्रधानमंत्री जोकि अपने आप को बहुत ही विद्वान समझते हैं वह तरह-तरह की रैलियों में जाकर तरह-तरह के भाषण देते हैं । उनकी रैलियों और उन के भाषणों में कहीं भी विकास,  देश के किसी बेसिक मुद्दे का कोई जिक्र नहीं होता।  जिक्र होता है तो सिर्फ धार्मिक उन्माद से भरी बातों का और मनगढंत जानकारियों का और झूठ से भरे हुए तथ्यों का , जो लोगो को व्यक्तिगत द्वेष और धार्मिक कट्टरता की तरफ धकेलता है। और ये द्वेष , कट्टरता इतनी अंधी होती है जिसमे दूसरो के दुख में लोगो को अपना सुख दिखने लगता है।

आरएसएस ने देश मे नफरत और हिंसा का जो माहौल सुरु से बनाया है वो अभी तक जस का तस चल रहा है


अब इन लोगों का इतना मन बढ़ गया है कि यह लोग खुद को सेना से भी बड़ा समझने लगे है। खैर गलतफहमी पालनी चाहिए कई बार यह अच्छा भी होता है । जैसे धीरूभाई अंबानी ने कहा था कि "सपने देखने चाहिए क्योंकि सपने किसी की जागीर नहीं होते" ।  लेकिन सपने देखने और मूर्खतापूर्ण गलतफहमी वाले ख्वाब देखने में बहुत अंतर होता है ।
मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि जितने भी हाफ पैंट वाले हैं इनमें से किसी को भी या सारे को अगर बॉर्डर पर खड़ा कर दिया जाए तो 1 घंटे के बाद ही इन लोगों की हाफ पैंट तक सही सलामत नहीं बचने वाली है । और यह लोग अपने आप को सेना से बड़ा बता रहे हैं ? अपने आप को सेना से ज्यादा अनुशासित बता रहे हैं?
सिर्फ डंडा लेकर हाफ़ चड्डी पहन कर और सुबह 10:00 मिनट की प्रार्थना करने से,  दिनभर हिंदू-मुस्लिम करने से अनुशासन नहीं आता है ।
अनुशासन आता है 24 घंटे की पेट्रोलिंग करके दिन , 1 साल की कठोर ट्रेनिंग करके, जिम्मेदारी लेकर, रात भर जागकर ठंड में रात गुजार कर , और देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा लेकर ।
खैर यह बातें समझदारों के समझ में आने वाली हैं संघी और हाफ पैंट वाले इन चीजों से परे हैं ।
"हिंदू खतरे में है हिंदू खतरे में है"  यह कहते-कहते इन हाफ पैंट वालों ने 90 साल गुजार दिए हैं ।
और हम अभी भी मूर्ख बनकर इन हाफ पैंट वालो की बातों में आ रहे हैं?
यह हमारी कायरता का ही नतीजा है कि एक आदमी मंच पर खड़े होकर सरेआम देश के सेना की बेइज्जती करता है । और कुछ निकम्मों की भीड़ को देश की सीमा से "श्रेष्ठ" बताता है ,देश की सेना से ज्यादा अनुशासित बताता है।


सचमुच मेरा देश बदल रहा है और यह देश इन्हीं जैसे गंदी सोच को मुबारक हो जो खुद को सेना से बड़ा समझते हैं


जय हिंद

बृजेश यदुवंशी

Comments

  1. Look what's their logic, shame on their nationalism.

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular Posts