पहली मोहब्बत अब तक
एक मुद्दत से मेरे गले पड़ी है ये आफत अब तक
नए कलेवर में आती रही पुरानी चाहत अब तक
की कैसे कोई सूरत बसा लें हम अपनी आंखों में
जहन से उतरी नहीं है पहली मोहब्बत अब तक
खुद की तलब से भर डाले ये सारे मयखाने मैंने
किसी साकी ने ना उठाई ये जहमत अब तक
शरारों को ताखे में रखने का शौक पाले हुए है
अपना घर फूंकने की गई नहीं आदत अब तक
निभा डाली हमने क़ता-ए-ताल्लुक़ की सब रस्में
पर दिल से गई ना उन्हें पाने की हसरत अब तक
हजारों ख्वाहिशों की हजारों कुर्बत अब तक
नसीब में आई नहीं हमारी कोई राहत अब तक
कभी घर फूंका,तो कभी मोहल्ला,तो कभी शहर
जाने क्या क्या कराती आई है ये चाहत अब तक

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