मीडिया का हिन्दू-मुस्लिम

ट्विटर पर हरभजन सिंह का एक ट्वीट आया -
"50 लाख की आबादी वाला देश क्रोएशिया फीफा का फाइनल खेलेगा , और हम 125 करोड़ भारतवासी हिंदू मुस्लिम खेल रहे हैं ।"

हरभजन सिंह का यह ट्वीट दो लाइन का होते हुए भी अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है ।और भारत के नेताओं समेत भारत की मीडिया और भारत की जनता को उसका असली घिनौना चेहरा दिखाता है।

देश को हिंदू-मुस्लिम के हालात में पहुंचाने के लिए सबसे बड़ी जिम्मेदार मीडिया है । उसके बाद जिम्मेदार होते हैं हम भारतवासी , और हमारे बाद कहीं आते हैं नेता । जो भारत को हिंदू मुस्लिम के हालात में पहुंचाते हैं ।

जिस दिन हम भारतवासी ऐसे न्यूज़ चैनलों को देखना बंद कर दें , जिन पर हिंदू मुस्लिम के मुद्दे चलते हैं और नेताओं के हिंदू मुस्लिम बयान पर घंटों घंटे दस - दस लोगो का  पैनल बैठाकर डिबेट किया जाता है । उसी दिन यह चैनल हिंदू-मुस्लिम करना बंद कर देंगे ।

और जिस दिन चैनल हिंदू मुस्लिम की डिबेट करना बंद करेंगे , उसी दिन नेता ऐसे बयान देना बंद कर देंगे । और अपने दांत चियार कर  कहीं  बैठे  पत्ते खेलते हुए मिलेंगे ।

क्योंकि उन्हें फिर इन बयानों के आधार पर पब्लिसिटी मिलना बंद हो जाएगी। यह नेता ऐसे बयान सिर्फ पब्लिसिटी के लिए देते हैं ।जो टुच्चे नेता , जिनका कोई जमीनी स्तर पर संगठन नहीं होता।  वह पब्लिसिटी के लिए ऐसे बयान देते हैं । और मीडिया उन बयानों को लेकर घंटो- घंटे डिबेट कर उन नेताओं को हाइलाइट कर देती है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज भारत के लगभग सारे मीडिया हाउस सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के इशारों पर ही चल रहे हैं । और उन्हीं के मनमुताबिक खबरें दिखा रहे हैं । यह मीडिया हाउस और एक पत्रकार बिल्कुल ही सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय एवं जनसंपर्क अधिकारियों की तरह काम कर रहे हैं ।

जिस तरह जनसंपर्क अधिकारी सरकार की कमियों को छुपाकर सरकार की उपलब्धियों को दस गुना सौ गुना बढ़ा कर जनता को बताते हैं । वही काम यह पत्रकार और यह मीडिया हाउस कर रहे हैं ।

यह मीडिया हाउस यह क्यों भूल जाते हैं कि जवाबदेही देने का काम और जवाब देने की जिम्मेदारी सरकार पर होती है ना कि विपक्ष के नेताओं पर और पक्षी पार्टियों पर  ? फिर भी यह पत्रकार दिन-रात सिर्फ और सिर्फ विपक्ष को सवालों के घेरे में खड़ा रखते हैं । इन लोगों में इतनी हिम्मत नहीं है कि यह सत्ता को सवालों के घेरे में खड़ा रखें । और सत्ता इन्हीं मीडिया के माध्यम से धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिकता जैसी चीजों को देश के कोने-कोने में पहुंचा रहा है।

1928 में ही भगत सिंह जी ने नेताओ और मीडिया के इस काले रूप को उजागर किया था उन्होंने यह साफ-साफ कहा था-
"धर्मों ने इस देश का बेड़ा गर्क कर रखा है।  पता नहीं इस देश को धर्म के इस जंजाल से कब मुक्ति मिलेगी ? इस समय देश के सांप्रदायिक दंगों में सिर्फ दो लोगों का हाथ है,  एक हैं नेता और दूसरे हैं अखबार।  इस समय देश के नेताओं ने ऐसी लीद की हुई है कि चुप ही भली । सेेभी नेता धार्मिक और सांप्रदायिक कट्टरता की अंघंत में बह चले हैं । और दूसरे सज्जन है जो सांप्रदायिक दंगो को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं।  वह हैं हमारे अखबार।  पत्रकारिता का व्यवसाय जो किसी समय में बहुत ही ऊंचा समझा जाता था , वह आज बहुत ही गंदा हो चुका है । यही कारण है कि भारत की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं । और दिल में सवाल उठता है कि हमारे इस भारत का आखिर में बनेगा क्या ? " 

जो मीडिया साल के 365 दिन देश के नेता ,अधिकारी , प्रशासन  , संस्था  , स्कूल , यहां तक कि देश के लोगों के पीछे कैमरा-  माइक और प्रश्नों का एक पूरा पुलिंदा लेकर दौड़ती रहती है और मनचाहे प्रश्न पूछती है ।जो मीडिया व्यक्तिगत और पेशेवर जिंदगी के बीच का कभी कोई लिहाज नहीं करती है,  जो मीडिया प्रश्नों से आहत होकर अपना रोष दिखाने वाले पर बदसलूकी का इल्जाम लगाती है।  अपने मनमुताबिक जवाब ना देने पर पब्लिक इमेज खराब तक कर देती है ।

साल के एक दिन उस मीडिया के पीछे भी हमें कैमरा - माइक और प्रश्नों का पुलिंदा लेकर दौड़ना चाहिए । उस मीडिया से भी व्यक्तिगत और पेशेवर का लिहाज किए बिना सवाल पूछने चाहिए । जो साल भर सबसे जवाब लेता है उसे भी साल की किसी एक दिन सबको जवाब देना चाहिए ।

दंगो को भड़काने के लिए एक और शख्स जिम्मेदार है और वो है सोशल मीडिया।

आजादी के समय और उसके बाद ज्यादातर दंगे मन्दिर के पास गाय का मांस और मस्जिद के सामने सूअर का मांस फेंक कर कराए जाते थे। लेकिन अब सोशल मीडिया के पर कुछ भी लिखकर दंगा भड़काया जा सकता है। दंगा भड़काने के बाद दंगे की आग में घी भी सोशल मीडिया द्वारा ही डाला जाता है।

फोटोशॉप करके कहीं की घटना को कहीं का बताकर आसानी से लोगों की भवनाओं को भड़काने का काम सोशल मीडिया द्वारा किया जाता है।सोशल मीडिया पर जहां सबको बोलने की आज़ादी है, वहीं क्या बोलें और क्या नहीं बोलें को लेकर कोई नियम नहीं बनाया गया है। आज भारत में सोशल मीडिया अफवाहों का सबसे बड़ा गढ़ है।

फेसबुक हो या कोई और नेटवर्किंग साइट वहां आपको ऐसी-ऐसी सूचना सबूत के साथ मिल जायेंगी जो आज तक आपने कहीं पढ़ा नहीं होगा। सम्मानित लोगों को लेकर ऐसी-ऐसी कहानियां दिखेंगी, जिसपर आप आसानी से भरोसा कर सकते हैं। लेकिन उसका सच से कोई वास्ता नहीं होगा।सोशल मीडिया में सूचना और अफवाह में अंतर मिट गया है। अराजकता सोशल मीडिया की पहचान बनती जा रही है।

दिल्ली में कुछ दिनों पहले रोडरेज में एक डॉक्टर की मौत हो गयी। अचानक से अफवाह फैलाया गया कि मारने वाले सभी बांग्लादेशी मुसलमान हैं। रोडरेज को धार्मिक कलह का रूप दे, दंगा भडकाने की कोशिश की गई। दिल्ली पुलिस की एक अधिकारी को इस मामले पर ट्वीट करना पड़ा कि मारने वाले बांग्लादेशी नहीं हैं, तब जाकर मामला शांत हुआ।

एक बेहद ही अचरज भरा वाकया हर बार होता है । जब कहीं किसी इलाके में दंगा फैलता है,  तो सबसे पहले पुलिस उस इलाके की इंटरनेट सेवाएं बंद कर देती है । और कई बार फोन सेवाएं भी बंद कर दी जाती है।  हंसी तब आती है जब इतना सब कुछ बंद होने के बाद पुलिस अधिकारी या मंत्री ट्विटर और फेसबुक या एसएमएस के माध्यम से लोगों से शांति की अपील करते हैं।

मीडिया किसी भी व्यक्ति की जिंदगी को कैसे नर्क बना सकती है,  यह फिल्म संजू को देखकर कुछ कुछ समझा जा सकता है । और इसी फिल्म का एक गाना " बाबा बोलता है अभी बस हो गया " मीडिया के असली चरित्र को चरितार्थ करता है। सूत्रों के नाम पर खुलेआम गुंडागर्दी , अनाप सनाप लिख कर उसके आगे एक्सप्लेनेशन मार्क या क्वेश्चन मार्क लगा देने वाला ट्रेंड चल था है।

हम अभी उस दौर में पहुंचे हैं जहां पर मीडिया जितनी एडवांस हो रही है वह उतनी ही बड़ी फेक और मनगढ़ंत  खबरों की प्लेटफार्म बनती जा रही है । पहले जब प्रिंट मीडिया थी तो अफवाह खबरों की थोड़ी कमी जरूर थी । फिर इलेक्ट्रिक मीडिया आने पर ये इजाफा बढ़ गया । और आजकल पोर्टल न्यूज़ चल रहे हैं। जिस पर ज्यादातर फेक खबरें ही होती हैं ।
यह फेक खबरें जल्दी-जल्दी , सुपर फास्ट , सबसे तेज,  ब्रेकिंग न्यूज़ , और सबसे पहले कवरेज के चक्कर में बनती हैं ।

"कौन सबसे पहले दिखाता है " रेस इस बात की चल रही है।  जबकि रेस ये चलनी चाहिए कि कौन कितना सही दिखा रहा है । लेकिन मीडिया को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता ।
क्योंकि शायद जिस दिन वह दिखाने लगेंगे कि कौन कितना सही दिखा रहा है , उनकी टीआरपी का खेल खत्म हो जाएगा। 

भारत के 70% मीडिया चैनल उसी दिन बंद हो जाएंगे,  जिस दिन भारत सरकार ने फेक न्यूज के खिलाफ कोई कानून बना दिया।  लेकिन भारत सरकार या सत्ताधारी माननीय मोदी जी ऐसा नहीं करेंगे,  क्योंकि उनकी दुकान और सत्ता का उनका सपना इन्हीं फेक न्यूज़ और न्यूज़ के प्रचारकों के दम पर चल रहा है । मीडिया का मीडियापन तभी बरकरार रह सकता है,  जब तक उसमें कारपोरेट और राजनेताओं की एंट्री ना हो ।

कारपोरेट में सब कुछ प्रॉफिट और लॉस के हिसाब से एडजस्ट कर रखा है।  सारे मीडिया हाउसेस टीआरपी की रेस में अंधाधुंध दौड़ रहे हैं।एक या दो चैनल छोड़कर के (जो सामाजिक और बेसिक मुद्दों की बातें करते हैं) सारे चैनलों पर दिन-रात टीआरपी की होड़ लगी है । और इस टीआरपी के खेल को सबसे ज्यादा बढ़ावा हिंदू मुस्लिम से मिलता है । जितनी ज्यादा हिंदू-मुस्लिम होगा , उतना ही ज्यादा टीआरपी मिलेगी ।

सभी चैनलों पर दिन रात चार पांच वाहियात लोगों को बैठाकर के "  किस नेता ने हिंदुओं के खिलाफ बयान दिया" !  "किस नेता ने मुसलमानों खिलाफ बयान दिया"!  "कौन सी पार्टी किस धर्म की है"!  इस पर डिस्कस किया जाता है।  तो देश में ऐसा माहौल बनेगा ही हिंदू मुस्लिम भावनाएं और ज्यादा उग्र होंगी । और लोग एक दूसरे को देख कर ही मारने काटने की भावना लाने लगेंगे।  देश के इस बिगड़ते हुए हालात और इस घटिया स्तर के सांप्रदायिक राजनीति की सबसे बड़ी जिम्मेदार भारतीय मीडिया ही है ।

यह वही भारतीय मीडिया है जिसकी विश्व में विश्वसनीयता 198 नंबर पर है । जिसके 90 प्रतिशत से भी अधिक पत्रकारो के बिके होने की खबरें उड़ती रहती हैं । और यही भारतीय मीडिया जिस के शेयर होल्डर्स और स्पॉन्सर राजनीतिक दल और नेता हैं।

जय हिंद

बृजेश यदुवंशी

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